ग्रहण देवता S Bhagyam Sharma द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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ग्रहण देवता

तमिल कहानी ई जयमणी

अनुवाद एस. भाग्यम शर्मा

जैसे ही वह पैदा हुई वैसे एक आश्चर्य भी साथ में था। गर्भ से निकले सभी बच्चे का कुछ दिनों तक सफेद ही होना साधारण सी बात है। परन्तु कई दिन होने पर भी बच्ची का रंग एक दम सफेद ही था। पूरा सफेद... सिर के बाल तांबे के रंग के थे। डाक्टर सहाब को मिठाई का डिब्बा पान सुपारी, के साथ जब दिया, तो वे लेकर कुर्सी में बैठी।

उसी समय वे बोली ‘‘देखिये मेलानिन पिगमेन्ट की कमी के कारण आपकी बच्ची का रंग सफेद हैं हजार में एक बच्चा ऐसा पैदा होता है। जिसकी आँख की रोशनी भी कम होती है तथा दिमाग भी कई बार प्रभावित हो सकता हैं ये बच्चे कई सालों जीते भी है। ये आपकी बच्ची साधारण दूसरे प्रकार की बच्चियेंा जैसे नहीं है। ये प्रकृति की लीला है....प्रसन्नता से इसे स्वीकार कीजियेगा। ’’

उस बच्ची की माँ गायत्री व पिता भास्कर बच्ची को घर ले आये।

उस बच्ची का रंग मोगरे के फूल के समान सफेद था अतः उसका नाम जैस्मिन रखा।

गांव में रहने वाले वे रिश्तेदार जैस्मिन को एकद्म से स्वीकार न कर पाये। अतः वे आश्चर्य से उसे देखते थे। दूसरे गाँव मे रहने वाली गायत्री की अम्मा तो लगातार ही कुछ न कुछ बोलती ही रहती थी।

गायत्री जब बच्ची को अपना दूध पिलाती उस समय कहती ‘‘जब बच्ची मां का दूध पी ले तो तुरन्त उसके ओठ को दबा कर पोछना चाहिये वरना ओठ काले पड जायेगे ऐसा कहते है। पर इसका ओठ को मत पोछो देखो काला होता क्या? क्या करें ये तो सब जगह से ही सफेद है। मैने तो पहले ही कहा था‘‘ बोल फिर दूसरी बात और शुरू कर देतीं। दूसरी बात तो और भी विचित्र थी।

‘‘हर गर्भवती महिला को अपने गर्भकाल में एक ग्रहण का जरूर सामना करना पड़ता हैं उस ग्रहण के दौरान उसे सब्जी नहीं काटनी चाहिये उसे चोट नहीं लगनी चाहिये। न ही उसे चन्द्रमा को देखना चाहिये ग्रहण काल के खत्म होने के बाद ही उसे स्नान कर फिर ही उसे खाना खाना चाहिये। ऐसा न करने वालो को ही विचित्र व भिन्न प्रकार के बच्चें ही पैदा होते है। आजकल की गधी लड़कियाँ सुनती है क्या? मैने तो तुझे कितना समझाया तूने सुना ही नहीं गायत्री, बेवकूफ लड़की! अब भुगतो ..’’ ऐसा वे गायत्री को डांटती।

वे जो कह रही थी व सही है या कल्पना पर आधारित पता नहीं है। परन्तु जब आकाश पर ग्रहण होता तो वैज्ञानिक भी सुरक्षा के लिये कुछ हिदायते तो देते ही है।

गायत्री के जब गर्भ ठहरा, उस के कुछ दिनों बाद ही ग्रहण आया था परन्तु उसने कोई ध्यान नहीं दिया ये बात सच है। पर इसी कारण मेलानिल की कमी के कारण ल्यूकोडर्मा वाली बच्ची हुई उसे ऐसा नहीं लगता।

गायत्री की अम्मा तो यह कहती ही रहती है उनका मुंह बंद ही नही होता। पर इससे यें हुआ गाँव की औरते गर्भ काल में ग्रहण से सतर्क रहने लगी।

जैस्मिन बड़ी होने लगी। लड़कियों में जो नजाकत व नफासत होती है उसमें उसका अभाव था। शरीर में उसके बाल चमकते थे। उसके नाखून पीले रक्तहीन दिखाई देते थे। उसके बोलने में भी स्पष्टता का अभाव था।

कुछ बडंे लोगों को भी बच्चों के सामने कैसे बोलना चाहिये पता नहीं होता। जैस्मिन जब नहा कर आती तो ‘‘इसकी तो चमडी उतार दिया हो ऐसी लगती है। एकदम सफेद ... कल कौन इससे शादी करेगा?.... वह इसे कैसे छुऐगा?’’

इस तरह की बातें सुन जैस्मिन से ज्यादा गायत्री को बुरा लगता। उसे ऐसा दर्द होता जैसे बछडे के घाव को कौवा नोचता है तो उसे होता है।

गांव के पाठशाला में ही वह तीसरी कक्षा में पढ़ रही थी। पढ़ने में बहुत होशियार थी। मोटे मोटे, सुन्दर सुन्दर अक्षर लिखती। गायत्री को भी वह घर के काम-काज में भी सहायता करती थीं।

पुदीना, सेवई का उपमा, चपाती उसके प्रिय व्यंजन थे।

रोजाना शाम के समय गली के सामने ही एक बडा इमली का पेड़ था वहां गांव के सारे बच्चे मिलकर वहां खेलते थे।

जैस्मिन भी दौड़ कर जाकर उनके खेल में शामिल होती थी।

आकाश में जैसे ही तारे टिमटिमाने लगते, इमली के फूल खिले हुए पेड पर चिडियाएं किच-किंच की आवाज करती व नीचे बच्चे आवाज करते दोनो मिलकर बहुत ही कोलाहल होता।

गायत्री, घर की खिड़की में से बच्चों को खेलते देखती तो उसे इतने बच्चो के बीच जैस्मिन अलग ही दिखाई देती।

रात खाना खाने के बाद, खेलने से थके पैरों को अपने गोदी में लेकर भास्कर उन सफेद कोमल पैरों के उगलियों में बड़े शौक से मेंहदी लगाता था।

गांव मे एंक देवी का मन्दिर था वहां वार्षिक उत्सव था। इस अवसर पर पूरे गांव में शामियाना लगाया गया व चारों तरफ आम व अशोक के पत्तों से तोरण द्वार बनाये गये। पूरे शहर में लोग उत्सव में शामिल होकर धूमधाम से मनाते थे। रात को बछडों की बली चढ़ाते।

उसके बाद उन्हें काट कर टुकडे कर बडे-बडे बर्तनों मे पकाते फिर उसे चावल में मिलाकर मन्दिर के सामने फेंकते व पकडो पकडो चिल्लाते। उसके बाद मन्दिर के पास जो तालाब था इसके किनारे बैठ कर सब लोग बांट कर प्रसादी खाते।

परन्तु इन सब में भास्कर शामिल नहीं होता । मूक जानवरों को मारना उसें पंसद नहीं। हिंसा से उसे नफरत थी। इसलिये भास्कर, गायत्री व जैस्मिन तीनों भीड से अलग बैठ पोगंल, फल व मिठाई खाते। इसके कारण इस परिवार को लोग श्रद्धा से देखते थे।

सभी गांव मे ंएक आदमी तो सहृदय होता ही है। जब गांव मे ंएक बार पानी की बेहद कमी आई तो भास्कर ने सरकार को अनेको पत्र लिखे व जाकर मिलकर, बहुत मेहनत कर पानी की टंकी गांव मे ंबनवाई।

वहां के नेता उसमें भी बहुत सा पैसा खा गये थे वह अलग बात है।

आज पूरे गाँव में भास्कर के कारण ही खूब पानी आ रहा है। भास्कर का मन बहुत साफ व निर्मल है। व दूसरो को कष्ट में नहीं देख सकता।

उस दिन शाम का समय था। सभी बच्चे इमली के पेड़ के नीचे खेल रहें थे। आकाश में काले-काले बादल छाये हुए थे। पहले कुछ बूदां बांदी हुई फिर तेज वर्षा होने लगी। बच्चें घर की ओर दौडने लगे। वहां पर कीचड था उस पर इमली के फूल गिरे हुये थे। तो बच्चे कीचड़ से सने पैरों से दौड़कर घर भागने लगे। जैस्मिन भी भागने लगी तो उत्तर दिशा से आ रहे एक दूध के वेन से टकराई व गुड्डियां जैसे ऊपर उछल कर नीचे आ गिरी। घनघोर वर्षा होने लगी व कीचड में रक्त बह रहा था। भास्कर, गायत्री, और अन्य लोग खबर मिलते ही दौड़कर आये।

गांव मे ंही रहने वाला एक आदमी अपनी गाडी ले आया व जैस्मिन को उठाकर गाड़ी में रख कर सब अस्पताल की ओर खाना हुए। दो दिन कोमा मे रहकर जैस्मिन दुनिया छोड़ गई।

भास्कर व गायत्री अपना माथा ठोंक-ठांक कर बहुत रोए।

शास्त्र के मुताबित जो भी कार्यक्रम थे सब सम्पन हुए।

जैस्मिन की पुस्तिकें, खिलौने, तरह-तरह के जूते चप्पले, कपड़े, पोदिना के पौधे, मेहंदी के पेड की कोमल पत्तियों आदि वेदना वशं सब मुरझाये नजर आते थे।

उसके माता-पिता इस समय ठण्डी हवा में छोटी सी जान कहां चली गई सेाच कर तडप जाते व कांपने लगते। उनका दिल बैठने लगता।

इस दुख में संवेदना प्रगट करने आये लोग धीरे-धीरे वापस जाने शुरू हो गये। ‘‘चली गई। वो अच्छा ही हुआ। उसे भी कष्ट था। व मेरी बेटी को भी तकलीफ थीं’’ गायत्री की अम्मा ही बोल रही थी। बहुत से नजदीकी रिश्तेदार भी पास में आकर तसल्ली दें रहें थे। उसमें से एक ने कहा ‘‘भास्कर ... हम कुछ कहे तो तुम बुरा मत मानना ...’’ फिर आगे कहने लगे ‘‘चली गई जाने दो। इतने दिनों तक इस बच्ची को लोग आश्चर्य की वस्तु जैसे देखते, उसके लिए दया दिखाते इसे भूल नही सकते। कुछ लोगों ने तो उसका मजाक भी उड़ाया होगा। बेचारी कह उसे दयनीय अवस्था में देखना एक हृदयहीन अनुभव ही था। किसी अच्छे बुरे काम से आप कहीं गए होगे तो वहां पूछताछ से आपको धर्म संकट में डाला होगा। आपका दिल अन्दर ही अन्दर बहुत दुखी हुआ होगा...... आगे भी यहीं होता।’’ फिर कहने लगे ‘‘कल ये बच्ची बडी होती तो क्या इसे नार्मल जिंदगी नसीब होती? इसे किसी के हाथों में कैसे सौपंते। पैसो के आधार पर किसी लड़के को भले ही पकड लेते, पर पैसा के कारण आने वाले से क्या फायदा होता? ये काल की मार ही थी। इन बातो को सोचे बिना नहीं रह सकते। यही यथार्थ है.... आधे में आई आधे मे गई सोच सभी को भूल जाओ... दूसरे अच्छे बच्चे को जन्म दो व खुश रहो... यहीं ठीक रहेगा... ठीक है’’ कह खाना हुए।

ये सिर्फ रिश्तेदारों की ही नहीं पूरे गांव की सोच थी।

इतने दिनों भास्कर व गायत्री को जो कमी व जो दुख था वह खत्म हो गया। ऐसा गाँव वाले सोच रहें लोगों को, एक बड़ा आश्चर्य उनके लिए इन्तजार कर रहा था।

कुछ महीनों बाद फिर इनके घर सफेद रंग की ल्यूकोडर्मी की बच्ची चलते फिरते नजर आई। आश्चर्य में पडे़ लोग घर जाकर मालूम करने गए।

मुस्करातें हुये उनका स्वागत करते हुए भास्कर व गायत्री बोले- ‘‘आपने भले ही जैस्मिन में कोई कमी देखी हो पर हमने तो उसे प्रकृति का दिया जादूई वरदान ही सोचा थां। अब उसके वियोग को हम सह नहीं पर रहें थे। कल ही जैस्मिन का जन्म दिन होने के कारण एक अनाथाश्रम में हमेशा की तरह खाना देने गये। वहां ल्यूकोडर्मा से पीड़ित एक बच्ची को देखा... जैस्मिन की याद में इस बच्ची को पालेगंे, सोच कर साथ लेकर आ गये।’’ कहकर गायत्री उस लड़की को प्यार से हाथ फेरने लगी। ग्रामवासी उस दम्पत्ति के उच्च विचारों को देख आश्चर्य में चकित रह गये।

उसी समय अन्दर जाकर बाहर आये भास्कर के हाथ मे मिठाईयां थी।

‘‘लीजियेगा मुँह मीठा करो...’’

यह मीठा सिर्फ मुँह को नहीं उनके दिल को भी मीठा कर गया।

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तमिल कहानी ई जयमणी 

अनुवाद, एस. भाग्यम शर्मा 

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