मूल कहानी तमिल में ‘मीना सुन्दर’ ने लिखी है
हिन्दी अनुवाद एस. भाग्यम शर्मा ने किया है।
सुबह हो चुकी। चेंगम्मा अपने घर के सामने गोबर व पानी छिड़क कर साफ कर रंगोली बनाई। तालाब पर जाकर धनपाल वापस आ गया।
एक कटोरी में बासी चावलों पर छोटी कैरी का अचार रख दिया। उसे खाकर धनपाल हाथ में गन्ना काटने का हंसिया लेकर रवाना हुआ।
धनपाल व चेंगम्मा की शादी हुए पांच साल हो गए, लेकिन इतने अल्पकाल में तीन बच्चे एक के बाद एक पैदा हो गये। वह मन व शरीर दोनों से परेशान हो गई। यही नहीं तीन लड़कियों के पैदा होने से बहुत दुःखी हुई चेंगम्मा।
ये सब उसे परेशानियां थीं, तो भी इन तीनों के बाद, एक बच्चा पैदा हुआ। वह लड़का होने से घर वाले सब बहुत खुश हुए। उन्होंने सोचा अब हमें बच्चा नहीं चाहिये इसलिये उसका उपाय भी कर लिया।
लड़के का नाम कुमारवेलु रखा। उसे लाड़-प्यार से पाला और पढ़ने भी भेजा।
उस गांव में आठवी तक पढ़ने के लिये साधारण स्तर की पाठशाला थी। वहीं वह पढ़ने गया। स्कूल जाने के बाद बाकी के समय, वहां के गली के मोड़ बाद एक नई बस्ती शुरू होती थी। वहीं एक इंजीनियर के घर पर खेलने जाता था।
इंजीनियर दम्पत्ति को बच्चों की बहुत लालसा थी क्योंकि उसकी शादी हुए पांच साल हो गये थे पर उनके बच्चे नहीं हुए थे।
उन दोनों को कुमारबेल बहुत अच्छा लगता था। अपने बच्चे न होने की लालसा के कारण उसे वह अपना ही बच्चा समझने लगे थे।
इसलिए उसे शहर ले जाकर उसकी पसंद के खिलौने दिलाए। कम्प्यूटर में गेम खेलना सिखाया। वे मन्दिर, दुकान सिनेमा जहां भी जाते थे उसे साथ लेकर जाते थे। वह भी उनके साथ प्यार से रहता था। यहां तक कि रास्ते में जो मिलता वह पूछता ‘‘साहब... आपका बेटा है क्या?
इस प्रकार प्यार-प्रेम अपनत्व के बढ़ते जाने पर उन्हें लग कि इस बच्चें को हम क्यों न गोद ले लें। अम्बिका को इस तरह की इच्छा होने लगी।
एक दिन कम्प्यूटर में गेम खेल रहे कुमारवेलू से ‘‘कुमारवेलू तुम्हें ये घर पसंद है?’’ अम्बिका ने पूछा।
‘‘हां.. पसंद है...’’
‘‘फिर यहीं रहोगे?’’
‘‘यहीं तो रहता हूं...’’
‘‘हमेशा यहीं रहोगे?’’
‘‘घर नहीं गया तो अम्मा मुझे ढूंढेगी ना...’’
‘‘मैं जाकर तुम्हारी अम्मा से परमीशन लेकर आ जाती हूं, फिर अम्मा नहीं ढूंढेगी।’’
‘‘पर रात हो तो अपने घर चला जाऊंगा..’’
‘‘क्यों?’’
‘‘रात को मेरी बड़ी दीदी के पास सोकर कहानी सुननी है ना...’
‘‘तुमको मैं और अंकल नये-नये बहुत सारी कहानियां सुनायेंगे...’’
‘‘सच में? प्राॅमिस?’’
‘‘यस... प्राॅमिस...’’
‘‘ठीक है... ऐसा है तो आऊंगा...’’
लड़के को ऐसा-वैसा कहकर उससे बात मनवाने से अन्दर ही अन्दर अम्बिका बहुत खुश हुई।
काम को खत्म कर आए पति चन्मुखम को ये बात बताई।
‘‘ये सब इतना सरल तो नहीं है अम्बिका लड़के ने हां कह दिया और तुुम खुश ो रही हो। उसे क्या पता, वह तो खेलने वाला बच्चा है’’ उन्होंने बोले।
‘‘नहीं जी, उनके घर से भी हम अपनी बात मनवा लेंगे। ऐसा मुझे विश्वास है। वे बहुत गरीब है। तीन लड़कियां हैं और सात-आठ साल के अन्दर एक के बाद एक शादी के लिये तैयार खड़ी है। उन तीन जनों के नाम पैसे डिपाजिट कर दें, तो उन्हें हमेशा के लिये इस समस्या से मुक्ति मिल जायेगी।’’ अम्बिका बोली।
संदेह के साथ सोचते हुए बोले चन्मुखम।
‘‘पैसा दिखाकर प्रेम का हिसाब कर रही हो। ये होगा ऐसा नहीं लगता...’’
अगले हफ्ते एक दिन उन्होंने कुमारवेलु के पिता से पूछ ही लिया।
उसे सुन चेंगम्मा को गहरा सदमा लगा। धनपाल भी परेशान हो गया। चेंगम्मा को कैसे सांत्वना दें, व उन्हें क्या जबाब दें वह समझ न पाया।
बाद में, उन्होंने सब बातों को विस्तार से बताया।
उसके बाद, चेंगम्मा को न खाने की इच्छा हुई न सोने की, वह गहरी सोच में डूब गई। एक तरफ रूपया दूसरी तरफ ममता। वह परेशानी में थी। वह कोई फैसला ले न सकी। न सब बातों के बारे में पूरा सोच भी न पाई। बहुत ही असमंजस में थी।
इन सब बातों को आधी-अधूरी सुन कर अड़ौसी-पड़ौसी उन्हें न्याय बताने लगे। ‘‘मुझे कहीं ऐसी लाटरी लगे, तो मैं उसे उठाकर दे देती। कुछ दिनों मन दुःखी रहेगा ये ही तो है।’’ एक औरत बोली। ऐसी ही बातें दो तीन जनों ने भी करी।
वे प्रश्न पूछते व स्वयं ही जवाब देती हैं। ‘‘फिर तुम्हारी इच्छा...’’ फिर उठ कर चल देते।
एक दिन रात को जब बच्चे सो गये, उसके बाद घर के बाहर मूंज के खाट पर धनपाल लेटा हुअ था, चेंगम्मा जमीन पर बैठी हुई थी। चन्द्रमा अपनी चांदनी चारों तरफ फैला रहा था। ठण्डी ठण्डी हवा चल रही थी।
‘‘जैसा सब लोग कह रहे हैं वैसा ही कर दें ऐसा मुझे भी लगता है।’’ चेंगम्मा बोली।
‘‘सचमुच पूरे मन से कह रही हो क्या? तुमसे ये होगा?’’
‘‘अपने पास रहे, तो ज्यादा से ज्यादा हम उसे दसवीं तक या बारहवीं तक ही पढ़ा सकेंगे। इंजीनियर आदि की पढ़ाई तो नहीं करवा सकते? ये, तो भी उनके पास अच्छी तर रहे। कहीं भी रहे अपना नाम ही रोशन होगा। आगे कहने लगी ‘‘इसी के कारण तीनों लड़कियों का भी भला होगा... बड़ी लड़की चावल की मिल में काम करने जाती है। दूसरी भी मैं दीदी के साथ काम करने जाउंगी बोल रही है.... इस उम्र में ही उन्हें तकलीफ देनी पड़ रही है।’’
फिर दो दिन और उन्होंने सोचा। फिर उन्होंने कुमारवेलु को देने का निश्चय कर लिया। इस बात का पता चलते ही तीनों लड़कियां, विशेष रूप से बड़ी लड़की विजया ने रोना शुरू कर दिया। उन्हें तसल्ली देने में चेंगम्मा को बहुत परेशनी हुई।
जब पक्का इरादा कर लिया तो उन लोगों ने इंजीनियर के परिवार से उसे आराम से मिलने जुलने दिया।
पैसों का आदान-प्रदान हुआ। तीनों लड़कियों के नाम बैंक में रूपये डिपाजिट कर दिये। पास बुक को चेंगम्मा को दे दिया। ऊपर से भी कुछ और रूपये देकर ‘‘अब आप मजदूरी काम न कर, कोई छोटा सा व्यापार करो।’’ कह कर कुमारवेलू को लेकर शहर चले गये।
इससे बड़े स्कूल में तुम्हारा दाखिला करवायेंगे वहां बच्चे सब अंग्रेजी में ही बात करते हैं। उनके साथ मिलकर पढ़ोगे तो बड़ों जैसे अभी से तुम अंग्रेजी में बात कर सकते हो ऐसा कहकर उसे लेकर गये।
धनपाल के घर में गरीबी खत्म हो गई। मजदूरी पर जाना उन लोगों ने बन्द कर दिया। उसने एक दुकान घर के बाहर खोल ली उसमें चाय की दुकान चलाने लगा। उसकी सहायता चेंगम्मा करने लगी। कुछ दिनों बाद ही सुबह नाश्ता भी तैयार कर बेचने लगे।
कह दामों में रूचिकर व्यंजन देने के कारण उनकी दुकान में भीड़ बहुत होने लगी। पैसा आने लगा। बड़ी व मंझली दोनों लड़कियों को सिलाई सीखने के लिये भेजने लगे। सबसे छोटी लड़की पढ़ने स्कूल जाने लगी।
वहां इंजीनियर के घर में कुमारवेलु को मन ही मन दुःख होता था। दिल में अजीब सा दर्द उठता था। अम्मा व अप्पा को देखने की इच्छा होने लगी। उसे दीदियों के साथ खाने, खेलने, लड़ाई-झगड़ा करने व रूठने मनाने की इच्छा होने लगी। इन सबके अपने मजे हैं। अतः यह सोच वह दुःखी हो रहा था।
तरह-तरह के खाने, कीमती कपड़े, बहुत से खिलौने में भी उसे पसंद नहीं आ रहे थे।
एक दिन वह बोला ‘‘मुझे अम्मा-अप्पा को देखना है, दीदीयों से मिलने की इच्छा हो रही है।’’
अम्बिका को डर लगा शायद वहां जाकर मिले, खेले कूदे तो इसका मन वहीं रहने का तो नहीं हो जायेगा। उसे डर लगा। अतः उसने गलत-सलत बहाने बनाकर उसे रोक दिया। नई-नई जगह उसे घुमाने ले गये ताकि उस बात को भूल जाय।
फिर भी, कुमारवेलू को मन के अन्दर जो इच्छा, ममता थी वह चली जायेगी क्या? शहर में एक स्कूल में खेल के मैदान में लड़के क्रिकेट खेलते थे। उसे देखने जा रहा हूं कह कर बस पकड़ कर सीधे गांव आया।
रास्ते में जो लोग उसे मिले, उन्होंने उसका कुशल-क्षेम पूछा, जवाब देकर, वह अपने घर की तरफ आया। अचानक दरवाजे को खोलकर अन्दर जाकर सबको आश्चर्य चकित करने का सोचा।
घर का छप्पर बदल गया था व घर के बाहर एक दुकान भी उसने देखी। धीरे से जाकर दरवाजे को धक्का देने की सोची। इतने में बातों की आवाज आई। अन्दर कुमारवेलू के बारे में बात हो रही थी।
‘‘हम सब इस तरह खुशी से हैं इसका कारण छोटा भैया कुमारवेलू ही है ना अप्पा’’ बड़ी लड़की बोली।
‘‘वह उन लोगों के पास बेटा बन कर नहीं जाता, तो हम मजदूरी कर मुश्किल से आधा पेट भर पाते।’’ दूसरी बेटी बोली।
‘‘अच्छे कपड़े पहन रहे हैं सुबह नाश्ता करते हैं। दोनों समय अच्छा खाना खाते हैं। ये सब अपने छोटे भाई के कारण ही है।’’
बिल्कुल ठीक कह रही हो बेटा! वह पढ़कर, कमा कर हम सबकी रक्षा करेगा हमने सोचा? पर..... अभी ही, इस उम्र में हमें अच्छा जीवन जीने को दे दिया उसने।’’ धनपाल बोला।
घर के दरवाजे के चाबी के छेद से कुमारवेलु ने अन्दर देखा। सब लोग मिलकर बैठे थे, पर सिर्फ मां थोड़ी दूरी पर अकेली इन बातों में हिस्सा न लेकर उदास बैठी थी।
‘‘अप्पा... मुझे एक सन्देह है। वहां छोटे भाई को रहना अच्छा न लगे और यहां आ जाये तो फिर क्या करेंगे?’’ दूसरी लड़की बोली।
‘‘फिर तो यही है। हम नये कपड़े नहीं पहन सकते, अच्छा खाना नहीं खा सकते, फिर हमें मजदूरी करनी पड़ेगी।’’ पट से बोलकर दुःखी हुई सबसे छोटी लड़की।
‘‘अब क्यों बेकार की बातें कर रहे हो? वह यहां क्यों आयेगा? वहां वह राजा जैसे रहेगा।’’
अपने आने की बात का पता नहीं लगने देकर बिना आवाज के लौट गया कुमारवेलु। उसकी आंखों में आंसू छलछला गये।
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मूल कहानी तमिल में ‘मीना सुन्दर’ ने लिखी है उसका हिन्दी अनुवाद एस. भाग्यम शर्मा ने किया है।
एस. भाग्यम् शर्मा
बी-41, सेठी कालोनी जयपुर-302004
मो. 9351646385