माचु बुआ और महेष्वरी S Bhagyam Sharma द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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माचु बुआ और महेष्वरी

तमिल कहानी लेखिका शांता बाल गोपाल

अनुवाद एस.भाग्यम शर्मा

जेठ का माह खतम हुआ। वरूण देवता ने पानी के छीटे मार उसे विदा कर दिया। फूल-पत्ते ठण्डक पाकर सिर हिला रहें थे। ऐसा लग रहा था कि पेड़-पत्त्ते नहा धोकर, सुन्दर, साफ व मौन नजर आ रहे थे। शारदा सत्तर साल की बुजुर्ग महिला है पर क्या इतनी रूचि लेकर प्रकृति को देखने का मन सभी को मिल सकता है?

‘‘अम्मा!’’ महेष्वरी आवाज देती हुई आई। ‘‘आज औरतो की उन्नति के बारें में एक विचार गोष्ठी का आयोजन है। दस बजे शुरू होगी। राजम मामी को मैंने खाना बनाने को कह दिया। मुझे आने में देर होगी। तुम खाना खा लेना। बेकार इन्तजार मत करना।’’

शारदा ने सामने खड़ी बेटी महेष्वरी को निहारा। क्लफ लगी हुई बंगाल की साडी उसी रंग का ब्लाडज, एक हाथ में चूडियां दूसरे हाथ में घड़ी, गले में पतली सी सोने की जंजीर, माथे पर छोटी सी बिंदी। उसकी सूनी मांग देखकर शारदा को अजीब सी बेदना होती थी।

‘‘हाँ...जा! सम्भल कर जाना!’’

कार को स्टोर्ट कर जाने की आवाज आई। शारदा की इकलौती बेटी है महेष्वरी। बुआ महालक्ष्मी को ध्यान में रखकर ही इसका नाम महेष्वरी रखा। महेष्वरी पचपन साल की होने वाली है। कालेज में प्रोफेसर थी, उभी थोडे दिनों पहलें ही वालिंटरी रिटायरमेन्ट ले ली। तीस साल की उम्र में पति का साथ छूट जाने पर अकेले रह गई। बेटा विष्णु का ही साथ है। विष्णु पढ़ने में बहुत ही होषियार हे। बी.ई., एम.बी.ए. कर उसे अमेरिका की बडी कम्पनी में नौकरी मिली। ‘‘अपनी इस योग्यता के कारण ही अमेरिका में हम लोगो की इतनी कीमत है नानी।’’ वह बोला।

शारदा का दिल बहुत परेषान हुआ।

‘‘क्यों नानी, जब चाहों फोन मारो, बीस घण्टे में आपके सामने खड़ा हो जाऊँगा।’’

महेष्वरी कुछ नहीं बोली। छोड़ों माँ! सबका अपना-अपना जीवन है।’’ उसने कह दिया।

शुरू में तो विष्णु हर साल आता था। अब शादी के बाद अमेरिका में ही बस गया या यों कहो रम गया। महेष्वरी ने पढ़ने, लिखने, समाज की सेवा आदि कार्यो में अपने आप को खपा लिया।

पता नहीं क्यों शारदा को आज माचु बुआ को याद आये जा रही है। बुआ महालक्ष्मी, महालक्ष्मी जैसे ही लगती थी। वह बारह साल तक ऐसी ही रहीं। उनकी शादी ग्यारह साल की उम्र में हुई। महालक्ष्मी बुआ की शादी शुदा जिदंगी शुरू होने के पहले ही खतम हो गई। उनके महा लक्ष्मी नाम को भूल गया पूरा गांव व सभी के लिये वे माचु बुआ हो गई।

जैसे ही वह प्रथम बार स्जस्वला हुई, उनके बालों को काट उनका मुण्डन कर दिया गया। उन्हें ब्लाउज पहनना छोडना पड़ा। ब्लाउज पहनना क्यों छोड़ना पडा ये बात शारदा को आजतक समझ में नहीं आया। सफेद साड़ी पूरे माथे पर भभूति, हाथ, कान, नाक, सब खाली। युवा अवस्था में जब जवानी कली से फूल बनी उस समय ही उन्हें सारी इच्छाओं को मारकर एक कोने में पड़ी रहना पडा। जिसने बुआ को पैदा किया उसका पेट जल रहा था। उस समय दादी के मुहँ से जो गालियां डांट... सुन ऐसा लगता उनके लिये नरक ओर कहीं नहीं यही है।

सोलह साल की छोटी उम्र में ही बडे़ साहस के साथ हाथ में कढ़ची उठा ली। माचु के बाद तो उनकी दो छोटी बहनें भी थी। तीसरी लड़की यानि माचु की दूसरी छोटी बहन हुई तब माचु की अम्मा को अजवाईन का काढ़ा व सोठ आदि स्वयं माचु ने ही बना कर दी। उसके बडे़ भाई की शादी हो गई उसका परिवार बड़ा था। बहनों को बड़ी कर शादी कर उनके बच्चें, उनके पोते पोती ऐसा परिवार रूपी वृक्ष अपनी शाखाओं के साथ फलता-फूलता रहा। किसी भी समय किसी तरह की अपनी भावनाओं को, अपनी मनोदषा को उन्होने प्रगट नहीं किया। ‘षिवा.... रामा’ कह भगवान के पास बैठने के लिये भी उनके पास समय नहीं था।

‘‘षादी के लिये जो नए कपड़े लाये हैं उन्हें पहले अन्दर रखो! सभी की आँखें एक सी नहीं होती। नजर लग जाय।’’

‘‘पेट को दिखाती-हुई माचु के सामने खड़े मत रह उसकी आँखे खराब है।’’

ऐसी बातों को सुन सुन कर मन सुन्न हो गया। प्रसव के कमरे में प्रसव देखती आया जन माधु को मदद के लिये बुलाती तो दूसरे ही कहते ‘‘इसने कौन से बाल-बच्चे देखे है? ये क्या करेगी? ऐसा कह कर उसकी नकल उतारते।

जब दादी के पैर की हड्डी, टूटी व जब भाभी के कमर ही हड्डी टूट गई थी तब भी माचु बुआ ही दौड दौड़ कर सारा काम तो करती ही थी उन्हें भी पूरा-पूरा सम्भालती थी। वे न केवल रिष्तेदारों की अडोसी-पडोसी व गाँव वालो की भी मदद करती थी।

मन्दिर के जो महन्त कहते ‘‘बुआ! आज प्रसाद बनाने वाला सेवक माधू नहीं आया। थोडा शुद्धता व पवित्रता से भगवान के लिए प्रसाद बना देगी?’’ वे ऐसा अधिकार व अपनत्व से कहते। माचु बुआ तो कहने के आधा घण्टे में ही प्रसाद पोगंल बना देती जिसका खुषबु मन्दिर के प्रागंण में फैल जाती।

नौकरानी पोन्नमा के लड़की का प्रसव था। वह परेषान होकर माचु बुआ के पैरों गिरी। पौत्रता का घर ढूढकर बुआ वहां जाकर शुभ प्रसव करवाकर अन्दर आई तो उन्हें देख बड़े भैया उसे घूरते हुए गुस्सा होते। वे कहती ‘‘पैदा होने में मरने में कोई जात मत देखो भैया।’’ फिर घूम कर कुएँ तक चली जाती। गाँव वालो की व अपने रिष्तेदारों की सेवा करने में ही माचु बुआ की इच्छाएँ व भावनाए सब खतम हो गई।

बुआ सत्तर साल की थी तब उसके ससुराल से उनके पोते या पड़पोता या पता नहीं कौन था वह बोला कि परिवार की प्रापर्टी के बेचने से उनका हिस्सा 5000 रू. आया है वह उन्हें दे गया। बुआ ने मना नहीं किया चुपचाप ले लिया।

बुआ ने उन पैसों को भैया को दिया व बोली ‘‘मेेरे साथ आधा दिन भी नहीं जिये उस आदमी के लिये साठ साल से श्रार्द्ध कर रहे हो भैया। उसका खर्चा तो तुमनेे ही तो किया था ना भैया। अतः तुम इसे रखो। मेरा संस्कार भी कर देना। पाप-पुण्य, अच्छा-बुरा बिना किसी के ये जन्म खतम हो गया। मेरा दूसरा जन्म नहीं है। मेरे जाने के बाद मेरे लिए कुछ भी काम करने की जरूरत नहीं।’’ बुआ की बातें भले ही उस समय शारदा को समझ में न आई हो, पर बाबूजी उन्हें सुन बहुत रोये। ये बात शारदा को याद आई। ये सारी कहानिया अम्मा व दादी के मुहँ से हमने बार-बार सुनी।

शारदां ने बुआ को ज्यादा देखा नहीं पर इस बुढ़ापे में भी बुआ सुन्दर थी। अपनी तपस्या व अपनी सेवा से पूरे गांव को बांध रखा। उनका शान्त स्वभाव उसमें एक दैविक शक्ति व स्वरूप था। उनका वो स्वरूप आज भी शारदा के मन मे निर्मलता व श्रद्धा से जमा हुआ है। छोटी उम्र में सफेद साड़ी पहन संसार के क्रिया कलाप को छोड़ एक अलग जीवन जीकर महात्मा जैसे शुद्ध पवित्र, जीवन, तथा दुनियां के सुख-दुख में भाग लेकर अपनी भावनाओं पर काबू प्राप्त कर जीत कर दूसरो के उपकार करने के लिये जीने वाली माचु बुआ का जीवन किस तरह से कमतर है?

शारदा के पिता जी को जब पड़पौता हुआ तब ‘कनका अभिषेक’ (सोने की सीढी चढ़ना जैसे उत्सव) हुआ तब पेड की शाखाए व फल फूल जैसे पूरा कुटुम्ब ही उसमें शामिल होने आया था। उसके दूसरे दिन ही ‘‘भाभी थोड़ा सा पानी ले आओ ना।’’ माचु बुआ का पहली बार भाभी से ऐसा कहना उन्हें पहेली सा लगा। पानी लेकर चरित्र खतम हो गया।

बहर घण्टी बजी! अपने पुराने यादों के ख्यालों से बाहर आकर शारदा ने दरवाजा खोला।

‘‘माता जी कोरियर है ले लो।’’

महेष्वरी की प्रषंसा कर, उसकी समाज सेवा के लिए उसे‘ सेवा श्री’ की उपाधी से सममानित करने वाले है उसी के लिये ये पत्र आया था।

शारदा के मन ने माचु बुआ व महेष्वरी को एक तराजू में तोला तो बराबर ही पाया।

वैध्वय ने महेष्वरी को एक कोने में नहीं धकेला। कोल्हू के बैल जैसे उसे काम करने को मजबूर नहीं किया। माचु बुआ से लेकर महेष्वरी तक महिलाओं ने बहुत लम्बी दूरी तय की है। जो सुधरात्मक समाज की नजर, षिक्षा, आर्थिक संरक्षण, समाज की नई मान्यताओं को अपना कर महिलाओं को उन्नति के उच्चतम षिखर तक उनको बहुत दूर तक ले जायेगा। माचु बुआ एक तरह से कर्मयोगी हुई तो महेष्वरी भी निष्चित रूप से एक कर्मयोगी ही है। ये सोच शारदा ने एक दीर्घश्वास छोडा महेष्वरी के स्वागत करने के लिये खीर बनाने को राजम मामी को ढूढंने जाने लगी।

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तमिल कहानी लेखिका शांता बाल गोपाल 

अनुवाद एस.भाग्यम शर्मा

नोटः- लेखिका से अनुमति ले ली गई।

09351646385