२१. धन का सदुपयोग
धन का मूल्य उसका स्वामी बनने में नहीं होता है वरन धन का मूल्य उसका सही उपयोग करने में होता है। इसका मतलब यह नहीं है कि हम धन को व्यर्थ बरबाद करें। हमें धन का सही उपयोग करना चाहिए। एक बार एक षिक्षाविद एक विष्वविद्यालय बनाने के लिये एक सेठ के पास दान मांगने पहुँचे। उस समय वह सेठ अपने लड़के को डांट रहा था। उसके लड़के को सिगरेट पीने की आदत पड़ गई थी। उसे देखने के लिये सेठ ने अपने नौकर को उसके पीछे-पीछे भेजा था। नौकर ने आकर बताया कि उस लड़के ने एक सिगरेट और एक माचिस खरीदी। सिगरेट जलाने के बाद उसने वह माचिस फेक दी। सेठ अपने लड़के को उस माचिस को फेकने पर डांट रहा था। यह देखकर उन षिक्षाविद ने सोचा कि जो व्यक्ति एक माचिस की डिब्बी के लिये अपने लड़के को ऐसा डांट रहा है वह क्या दान देगा।
जब लड़का चला गया तो सेठ जी ने उनसे आने का कारण पूछा। उनने अपने आने का कारण बताया तो उस सेठ ने अपनी चैक बुक निकाल कर एक चैक पर हस्ताक्षर करके उनको दे दिया और कहा कि आप जितनी चाहें उतनी रकम इस पर लिख लें। उन षिक्षाविद ने डरते-डरते 101 रूपये की राषि उस पर लिखी और उस सेठ की और बढ़ा दी। सेठ जी ने उस चैक को देखा तो अपनी कलम उठायी और उसके आगे दो षून्य लगाकर उसके भी आगे एक और लिख दिया। इस प्रकार वह रकम एक लाख एक हजार एक रूपये हो गई। फिर उन्होंने वह चैक उन्हें वापिस कर दिया।
चैक पर इतनी बड़ी रकम देख कर वे षिक्षाविद आष्चर्य में पड़ गए। उन्होंने उस सेठ से कहा कि अभी तो आप एक पैसे की माचिस के लिये अपने लड़के को इतनी बुरी तरह डांट रहे थे और आप मुझे इतनी बड़ी रकम दान में दे रहे हैं। उस सेठ ने कहा- मैं जानता हूँ कि आप जो रकम मुझ से ले जा रहे हैं उसका एक-एक पैसा आप देष के हित में खर्च करेंगे और इसका एक पैसा भी बरबाद नहीं होगा इसलियेे मुझे आपको पैसा देने में कोई कष्ट नहीं है। लेकिन मेरे लड़के ने वह माचिस फेक कर पैसा बरबाद किया था और मैं एक नये पैसे की भी बरबादी बर्दास्त नहीं कर सकता। इसलिये हमें भी जीवन में इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि हम धन खर्च तो करें लेकिन अच्छे और उपयोगी कामों में खर्च करें। धन को बरबाद न करें।
२२. पत्थर
एक संत अपने षिष्य के साथ चुपचाप अपने गंतव्य की राह पर चले जा रहे थे। वह रास्ता काफी पथरीला था और उनके पाँव में चुभन हो रही थी। पत्थर भी अपने ऊपर उनके पाँव को देखकर मानेा अपमानित महसूस कर रहे थे। और आने जाने वालों के कारण तिरस्कृत होकर परेषानी महसूस करते थे,परंतु चुप रहना ही मानो उनकी नियति थी। एक दिन एक पत्थर ने सोचा कि ऐसी परिस्थ्तिियों से समझौता करना अच्छी बात नही है। एक राहगीर की ठोकर से उछलकर एक पत्थर नदी में गिर गया और तलहटी में जाकर आराम से रहने लगा। अब उस पर किसी मानव का पैर नही पड़ता था। एक दूसरा पत्थर बहुत स्वाभिमानी था उसने बदला लेने के लिये एक पथिक की ठोकर से उछलकर उसके सिर पर चोट की और वह पथिक वही पर अपनी जान गवाँ बैठा। संत ने अपने षिष्य को समझाया की जीवन में कभी किसी का अपमान नही करना चाहिए। पत्थर जैसे निर्जीव भी अपना अपमान एवं तिरस्कार नही सह पाते, फिर तुम तो मानव हो। ऐसा कहा जाता है कि इस घटना के बाद से ही हम किसी राह पर चलते समय अपने को पत्थर से बचाने की यथासंभव कोषिष करते हैं।
२३. ईर्ष्या
किसी नगर में दो भाई रहते थे। दोनों ही बहुत सम्पन्न थे। उनके पास बहुत धन दौलत थी। समय के साथ उनमें बंटवारा हुआ। नगर में उनकी एक बहुत बड़ी सोने, चांदी और हीरे जवाहरात की दुकान थी। उनका व्यापार खूब फल-फूल रहा था। बड़े भाई ने वह दुकान अपने हिस्से में कर ली। उनकी एक फैक्टरी भी थी। उसमें दुकान से कम फायदा होता था। वह छोटे भाई के हिस्से में आई। बड़ा भाई बहुत लालची था। वह अधिक धन कमाने के चक्कर में ग्राहकों के साथ धोखाधड़ी करने लगा। लोगों को जब इस बात का पता लगा तो उनने उसके यहाँ जाना बन्द कर दिया। इससे धीरे-धीरे उसकी दुकान पर ग्राहकों का आना बन्द होने लगा। उसे घाटा होने लगा। धीरे-धीरे उसकी दुकान बन्द होने के कगार पर पहुँच गई। दूसरी ओर छोटा भाई ईमानदार था। उसका एक पुत्र था। वह भी बहुत होषियार और परिश्रमी था। उनका परिश्रम रंग लाया और उनका उद्योग लगातार उन्नति करने लगा। उनका लाभ भी लगातार बढ़ने लगा। यह देखकर बड़े भाई को बड़ी ईष्र्या होती थी। वह उनको लगातार हानि पहुँचाने का प्रयास करता रहता था उसने उनके मजदूरों को भड़काने के लिये अनेक षड़यंत्र किये। वह तरह-तरह से उनके उत्पादन की गुणवत्ता को गिराने का भी प्रयास करता रहा लेकिन छोटे भाई और उसके पुत्र की ईमानदारी और मेहनत के कारण वह कभी सफल नहीं हो सका। लेकिन उसकी इन हरकतों से उन्हें अनेक बार अनेक परेषानियों का सामना करना पड़ा। उसकी हरकतो से तंग आकर एक दिन छोटे भाई का पुत्र अपने पिता से बोला- पिता जी आप मुझे इजाजत दीजिए। मैं ताऊ को सबक सिखाना चाहता हूँ। मैं उन्हें ऐसा सबक सिखाउंगा कि फिर वे कभी भी हमें परेषान करने का प्रयास नहीं करेंगे। उसके पिता ने पूछा- तुम क्या करना चाहते हो ?
पुत्र ने अपनी योजना अपने पिता को बतलाई। उसकी योजना सुनकर छोटे भाई को समझ में आ गया कि इससे बड़े भाई को बहुत घाटा होगा और उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा भी गिर जाएगी। वह अपने पुत्र को ऐसे रास्ते पर नहीं जाने देना चाहता था जिस पर चलकर वह किसी का भी अहित करे अतः उसने अपने पुत्र को समझाया- तुम्हारे ताऊ जो कुछ कर रहे हैं उसका असली कारण है उनके मन की ईष्र्या। वे हमारी उन्नति और अपनी अवनति के कारण हमसे ईष्र्या करते हैं। इसलिये वे ऐसा कर रहे हैं। पर तुम तो समझदार हो। हमें ईष्र्यालू नहीं होना चाहिए और जिसमें यह प्रवृत्ति आ जाए उससे बच कर रहना चाहिए। ईष्र्यालू व्यक्ति सदैव असंतुष्ट रहता है वह कभी भी अपने आप को संतुष्ट नहीं कर पाता है। दूसरों का सुख उसके लिये दुख का विषय होता है। वह ऐसा व्यवहार करता है जैसे वह आपका परम हितैषी है किन्तु आपकी सफलताओं और उपलब्धियों से वह मन ही मन दुखी रहता है। ऐसे लोग बड़े चाटुकार होते हैं। ईष्र्यालू व्यक्ति रहस्यमयी या वासनामयी पापी की तरह सावधानी से अपने आप को छिपाकर रखते हैं। इन्हें इसके लिये असंख्य उपाय आते हैं। वे नये-नये तरीकों से अपने आपको छुपाते हैं। वे दूसरों की श्रेष्ठता से अनभिज्ञ होने का नाटक करते हैं जबकि भीतर ही भीतर वे उनसे बुरी तरह जलते हैं। ऐसे लोग निपुण अभिनेता होते हैं और षड़यंत्र रचने में अपनी पूरी ताकत लगा देते हैं।
वे श्रेष्ठता को किसी भी रुप में रोकने का प्रयास करते हैं। यदि उन्हें धोखे से भी अवसर मिल जाए तो वे श्रेष्ठ व्यक्तियों और उनके कार्यों पर आरोप लगाते हैं। वे आलोचना करते हैं, व्यंग्य करते हैं और जहर उगलते हैं। एक कहावत है कि ज्यादातर लोग समृद्ध मित्र को बिना ईष्र्या के सहन नहीं कर पाते हैं। ईष्र्यालू मस्तिष्क के आसपास ठण्डा जहर रहता है। जो जिन्दगी में दोगुना कष्ट पहुँचाता है। उसके अपने घाव उसे सताते हैं। जिन पर उन्हें मरहम-पट्टी करनी होती है। दूसरों की खुषी उसे श्राप की तरह अनुभव होती है। हमें ऐसे लोगों से हमेषा सावधान रहना चाहिए और यथा संभव उनसे दूर ही रहना चाहिए। तुम्हारे ताऊ इसी ईष्र्या का षिकार हैं। जब तक उनके मन में यह भाव रहेगा उनका स्वभाव नहीं बदलेगा। तुम अगर उनसे बदला लेने या उन्हें क्षति पहुँचाने का प्रयास करोगे तो तुम्हारा समय और तुम्हारी ऊर्जा का दुरूपयोग होगा। तुम्हारे मन में उनके प्रति षत्रुता का भाव आएगा। आदमी अपने मित्र को हर समय याद नहीं करता किन्तु उसे अपना शत्रु हमेशा याद आता रहता है। मैं नहीं चाहता कि तुम्हारे मन में अपने ताऊ या किसी और के प्रति षत्रुता का भाव हो। मैं यह भी नहीं चाहता कि जो षक्ति तुम उन्नति करने में लगा रहे हो वह कहीं और लगे। ईष्वर पर भरोसा रखो। समय सबसे बड़ा षिक्षक होता है। वह उन्हें निष्चित रुप से सबक सिखलाएगा और एक दिन वे स्वयं अपने किये पर पछताएंगे तथा सही रास्ते पर आ जाएंगे।
२४. हम कैसे आगे बढ़े
सूबेदार करतार सिंह सेना से रिटायर होकर जब गाँव पहुँचा तो उसका ऐसा स्वागत हुआ जैसे वैषाखी पर नयी फसल का होता है। सूबेदार का जीवन बड़ा साफ सुथरा रहा। वह देष के लिये जीने मरने वाले समर्पित सैनिकों में गिना जाता था। उसने अपने सेवाकाल में अनेक पुरूस्कार प्राप्त किये थे। उसके दो बेटे थे। बड़ा बेटा स्नातक होने के बाद गाँव आ गया था। उनका गाँव कहने को तो गाँव था पर विकास क्रम में वह एक कस्बा बन चुका था। एक छोटा सा बाजार विकसित हो चुका था जहाँ लगभग दैनिक उपभोग की सभी वस्तुएं उपलब्ध थीं। गाँब की आबादी भी लगभग दस हजार के आसपास पहुँच चुकी थी। करतार सिंह ने जब अपने बेटे से पूछा कि आगे उसका क्या इरादा है तो उसने कहा मैं यहाँ रहकर अपनी खेती-बाड़ी के साथ ही कुछ व्यापार करना चाहता हूँ। करतार सिंह ने भी अपनी सहमति देते हुए कहा- तुम जैसा चाहते हो वैसा करो। मेरा मषविरा है कि अपने गाँव में कोई अच्छी सी जनरल स्टोर्स की दूकान नहीं है। तुम अगर उचित समझो तो जनरल स्टोर्स खोल सकते हो।
करतार सिंह ने उसे यह भी समझाया जीवन में अपने काम में पहला होना सर्वश्रेष्ठ होता है। यह बहुत लाभकारी होता है। गुणवत्ता होने पर यह दोगुना लाभ पहुँचाता है। जीवन में किसी भी क्षेत्र में पहले व्यक्ति के रुप में पहुँचकर आप किला फतह करने जैसी सफलता पा लेते हैं। जो लोग पहले स्थान पर पहुँचते हैं उन्हें ख्याति प्राप्त होती है। हमें व्यापार में तीन बातों का हमेषा ध्यान रखना पड़ता है। पहली तो यह कि ईमानदारी पूर्वक कार्य करने वाले को सभी अपने साथ रखना पसंद करते हैं। दूसरा यह कि नकारापन आदमी के सम्मान और मूल्य को समाप्त कर देता है। तीसरा यह कि धन लोलुप व्यक्ति केवल धन का सगा होता है और धन के लिये वह किसी भी सीमा तक गिर सकता है। ऐसे लोगों से बच कर रहना चाहिए।
उसका दूसरा बेटा फौज में जाने का संकल्प लिये बैठा था। करतार सिंह ने उसे भी इसकी इजाजत दे दी। जब उसका चयन फौज के लिये हो जाता है और वह जाने लगता है तो करतार सिंह ने कहा कि यदि हम सावधानी, सतर्कता और साहस से आगे बढ़ते हैं तो हम सफल होते हैं जहाँ इनका अभाव होता है वहाँ असफलता मिलती है। लेकिन सफलता के लिये सिर्फ इतना ही पर्याप्त नहीं होता है। इसके अतिरिक्त भी कुछ बातें होती हैं जिनका हमें ध्यान रखना पड़ता है। व्यक्ति को सावधान एवं साहसी दोनों होना चाहिए। तकदीर बहादुरों के आधीन रहती है जबकि कायर लोगों के पास भी नहीं फटकती है। सैन्य प्रक्रिया का काम दुष्मन के इरादों को भाँपना है। सेना की पूर्णता निराकार बनने में है। युद्ध में विजय एक ही रणनीति को बार-बार दुहराने से नहीं मिलती है। बल्कि लगातार बदलाव करने से मिलती है। सेना का एक ही व्यूह नहीं होता है जैसे पानी का एक ही आकार नहीं होता है। विरोधी के अनुसार बदल कर और ढलकर विजय प्राप्त करने की योग्यता को ही प्रतिभा कहते हैं। ईष्वर से मेरी प्रार्थना है कि तुम जीवन में सफल रहो और देष का नाम रौषन करो। इसे ध्यान रखना कभी-कभी छोटी-छोटी बातें भी विषाल रुप ले लेती हैं।
२५. प्रथम श्रेणी में प्रथम
एक बार की बात है एक बहुत धनी व्यक्ति था। उसका जन्म एक निर्धन परिवार में हुआ था। बचपन में उसने बहुत अभावों में जीवन बिताया था। वह पढ़ने में बहुत होषियार था। अपनी षिक्षा और योग्यता के बल पर ही उसने बहुत धन कमाया था। उसकी नगर में दो बड़ी-बड़ी दुकानें थीं जिन्हें वह अकेला ही चलाता था। उसकी एक फैक्ट्री भी थी। वह कहा करता था कि आदमी को हमेषा प्रथम श्रेणी में प्रथम होना चाहिए तभी वह तरक्की कर सकता है जैसे कि उसने की थी। उसके दो पुत्र थे। दोनों पढ़ने में होषियार थे। वे एक अच्छी स्कूल में पढ़ते थे। उस विद्यालय में और भी अच्छे घरों के होषियार बच्चे पढ़ते थे। वे दोनों लड़के हमेषा प्रथम श्रेणी में ही उत्तीर्ण हुआ करते थे लेकिन वे प्रथम श्रेणी में प्रथम कभी नहीं आ पाते थे। इस बात से उनके पिता प्रायः नाराज हुआ करते थे। उनकी माँ उन्हें समझाती और प्रोत्साहित करती रहती थी इसलिये वे हमेषा परिश्रम किया करते थे और कक्षा में अच्छे अंक प्राप्त किया करते थे। एक बार जब उनका परीक्षा परिणाम आया तो जो बड़ा बेटा था वह द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ था। उसे जब अपना परीक्षा परिणाम पता चला तो वह घबरा उठा। वह सोचने लगा कि जब प्रथम आने पर पिताजी इतने नाराज हुआ करते हैं तो द्वितीय आने पर तो न जाने वे क्या करेंगे। यही सोचते-सोचते वह घर पहुँचा तो अपने कमरे में जाकर उसने अनाज में रखी जाने वाली जहर की गोलियाँ लीं और एक साथ कई गोलियाँ खा लीं।
उसे ऐसा करते हुए उनकी दादी ने देख लिया। वह चिन्ता में पड़ गईं। उनने उससे पूछा कि यह कैसी गोलियाँ खा रहे हो। क्या तुम्हारी तबियत खराब है? उसने दादी से कहा- कुछ नहीं है तुम चिन्ता मत करो। अपना काम करो। दादी को उसका उत्तर सुनकर अच्छा नहीं लगा, उन्हें कुछ संदेह भी हुआ। उन्होंने तत्काल यह बात जाकर उसकी माँ को बतलायी। उसकी माँ ने उसके पास आकर देखा। तब तक वह बेहोष होने लगा था और उसे उल्टियां भी आ रही थीं। उन्होंने तत्काल डाॅक्टर को बुलवाया। डाॅक्टर ने जैसे ही उसे देखा वह सब समझ गया। उसने तत्काल उसे अस्पताल भिजवाया। वहाँ उसका उपचार प्रारम्भ हो गया। अस्पताल में उसके माता-पिता और रिस्तेदार एकत्र हो चुके थे। जब उस बालक को होष आया तो डाॅक्टर ने उससे प्यार से सब पूछा। लड़के ने सारी बात डाॅक्टर को बतला दी। डाॅक्टर वहाँ से उस धनी के पास आया और उसने पूछा- आपके लिये आपका बेटा अधिक महत्वपूर्ण है या उसका प्रथम श्रेणी में प्रथम आना ? उसने कहा कि मेरे लिये तो मेरा बेटा ही अधिक महत्वपूर्ण है। तब डाॅक्टर ने उसे सारी बात बतलाई और समझाया कि सरदार वल्लभ भाई पटैल पूरे विष्व में लौह पुरूष के नाम से जाने जाते हैं किन्तु वे पढ़ाई में बहुत होषियार नहीं थे। इसी प्रकार बिल ग्रेट्स जो आज पूरे विष्व में जाना जाता है उसे तो उसके षिक्षक ने कक्षा से बाहर ही कर दिया था। पढ़ाई में अच्छे अंकों से आना अच्छी बात है किन्तु आप यदि ईमानदारी से पढ़ाई करते हुए अच्छे अंक प्राप्त नहीं कर पाते हैं तो निराष नहीं होना चाहिए। पता नहीं आपके भीतर ईष्वर ने और कौन सी प्रतिभा दी हो जिसके कारण आप का जीवन सफल हो जाए। आप लोग भी पढ़ाई में पूरी मेहनत कीजियेगा लेकिन यदि अपेक्षित परिणाम नहीं मिलता है तो इससे निराष नहीं होना चाहिए तथा न केवल पढ़ाई में बल्कि दूसरे क्षेत्रों में भी पूरी ईमानदारी से मेहनत कीजिये और निराषा को कभी अपने आप पर हावी मत होने दिया कीजिये। आप स्वयं महसूस करेंगे कि आपके अंदर सकारात्मक ऊर्जा का संचार हो रहा है और आप हर कदम पर सफलता प्राप्त करेंगे।
२६. ईमानदार बेईमानी
एक दिन प्रातः काल स्वर्गलोक में प्रभु के साथ नारद जी भी भ्रमण कर रहे थे। नारद जी से अचानक प्रभु ने कहा- आज मुझे तुम कोई ऐसा वृत्तान्त बतलाओ जो सारगर्भित, मनोरंजक एवं षिक्षाप्रद हो। नारद जी बोले- प्रभु आप की बात पर मुझे पृथ्वी लोक की एक घटना याद आ रही है। मैं नहीं जानता कि यह घटना आप की शर्तों को पूरा करती है या नहीं। पृथ्वी लोक पर भारत देष में जबलपुर नगर के पास पाटन गाँव में रुपसिंह पटैल नाम के एक सम्पन्न किसान रहते थे। उनके पास हजारों एकड़ खेती की जमीन थी जिससे वे लाखों रूपये प्रतिवर्ष कमाते थे। उनके परिवार में उनकी पत्नी के अतिरिक्त एक जवान बेटा हरिसिंह था। रुपसिंह अपनी उम्र के साथ अब वृद्ध एवं अषक्त हो गए थे। एक दिन उन्होंने अपने बेटे से कहा कि अब मेरे जाने का समय करीब आ रहा है। मैं तुम्हें जीवन का अंतिम व्यवहारिक ज्ञान देना चाहता हूँ। इससे तुम अपना व्यापार बिना पूंजी लगाए दूसरे से प्राप्त धन से नैतिकता एवं ईमानदारी को बरकरार रखते हुए कर सकते हो। उनका बेटा आष्चर्यचकित होकर उनसे पूछता है- यह कैसे संभव है? रुपसिंह यह सुनकर मुस्कराते हुए कहते हैं- समय आने पर इसका उत्तर तुम्हें स्वयं प्राप्त हो जाएगा।
रुपसिंह का आसपास के क्षे़त्रों में बहुत मान-सम्मान था। वे एक ईमानदार, नेक व भले इन्सान के रुप में जाने-जाते थे। उन्होंने नये व्यवसाय को प्रारम्भ करने के लिये क्षेत्र के सम्पन्न लोगों से कर्ज लिया और लाखों रूपये एकत्र कर लिये। उन्होंने सभी को एक वर्ष के अंदर रकम लौटाने का आष्वासन दिया। इस बात का पूरा हिसाब कि उन्होंने किससे कितना रूपया लिया है एक बही में लिख कर अपने बेटे को दे दिया। उसे यह हिदायत भी दी कि जो तुमसे ईमानदारी पूर्वक जितना धन उसने दिया है वह वापिस मांगने आये तो उसे तत्काल लौटा देना। किन्तु जो लालचवष अपने दिये गये धन से अधिक की मांग रखे उसे स्पष्ट यह कहकर वापिस कर देना कि आप सही-सही हिसाब बताएं और अपना धन ले जाएं। ऐसा लालची व्यक्ति रूष्ट होकर तुम्हें भला-बुरा कहकर वापिस चला जाएगा। उसकी बात का बुरा मत मानना।
कुछ समय बाद रुप सिंह का निधन हो गया। उसकी मृत्यु के पष्चात उसके बेटे ने सभी को यह खबर भिजवा दी कि उन्होंने जो धन उसके पिता को दिया था वे उससे वापिस प्राप्त कर लें। धन वापस लेने के लिये लोगों का आना प्रारम्भ हो गया। उसके पुत्र ने भी अपनी बही देखकर लोगों को उनका धन वापिस करना प्रारम्भ कर दिया। यह देखकर कुछ धनाड्य लोगों के मन में लोभ जागृत हो गया। ऐसे लोगों ने कर्ज ली हुई रकम से कई गुना अधिक रकम कर्ज में देने की बात कर उससे धन वापिस लेने का प्रयास किया। रुपसिंह को अपनी बही देख्.ाकर यह समझ में आ जाता था कि कौन उससे अधिक धन की मांग कर रहा है। वह उनसे विनम्रता पूर्वक कहता कि आप अपना हिसाब फिर से देख लें और फिर आने को कहकर विदा कर देता।
ऐसे लोग वापिस जाने के बाद धर्मसंकट में पड़ जाते। वे घर जाने के बाद दुबारा रुपसिंह के पास इसलिये नहीं जा पाते थे क्योंकि अगर वे दुबारा जाकर सही धन की मांग करते हैं तो वे बेईमान कहलाएंगे और उनकी सारी प्रतिष्ठा मिट्टी में मिल जाएगी। एक माह बाद हरिसिंह ने पाया कि लाखों रूपया उसके पास जमा हो गया है जिसका लेनदार कोई नहीं है। उसने इस धन से एक नया व्यापार प्रारम्भ कर दिया जिससे कालान्तर में उसकी आमदनी कई गुना अधिक बढ़ गई। वह अपनी आमदनी का भाग गाँव की तरक्की और लोगों की भलाई पर खर्च करने लगा। एक दिन उसके यहाँ एक संत पधारे। उसने उनसे सारी बात बतलाई और पूछा कि स्वामी जी मैं आपसे कुछ प्रष्नों का समाधान चाहता हूँ। मेरे स्वर्गीय पिता द्वारा किया गया यह कार्य क्या नैतिक दृष्टि से सही है। मैंने अपने पिता की आज्ञा मानकर जो किया क्या वह ईमानदारी की परिभाषा में आता है। मैं धन वापिस करने के लिये तैयार था लेकिन जो स्वयं ही धन लेने के लिये नहीं आए तो क्या मैं उनका कर्जदार हूँ। तथा यह पूरा वृत्तान्त पाप और पुण्य की दृष्टि से क्या मूल्य रखता है?
महात्मा जी ने गंभीर चिन्तन करके कहा- हमें धन, धर्म, कर्म एवं उससे प्राप्त फल को समझना चाहिए तब समाधान स्वमेव हो जाएगा। यहाँ धन का आगमन और निर्गमन धर्म पूर्वक करने का प्रयास तुमने किया है। धन से तुमने अपना नया व्यापार प्रारम्भ किया और धनोपार्जन किया। जब भी कोई कर्ज देने वाला अपना धन वापिस मांगने आया तो तुमने उसे ईमानदारी से धन वापिस किया है। इससे स्पष्ट है कि तुमने कर्म में धर्म का पालन किया। हरिसिंह के पास में जब भी कोई और कर्ज वापिस मांगने आता था तो उसे दो सुझाव देता था एक तो यह कि तुम अपना धन वापिस ले लो। दूसरा धन व्यापार में लगा रहने दो और उसका ब्याज लेते जाओ। उसकी ईमानदारी और स्पष्टवादिता से सभी प्रभावित थे। उसका व्यापार भी दिन दूनी रात चैगुनी तरक्की कर रहा था। यह सभी को ज्ञात था। इसलिये अधिकांष लोगों ने अपना धन वापिस न लेकर ब्याज लेना ही स्वीकार किया था। इस प्रकार हरिसिंह उनके ही धन से अपना व्यापार करके धन कमाकर उस राषि से ही कर्ज चुका रहा था।
इस पूरे प्रकरण में तुमने या तुम्हारे पिता जी ने कोई गलत कार्य नहीं किया है। किसी को भी कष्ट पहुँचाने की न तो तुम्हारी मन्षा रही है और न ही तुमने कष्ट पहुँचाया है अतः तुम्हारे द्वारा कोई पाप नहीं किया गया है। तुमने उससे स्वयं लाभ कमाया है अतः इसे तुम्हारा पुण्य भी नहीं कहा जा सकताा। तुमने और तुम्हारे पिता जी ने तो व्यापार करने का एक नया दृष्टिकोण दिया है। इतना कहकर नारद जी प्रभु से आज्ञा लेकर ब्रम्हा जी से मिलने हेतु अन्तध्र्यान हो गए।
२७. चाहत
सावन माह में चारों ओर फैली हरियाली मन को प्रफुल्लित कर रहीं थी। आनन्द और राकेष बगीचे में बैठे चाय की चुस्कियां ले रहे थे। उनमें इस बात पर चर्चा हो रही थी कि जीवन कैसा होना चाहिए। राकेष ने कहा- मैं तो समझता हूँ कि जीवन एक दर्पण के समान होता है। हमारी सोच सकारात्मक होना चाहिए। प्रभु की सर्वश्रेष्ठ कृति मानव है और उसका जीवन बिना संघर्ष के एवं बिना किसी सृजन के बेकार है। जीवन में सेवा सबसे बड़ा कर्म है। वे अपनी बातचीत में व्यस्त थे तभी चैकीदार ने आकर राकेष से कहा- सर, एक महिला आपसे मिलने के लिये सुबह सात बजे से बैठी है। मैंने उसे बतलाया भी कि आज छुट्टी का दिन है तुम आफिस में कभी भी जाकर मिल लेना। परन्तु वह बिना मिले जाने को तैयार नहीं है। वह आपसे पांच मिनिट का समय चाहती हैं। उसे कोई बहुत जरुरी काम है। उसका कहना है कि उसे कलेक्टर साहब के रीडर ने भिजवाया है। राकेष ने आनन्द की ओर देखते हुए पूछा- बताओ! क्या किया जाए? आनन्द ने कहा- अभी तो तुम अच्छी-अच्छी बातें मुझसे कर रहे थे। उसकी बात पांच मिनिट में सुन लेने में क्या बुराई है? क्या पता वह किस जरुरी काम से सुबह-सुबह तुम्हारे पास आई हो? राकेष ने उस महिला को वहीं ले आने को कह दिया। एक सौम्य, शालीन और सादे कपड़े पहने हुए महिला ने प्रवेष किया। राकेष ने उससे बैठने का आग्रह किया। वह संकोच के साथ पास ही रखी एक कुर्सी पर बैठ गई। राकेष ने पूछा- कहिये आप क्या कहना चाहती हैं?
मेरा नाम सविता है। मैं नजदीक ही सुकरी गाँव में रहती हूँ। मेरा विवाह तीन वर्ष पूर्व ही हुआ था। मेरे पति आटो चलाते हैं। उसी से हमारा परिवार चलता है। अभी दो माह पहले उन्हें कुछ तकलीफ हुई। जाँच कराने पर पता लगा कि उनकी दोनों किडनी बेकार हो गईं हैं। इनके इलाज में हमारी सारी पूंजी खर्च हो गई और कर्ज भी हो गया है। हमारी थोड़ी सी जमीन थी वह भी बिक गई। घर में हम चार लोग हैं। इनके माता-पिता तथा मैं और ये। कमाई करने वाले यही एक हैं। इनके बीमार हो जाने से अब कमाने वाला कोई नहीं रह गया। मैं सुबह-सुबह आपके पास इसलिये आई हूँ कि मेरे पास आज इनके डायलेसिस के लिये भी रूपया नहीं है। भगवान जाने आगे क्या होगा। आज 12 बजे तक इनका डायलेसिस कराना है। उसने आंसू पोछते हुए बतलाया- मैं कलेक्टर के पास मदद के लिये गई थी । जिस समय मैं उनकी राह देख रही थी उसी समय कलेक्टर के यहाँ उनके रीडर ने मुझे आपका पता देकर कहा कि- मैं आपसे मिलूँ। आपके माध्यम से मेरी समस्या का कुछ समाधान जल्दी निकल सकेगा। इसीलिये मैं आपके पास आई हूँ। मेरे आने से आपके कामों में जो खलल पड़ा उसके लिये मैं क्षमा प्रार्थी हूँ। राकेष ने पूछा- आप मुझसे क्या चाहती हैं और मैं आपके लिये क्या कर सकता हूँ?
यह सुनकर उसकी आँखों से आंसू बहने लगे और बोली- मैं बहुत परेषान हो चुकी हूँ। दिन रात इनकी चिन्ता और घर की समस्याएं व तनाव मिलकर मुझे जीने नहीं दे रहे हैं। हालत बहुत खराब है। हर दूसरे दिन डायलेसिस हो रहा है। डाक्टरों का कहना है कि किडनी बदलने के अलावा और कोई चारा नहीं है। मेरी ननद इनको किडनी देने तैयार है लेकिन उसके लिये मेरे पास धन नहीं है। इतना कहते-कहते वह फिर रो पड़ी। राकेष और आनन्द ने उसे सांत्वना दी और समझाते हुए पूछा कि इलाज में कितने धन की आवष्यकता है और उसके पास कितनी व्यवस्था है? सरकार से मुझे ढाई लाख रूपये की सहायता मिल रही है जो सीघे मुम्बई के जे जे अस्पताल को दे दिया जाएगा। जे जे अस्पताल के डाॅक्टरों ने भी बिना किसी शुल्क के आपरेषन करने की सहमति दे दी है। इसके अतिरिक्त भी मैंने कुछ व्यवस्था की है लेकिन अभी भी पूरे इलाज में चार लाख रूपये कम पड़ रहे हैं। इसकी व्यवस्था कैसे हो इसी आषा में आपके पास आई हूँं। उसकी बात सुनकर राकेष और आनन्द एक-दूसरे से चर्चा करने लगे। उन्होने उसे सान्त्वना देते हुए ढाढ़स बंधाया और उसे बताया कि मैं और आनन्द एक-एक लाख रूपये आपको दे देंगे किन्तु यह राषि अस्पताल के नाम से ही दी जाएगी। राकेष ने मुम्बई में अपने एक मित्र से चर्चा की और सविता से कहा- आपका काम हो जाएगा। धन की व्यवस्था हो गई है। मैं आपको मुम्बई का एक पता दे रहा हूँ। वे धन के साथ-साथ आपके रहने और खाने-पीने की निषुल्क व्यवस्था कर देंगे।
सविता के प्रति राकेष और आनन्द दोनों के ही मन में सहानुभूति का भाव स्थान ले चुका था। वह अपनी परिस्थितियों से जूझते हुए मुसीबत के समय में न केवल अपने पति के साथ खड़ी थी वरन उसकी जीवन रक्षा के लिये जी तोड़ मेहनत कर रही थी। वे लगातार उसके पति के उपचार के विषय में जानकारी लेते रहते थे। एक दिन जब वे इस विषय पर बात कर रहे थे तब आनन्द ने कहा-
कठिनाइयों में
कठिनाइयों के करीब होते हुए भी
उन्हें कठिन मत समझो
कठिनाइयों को खत्म करने की शक्ति
हममें है
और हम
उन्हें खत्म करके
जीवन को एक नई दिषा
एवं नया आयाम दे सकते हैं।
सविता ने इस बात को पूरी तरह से सिद्ध कर दिया है। राकेष भी आनन्द की इस बात से सहमत था। वह बोला-तुम सच कहते हो। आज के समय में ऐसा समर्पण और ऐसी कर्मठता कम ही देखने को मिलती है। मैं तो उसकी बहिन का भी कायल हूँ जो अपने भाई के जीवन की रक्षा के लिये अपनी एक किडनी तक देने को तत्पर है। आज ऐसे उदाहरण बहुत कम देखने को मिलते हैं। देखो राकेष जीवन में ऐसा कोई नहीं है जिसे कोई चिन्ता न हो और ऐसी कोई चिन्ता नहीं है जिसका कोई समाधान न हो। चिन्ताओं का निवारण करते हुए आषा और निराषा के बीच झूलता हुआ पेण्डुलम के समान हमारा जीवन है। आषा से भरे हुए जीवन का नाम ही वास्तविक जीवन है। निराषा के निवारण का प्रयास ही जीवन संघर्ष है। जो इसमें सफल है वही सुखी और सम्पन्न है। दुख और निराषा है जीवन का अन्त। यही है जीवन का नियम और जीवन का क्रम। जीवन पथ प्रायः होता है अनजाना, संकटपूर्ण और कष्टों से भरा हुआ। हम होते हैं प्रायः दिग्भ्रमित, यदि सही मार्ग मिल गया तो हम अपने लक्ष्य तक सरलता से पहुँच जाते हैं, अन्यथा भटकने में ही समय नष्ट होता जाता है। इसलिये हमें सबके विचारों को सुनना चाहिए और अपने विवेक से निर्णय लेना चाहिये कि हमें कब, किसकी और कितनी सहायता करना है।सविता अपने पति और ननद के साथ टेªन में मुम्बई जा रही थी। वह बहुत थकी हुई थी और ट्रेन छूटने के कुछ समय बाद ही अपनी बर्थ पर आँख मूंद कर लेट गई। उसके विचारों में उसका बचपन आ गया।
वह सपनों में परियों की कथाएं और नानी की कहानियाँ सुनकर अपनी आँखों में प्यार अनुभव करती हुई सपनों के संसार में खो गई। ट्रेन में हल्का सा झटका लगने पर उसकी नींद खुल गई और वह आसपास सबको देखकर पुनः आँख बन्द कर सो गई। वह जीवन और मृत्यु का चिन्तन कर रही थी और इसी में खो कर उसे लगा कि मृत्यु जैसे उसके पति को छूकर निकल गई हो। मृत्यु के इस अहसास ने उसे ईष्वर के प्रति विष्वास में और वृद्धि कर दी। अब वह अपने गाँव को याद कर रही थी। नदी किनारे बसे हुए उसके गाँव में लोग कितने सीधे सरल और सच्चे हैं। वह अपने पति के इलाज के लिये उनसे निवेदन कर रही है किन्तु उसे कोई भी सहयोग देने के लिये आगे नहीं आ रहा है। वह राकेष और आनन्द के विषय में सोचती है कि वे लोग कितने भले हैं। उसके पति का इलाज चालू हो गया है और उसके पति को आपरेषन थियेटर में ले गए हैं और तभी उसकी नींद खुल जाती है।
वह पति के पास जाती है और देखती है कि दवाओं का समय हो गया है। वह उनका हालचाल पूछती है और दवाएं देती है। दिन ढल चुका था। वह ननद के साथ भोजन करती है। उसकी ननद उसे समझाती है कि चिन्ता मत करो ईष्वर जो करेगा सो अच्छा ही करेगा। तुम प्रतिदिन सूर्योदय से सूर्यास्त तक पति की सेवा में व्यस्त हो। तुम्हारी नियति है कि जब तक सांस है तब तक आस है और तुम्हें प्रयासरत ही रहना है। हमारा लक्ष्य है कि किसी भी प्रकार जगदीष अच्छा हो जाए। यह सच है कि जीवन में सभी की सभी मनोकामनाएं पूरी नहीं होतीं। लेकिन जो अपने लक्ष्य को पाने के लिये सच्चे मन से परिश्रम करते हैं अपने धन, धैर्य और कर्म में समन्वय रखते हुए अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते हैं उन्हें एक दिन सफलता अवष्य मिलती है। तुम देखना जगदीष बिल्कुल अच्छा हो जाएगा। तुम्हारी मेहनत बेकार नहीं जाएगी। ईष्वर तुम्हारी मदद अवष्य करेगा। भोजन के बाद दोनों अपनी-अपनी बर्थ पर सोने चले जाते हैं। उनके मन में यह चिन्ता थी कि मुम्बई में क्या होगा? वे कहाँ रूकेंगे? कैसे इलाज होगा? इलाज के बाद क्या होगा? आदि। मुम्बई पहुँचने पर जब वह ट्रेन से उतरती हैं तो उन्हें एक आदमी उनके नाम की तख्ती लिये उसे चारों ओर घुमाता हुआ दिखलाई देता है। वे लोग उसके साथ हो जाते हैं। वह उन्हें ले जाकर अस्पताल के पास ही एक धर्मषाला में ठहरा देता है। वह उन्हें अपना नम्बर भी देता है और कहता है कि आप लोग निष्चिन्तता के साथ अपना कार्य कीजिये और किसी भी प्रकार की आवष्यकता हो तो वे उसे फोन कर दें वह सारी व्यवस्था कर देगा।
वे दूसरे दिन प्रातः अस्पताल पहुँचे। उन्हें डाॅ. माथुर की प्रतीक्षा थी। डाॅ. माथुर को ही उसका उपचार करना था। सविता को चिन्तित देखकर जगदीष ने उसे सान्त्वना देते हुए कहा- हम चिन्तन में खोकर भूत, वर्तमान व भविष्य का मन्थन करते हैं। हम यह नहीं सोचते कि जो समय बीत गया वह खत्म हो गया। जो वर्तमान में हो रहा है वह हमारा प्रारब्ध है और भविष्य की नकारात्मक सोच से परेषान होना हमारी विवेकहीनता है। जीवन में जो हो रहा है और जो भविष्य में संभावित है तुम उसे रोक नहीं सकती। तुम केवल एक दर्षक के समान हो उसे बदलने का अधिकार या ताकत तुममें नहीं है फिर उसे सोच-सोचकर दुखी क्यों होती हो। हम सही समय पर सही निर्णय लेकर आपरेषन के द्वारा किडनी प्रत्यारोपण करवा रहे हैं। जिससे हमारा शरीर सुरक्षित रह सके। तुम अपने मन में किसी प्रकार की आषंका मत रखो। जो भगवान की मर्जी है वही होगा। यह भी भरोसा रखो कि सब ठीक होगा। वह इस प्रकार की बातें कर ही रहा था तभी डाॅ. माथुर का आगमन होता है।
अपना क्रम आने पर सविता और उसकी ननद, जगदीष को लेकर डाॅ. माथुर के पास गये। उन्होंने गहराई से उसकी जाँच की और उसकी जाँच रिपोर्ट्स को चैक किया। फिर वे बोले आपको इनकी और किडनी डोनेट करने वाले की कुछ जाँचें और करवाना है। मैं लिखकर दे रहा हूँ। इनकी रिपोटर््स भी शाम तक मिल जाएंगी। कल इनकी किडनी का प्रत्यारोपण किया जाएगा। वे उसे समझाकर बतलाते हैं कि आपरेषन के उपरान्त भी मरीज को कोई संक्रमण न हो सके इसलिये दो माह तक आपको विषेष ध्यान देना होगा। आप किसी को भी उनके पास तक नहीं जाने दीजियेगा। स्वयं भी आप उनके पास मास्क लगाकर ही जाइयेगा। सविता उनसे कहती है- डाॅक्टर साहब! हम लोग बहुत गरीब लोग हैं आप सब की सहायता से ही इस कार्य को कर पा रहे हैं। डाॅ. माथुर ने उससे कहा- आप निष्चिन्त रहिए। हम लोग अपनी पूरी कोषिष करेंगे और मुझे पूरा विष्वास है कि आप लोग यहाँ से खुषी-खुषी घर जाएंगे। मुझे आप लोगों के विषय में सारी जानकारी हो चुकी है। आपकी लगन, आपके परिश्रम और आपकी सेवा भावना के कारण ही हमारे अस्पताल के पूरे स्टाफ ने यह निष्चय किया है कि हम लोग आपसे किसी प्रकार का शुल्क नहीं लेंगे। हमारी अस्पताल के डाॅक्टर और पैरामेडिकल स्टाफ अच्छी सेवा प्रदान करने हेतु प्रतिबद्ध हैं। हम प्रयास ही कर सकते हैं। परिणाम तो ऊपर वाले पर ही निर्भर है। आपकी ननद जो अपनी किडनी दान कर रही हैं वह भी बहुत ही प्रषंसनीय तथा अनुकरणीय है।
कल की ही बात है, एक सम्पन्न आदमी की किडनी का प्रत्यारोपण हम लोगों ने किया है। उसकी पत्नी बार-बार हम लोगों से कह रही थी कि हम धन की चिन्ता न करें। धन चाहे जितना लग जाए पर मेरे पति के जीवन की रक्षा हो जाए। मैंने उन्हें भी समझाया था कि धन से आदमी के प्राणों का कोई संबंध नहीं है। अगर धन से जान बचती होती तो दुनिया का कोई धनवान कभी न मरता। लेकिन ऐसा नहीं है। आप भरोसा रखिये मैं और मेरे सभी सहयोगी पूरे मन से आपके पति की जान बचाकर उसे स्वस्थ्य बनाने के लिये कटिबद्ध हैं। दूसरे दिन जब जगदीष को आपरेषन के लिये ले जाया जा रहा था उस समय राकेष, राकेष की पत्नी और उसका मित्र विष्णु भी वहाँ उपस्थित थे। सभी सविता के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर खड़े थे। सविता को चिन्ता तो थी लेकिन सभी उपस्थित लोगों को देखकर उसके अन्दर एक आत्म विष्वास जागृत हो गया था कि उसके पति स्वस्थ्य हो जाएंगे। वह अपनी ननद के स्वास्थ्य के लिये भी ईष्वर से प्रार्थना कर रही थी। दो-ढाई घण्टे के बाद डाॅ. माथुर ने आकर आॅपरेषन सफलता की सूचना दी। दोनों मरीजों को सघन चिकित्सा कक्ष में स्थानान्तरित किया जा चुका था और उनकी पूरी देखरेख की जा रही थी।
डाॅ. माथुर ने आपरेषन के बाद की सावधानियों और व्यवस्थाओं के संबंध में सविता को समझाया और उसके परिश्रम की सराहना भी की। सविता ने भी डाॅक्टर साहब और पूरे अस्पताल के लोगों के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करते हुए उनके निर्देषों का पालन करने की सहमति दी। डाॅ. माथुर जा चुके थे। वहाँ उपस्थित लोग भी जाने को तत्पर थे तभी उनमें से एक युवक ने आकर सविता से कहा-मैं एक समाजसेवी संस्था की ओर से आपके पास आया हूँ। मेरा नाम विनोद है। मैं प्रतिदिन सुबह शाम आकर देख लिया करूंगा। आप मेरा नम्बर ले लीजिये, अस्पताल से भी आपको मेरा नम्बर मिल सकता है। आप जब भी मुझे फोन करेंगी मैं कुछ ही समय में आपके पास पहुँच जाउंगा। सविता देख रही थी कि जब से वह आया था सभी बातों को बड़े ध्यान से सुन रहा था। खास तौर से बीमारी और उपचार के विषय में तो वह काफी गम्भीर था। विनोद भी बाकी सदस्यों के साथ अस्पताल से विदा हो जाता है।अब अस्पताल में सविता अकेली रह गई थी। वह सघन उपचार कक्ष के बाहर पड़ी कुर्सी पर बैठी-बैठी भगवान को याद करती हुई अपने पति और ननद के स्वस्थ्य होने की कामना कर रही थी। बीच-बीच में वह आती-जाती नर्सों से और अन्य कर्मचारियों से उनका हाल जानती रहती थी। शाम को लगभग छैः बजे के आसपास विनोद आता है। वह अपने साथ एक थर्मस, गिलास-कप आदि लिये हुए था। सविता अकेली बाहर कुर्सी पर बैठी हुई थी। वह पास की ही दूसरी कुर्सी पर बैठ जाता है। वह पूछता है- अब उन लोगों का क्या हाल है? अस्पताल में भीतर तो रहने नहीं देते हैं। मैं बीच में दो बार उन्हें देखने भीतर गई थी। ड्यूटी डाॅक्टर ने बतलाया कि स्थिति ठीक है और चिन्ता की कोई बात नहीं है। विनोद ने थर्मस से चाय भरकर सविता को भी दी और स्वयं भी ली। उसने बतलाया कि यहाँ से जाने के बाद उसने डाॅक्टर माथुर से बात की थी। क्या कह रहे थे? उनका कहना है कि यदि तीन साल पहले इनका ठीक से उपचार होता तो यह स्थिति नहीं आती। इनको तकलीफ तो रहती थी। उपचार भी करवाते थे किन्तु हमें यह लगता था कि मामूली पेट दर्द है। फिर दवाओं से आराम भी लग जाता था। जब तकलीफ बढ़ गई तो बड़े डाॅक्टर को दिखलाया। हमारी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। बड़े डाॅक्टरों की फीस भी अधिक होती है। इसलिये भी थोड़ी सी लापरवाही हो गई।
डाॅ. माथुर कह रहे थे कि ऐसे केसेज में सत्तर प्रतिषत तक तो मरीज ठीक हो जाते हैं किन्तु तीस प्रतिषत मामलों में किडनी प्रापर रिस्पान्स नहीं करती है और स्थिति बिगड़ भी जाती है। आप सब लोगों की सहायता से मैं जितना कर सकती हूँ कर रही हूँ। आगे भगवान की मर्जी। आपके परिवार से और कोई साथ नहीं आया? परिवार में इनके और मेरे माता-पिता हैं। सभी वृद्ध और कमजोर हैं इसलिये उन्हें साथ लाना उचित नहीं था। मेरे ननदोई घर पर बच्चों के साथ हैं और वे अपना परिवार देख रहे हैं। उन्हें यहाँ की जानकारी मैं देती रहती हूँ। आप कहीं नौकरी करती हैं? नहीं! मैं घर पर ही रहती हूँ और घर की देखभाल करती हूँ। आपको देखकर लगता है कि आप काफी पढ़ी-लिखी हैं? मैंने एम. एससी. और एमसीए किया है। मैं जाब तलाष कर रही थी तभी मेरी इनसे मुलाकात हो गई। ये भी पोस्ट ग्रेजुएट हैं। परिवार की परिस्थितियों के कारण और नौकरी न मिलने के कारण ये आटो चलाने लगे। मेरे घर वालों को इनके आटो चलाने पर बहुत एतराज था। वे हमारी शादी के पक्ष में नहीं थे। हम लोगों ने लव मैरिज की थी। हमारा अन्तर्जातीय विवाह हुआ था, इस कारण से परिवारों में वैसे संबंध नहीं हैं जैसे होना चाहिए। आपके परिवार में कौन-कौन हैं? मेरे यहाँ आभूषण निर्माण का काम होता है। मैं, मेरा बड़ा भाई और पिता जी मिलकर अपना व्यवसाय देखते हैं। मैं व्यापार के साथ-साथ परिवार को भी देखता हूँ। इसके साथ-साथ समाजसेवा भी करता हूँ। इसमें मेरे पिता जी का भी सहयोग रहता है। आप यदि मेरी बात को अन्यथा न लें तो एक बात कहूँ? कहये! अस्पताल में रिस्तेदारों को सिर्फ शाम को ही मिलने दिया जाता है। आपको अभी दो-तीन माह यहाँ रहना पड़ेगा। बाकी समय में आप क्या करेंगी। यदि आप कहें तो मैं आपके लिये किसी नौकरी की व्यवस्था कर सकता हूँ। इससे आपका समय भी अच्छे से निकल जाया करेगा और इलाज भी चलता रहेगा। दो-चार दिन देख लें। इनकी हालत थोड़ा सुधर जाए तो मन हल्का हो जाएगा। आप यदि मेरे लिये किसी नौकरी की व्यवस्था कर सकें तो यह मेरे ऊपर आपका बड़ा उपकार होगा। विनोद कुछ देर वहाँ और रूकता है। वह जगदीष को देखने भी जाता है और उसकी हालत की भी जानकारी लेता है। उसके बाद वह चला जाता है।
दूसरे दिन विनोद दोपहर में लगभग 12 बजे आया। उसने सविता से जगदीष के हालचाल जानने के बाद भीतर जाकर उसे देखा और ड्युटी डाॅक्टर से उसके विषय में बात की। फिर वह सविता के पास आया। उसने सविता को खुषखबरी देते हुए बतलाया कि अस्पताल के नजदीक ही उसने एक फर्म में सविता के लिये नौकरी की बात की है। उसने यह भी बतलाया कि वह जब भी चाहे काम प्रारम्भ कर सकती है। विनोद ने जब उससे उसके खाने के विषय में पूछा तो पता चला कि अभी उसने भोजन नहीं किया है तब वह उसे किसी होटल में चलने के लिये कहता है। सविता के लिये मुम्बई एक अपरिचित नगर था। उसे कदम-कदम पर किसी सहारे की आवष्यकता थी। वह सहमति दे देती है। विनोद उसे पास ही एक अच्छे होटल में ले गया। सविता ने जब होटल की भव्यता और सुन्दरता देखी तो उससे कहा- मैंने अपने जीवन में पहले कभी ऐसी अच्छी होटल नहीं देखी। मुम्बई बहुत बड़ी है। यह हमारे देष की आर्थिक एवं सांस्कृतिक राजधानी है। अगर आप यहाँ नौकरी करती हैं तो धीरे-धीरे आप मुम्बई के रंग में ढल जाएंगी और यहीं की होकर रह जाएंगी। यह नगर इसी तरह से महानगर बना है। यहाँ के अधिकांष लोग बाहर से आकर ही यहाँ बसे हैं।
सविता ने दूसरे दिन ही नौकरी पर जाना प्रारम्भ कर दिया। विनोद उसे लेकर उस फर्म तक गया था और वहाँ उसके मालिक से उसका परिचय करवा आया था। अब सविता की दिनचर्या बहुत व्यस्त हो गई थी। वह सुबह तैयार होकर अस्पताल जाती। वहाँ से निकल कर अपने काम पर चली जाती और फिर शाम को अस्पताल पहुँच जाती। शाम को विनोद आता था तो रात्रि का भोजन वे प्रायः साथ-साथ ही किया करते थे। वहाँ से विनोद उसे उसके गेस्ट हाउस में छोड़कर फिर अपने घर जाता था। उनके बीच संबंध प्रगाढ़ होते जा रहे थे। विनोद प्रायः उसके लिये उपहार आदि लाता रहता था। सविता उसको अस्वीकार नहीं कर पाती थी। जगदीष दिनों-दिन अच्छा होता जा रहा था। सविता उसकी ओर से निष्चिन्त होती जा रही थी और विनोद के रुप में उसे एक अच्छा और विष्वसनीय साथी मिल गया था जिससे वह अपने सारे सुख-दुख और मन की बातें खुल कर कह लेती थी। विनोद मन ही मन सविता के प्रति झुकता जा रहा था। एक दिन रात्रि के भोजन के दौरान विनोद ने सविता से पूछा कि वह जीवन में क्या बनना चाहती थी। सविता ने एक ठण्डी सांस भरकर कहा- जीवन में किसी की सभी हसरतें कहाँ पूरी होती हैं। फिर उनकी चर्चा करने से क्या फायदा? उसकी बात सुनकर विनोद भावुक हो गया। उसे लगा जैसे उसने सविता के किसी मर्म स्थान पर हाथ रख दिया है। वह उसे समझाते हुए बोला-
जिन्दगी में सभी हसरतें
पूरी नहीं होतीं
और नहीं बनती हैं
भविष्यं का आधार।
हम समझ नहीं पाते
हसरतें हैं
हमारे जीवन का दर्पण।
हसरतों को पूरा करने के लिये
करना पड़ता है
बहुत परिश्रम।
धन, ज्ञान, कर्म और भाग्य का समन्वय
बनता है
सफलता का आधार।
यदि हम करते रहें
निरन्तर प्रयास
तो हमारी सभी हसरतें
एक दिन
निष्चित ही होती हैं पूरी।
वह भावुक होकर कहता है- जीवन में सब कुछ पाया पर एक दिन यह काया मिटकर केवल धर्म और कर्म की स्मृतियां ही रह जाएंगी। हमें अपने जीवन में पुरूषार्थ और भाग्य को समझना चाहिए। भाग्य है एक दर्पण के समान और पौरूष है उसका प्रतिबिम्ब। दोनों का जीवन में सामन्जस्य हो तभी जीवन की सम्पूर्णता होकर सफलता मिलती है। जीवन में एक दिन सभी को अनन्त में विलीन होना है। अतएव भगवान द्वारा प्रदत्त इस जीवन का पूरा-पूरा उपभोग कर लेना चाहिए। वह सविता के प्रति प्रेम व समर्पण की भावना में बह रहा था। सविता उसकी बातों को सुन रही थी किन्तु उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं था। जगदीष को दो दिनों से ज्वर आ रहा था। डाक्टर उसका उपचार कर रहे थे किन्तु कोई लाभ नहीं हो रहा था। आज डाक्टरों ने बतलाया कि ट्रांसप्लान्ट की गई किडनी सही रिस्पान्स नहीं कर रही है। वे सविता को अपने रिस्तेदारों को बुला लेने के लिये कहते हैं। इस स्थिति से सविता काफी असहज हो गई थी। उसने अपने सास-ससुर को खबर कर दी थी। दूसरी ओर उसकी ननद बिलकुल सामान्य हो गई थी। उसे रिलीव किया जा रहा था। जगदीष की हालत बिगड़ती ही जा रही थी।
सविता के सास-ससुर मुम्बई पहुँच गये थे। जगदीष के उपचार के लिये डाक्टर लगातार प्रयास कर रहे थे किन्तु वे उसे नहीं बचा सके। जगदीष इस दुनियां को छोड़कर चल दिया। सविता इस घटनाक्रम से लगभग टूट चुकी थी। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे। सभी की सलाह पर जगदीष का अंतिम संस्कार वहीं मुम्बई में ही किया गया। सविता वहां से छुट्टी लेकर अपने सास-ससुर के साथ अपने गृह नगर आ गई। मृत्यु के बाद के सारे काम हो जाने के बाद उनके परिवार के सामने फिर आजीविका की समस्या खड़ी हो गई थी। परिवार की सहमति से ही सविता वापिस मुम्बई रवाना हो गई। वहां उसने अपनी पुरानी सेवाएं पुुनः प्रारम्भ कर दीं। वह नियमित रुप से अपने सास-ससुर को भी खर्च भेजती रहती है। उस दिन शाम को जब विनोद उसके पास आता है तो वह कुछ चिन्तित सा था। वह सविता को समुद्र के किनारे घुमाने ले जाता है। वहाँ वे एक चट्टान पर बैठे थे। तभी विनोद उससे कहता है- मेरी समझ में नहीं आ रहा मैं तुमसे अपने मन की यह बात कैसे कहूँं? कौन सी बात? विनोद कुछ रूककर कहता है मैं चाहता हूँ कि मैं और तुम जीवन भर एक दूसरे के साथ रहें। यदि तुम स्वीकार करो तो मैं तुम्हारे साथ विवाह करना चाहता हूँ।
उसकी बात सुनकर सविता अवाक रह जाती है। वह कहती है- यह सही है कि आप एक बहुत अच्छे इन्सान हैं। ईष्वर ने आपको सब कुछ दिया है। मेरी और आपकी कोई बराबरी नहीं है। मैंने जगदीष से प्रेम विवाह किया था। वही मेरा पहला और अंतिम प्यार था। मैंने आपको कभी भी इस दृष्टि से नहीं देखा। मेरे ऊपर मेरे माता-पिता और सास-ससुर की जिम्मेदारी है। यही कारण है कि मैं पुनः मुम्बई वापिस आ गई हूँ। आपने मुझे जो काम दिलवा दिया है उसी से कमाकर मैं उनकी सेवा करुंगी। मैं आजीवन आपकी आभारी रहूंगी कि आपने निस्वार्थ भाव से एक अपरिचित परिवार का इतना ध्यान रखते हुए सेवा,सुश्रुषा प्रदान की, और अपनी ओर से हर संभव प्रयास किया कि जगदीष अच्छा हो जाए। पर मेरा दुर्भाग्य है कि अथक प्रयासों के बाद भी हम उसे बचा नही सके। मेरे ऊपर दो परिवारों की जवाबदारी आ गयी है। मेरे माता पिता जिन्होने मुझे जन्म दिया और दूसरे मेरे सास ससुर जिन्होने विवाह के बाद मुझे अपनी बेटी के समान रखा। इन सभी का मेरे अलावा और कोई नही हैं। मुझे ही इन सबकी देखभाल अकेले ही करनी होगी, मैं अपनी जवाबदारी से विमुख होकर विवाह कर लूँ , यह मेरे लिए संभव नही है। मैं भारतीय सभ्यता,संस्कृति एवं संस्कारों में पली हूँ। और मैं आजीवन उनके देखभाल में अपना समय देना चाहती हूँ। आप मुझे गलत मत समझयिगा।मैं तो आपके सुखद व संपन्न भविष्य की प्रभु से हमेषा प्रार्थना करती रहूँगी। अब मेरी और आपकी राहें अलग अलग हो रही है।विनोद कुछ उत्तर नहीं देता। उसका सिर कुछ झुका हुआ था। सविता भी मौन थी। कुछ देर बाद दोनों उठकर चल पड़े। पष्चिम में सागर में सूरज डूबता चला जा रहा था।
२८. मैं कौन हूँ?
अरे! तुम अभी तक सो रहे हो! सूर्योदय का कितना प्रकाष हो गया है। माँ की आवाज सुनकर राकेष हड़बड़ाकर उठा। माँ ने उसे चाय का प्याला थमा दिया और कहा- नहा-धो कर जल्दी नीचे आ जाओ। तुम्हारे पापा तैयार हो रहे हैं और नाष्ता भी तैयार हो चुका है। यह कहते हुए माँ कमरे से बाहर निकल गई। राकेष भी उठकर तैयार होकर नाष्ते की टेबल पर पहुँच गया। वहाँ उसके पिता उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे। उसे देखते ही उन्होंने उससे कहा- आइये दार्षनिक जी! आज आपके दर्षन षास्त्र में कौन सा नया प्रष्न उठा है। जिसका समाधान आप खोज रहे हैं। पिता का प्रष्न सुनकर राकेष बोला- मैं गम्भीरता पूर्वक सोच रहा हूँ कि ’’मैं कौन हूँ?’’ ’’आप कौन हैं?’’ ’’इस दुनियां में मानव का जन्म क्यों और किसलिये होता है?’’ यह सुनते ही उसके पिता बोले- अरे! तू सेठ निहाल चन्द का पुत्र है और मैं सेठ निहाल चन्द अपने पिता सेठ करोड़ीमल का बेटा हूँ। यह तो सामान्य सी बात है। इसमें इतना सोचने की क्या बात है? राकेष बी. काम. अंतिम वर्ष का विद्यार्थी था। वह बहुत गम्भीर, चिन्तनषील और अध्ययनषील नौजवान था। उसने पिता जी से कहा- यह प्रष्न बहुत गम्भीर है। आपका दिया हुआ उत्तर तो मुझे भी पता है। जब तुम्हें पता है तो फिर इस पर अपनी ऊर्जा और समय क्यों व्यर्थ नष्ट कर रहे हो?
उसी समय उसकी माँ नाष्ता लेकर आ गई और बोली आप लोग नाष्ता कीजिये। सुबह-सुबह व्यर्थ की बातों में उलझकर अपना दिन खराब मत कीजिये। वे राकेष से बोलीं- तू अपनी आदत से बाज नहीं आएगा, प्रतिदिन सुबह-सुबह एक नया राग छेड़ देता है और तेरे पिता जी को तो उल्टी-सीधी बातें करने में मजा आता है। उसकी बात सुनकर सेठ निहाल चंद ने कहा- राकेष जल्दी से नाष्ता कर ले और मेरे साथ दुकान चल। अब तू बड़ा हो गया है। कालेज में पढ़ रहा है। पढ़ाई के साथ-साथ तुझे व्यवसाय में भी ध्यान देना चाहिए। राकेष ने अपनी मौन स्वीकृति दी और नाष्ता करके पिता जी के साथ दुकान के लिये निकल पड़ा। सेठ निहाल चन्द का कपड़े का व्यवसाय था। वे समाज में एक ईमानदार और परिश्रमी व्यवसायी के रुप में प्रतिष्ठित थे। राकेष दुकान में बैठा था किन्तु उसके मन में यही प्रष्न बार-बार कौंध रहा था कि- मैं कौन हूँ? उसे अपने प्रष्न का कोई संतोष जनक उत्तर नहीं सूझ रहा था। उसके मस्तिष्क में एक विचार आया और उसने कागज के छोटे-छोटे टुकड़ों पर लिखना प्रारम्भ कर दिया कि-
’’आप जरा विचार कीजिये- मैं कौन हूँ? यदि आपको इस प्रष्न का उत्तर पता हो तो कृपया वह मुझे भी बताएं।’’ इसके बाद जो भी ग्राहक आता उसे सामान की रसीद के साथ-साथ वह उनमें से प्रष्न लिखा हुआ कागज का टुकड़ा भी उसे दे देता। उसके पिता उसके इस कृत्य से अनभिज्ञ थे। लगभग डेढ़-दो घण्टे बाद जब उसके कालेज का समय होने लगा तो वह अपने पिता से अनुमति लेकर दुकान से चला गया। दोपहर को हवलदार रामसिंह सेठ जी के पास आया और उनसे बोला- सेठ जी! आप एक कपड़े के व्यापारी हैं और आपका नाम सेठ निहाल चन्द है। सेठ जी उसकी बात सुनकर चैंके और बोले- यह तो मुझे भी पता है। तुम मुझे क्या बताना चाहते हो? रामसिंह बोला- आपने जो पूछा है वही मैं आपको बताना चाहता हूँ। सेठ जी और भी अधिक आष्चर्य में पड़ गये। वे बोले- मैंने तुमसे यह कब पूछा है? हवलदार ने उन्हें वह कागज का टुकड़ा पकड़ा दिया और कहा- सुबह जब मैं आपके यहाँ से सामान लेकर गया था तभी तो आपके बेटे ने रसीद के साथ ही यह कागज का टुकड़ा भी मुझे दिया था। सेठ जी ने वह कागज का टुकड़ा ले लिया और उसे पढ़ा तो उनकी समझ में आ गया कि यह सब राकेष का काम है। उन्होंने हवलदार को राकेष के विषय में बतलाया और उसे समझा कर विदा कर दिया।
अभी हवलदार को गए कुछ ही समय बीता था कि उनके परिवार का डाक्टर आ गया। उसने भी वही सब कहा-सुना जो हवलदार कहकर गया था। सेठ जी ने उन्हें भी समझा-बुझा कर विदा किया। तब तक एक और सज्जन आ गए। वे भी उनसे इसी विषय पर बोले। अब तो उनका धैर्य समाप्त होने लगा। तभी कुछ हिजड़े सेठ जी के पास आ धमके। उनमें से एक हिजड़ा सुबह सेठ जी के यहाँ से कपड़े लेकर गया था। उसे भी राकेष ने वही प्रष्न लिखा कागज दिया था। हिजड़े सेठ जी से उलझ रहे थे। आसपास के दुकानदार मजा ले रहे थे। सेठ जी को राकेष पर तो क्रोध आ ही रहा था। उनने किसी तरह से उन हिजड़ों से अपना पीछा छुड़ाया और दुकान बन्द करके घर की ओर चल दिये।
राकेष ने कालेज पहुँचकर वहाँ शौचालय से लेकर क्लास रुम और दीवालों पर यही प्रष्न लिख दिया। किसी को यह भनक नहीं लगने दी कि यह किसने किया है। कालेज में जब षिक्षकों, विद्यार्थियों और अन्य लोगों ने जगह-जगह यह पढ़ा तो चर्चा का विषय बन गया। विद्यार्थी आपस में एक-दूसरे से मैं कौन हूँ? मैं कौन हूँ? कहकर मजा लेने लगे। लोग पढ़ाई-लिखाई छोड़कर इस पर चर्चा कर रहे थे। प्राचार्य ने इस पर एक बैठक बुलाई। बैठक में कुछ षिक्षकों ने कहा कि यह तरीका तो गलत है किन्तु प्रष्न महत्वपूर्ण है। यह जिसका भी काम है वह छात्र चिन्तनषील ही होगा। हमें इस पर अधिक ध्यान नहीं देना चाहिए। बैठक बेनतीजा ही समाप्त हो गई।
कालेज से लौटकर जब राकेष घर पहुँचा तो वह बहुत प्रसन्न था किन्तु जब उसका सामना अपने पिता से हुआ तो दृष्य ही बदल गया। सेठ निहाल चंद क्रोध और चिन्ता दोनों से भरे हुए थे। राकेष की हरकत से वे क्रोधित थे तो उसके भविष्य को लेकर चिन्तित थे। यह बात उनके चेहरे पर झलक रही थी। वे उससे झल्लाकर बोले- तुम्हारे कारण आज मैं बहुत परेषान हो चुका हूँ। तुम या तो अपनी ये हरकतें बन्द करके पढ़ाई और धन्धे में ध्यान लगाओ या फिर अपने इन ऊल-जलूल प्रष्नांे के उत्तर पाने के लिये हिमालय पर किसी महात्मा के पास चले जाओ जिनके पास तुम्हें ऐसे प्रष्नों के समाधान मिलते रहें।
सेठ निहाल चंद ने यह बात ऐसे ही कह दी थी। उन्हें इस बात का अनुमान नहीं था कि राकेष उसे गम्भीरता से लेगा। लेकिन राकेष को पिता की बात में अपनी समस्याओं का समाधान नजर आया। उसी रात वह किसी को कुछ भी बताये बिना केवल एक छोटा सा पत्र रखकर घर से बाहर निकल गया। वह अपने पत्र में लिख कर रख गया कि मैं अपने ज्ञान की वृद्धि के लिये जा रहा हूँ । आप लोग मेरी चिन्ता न करें । जब मेरे प्रष्नों का समाधान हो जाएगा तो मैं स्वयं वापिस आ जाऊंगा। राकेष घर से निकला तो सीधा हरिद्वार पहुँच गया। वहाँ उसने अनेक महात्माओं से मुलाकात की लेकिन गाँजा-चरस पीने वाले उन ढोंगियों में उसका मन नहीं भरा। कई दिनों की खोज के बाद भी वह संतुष्ट नहीं हो सका। उसने कभी पढ़ा था जो अब उसे सच्चा लग रह था।
संत और महात्मा की खोज में
हम भटक रहे हैं।
काम, क्रोध, लोभ और मोह की
दुनियां में रहकर भी
जो इनसे अप्रभावित है
वह संत है।
जो इनको त्याग कर भी
लोक-कल्याण में समर्पित है
वह महात्मा है।
इतनी सी बात
हम समझ नहीं पा रहे हैं
और इनकी खोज में
व्यर्थ चक्कर खा रहे हैं।
लेकिन राकेष के मन में यह भी था कि खोजने से तो भगवान भी मिल जाता है तब फिर कोई न कोई सच्चा संत अवष्य मिलेगा जो उसे सच्चा मार्ग दिखलाएगा। वह हरिद्वार से बद्रीनाथ पहुँच गया। वहाँ वह एक स्थान पर बैठा सोच रहा था कि यहाँ किससे मिला जाए। वह ठण्ड से ठिठुर भी रहा था। वह जहाँ बैठा था उसके सामने ही एक छोटे से मकान में एक वृद्ध सज्जन अपनी बेटी के साथ रहते थे। उनकी बेटी का नाम पल्लवी था। सांझ हो रही थी। पल्लवी अपनी दिनचर्या के अनुसार गाय को चारा देने घर से बाहर निकली। जब उसने देखा कि उसके घर के सामने सड़क के उस पार कोई परदेसी बैठा ठण्ड में ठिठुर रहा है तो उसने उसके पास जाकर उससे पूछा कि आप कौन हैं और यहाँ क्या कर रहे हैं? यही तो मैं जानना चाहता हूँ कि मैं कौन हूँ। इसी प्रष्न के समाधान के लिये मैं बहुत दूर से यहाँ आया हूँ। अभी तक तो कोई नहीं मिला जो इस प्रष्न का समाधान मुझे दे सके। यहाँ बैठकर यही सोच रहा हूँ कि अब क्या करुं। पल्लवी को उसकी बातें अजीब लगीं पर राकेष उसे एक निष्छल और समझदार व्यक्ति लगा। उसने राकेष से कहा- तुम मेरे घर चलो! भीतर मेरे पिता जी हैं। वे तुम्हें कोई रास्ता अवष्य बतला देंगे।
राकेष उसके साथ उसके घर चला गया। उसके पिता ने राकेष की सारी बातें सुनी तो वे बोले- आज अभी रात हो गई है। तुम हमारे यहाँ ठहर जाओ। अभी खाना खा कर आराम करो। तुम्हारे प्रष्न का उत्तर बाबा बालकनाथ ही दे सकते हैं। वे ऊपर गौमुख में रहते हैं। वहाँ की यात्रा बहुत कठिन है। वे महिने में एक-दो दिन के लिये यहाँ नीचे आते हैं। पिछले माह आये थे। इस महिने अभी नहीं आये हैं। एक-दो दिन में आते ही होंगे। तब तक तुम चाहो तो हमारे यहाँ अतिथि बनकर रह सकते हो। राकेष उनकी बात मान लेता है और वहीं ठहर जाता है। पल्लवी उसे अपने पिता के साथ बैठाकर खाना खिलाती है। भोजन के बाद राकेष और पल्लवी के पिता के बीच बातचीत होती है। काफी देर वे एक-दूसरे के साथ बातें करते हैं। वे राकेष का परिचय प्राप्त करते हैं और राकेष उनसे व उनके अतीत से परिचित होता है। जब उन्हें पता लगता है कि राकेष किस प्रकार वहाँ आया है तो वे राकेष को समझाते हैं और उससे नम्बर लेकर सेठ निहाल चंद से बात करते हैं। वे उन्हें बताते हैं कि राकेष उनके यहाँ है और दो-तीन दिनों के बाद यहाँ से अपने घर वापिस आएगा। वे उनसे यह भी कहते हैं कि इस बीच वे जब चाहें उसका समाचार प्राप्त कर सकते हैं, वे राकेष और उसकी माँ की बात भी करवाते हैं। रात को वे दोनों तो कुछ ही देर में सो जाते हैं किन्तु राकेष को नींद नहीं आती। वह सोच रहा था- अपने जीवन के विषय में। सोचते-सोचते वह पल्लवी के विषय में सोचने लगता है।
पल्लवी कितनी निस्पृह लड़की है। मुझे देखकर ही समझ गई और अपने घर पर अतिथि बना लिया वरना इस भीषण ठण्ड में रात कैसे कटती। उसके कारण ही उसके प्रष्न का समाधान मिलने का रास्ता भी मिल गया लग रहा है। पल्लवी बहुत सुन्दर है। उसकी सादगी और सहजता उसके सौन्दर्य में चार चाँद लगा रहे हैं। वह कितनी परिश्रमी है। उसके चेहरे पर सुबह के उगते हुए सूरज सी ताजगी और लालिमा है। वह उसके प्रति एक अपनेपन के भाव से भर उठा। उसके मन में विचार आया कि अगर बाबा बालकनाथ दो चार दिन और न आये ंतो उसे पल्लवी के साथ रहने का और अधिक अवसर मिलेगा। उसका मन हुआ कि वह अपनी चारपाई से उठकर पल्लवी के पास चला जाए और उसे अपने सीने से चिपटा ले। सहसा राकेष चैंक उठा। वह यह सब क्या सोचने लगा। वह एक सभ्य आदमी से कामुक पषु कैसे बन गया। फिर उसे लगा कि नहीं काम सिर्फ पषुता नहीं है। वह तो इस सृष्टि का आधार है -
काम
वासना नहीं है,
वह तो है
प्रकृति और जीवन चक्र की
स्वाभाविक प्रक्रिया,
कामुकता वासना हो सकती है।
काम है प्यार के पौधे के लिये
उर्वरा मृदा।
काम है सृष्टि में
सृजन का आधार।
इससे हमें प्राप्त होता है
हमारे अस्तित्व का आधार।
काम के प्रति समर्पित रहो
वह भौतिक सुख और
जीवन का सत्य है।
कामुकता से दूर रहो,
वह बनती है
विध्वंस का आधार
और व्यक्ति को करती है दिग्भ्रमित।
यह सब सोचते-सोचते ही राकेष जाने कब सो गया। सुबह सूर्योदय से पूर्व ही राकेष तैयार हो चुका था। पल्लवी अपने पिता के निर्देषानुसार राकेष को बद्रीनाथजी के दर्षन कराने ले जा रही थी। उसके पिता को आर्थोराइटिस था। वे साथ में जाने से असमर्थ थे। जिस समय वे घर से निकले उस समय सूर्योदय में कुछ कसर थी। पहाड़ों के पीछे से कुछ रौषनी आने लगी थी। वे पैदल चले जा रहे थे। राकेष के पैरों के साथ ही उसके विचारों का सिलसिला भी चल रहा था। सूर्योदय हो रहा है, और सत्य का प्रकाष विचारों की किरणें बनकर सभी दिषाओं में फैल रहा है। हर ओर कैसी आनन्ददायी शान्ति व्याप्त है। यह शान्ति सभी को समान रुप से प्राप्त होने वाला प्रकृति का उपहार है जो उसे सृजन की दिषा में प्रेरित कर रहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि तमसो मा ज्योतिर्गमय के रुप में दिन का शुभारम्भ हो रहा है। ऐसे ही समय में हमारा दिल और दिमाग परमात्मा की कृपा का अनुभव करता है। यही सब सोचते-सोचते वे मन्दिर पहुँच जाते हैं। पल्लवी आपनी स्वाभाविक लज्जा के कारण मौन थी तो राकेष अपने विचारों में खोया हुआ मौन था। मन्दिर आया तो जैसे दोनों की चेतना जागृत हो गई।
पूजा के उपरान्त घर वापिस आते समय राकेष और पल्लवी के बीच सहज स्वभाविक बातचीत होती है। पल्लवी के बातचीत के सलीके, उसकी समझ और उसके विचारों से राकेष बहुत प्रभावित होता है। घर पर आकर पल्लवी अपने प्रतिदिन के कामों में लग जाती है। राकेष उसके पिता के पास जाकर बैठ जाता है। उनके बीच चर्चाओं का सिलसिला चल पड़ता है। उसके पिता राकेष को बतलाते हैं कि किस तरह चीन के आक्रमण के समय चीनी सेनाएं बद्रीनाथ के करीब तक पहुँच गईं थीं। उस युद्ध के शहीदों की स्मृति में बना स्मारक आज भी उनकी याद ताजा कर रहा है। वे उसे भगवान बद्रीनाथ जी का पूरा इतिहास भी बतलाते हैं। इसी प्रकार विभिन्न विषयों पर बातचीत करते-करते ही भोजन भी तैयार हो चुका था। भोजन बहुत स्वादिष्ट था। राकेष पल्लवी के पाक-कौषल से भी प्रभावित होता है। वह उसे इतना स्वादिष्ट भोजन कराने के लिये धन्यवाद भी देता है। भोजन के बाद राकेष उसके पिता से अनुमति लेकर घूमने निकल पड़ता है। वह शहीदों के स्मारक पर जाता है। वहाँ कुछ देर रूकने के बाद वह आसपास के प्राकृतिक सौन्दर्य को देखने के लिये घूमता रहता है। शाम होने लगती है तो वह पल्लवी के घर वापिस आता है।
जब वह वापिस आता है तो पल्लवी के पिता राकेष को देखकर बोल पड़े- बेटा! तुम बहुत भाग्यषाली हो। तुम जिनकी प्रतीक्षा कर रहे थे वे आज ही आ गये। तुम्हें अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी। राकेष ने देखा कि उनके पास ही एक सन्यासी बैठे हुए हैं। उनके सारे केष ऐसे श्वेत हैं जैसे किसी ने उन्हें उजले कपास से बनाया हो। इकहरी और दीर्घ काया है। मुख पर लालिमा युक्त तेज है। उनकी आँखों में सम्मोहन है। राकेष ने आगे बढ़कर उनको शीष रखकर प्रणाम किया और वहीं पास में पालथी मारकर बैठ गया। पल्लवी के पिता ने उन महात्मा को राकेष का परिचय दिया और उसके बद्रीनाथ पहुँचने की वृत्तान्त बतलाया। वे मौन होकर शान्त भाव से राकेष की ओर देखते रहे। बात समाप्त होने के बाद वे कुछ देर मौन रहकर बोले- बेटा! तुम्हारे मन में जो प्रष्न है वह बहुत महत्वपूर्ण है मुझे आष्चर्य है कि उसके समाधान के लिये तुम इतनी दूर तक आये हो। मैं अगर संक्षिप्त उत्तर दूँ तो बस इतना समझ लो कि ईष्वर ने इस सृष्टि का सृजन किया है और मानव उसकी सर्वश्रेष्ठ कृति है। हम, तुम और सब उसकी सृष्टि की अनवरतता के हेतु हैं।
महात्मा जी का उत्तर सुनकर राकेष को जैसे मन चाहा वर मिल गया हो। उसके मन की सारी ऊहापोह समाप्त होकर उसके चेहरे पर संतुष्टि के भाव झलकने लगे। वह प्रसन्न हो गया था। उसके बाद उनके बीच वार्तालाप चलता रहा। वे सभी तन्मय थे। उनका ध्यान तब टूटा जब पल्लवी ने आकर भोजन तैयार होने की सूचना दी। अगले दिन सुबह दरवाजे पर दस्तक हुई। पल्लवी ने दरवाजा खोला तो सामने एक दम्पति खड़े थे। उन्होंने उससे कहा कि वे राकेष के माता-पिता हैं। राकेष क्या वहीं ठहरा हुआ है? पल्लवी ने सहमति व्यक्त करते हुए उनका अभिवादन किया और उन्हें भीतर अपने पिता के पास ले गई। उस समय उसके पिता महात्मा जी के साथ ही थे, राकेष भी वहीं था। राकेष जैसे ही अपने माता-पिता को देखता है वह सुखद आष्चर्य से भर उठता है और आगे बढ़कर उनके चरण स्पर्ष करता है। एक आत्मीय प्रसन्नता का वातावरण पूरे कक्ष में छा जाता है। आपस में परिचय के उपरान्त सन्यासी जी उनसे कहते हैं आप लोग दूर से आये हैं। थोड़ा विश्राम आदि कर लीजिये मैं भी जिस प्रयोजन से आया हूँ वह कार्य सम्पन्न कर लूँ। फिर संध्याकाल में जब बैठेंगे तो चर्चा होगी।
महात्मा जी राकेष को साथ लेकर चले जाते हैं। पल्लवी के पिता और राकेष के माता-पिता उसी कमरे में बैठकर बातें करने लगते हैं। पल्लवी के पिता ने उनसे कहा- आप ने क्यों कष्ट किया। आपका बेटा तो इतना समझदार है। महात्मा जी उसकी उस जिज्ञासा को शान्त कर चुके हैं जिसके कारण वह यहाँ आया था। अब तो वह घर वापिस ही आने वाला था। हम तो यह सोचकर चले आये कि हमें भी बद्रीनाथ जी के दर्षन हो जाएंगे। हमारे मन में आपसे मिलने की भी इच्छा थी। आपने उसे परदेष में सहारा दिया है, हम लोगों को उसका समाचार देकर हमारी चिन्ता को दूर किया और महात्मा जी से मिलवाकर राकेष को सच्चा रास्ता भी दिखलाया है। इसीलिये हमने सोचा कि हम स्वयं आकर आपके प्रति अपना आभार जताएं। आपका आना तो हमारे लिये सौभाग्य की बात है। लेकिन आपका सामान कहाँ है? हम पास ही के गेस्ट हाउस में ठहरे हैं? घर होते हुए भी आप गेस्ट हाउस में ठहरें यह तो अच्छा नहीं लगा। उन्होंने पल्लवी की ओर उन्मुख होते हुए उसे नौकर के साथ जाकर समान ले आने के लिये कहकर सामान बुलवा लिया।
महात्मा जी का बद्रीनाथ जी में भी आश्रम था। वे ठहरते तो इनके यहाँ थे किन्तु लोगों से अपने उसी पुराने छोटे से आश्रम में मिला करते थे। वहां वे गोमुख जाने के पहले रहते थे। वे राकेष को लेकर उसी आश्रम में गये थे। वहाँ जब वे और राकेष एकान्त में बैठे थे उस समय महात्मा जी ने उससे कहा- प्रभु ने इस सृष्टि में वैभव व प्रसन्नता पूर्वक मानव जीवन बिताने हेतु हमें जन्म दिया है। हमारा जीवन कैसा हो? हमारे लक्ष्यों का निर्धारण हमें स्वयं इस प्रकार करना चाहिए कि उससे राष्ट्र और समाज लाभान्वित हो। भाग्य व समय एक दूसरे के साथ चलते हैं। वे कभी भी एक दूसरे के विपरीत नहीं होते। मानव जीवन इसके परिणामों को प्रसन्नता और शोक के रुप में प्राप्त करता है। यही हमारे जीवन का सत्य है।
इस दृष्टि से देखा जाए तो इस समय तुम्हें गूढ़ दार्षनिक विषयों की अपेक्षा जीवन के व्यावहारिक विषयों पर अपने को एकाग्र करना चाहिए। पहले उस संसार को समझ लो जिसमें रह रहे हो फिर उस संसार को समझने का प्रयास करना जो हमारी दृष्टि से परे एक अलौकिक सृष्टि है। राकेष उनकी बातों को स्वीकार करते हुए उन्हें आष्वस्त करता है कि वह पहले अपना अध्ययन पूरा करेगा।अपने परिवार, समाज और देष के लिये समर्पित रहेगा। वह इतना कहते हुए स्वामी जी के चरणों में अपना सिर रख देता है। स्वामी जी स्नेह पूर्वक उसके सिर पर हाथ रखकर उसे सुखी जीवन और सफलता का आषीर्वाद देते हैं। उधर पल्लवी राकेष की माता-पिता को बद्रीनाथ जी के दर्षन कराने ले जाती है। वहाँ से लौटकर भोजन के उपरान्त राकेष और पल्लवी के पिता साथ-साथ बातें करते हुए विश्राम करते हैं तथा पल्लवी राकेष की माँ को ले जाकर बद्रीनाथ धाम का बाजार घुमाती है।
संध्या हो रही थी, पल्लवी अपने दैनिक कार्यों में व्यस्त थी तभी राकेष की माँ और उसके पिता जी को एकान्त मिला। राकेष की माँ ने उनसे पल्लवी के संबंध में चर्चा करते हुए उसके गुणों की तारीफ की। उसके पिता ने भी उसकी तारीफ की और उसे अपनी बहू बनाने का विचार व्यक्त किया। राकेष की माँ ने कहा- हमें राकेष से भी पूछ लेना चाहिए। सेठ निहालचंद ने अपनी सहमति देते हुए राकेष के मन की बात जानने का जिम्मा उसकी माँ को ही सौंप दिया। स्वामी जी राकेष के साथ जब घर वापिस आये तो उसकी माँ ने राकेष को अलग ले जाकर अपने और पिता जी के विचारों से उसे अवगत कराते हुए उसकी मर्जी जानना चाही। राकेष ने कहा- माँ! मैंने तो इस प्रकार से सोचा ही नहीं है। फिर अभी मुझे अपनी पढ़ाई भी पूरी करना है। ऐसे में जैसा भी आप लोग उचित समझें मुझे स्वीकार है।
कुछ समय बाद जब सब लोग महात्मा जी के समक्ष बैठे थे तभी राकेष के पिता ने स्वामी जी से अपने मन की बात कही। स्वामी जी ने उनसे कहा- आचार-विचार की दृष्टि से दोनों की जोड़ी उत्तम है। मैं पल्लवी को बचपन से जानता हूँ। राकेष को भी आज और कल में जितना जान पाया हूँ उसके अनुसार कह सकता हूँ कि आपके मन में जो विचार आया है वह उत्तम है। लेकिन लोकाचार का तकाजा है कि आपने तो पल्लवी का घर-द्वार देख लिया किन्तु अभी उसके पिता ने कुछ भी नहीं देखा है। अच्छा होगा कि एक बार वे आपके घर जाएं और फिर उसके बाद ही आप दोनों इस रिष्ते को आगे बढ़ाएं। महात्मा जी की बात सभी को अच्छी लगी और सब इसके लिये सहमत हो गए। विदा होने के पूर्व महात्मा जी ने सेठ निहालचंद को एक रूद्राक्ष की माला और गोमुख से लाया हुआ गंगाजल आषीर्वाद स्वरुप दिया। समय तेजी से गुजरता है। अगले वर्ष दोनों का विवाह बद्रीनाथ धाम में ही धूमधाम से सम्पन्न होता है। महात्मा जी आकर विवाह में दोनों को अपने आषीर्वाद देते हैं और उनके माता-पिता को एक सुन्दर-सुषील बहू के रुप में बेटी मिलने की बधाई देते हैं। उसी समय सेठ निहालचंद महात्मा जी सहित सभी के सामने राकेष से कहते हैं कि मैं कौन हूँ के उत्तर में तुम्हे पत्नी तो मिल गई लेकिन अब कहीं यह मत खोजने लगना कि ’’यह कौन है?’’ या ’’हम कौन हैं?’’
२९. हार-जीत
सुमन दसवीं कक्षा में एक अंग्रेजी माध्यम की षाला में अध्ययन करती थी। वह पढ़ाई के साथ-साथ खेलकूद में भी गहन रूचि रखती थी और लम्बी दूरी की दौड़ में हमेंषा प्रथम स्थान पर ही आती थी। उसको क्रीड़ा प्रषिक्षक कोचिंग देकर यह प्रयास कर रहे थे कि वह प्रादेषिक स्तर पर भाग लेकर शाला का नाम उज्ज्वल करे। इसके लिये उसके प्राचार्य, षिक्षक, अभिभावक और उसके मित्र सभी उसे प्रोत्साहित करते थे। वह एक सम्पन्न परिवार की लाड़ली थी। वह क्रीड़ा गतिविधियों में भाग लेकर आगे आये इसके लिये उसके खान-पान आदि का ध्यान तो रखा ही जाता था उसे अच्छे व्यायाम प्रषिक्षकों का मार्गदर्षन दिये जाने की व्यवस्था भी की गई थी। उसके पिता सदैव उससे कहा करते थे कि मन लगाकर पढ़ाई के साथ-साथ ही खेल कूद में भी अच्छी तरह से भाग लो तभी तुम्हारा सर्वांगीण विकास होगा। सुमन की कक्षा में सीमा नाम की एक नयी लड़की ने प्रवेष लिया। वह अपने माता-पिता की एकमात्र सन्तान थी और एक किसान की बेटी थी। वह गाँव से अध्ययन करने के लिये शहर में आयी थी। उसके माता-पिता उसे समझाते थे कि बेटी पढ़ाई-लिखाई जीवन में सबसे आवष्यक होती है। यही हमारे भविष्य को निर्धारित करती है एवं उसका आधार बनती है। तुम्हें क्रीड़ा प्रतियोगिताओं में भाग लेने से कोई नहीं रोकता किन्तु इसके पीछे तुम्हारी षिक्षा में व्यवधान नहीं आना चाहिए। एक बार शाला में खेलकूद की गतिविधियों में सुमन और सीमा ने लम्बी दौड़ में भाग लिया। सुमन एक तेज धावक थी। वह हमेषा के समान प्रथम आयी और सीमा द्वितीय स्थान पर रही। प्रथम स्थान पर आने वाली सुमन से वह काफी पीछे थी।
कुछ दिनों बाद ही दोनों की मुलाकात शाला के पुस्तकालय में हुई। सुमन ने सीमा को देखते ही हँसते हुए व्यंग्य पूर्वक तेज आवाज में कहा- सीमा मैं तुम्हें एक सलाह देती हूँ तुम पढ़ाई लिखाई में ही ध्यान दो। तुम मुझे दौड़ में कभी नहीं हरा पाओगी। तुम गाँव से आई हो। अभी तुम्हें नहीं पता कि प्रथम आने के लिये कितना परिश्रम करना पड़ता है। तुम नहीं जानतीं कि एक अच्छा धावक बनने के लिये किस प्रकार के प्रषिक्षण एवं अभ्यास की आवष्यकता होती है। मेरे घरवाले पिछले पाँच सालों से हजारों रूपये मेरे ऊपर खर्च कर रहे हैं और मैं प्रतिदिन घण्टों मेहनत करती हूँ तब जाकर प्रथम स्थान मिलता है। यह सब तुम्हारे और तुम्हारे परिवार के लिये संभव नहीं है इसलिये अच्छा होगा कि तुम अपने आप को पढ़ाई-लिखाई तक ही सीमित रखो। इतना कहकर वह सीमा की ओर उपेक्षा भरी दृष्टि से देखती हुई वहाँ से चली गई। सीमा एक भावुक लड़की थी उसे सुमन की बात कलेजे तक चुभ गई। इस अपमान से उसकी आँखों में आंसू छलक उठे। घर आकर उसने अपने माता-पिता दोनों को इस बारे में विस्तार से बताया।
पिता ने उसे समझाया- बेटा! जीवन में षिक्षा का अपना अलग महत्व है। खेलकूद प्रतियोगिताएं तो औपचारिकताएं हैं। मैं यह नहीं कहता कि तुम खेलकूद में भाग मत लो किन्तु अपना ध्यान पढ़ाई में लगाओ और अच्छे से अच्छे अंकों से परीक्षाएं पास करो। तुम्हारी सहेली ने घमण्ड में आकर जिस तरह की बात की है वह उचित नहीं है लेकिन उसने जो कहा है वह ध्यान देने लायक है। तुम हार-जीत की परवाह किए बिना खेलकूद में भाग लो और अपना पूरा ध्यान अपनी षिक्षा पर केन्द्रित करो। उसकी माँ भी यह सब सुन रही थी। उसने सीमा के पिता से कहा- पढ़ाई-लिखाई तो आवष्यक है ही साथ ही खेलकूद भी उतना ही आवष्यक होता है। इसमें भी कोई आगे निकल जाए तो उसका भी तो बहुत नाम होता है। सीमा के पिता को उसकी माँ की बात नागवार गुजरी। वह भी सीमा को बहुत चाहते थे। उनकी अभिलाषा थी कि बड़ी होकर वह बड़ी अफसर बने। सीमा दोनों की बातें ध्यान पूर्वक सुन रही थी। उसकी माँ ने उससे कहा- दृढ़ इच्छा शक्ति और कठोर परिश्रम से सभी कुछ प्राप्त किया जा सकता है।
सीमा अगले दिन से ही गाँव के एक मैदान में जाकर सुबह दौड़ का अभ्यास करने लगी। वह प्रतिदिन सुबह जल्दी उठ जाती और दैनिक कर्म करने के बाद दौड़ने चली जाती। एक दिन जब वह अभ्यास कर रही थी तो वह गिर गई जिससे उसके घुटने में चोट आ गई। वह कुछ दिनों तक अभ्यास नहीं कर सकी, इसका उसे बहुत दुख था और वह कभी-कभी अपनी माँ के सामने रो पड़ती थी। जब उसकी चोट ठीक हो गई तो उसने फिर अभ्यास प्रारम्भ कर दिया। अब वह और भी अधिक मेहनत के साथ अभ्यास करने लगी। वह उतनी ही मेहनत पढ़ाई में भी कर रही थी। इसके कारण उसे समय ही नहीं मिलता था। वह बहुत अधिक थक भी जाती थी। उसके माता-पिता दोनों ने यह देखा तो उन्होंने यह सोचकर कि विद्यालय आने-जाने के लिये गाँव से शहर आने-जाने में उसका बहुत समय बरबाद होता है। उन्होंने उसके लिये शहर में ही एक किराये का मकान लेकर उसके रहने और पढ़ने की व्यवस्था कर दी। शहर में उसके साथ उसकी माँ भी रहने लगी। इससे उसके पिता को गाँव में अपना कामकाज देखने में बहुत परेषानी होने लगी किन्तु उसके बाद भी उन्हें संतोष था क्योंकि उनकी बेटी का भविष्य बन रहा था।
शहर आकर सीमा जिस घर में रहती थी उससे कुछ दूरी पर एक मैदान था। लोग सुबह-सुबह उस मैदान में आकर दौड़ते और व्यायाम करते थे। सीमा ने भी अपना अभ्यास उसी मैदान में करना प्रारम्भ कर दिया। एक बुजुर्ग वहाँ मारनिंग वाॅक के लिये आते थे। वे सीमा को दौड़ का अभ्यास करते देखते थे। अनेक दिनों तक देखने के बाद वे उसकी लगन और उसके अभ्यास से प्रभावित हुए। एक दिन जब सीमा अपना अभ्यास पूरा करके घर जाने लगी तो उन्होंने उसे रोक कर उससे बात की। उन्होंने सीमा के विषय में विस्तार से सभी कुछ पूछा। उन्होंने अपने विषय में उसे बतलाया कि वे अपने समय के एक प्रसिद्ध धावक थे। उनका बहुत नाम था। वे पढ़ाई-लिखाई में औसत दर्जे के होने के कारण कोई उच्च पद प्राप्त नहीं कर सके। समय के साथ दौड़ भी छूट गई। उन्होंने सीमा को समझाया कि दौड़ के साथ-साथ पढ़ाई में उतनी ही मेहनत करना बहुत आवष्यक है। अगले दिन से वे सीमा को दौड़ की कोचिंग देने लगे। उन्होंने उसे लम्बी दौड़ के लिये तैयार करना प्रारम्भ कर दिया। शाला में प्रादेषिक स्तर पर भाग लेने के लिये चुने जाने हेतु अंतिम प्रतियोगिता का आयोजन किया गया था। इसमें 1500 मीटर की दौड़ में प्रथम आने वाले को प्रादेषिक स्तर पर भेजा जाना था। प्रतियोगिता जब प्रारम्भ हो रही थी सुमन ने सीमा की ओर गर्व से देखा। सुमन पूर्ण आत्मविष्वास से भरी हुई थी और उसे पूरा विष्वास था कि यह प्रतियोगिता तो वह ही जीतेगी। सुमन और सीमा दोनों के माता-पिता भी दर्षक दीर्घा में उपस्थित थे। व्हिसिल बजते ही दौड़ प्रारम्भ हो गई।
सुमन ने दौड़ प्रारम्भ होते ही अपने को बहुत आगे कर लिया था। उसके पैरों की गति देखकर दर्षक उत्साहित थे और उसके लिये तालियाँ बजा-बजा कर उसका उत्साह बढ़ा रहे थे। सीमा भी तेज दौड़ रही थी किन्तु वह दूसरे नम्बर पर थी। वह एक सी गति से दौड़ रही थी। 1500 मीटर की दौड़ थी। प्रारम्भ में सुमन ही आगे रही लेकिन आधी दौड़ पूरी होते-होते तक सीमा ने सुमन की बराबरी कर ली। वे दोनों एक दूसरे की बराबरी से दौड़ रहे थे। कुछ दर्षक सीमा को तो कुछ सुमन को प्रोत्साहित करने के लिये आवाजें लगा रहे थे। सुमन की गति धीरे-धीरे कम हो रही थी जबकि सीमा एक सी गति से दौड़ती चली जा रही थी। जब दौड़ पूरी होने में लगभग 100 मीटर रह गये तो सीमा ने अपनी गति बढ़ा दी। उसकी गति बढ़ते ही सुमन ने भी जोर मारा। वह उससे आगे निकलने का प्रयास कर रही थी लेकिन सीमा लगातार उससे आगे होती जा रही थी। दौड़ पूरी हुई तो सीमा प्रथम आयी थी। सुमन उससे काफी पीछे थी। वह द्वितीय आयी थी। सीमा की सहेलियाँ मैदान में आ गईं थी वे उसे गोद में उठाकर अपनी प्रसन्नता जता रही थीं। वे खुषी से नाच रही थीं। मंच पर प्राचार्य जी आये और उन्होंने सीमा की विजय की घोषणा की। सीमा अपने पिता के साथ प्राचार्य जी के पास पहुँची और उसने उनसे बतलाया कि वह प्रादेषिक स्तर पर नहीं जाना चाहती है। उसकी बात सुनकर प्राचार्य जी और वहाँ उपस्थित सभी लोग आष्चर्यचकित हो गये थे। प्राचार्य जी ने उसे समझाने का प्रयास किया किन्तु वह टस से मस नहीं हुई।
सीमा ने उनसे कहा कि वह आईएएस या आईएफएस बनना चाहती है। इसके लिये उसे बहुत पढ़ाई करने की आवष्यकता है। दौड़ की तैयारियों के कारण उसकी पढ़ाई प्रभावित होती है इसलिये वह प्रादेषिक स्तर पर नहीं जाना चाहती। अन्त में प्राचार्य जी स्वयं माइक पर गये और उन्होंने सीमा के इन्कार के विषय में बोलते हुए सुमन को विद्यालय की ओर से प्रादेषिक स्तर पर भेजे जाने की घोषणा की। यह सुनकर सुमन सहित वहाँ पर उपस्थित सभी दर्षक भी अवाक रह गये। सुमन सीमा के पास आयी और उसने पूछा कि तुमने ऐसा क्यों किया। सीमा उसे भी वही बतलाती है जो उसने प्राचार्य से कही थी। उसने सुमन को एक ओर ले जाकर उससे कहा कि मेरा उद्देष्य क्रीड़ा प्रतियोगिता में आने का नहीं था वरन मैं तुम्हें बताना चाहती थी समय सदैव एक सा नहीं होता। कल तुम प्रथम स्थान पर थी आज मैं हूँ कल कोई और रहेगा। उस दिन पुस्तकालय में तुमने जो कुछ कहा था उसे तुम मित्रता के साथ भी कह सकती थी किन्तु तुमने मुझे नीचा दिखाने का प्रयास किया था जो मुझे खल गया था। मेरी हार्दिक तमन्ना है कि तुम प्रादेषिक स्तर पर सफलता प्राप्त करो।
नियत तिथि पर सुमन स्टेषन पर प्रतियोगिताओं में भाग लेने जाने के लिये उपस्थित थी। विद्यालय की ओर से प्राचार्य और आचार्यों सहित उसके अनेक साथी एवं उसके परिवार के लोग भी उसे विदा करने के लिये आये हुए थे। प्राचार्य जी ने उसे षुभकामनाएं देते हुए कहा- सच्ची सफलता के लिये आवष्यक है कि मन में ईमानदारी, क्रोध से बचाव, वाणी में मधुरता किसी को पीड़ा न पहुँचे, अपने निर्णय सोच-समझकर लेना ईष्वर पर भरोसा रखना और उसे हमेषा याद रखना यदि तुम इन बातों को अपनाओगी तो जीवन में हर कदम पर सफलता पाओगी। जीवन में सफलता की कुंजी है वाणी से प्रेम, प्रेम से भक्ति, कर्म से प्रारब्ध, प्रारब्ध से सुख लेखनी से चरित्र, चरित्र से निर्मलता, व्यवहार से बुद्धि और बुद्धि से ज्ञान की प्राप्ति होती है। मेरी इन बातों को तुम अपने हृदय में आत्मसात करना ये सभी तुम्हारे लिये सुख-समृद्धि वैभव व मान-सम्मान प्राप्त करने की आधार षिला बनेंगे। सुमन सभी से मिल रही थी और सभी उसे शुभकामनाएं दे रहे थे किन्तु उसकी आँखें भीड़ में सीमा को खोज रही थीं। ट्रेन छूटने में चंद मिनिट ही बचे थे तभी सुमन ने देखा कि सीमा तेजी से प्लेटफार्म पर उसकी ओर चली आ रही है। वह भी सब को छोड़कर उसकी ओर दौड़ गई। सीमा ने उसे शुभकामनाओं के साथ गुलदस्ता भेंट किया तो सुमन उससे लिपट गई। दोनों की आँखों में प्रसन्नता के आंसू थे।