हम कैसे आगे बढे - भाग ४ Rajesh Maheshwari द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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हम कैसे आगे बढे - भाग ४

३०. फातिहा

हिमाच्छादित पर्वतों के बीच, कल-कल बहते हुए झरनों का संगीत, प्रकृति के सौन्दर्य को चार चाँद लगा रहा था। कष्मीर की इन वादियों में पहुँचना बहुत कठिन है। चारों ओर ऊँचे-ऊँचे पर्वत और गहरी खाइयाँ हैं। इसी क्षेत्र में भारत और पाक की सीमा है। यह क्षेत्र सामरिक दृष्टि से दोनों देषों के लिये बहुत महत्वपूर्ण है। हमारे देष की सीमा में अंतिम चैकी पर मेजर राकेष के नेतृत्व में सेना एवं कमाण्डो दल देष की सीमाओं की रक्षा करने के लिये तैनात था। राकेष को हैडक्वार्टर से गोपनीय सूचना प्राप्त हुई कि आज रात को पाक सेना के संरक्षण में दुर्दान्त आतंकवादियों को हमारी सीमा में प्रवेष कराया जाएगा। राकेष ने अधिकारियों को आष्वस्त करते हुए कहा कि आप निष्चिंत रहिये, हमें इस दिन का बहुत दिनों से इन्तजार था। हम उनके स्वागत के लिये तैयार हैं। यह कहकर उसने अपनी योजना के अनुसार फौजियों को तैनात कर दिया। उसने इस प्रकार की व्यूह रचना बनायी थी कि भारतीय सीमा में आतंकवादी प्रवेष तो कर जाएं किन्तु फिर उन्हें घेरकर उनका काम तमाम कर दिया जाए। वह चाहता था कि आतंकवादी भी बचकर न जा पाएं, हमारी सेना को भी कम से कम क्षति हो और हम अपने उद्देष्य में सफल रहें। रात्रि का दूसरा पहर समाप्त होने को था, अभी तक उस ओर से कोई हलचल नहीं दिख रही थी। राकेष और उसके सहयोगियों को यह लगने लगा था कि संभवतः गुप्त सूचना गलत भी हो सकती है अथवा दुष्मन को आभास हो गया है और उसने अपनी योजना में परिवर्तन कर दिया है। वे यह सब सोच ही रहे थे कि सीमा पर कुछ हलचल हुई। उस समय रात्रि के लगभग तीन बज रहे थे। राकेष ने अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण यह अनुमान लगा लिया कि दूसरी ओर से लगभग दस से पन्द्रह आतंकवादी सीमा में घुसपैठ का प्रयास कर रहे हैं। अभी तक उसे पाक सेना की ओर से घुसपैठियों की मदद के लिये कोई गतिविधि होती नजर नहीं आई किन्तु वह इसके लिये भी सतर्क और तैयार था।

आतंकवादी छिपते हुए भारतीय सीमा में प्रवेष करते हैं। न तो पाक सेना की ओर से उनकी मदद की कोई कार्यवाही होती है और न भारतीय सेना की ओर से उनको रोकने के लिये कोई कार्यवाही की जाती है। वे आगे बढ़ते जाते हैं। सीमा में पर्याप्त भीतर आने के बाद वे एक स्थान पर एकत्र होकर बैठ गये। शायद वे वहाँ रूककर कुछ विचार-विमर्ष करने लगे। राकेष को जैसे इसी समय की प्रतीक्षा थी। वह चारों ओर से उन्हें घेरकर हमला करने का संकेत दे देता है। इस अचानक हमले से वे हतप्रभ रह जाते हैं। जब तक वे संभल पाते उसके पहले ही अनेक मौत की गोद में समा जाते हैं। बचे हुए आतंकवादियों को जब यह समझ में आता है कि वे चारों ओर से घिर चुके हैं तो वे पाक सीमा में घुसने का प्रयास करते हैं। तभी पाक सेना की एक टुकड़ी आतंकवादियों की सुरक्षा के लिये फायरिंग चालू कर देती है। पूरी घाटी में गोलियों की आवाजें गूंजने लगती हैं। घायल आतंकवादियों की कराह भी सुनाई नहीं देती। इस व्यूह रचना में आतंकवादी फंस जाते हैं। अगर वे आगे बढ़ते हैं तो भारतीय सेना की गोलियों का षिकार होते हैं और यदि पीछे हटते हैं तो पाक सेना की गोलियाँ उन पर बरस रही होती हैं। तीन घण्टों तक चली इस मुठभेड़ में सारे के सारे आतंकवादी मारे गये। राकेष अपने कुछ साथियों के साथ जिस स्थान से पाक सेना गोलियाँ चला रहीं थी उस स्थान को घेरने का प्रयास करता है। वह इसमें सफल होता है और उन्हें घेरने के बाद उन पर हमला कर देता है। पाक सेना में अफरा-तफरी मच जाती है वे भी पीछे हटने के लिये मजबूर हो जाते हैं। उनकी सेना के कुछ जवान मारे जाते हैं और कुछ भागने में सफल हो जाते हैं। तब तक सवेरा होने लगा। फायरिंग बन्द हो गई। प्रकाष पूरी तरह फैल तो वह यह जानने का प्रयास करता है कि हमारी ओर से कितने जवान घायल हुए या मारे गये हैं। वह यह जानकर बहुत प्रसन्न था कि हमारी ओर का कोई जवान मारा नहीं गया था। इक्का-दुक्का जवान ही घायल हुए थे।

राकेष ने हैडक्वार्टर को सारा विवरण भेज दिया। वहाँ से अगली कार्यवाही प्रारम्भ हो गई। मुख्यालय से अधिकारियों के आने के बाद मृतकों को एकत्र करने की कार्यवाही गई। राकेष जब उन मृत आतंकवादियों और सैनिकों की लाषों को देखता है तो एक सैनिक की लाष देखकर वह अवाक रह जाता है। उच्च स्तर पर पाक सेना को समाचार दिया गया और उन शवों को ले जाने के लिये कहा गया किन्तु पाक की ओर से ऐसी किसी वारदात से इन्कार करते हुए षवों को ले जाने से मना कर दिया गया। सेना के नियमों के अनुसार उन षवों के अंतिम संस्कार का बन्दोबस्त किया गया। इस कार्यवाही में उपस्थित कर्नल अमरेन्द्र सिंह के पास जाकर राकेष ने उनसे कहा कि वह एक षव अंतिम संस्कार स्वयं करना चाहता है। कर्नल अमरेन्द्र सिंह ने चैंककर पूछा- क्यों? किसलिये? क्या तुम इसे जानते हो? जी श्रीमान! मैं इसे जानता हूँ। इसका नाम अहमद है? तुम इसे कैसे जानते हो? यह एक लम्बी दास्तान है। आखिर मामला क्या है? सर! बतलाने में बहुत समय लगेगा। यहाँ सबके बीच इसे बताना उचित नहीं होगा। कृपया आप मेरा आग्रह स्वीकार कर इसका अंतिम संस्कार मुझे कर लेने दीजिये। कर्नल अमरेन्द्र सिंह पषोपेष में पड़ जाते हैं। मेजर राकेष सिंह उनका बहुत विष्वसनीय, होषियार एवं देषभक्त आफीसर था। उन्होंने सोचते हुए उसे सुझाव दिया यहाँ से तीन चार किलोमीटर दूर एक गाँव है जहाँ पर उसके परिचित मौलवी साहब रहते हैं। वह दस-पन्द्रह घरों का छोटा सा गाँव है। इस शव को वहाँ ले जाने की व्यवस्था कर देते हैं और मौलवी साहब के निर्देषन में तुम्हारे सामने ही दफन करवा देता हूँ। क्यों ठीक है न। राकेष की सहमति के बाद वे इसका बन्दोबस्त करवा देते हैं। अहमद को कब्र में सुला देने के बाद राकेष उसकी आत्मा की षान्ति के लिये फातिहा पढ़ता है। राकेष की मनः स्थिति को भांपकर कर्नल उसे अपने साथ श्रीनगर ले आए। हैडक्वाटर में शाम के समय अमरिन्दर सिंह ने राकेष को अपने पास बुलाया और कहा- मैं चाहता हूँ कि मुझे उस पाकिस्तानी सैनिक के विषय में तुम क्या और कैसे जानते हो ? मुझे बतलाओ ? उस समय तुम्हारे चेहरे पर जो दुख और विषाद था वह मैंने देख लिया था। इस बात को केवल चार ही लोग जानते हैं एक मैं दूसरे तुम तीसरे वे मौलवी जी और चैथे जनरल साहब। मैं चाहता हूँ कि यह बात हम चार लोगों के ही बीच में रहे।

राकेष ने बतलाया कि अमृतसर में वह और अहमद का परिवार अगल-बगल में रहते थे। दोनों परिवारों के बीच तीन-चार पीढ़ी के संबंध थे। हम सुख-दुख में एक दूसरे के साथ ही रहते थे। मेरे और अहमद के दादाजी में दांत काटी रोटी का संबंध था। उनका पूरा व्यापार करांची और रावलपिण्डी में फैला हुआ था। 1947 के बंटवारे में उन्हें इसी कारण से पाकिस्तान जाकर बसना पड़ा। जाते समय वे अपना घर भी हमें ही सौंप गये थे। मेरे पिताजी और उसके पिता जी में बंटवारे के बाद भी यथावत मित्रता कायम रही। अहमद के पिता जी का देहान्त होने पर हमारा परिवार उनके यहाँ पाकिस्तान गया था। अहमद उनकी इकलौती संतान था। हम दोनों उच्च षिक्षा के लिये सिंगापुर गये थे। वहाँ हम दोनों साथ-साथ ही रहते थे। पहले से ही पारिवारिक संबंधों के कारण हमारे बीच भी प्रगाढ़ संबंध स्थापित हो चुके थे। हम दोनों पढ़ाई के अतिरिक्त भारत और पाकिस्तान के संबंधों पर भी बहुत चर्चा हुआ करती थी। अहमद बहुत संवेदनषील था। वह कविताएं और कहानियां लिखा करता था। उसकी एक कविता की कुछ पंक्तियाँ मुझे आज भी याद हैं। इन पंक्तियों से उसकी सोच का पता चलता है।

हिमाच्छादित पर्वत श्रृंखलाएं

मन को शान्ति

हृदय को संतुष्टि

आत्मा को तृप्ति देती हैं।

हमने सृजन के स्थान पर

प्रारम्भ कर दिया

विध्वंस।

कुछ क्षण पहले तक

आनन्द बिखरा रहा था

यह अद्भुत और अलौकिक सौन्दर्य।

कुछ क्षण बाद

आयी गोलियों की बौछार

कर गई काम-तमाम

और जीवन का हो गया पूर्ण विराम।

हमें विनाष नहीं

सृजन चाहिए

कोई नहीं समझ रहा

माँ का बेटा

पत्नी का पति

और अनाथ हो रहे।

बच्चों का रूदन

किसी को सुनाई नहीं देता।

राजनीतिज्ञ

कुर्सी पर बैठकर

चल रहे हैं

शतरंज की चालें

राष्ट्र प्रथम की भावना का संदेष देकर

हमें सरहद पर भेजकर

त्याग व समर्पण का पाठ पढ़ाकर

सेंक रहे हैं

राजनैतिक रोटियां।

सिंगापुर में एक दिन जब मैं सड़क पर जा रहा था और गलती से एक गाड़ी के नीचे आने वाला था तभी अहमद ने अपनी जान की परवाह न करते हुए मेरे प्राणों की रक्षा की थी। यह ईष्वर का ही खेल है कि पढ़ाई समाप्त करके मैं यहाँ सेना में भरती हो गया और अहमद भी पाकिस्तानी सेना में शामिल हो गया। संभवतः वह मेरी ही गोली का षिकार हुआ है फिर तो तुम जो कर रहे हो, वह ठीक है। तुम्हारी जगह होता तो शायद मैं ऐसा ही करता। कुछ दिन बाद राकेष छुट्टियाँ लेकर अपने घर गया। उसकी और अहमद की माँ के बीच फोन से बात होती रहती थी। कुछ दिन पहले ही अहमद की माँ ने कहा था कि कई दिनों से अहमद की कोई खबर नहीं मिल रही है। पाकिस्तानी सेना से संपर्क करने पर भी कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिला है। वह बहुत चिन्तित है। यह सुनकर उसने अपनी माँ को पूरा वृत्तांत विस्तार से बतलाया। सुनकर वह बहुत दुखी और स्तब्ध रह गई। कुछ समय बाद उसने राकेष से कहा कि तुम अहमद की माँ को सारी बात बतला दो और यह भी समझा दो कि अहमद अब इस दुनियां में नहीं है। तुमने उसे पूरे रीति-रिवाज से सुपुर्दे-खाक कर दिया है। राकेष ने माँ के आदेष का पालन किया। अहमद की माँ ने जब यह समाचार सुना तो उस पर दुख का पहाड़ टूट पड़ा। उसकी सिसकियाँ बंध गईं। राकेष उसे सान्त्वना देने का प्रयास करने लगा तो वे राकेष से बोल पड़ी- बेटे मुझे तो अपने दोनों ही बेटों पर गर्व है। अहमद ने अपने फर्ज की खातिर शहादत दी और तुमने अपने फर्ज को बखूबी अंजाम देकर हमारे दूध की लाज रखी।

31. निर्जीव सजीव

जबलपुर के पास नर्मदा किनारे बसे रामपुर नामक गाँव में एक संपन्न किसान एवं मालगुजार ठाकुर हरिसिंह रहते थे। उन्हें बचपन से ही पेड़-पौधों एवं प्रकृति से बड़ा प्रेम था। वे जब दो वर्ष के थे, तभी उन्होने एक वृक्ष को अपने घर के सामने लगाया था। इतनी कम उम्र से ही वे उस पौधे को प्यार व स्नेह करते रहे। जब वे बचपन से युवावस्था में आए तब तक पेड़ भी बड़ा होकर फल देने लगा था। गाँवों में षासन द्वारा तेजी से विकास कार्य कराए जा रहे थे, और इसी के अंतर्गत वहाँ पर सड़क निर्माण का कार्य संपन्न हो रहा था। इस सड़क निर्माण में वह वृक्ष बाधा बन रहा था, यदि उसे बचाते तो ठाकुर हरिसिंह के मकान का एक हिस्सा तोड़ना पड सकता था। परंतु उन्होने वृक्ष को बचाने के लिए सहर्ष ही अपने घर का एक हिस्सा टूट जाने दिया। सभी गाँव वाले इस घटना से आष्चर्यचकित थे एवं उनके पर्यावरण के प्रति प्रेम की चर्चा करते रहते थे। पेड़ भी निर्जीव नही सजीव होते है, ऐसी उनकी धारणा थी। इस घटना से मानो वह पेड़ बहुत उपकृत महसूस कर रहा था। जब भी ठाकुर साहब प्रसन्न होते तो वह भी खिला-खिला सा महसूस होता था। जब वे किसी चिंता में रहते तो वह भी मुरझाया सा हो जाता था।

एक दिन वे दोपहर के समय पेड़ की छाया में बैठे वहाँ के मनोरम वातावरण एवं ठंडी-ठंडी हवा में झपकी लग गयी और वे तने के सहारे निद्रा में लीन हो गये। उनसे कुछ ही दूरी पर अचानक से एक सांप कही से आ गया। उसे देखकर वह वृक्ष आने वाले संकट से विचलित हो गया और तभी पेड़ के कुछ फल तेज हवा के कारण डाल से टूटकर ठाकुर साहब के सिर पर गिरे जिससे उनकी नींद टूट गयी। उनकी नींद टूटने से अचानक उनकी नजर उस सांप पर पडी तो वे सचेत हो गये। गाँव वालों का सोचना था, कि वृक्ष ने उनकी जीवन रक्षा करके उस दिन का भार उतार दिया जब उसकी सड़क निर्माण में कटाई होने वाली थी। समय तेजी से बीतता जाता है और जवानी एक दिन बुढ़ापे में तब्दील हो जाती है इसी क्रम में ठाकुर हरिसिंह भी अब बूढ़े हो गये थे और वह वृक्ष भी सूख कर कमजोर हो गया था। एक दिन अचानक ही रात्रि में ठाकुर हरिसिंह की मृत्यु हो गयी। वे अपने षयनकक्ष से भी वृक्ष को कातर निगाहों से देखा करते थे। यह एक संयोग था या कोई भावनात्मक लगाव का परिणाम कि वह वृक्ष भी प्रातः काल तक जड़ से उखड़कर अपने आप भूमि पर गिर गया।

गाँव वालों ने दोनो का एक दूसरे के प्रति प्रेम व समर्पण को देखते हुए निर्णय लिया कि उस वृक्ष की लकड़ी को काटकर अंतिम संस्कार में उसका उपयोग करना ज्यादा उचित रहेगा और ऐसा ही किया गया। ठाकुर साहब का अंतिम संस्कार विधि पूर्वक गमगीन माहौल में संपन्न हुआ इसमें पूरा गाँव एवं आसपास की बस्ती के लोग षामिल थे और वे इस घटना की चर्चा आपस में कर रहे थे। ठाकुर साहब का मृत षरीर उन लकड़ियों से अग्निदाह के उपरांत पंच तत्वों में विलीन हो गया और इसके साथ-साथ वह वृक्ष भी राख में तब्दील होकर समाप्त हो गया। दोनो की राख को एक साथ नर्मदा जी में प्रवाहित कर दिया गया। ठाकुर साहब का उस वृक्ष के प्रति लगाव और उस वृक्ष का भी उनके प्रति प्रेमभाव, आज भी गाँव वाले याद करते हैं।

३२. आत्मसम्मान

मैंने कोई चोरी नही की है, मुझे आपकी चूडियों के विषय में कोई जानकारी नही है। पुलिस के हवाले मत कीजिए, वे लोग बहुत मारेंगे, मैं चोर नही हूँ, गरीबी की परिस्थितियों के कारण आपके यहाँ नौकरी कर रहा हूँ। ऐसा अन्याय माँ जी मेरे साथ मत कीजिए। मेरे माता पिता को पता लगेगा, तो वे बहुत दुखी होगे। मानिक नाम का पंद्रह वर्षीय बालक रो रो कर एक माँ जी को अपनी सफाई दे रहा था। वह घर का सबसे वफादार एवं विष्वसनीय नौकर था। माँ जी की सेाने की चूडियाँ नही मिल रही थी। घर के नौकरों से पूछताछ के बाद भी जब कोई समाधान नही निकला, तो पुलिस के सूचना देकर बुलाया गया। पुलिस सभी नौकरों को पूछताछ के लिए थाने ले गई। उन्हें सबसे ज्यादा षक मानिक पर ही था, क्योंकि वही सारे घर में बेरोकटोक आ जा सकता था। पुलिस ने बगैर पूछताछ के अपने अंदाज मे उसकी पिटाई चालू कर दी। वह पीडा से चीखता चिल्लाता रहा, परंतु उसकी सुनने वाला कोई नही था।

इसी दौरान अचानक ही बिस्तर के कोने में दबी हुई चूडियाँ दिख गई, उनके प्राप्त होते ही पुलिस को सूचना देकर सभी को वापस घर बुला लिया गया। मानिक मन में संताप लिये हुए,आँखों में आँसू,चेहरे पर मलिनता के साथ दुखी मन से घर पहुँचा और तुरंत ही अपना सामान लेकर नौकरी छोडने की इच्छा व्यक्त करते हुए सबकी ओर देखकर यह कहता हुआ कि उसके साथ आप लोगों ने अच्छा व्यवहार नही किया, मेरे मान सम्मान को ठेस पहुँचाकर एक गरीब को बेवजह लज्जित किया है। यह सुनकर परिवार के सभी सदस्यों ने अपनी गलती स्वीकार करते हुए उसे नौकरी नही छोडने का निवेदन किया परंतु वह इसे अस्वीकार करते हुए रोता हुआ नौकरी छोडकर चला गया। आज भी जब मुझे उस घटना की याद आती है, तो मैं सिहर उठता हूँ और महसूस करता हूँ, जैसे मानिक की आँखें मुझसे पूछ रही हो, क्या गरीब की इज्जत नही होती, क्या उसे सम्मान पूर्वक जीने का अधिकार नही है, उसकी सच बातों को भी झूठा समझकर क्यों अपमानित किया गया ?

३३. प्रायष्चित

नर्मदा नदी के किनारे पर बसे रामपुर नाम के गाँव में रामदास नामक एक संपन्न कृषक अपने दो पुत्रों के साथ रहता था। उसकी पत्नी का देहांत कई वर्ष पूर्व हो गया था, परंतु अपने बच्चों की परवरिष में कोई बाधा ना आए इसलिये उसने दूसरा विवाह नही किया था। उसके दोनो पुत्रों के स्वभाव एक दूसरे से विपरीत थे। उसका बडा बेटा लखन गलत प्रवृत्ति रखते हुए धन का बहुत लोभी था, परंतु उसका छोटा पुत्र विवेक बहुत ही दातार, प्रसन्नचित्त एवं दूसरों के कष्टों के निवारण में मददगार रहता था। वह कुषल तैराक भी था एवं तैराकी के षौक के में काफी समय देता था। वह अपने पिता के कामों में बहुत कम रूचि रखता था। वह सीधा, सरल एवं नेकदिल इंसान था एवं उसे अपने बडे भाई पर गहन श्रद्धा एवं विष्वास था। रामदास ने अपनी वृद्धावस्था को देखते हुए अपनी वसीयत बनाकर अपने सहयोगी मित्र के पास रखवा दी थी और उसे रजिस्टर्ड करने का निर्देष भी दिया था, परंतु ऐसा होने के पूर्व ही दुर्भाग्यवष हृदयाघात के कारण उसकी मृत्यु हो गई। उसके बडे बेटे लखन ने हालात का फायदा उठाकर अपने पिता के मित्र को येन केन प्रकारेण अपनी ओर मिलाकर वह वसीयत हथिया ली एवं अपने पिता की हस्ताक्षर युक्त कोरे कागज पर नई वसीयत बनाकर खेती की पूरी जमीन व अन्य संपत्तियाँ, गहने, नकदी आदि अपने नाम लिखकर उन्हें हथिया लिया और विवेक को संपत्ति में उसके वाजिब हक से बेदखल कर दिया। विवेक के हितैषियों ने उसे न्यायालय जाने की सलाह दी, परंतु उसे ईष्वर पर गहरी श्रद्धा एवं विष्वास था और वह प्रभु से न्याय करने की प्रार्थना करके चुपचाप रह गया।

विवेक अपने सीमित साधनों में ही अपना गुजर बसर किसी प्रकार कर रहा था। इस घटना के बाद दोनो भाइयों में पूर्णतः संबंध विच्छेद हो गये और लखन के विवाह में भी विवेक को नही बुलाया गया। कुछ वर्षों बाद लखन को पुत्र की प्राप्ति हुई, परंतु सभी समारोंहों में विवेक की उपेक्षा की गई। वक्त बीत रहा था और लखन का बेटा देा वर्ष का हो गया था। एक दिन वह अपनी माँ के साथ नाव से नदी पार कर रहा था, तभी ना जाने कैसे हादसा हुआ और बच्चा छिटककर नदी में गिर गया। विवेक इस घटना को पास के ही टापू से देख रहा था। उसका मन अपने अपमान को याद करके सहायता करने से रोक रहा था। विवेक ने देखा कि वह अबोध बालक लगभग डूबने की स्थिति में आ गया है और उसके दोनो हाथ पानी के ऊपर दिख रहे है। यह हृदय विदारक दृष्य देखकर वह अपने आपको रोक नही सका एवं बिजली की गति से पानी में तैरकर उस बालक के पास पहुँच गया। अपनी तैराकी के अनुभवों से उसे बचाकर किनारे की ओर ले आया। इस दुर्घटना की खबर आग की तरह सारे गाँव में फैल गई और लखन बदहवास सा नंगे पैर दौडता हुआ नदी के पास आया।

वहाँ पर उसने देखा कि काफी लोग विवेक को घेरकर उसके साहस, त्वरित निर्णय एवं भावुकता की भूरि भूरि प्रषंसा कर रहे थे। लखन को देखकर विवेक बच्चे को हाथ में उठाकर उसे देने हेतु उसके पास आया। यह दृष्य देखकर लखन स्तब्ध रह गया और उसके मुख से ये षब्द निकल पडे कि आज मैं याचक हूँ और तुम दाता हो, उसकी आँखे सजल हो गई और वह फूट फूटकर रो पडे मानो पष्चाताप आँसुओं से झर रहा था। वह रूंधे गले से कह रहा था, “ मैंने तेरे साथ हमेषा अन्याय किया है। मेरी धन लोलुपता एवं लोभी स्वभाव ने मुझे अधर्म के पथ पर ले जाकर भ्रष्ट कर दिया था। तुमने अपने अपमान को पीकर भी अपनी जान जोखिम में डालकर मेरे बच्चे की रक्षा की है। मुझे मेरी गलतियों के लिए माफ कर दो और मेरे साथ घर चलो।“ विवेक चुपचाप खडा सोच रहा था, तभी वह बालक चाचा चाचा कह कर उसकी गोद में आने के लिये मचलने लगा। ऐसे भावपूर्ण दृष्य ने लखन और विवेक के दिलों को एक कर दिया। लखन ने विवेक को घर ले जाकर उसे उसकी संपत्ति का हिस्सा देने के कागजात तुरंत बनवाए एवं इसके साथ ही गहने, नकदी, तथा अन्य चल संपत्तियों में जो भी वाजिब हिस्सा विवेक का था, वह उसे दे दिया। लखन ने कहा कि तुम्हारा अधिकार तुम्हें देकर भी मैं अपने पापों से मुक्त नही हो सकता। यह सुनकर विवेक ने अपने बडे भ्राता के कंधे पर हाथ रखकर कहा कि उसके मन में अब किसी भी प्रकार का दुराभाव नही है। आप भी अपने नकारात्मक विचारों को हृदय से निकालकर सकारात्मक षुरूआत करें। यही आपके लिए जीवन का सच्चा प्रायष्चित होगा।

३४. वेदना

सडक के किनारे चुपचाप उपेक्षित बैठी हुई वह अबला नारी हर आने जाने वाले को कातर निगाहों से देख रही थी। उसके पास रूककर उसके दर्द को जानने का प्रयास कोई भी नही कर रहा था। उसके तन पर फटे-पुराने कपडे लिपटे हुये थे, जिससे वह बमुष्किल अपने तन के ढके हुए थी। उसके चेहरे पर असीम वेदना एवं आतंक का भाव दिख रहा था। वह अपने साथ कुछ माह पूर्व घटी निर्मम,वहषी बलात्कार की घटना के बारे में सोच रही थी, और इसे याद करके थर थर कांप रही थी। इतने में पुलिस की गाडी की गाडी आयी, जिसे देखकर उसका खौफ, मन का डर और भी अधिक बढ गया। यह देखकर उसके मन में उस दिन की याद ताजा हो गयी, जब वह थाने में अपने साथ हुये अत्याचार एवं अनाचार का मामला दर्ज कराने पहुँची थी, परंतु उसके प्रति सहानुभूति ना रखते हुए पुलिसवालों ने उसे डांट डपटकर भगा दिया था। जिन अपराधी तत्वों ने ऐसा घृणित कृत्य किया था, वे अभी भी बेखौफ घूम रहे थे। पुलिसवाले उसे सडक से थोडा दूर हटकर बैठने की हिदायत देकर चले गये, मानो वे अपना फर्ज पूरा कर गये थे। उसे भिखारी समझकर कुछ दयावान व्यक्ति चंद सिक्के उसकी ओर उछालकर आगे बढ जाते थे।

वह असहाय, इंसान में इंसानियत को खोज रही थी, जो समाज से तिरस्कृत एक गरीब महिला थी, जिसकी ऐसी स्थिति उसके परिवार के निजी कारणों से हो गई थी। उसने सडक पर ही असीम प्रसव वेदना के साथ एक बच्चे को जन्म दे दिया, वह पीडा से निरंतर तडप रही थी। किसी संवेदनषील ने उसकी दयनीय हालत देखकर आपातकालीन सेवा को सूचना दी। उन्हेांने त्वरित कार्यवाही करते हुये उस ले जाकर षासकीय अस्पताल में भर्ती करा दिया, परंतु समय पर इलाज ना होने के कारण उसकी मृत्यु हो गई और उसकी संतान को अनाथालय में भेज दिया गया। मैं सोच रहा था, जिस बच्चे का जन्म ऐसी परिस्थितियों में हुआ हो, उसका बचपन, जवानी और बुढापा कैसे बीतेगा ? कुछ दिनों बाद मुझे पता चला कि एक विदेषी दंपती बच्चे को गोद लेकर अपने देष चले गये है। मैं मनन कर रहा था, कि जिसका कोई नही होता उसका भगवान होता है।

३५. सेवा का महत्व

राधाबाई नाम की एक सेविका एक धनाढ्य परिवार में कार्यरत हैं। परिवार के सभी सदस्यों की सेवा करना वह अपना परम धर्म समझती है। वह जब तक अपने मालिकों की रात में पाँव दबा कर उन्हें सुला ना दे, तब तक उसे चैन नही आता है। एक दिन वह अचानक बीमार पड गई, उसे इलाज के लिए अच्छे अच्छे डाॅक्टरों को दिखाया गया, उनकी दवाइयाँ उसे दी गई, परंतु हालत में परिवर्तन ना होकर धीरे धीरे उसका स्वास्थ्य इतना गिर गया कि वह आज गई या कल गई की स्थिति में आ गई थी। वह उस परिवार की पाँच वर्षीय बेटी मानसी से बहुत प्रेम करती थी और वह भी उसे दादी कहकर पुकारा करती थी। उसकी ऐसी स्थिति देखकर मानसी दुख से व्याकुल हो गई, उसने पास जाकर उसके माथे पर हाथ रखा और कोमल हाथों से उसके पैर दबाने लगी। यह ईष्वरीय चमत्कार था, दवाईयाँ का प्रभाव या उस बच्ची की निस्वार्थ, निष्कपट सेवा का परिणाम कि राधाबाई का स्वास्थ्य ठीक होने लगा और वह तीन चार दिन में ही स्वस्थ हो गई। ऐसा कहा जाता है कि दवाईयों से ज्यादा दुआ और सेवा कठिन वक्त पर काम आती है। उस बच्ची के मन में मालिक और नौकर की भावना का भेदभाव नही था, इसलिये वह निस्वार्थ सेवा स्वयं करने लगी थी, जबकि बडे बुजुर्ग ऐसी सेवा करने में हिचकिचा रहे थे। एक नौकर और मालिक के बीच का अंतर षायद उन्हें एक नौकर के पाँव दबाने से रोक रहा था।

३६. आत्मविष्वास

दिन ढल चुका था, चाँद की दूधिया रोषनी भी अंधेरे को दूर करने में असमर्थ थी। चारों ओर घने बादल आकाष में छाए हुए थे, तेज बारिष हो रही थी। हाथों को हाथ नही सूझ रहा था, कडकडाती हुई बिजली, मन में एक डर का माहौल पैदा कर रही थी। विपुल लगभग एक माह से तेज ज्वर से पीडित था। वह इतना कमजोर हो चुका था कि बिना किसी सहारे के उठ भी नही पाता था। आज रात वह बहुत बेचैनी महसूस करते हुए कराह रहा था। उसकी यह हालत देखकर वह उसके पास आयी और चुपचाप बैठकर उसके माथे पर हाथ रखकर महसूस कर रही थी कि उसे बहुत तेज बुखार है। वह उसे कंबल उढाकर राते के अंधेरे में ही भीगती हुई बाहर चली गई। वह भीगती हुई थोडी देर बाद वापस आई और उसने विपुल को दवा पिलायी, अपने गीले कपडे बदलने अंदर चली गई। विपुल दवा पीकर बडबडाने लगा कि माँ, तुम मेरे लिए इतने दिनों से कितना कष्ट उठाकर मेरी सेवा सुश्रुषा कर रही हो, मुझे ऐसा महसूस होता है कि मेरा जीवन का समय पूरा हो चुका है और तुमसे बिछुडने का समय नजदीक आता जा रहा है। माँ ने उसकी बात सुनकर उसे अपनी गोद में लेकर समझाया “ जब तक साँस है जीवन में आस है। “ विपुल बोला मै सभी आषाएँ छोड चुका हूँ, आज की रात मुझे गहरी नींद में सोने दो, मैं कल का सूरज देख पाता हूँ या नही, यह नही जानता। मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मेरी आत्मा के द्वार पर चाँद का दूधिया प्रकाष दस्तक दे रहा है। मैं अंधकार से प्रकाष की ओर प्रस्थान कर रहा हूँ। मुझे भूत, वर्तमान और भविष्य के अहसास के साथ पाप और पुण्य का हिसाब भी दिख रहा है। मैंने धर्म से जो कर्म किये है, वे ही मेरे साथ जाएँगे, परिवार और समाज को भी उनका फल प्राप्त होगा। माँ, तू ही बता यह मेरा प्रारंभ से अंत है या अंत से प्रारंभ ?

विपुल की करूणामय बातें सुनकर माँ का मन भी विचलित हो गया। उसने अपनी आँखों से आए आँसुओं के सैलाब को रोकते हुए अपने बेटे से कहा कि देखो तुम हिम्मत मत हारना, यही तुम्हारी सच्ची मित्र है। सुख दुख में सही राह दिखलाती है और विपरीत परिस्थितियों में भी तुम्हारा साथ निभाकर तुम्हें षक्ति देकर तुम्हारे हाथों को थामें रहती है, मैं तुम्हें एक वृत्तांत सुनाती हूँ, इसे गंभीरता पूर्वक सुनकर इस पर मनन करना - “ कुछ वर्षों पूर्व नर्मदा के तट पर एक नाविक अपनी किष्ती के साथ रहता था। वह नर्मदा के जल में दूर दूर तक सैलानियों को घूमाता था। यही उसके जीवन यापन का आधार था। वह अपनी किष्ती को अपने पुत्र के समान बहुत प्यार करता था। वह नाविक बहुत ही अनुभवी, मेहनती, होषियार एवं समयानुकूल निर्णय लेने की क्षमता रखता था। एक दिन वह किष्ती को नदी की मझधार में ले जाकर ठंडी हवा के झोंकों एवं थकान के कारण सो गया। उसकी जब नींद खुली, तो यह देख भौच्चका रह गया कि चारों दिषाओं में पानी के गहरे बादल छाए हुए थे और हवा के तेज झोंको से किष्ती डगमगा रही थी, आँधी तूफान के आने की पूरी संभावना थी। ऐसी विषम परिस्थितियों को देखकर उसने अपनी जान बचाने के लिए किसी तरह किष्ती को एक टापू तक पहुँचाया और स्वयं उतरकर उसे एक रस्सी के सहारे बांध दिया, उसी समय अचानक तेज आंधी तूफान और बारिष आ गई। उसकी किष्ती रस्सी को तोडकर नदी के तेज बहाव में बहते हुए टूटकर टुकडे टुकडे हो गयी। नाविक यह देखकर दुखी हो गया और उसे लगा कि अब उसका जीना व्यर्थ है। उसकी अंतरात्मा ने उसे धिक्कारते हुए कहा कि यह नकारात्मक सोच में क्यों डूबे हुए हो ? इस सृष्टि में प्रभु की सर्वश्रेष्ठ कृति मानव का जन्म है, तुम पुनः मेहनत करके कठोर परिश्रम से अपने आप को पुनस्र्थापित कर सकते हो।

यह विचार आते ही वह नई किष्तियेां के निर्माण में लग गया। उसने दिनरात मेहनत करके पहले से भी सुंदर और सुरक्षित नई किष्तियों को बनाकर पुनः अपना व्यवसाय षुरू कर दिया। वह मन ही मन आंधी तूफान को कहता था कि तुम मेरी एक किष्ती को खत्म कर सकते हो, परंतु मेरे श्रम, सकारात्मक सोच को खत्म करने की क्षमता तुम्हारे में नही है। तुमने एक किष्ती को खत्म किया है, मैंने दो नई किष्तियों का निर्माण करके तुम्हारे विध्वंस को सृजन का स्वरूप प्रदान किया है। “ बेटा विपुल इस वृत्तांत से तुम षिक्षा लो और हिम्मत से बुखार रूपी आंधी तूफान का सामना करते हुए नई किष्ती के समान नवजीवन को प्राप्त करो। विपुल पर माँ की बातों का बहुत गहरा प्रभाव पडा। इसने उसके अंदर असीति उर्जा, दृढ इच्छा षक्ति व आत्मविष्वास को जाग्रत कर लिया। यह ईष्वरीय कृपा थी, माँ का आषीर्वाद, स्नेह एवं प्यार था या विपुल का भाग्य कि वह कुछ दिनों में ठीक हो गया। आज वह पुनः आॅफिस जा रहा था। उसकी माँ उसे दरवाजे तक विदा करने आयी, उसका बैग उसे दिया और मुस्कुरा कर उसकी आँखों से ओझल होने तक उसे देखती रही ।