Hum kaise aage badhe - 5 - last part books and stories free download online pdf in Hindi

हम कैसे आगे बढे - भाग ५ - अंतिम भाग

३७. बाँसुरीवाला

मुंबई षहर के पैडर रोड पर अपने मित्र के यहाँ जब भी मैं जाता तो प्रतिदिन सुबह 6 बजे के लगभग एक अंधा वहाँ से बाँसुरी बजाता हुआ निकलता था। वह बाँसुरी के बीच बीच में बडे ही मधुर स्वर में भजन गाता जाता था। एक दिन मैंने उसे रोका और उससे कुछ बातें की। बातों में पता चला कि वह एक कुलीन परिवार का व्यक्ति था। एक दुर्घटना में उसकी आँखें जाती रही। उसके ही अपने लोगों ने कपटपूर्वक उसका कुछ हथिया लिया और उसे बेघर कर दिया। जो कुछ थोडा बचा था उसे संभाले वह मुंबई आ गया। यहाँ एक चाल में एक छोटे से कमरे में रहता था। प्रातः काल भ्रमण करना उसकी बचपन की आदत थी। दुनिया में ईष्वर के अतिरिक्त उसका कोई नही बचा था, उसका ही स्मरण वह हमेषा किया करता था। मैंने उससे कहा कि मुझे आपके भजन बहुत ही प्रिय लगते है, लेकिन मैं उन्हें कभी पूरा नही सुन पाता। मैं चाहता हूँ कि आप थोडा रूककर मुझे एक भजन सुना दें। उसने जो भजन सुनाया उसका भाव कुछ इस प्रकार था -

मन प्रभु दर्षन को तरसे

विरह वियोग ष्याम सुंदर के

झर झर आँसू बरसे।

इन अँसुवन से चरण तुम्हारे

धोने को मन तरसे।

काल का पहिया चलता जाए

तू कब मुझे बुलाए।

नाम तुम्हारा रटते रटते

ही यह जीवन जाए।

मीरा को नवजीवन दीनो

केवट को आषीष।

षबरी के बेरों को खाकर

तृप्त हुये जगदीष।

जीवन में बस यही कामना

दरस तुम्हारे पाऊँ।

गाते गाते भजन तुम्हारे

तुममें ही खो जाऊँ।

ईष्वर के प्रति उसकी यह भक्ति और समर्पण देखकर सहज ही यह समझ में आ गया कि वह वेषभूषा से भले ही सामान्य नागरिक दिखते थे, परंतु वह अपने आप में एक संत थे। मुझसे उम्र में काफी बडे थे, इसलिये मैंने उनसे आष्ीार्वाद लिया। उसके बाद लंबे समय तक जब जब भी मैं मुंबई जाता था, उनसे अवष्य मिलता था। उनसे भजन सुनता था और उन्हें अपनी कविताएँ भी सुनाता था हम दोनों अच्छे मित्र बन चुके थे।

३८. ईष्वर कृपा

जबलपुर षहर में सेठ राममोहन दास नाम के एक उद्योगपति रहते थे। वे अत्यंत दयालु, श्रद्धावान एवं जरूरतमंदों, गरीबों तथा बीमार व्यक्तियों के उपचार पर दिल खोल के खर्च करने वाले व्यक्ति थे। वे 80 वर्ष की उम्र में अचानक ही बीमार होकर अपने अंतिम समय का बोध होने के बाद भी मुस्कुराकर गंभीरतापूर्वक अपने बेटे राजीव को कह रहे थे कि बेटा मेरी चिंता मत कर, मैं अपने जीवन में पूर्ण संतुष्ट हूँ। तुमने मेडिकल की परीक्षा में प्रथम श्रेणी में प्रथम आकर हम सबको गौरवान्वित किया है। मेरा मन तुम्हारे डाॅक्टर बनने की खुषी में कितना प्रसन्न है, इसकी तुम्हें कल्पना भी नही है। सेठ जी अपनी आँखें बंद करके भरे मन से बोले कि काष अगर तेरी माँ जीवित होती तो उसे कितनी खुषी होती ? राजीव ने पिताजी के हाथ को अपने हाथ में रखकर कहा कि आप ठीक कह रहे हैं परंतु ईष्वर की इच्छा के आगे सभी मजबूर हो जाते है। सेठ जी ने राजीव को उसकी जन्म की घटनाओं के विषय में बतलाना प्रारंभ किया। वे अपनी जिंदगी के 50 वर्ष पूर्व राजीव के जन्म के अवसर की घटनाओं को मानों साक्षात देख रहे थे। वे बोेले कि 15 अक्टूबर का दिन था, मैं नर्मदा किनारे गोधूलि बेला में बैठा हुआ नदी में बहते हुए जल की ओर अपलक देख रहा था। मेरा मन अवसाद में डूबा हुआ था एवं दिलो दिमाग में निस्तब्धता छायी हुयी थी। हमारे पुराने मुनीम और कार ड्राइवर जो कि विगत 20 वर्षों से हमारे यहाँ कार्यरत थे, उन्होंने कहा कि मालिक समय निकलता जा रहा है, हमें तुरंत अस्पताल पहुँचना चाहिए, क्योंकि वहाँ पर सभी चिकित्सक पहुँच चुके है और आपका इंतजार कर रहे है। आप ईष्वर पर विष्वास रखिए, वह जो भी करेगा अच्छा ही करेगा। सेठ जी भरे मन से उठे और धीरे धीरे भारी कदमों से अपनी कार की ओर बढ गए। वे मन ही मन सोच रहे थें कि मैंने अपना सारा जीवन सादगी, धर्म और कर्म को प्रभु के प्रति साक्षी रखते हुए सेवा भावना से अपने कर्तव्यों के प्रति सजग रखते हुए बिताया है, फिर आज मुझे क्यों इस विकट परिस्थ्तिियों से जूझना पड रहा है।

सेठ राममोहनदास के बचपन में ही पिता का साया उठ गया था। उनकी माँ ने व्यवसाय को सँभालते हुए उन्हें बडा किया एवं उनका विवाह भी एक संपन्न और सुषील परिवार में कर दिया था। उनके विवाह के दस साल के उपरांत उनकी पत्नी, माँ बनने वाली थी और इस सुखद सूचना को सुनकर पूरा परिवार अत्याधिक प्रसन्न होकर ईष्वर की इस असीम कृपा के प्रति नतमस्तक था। उनकी पत्नी को गर्भावस्था के अंतिम माह में अचानक तबीयत खराब होने से अस्पताल में भर्ती किया गया था और चिकित्सकों उनकी स्थिति को गंभीर बताते हुए सेठ जी को स्पष्ट बता दिया था कि बच्चे के जन्म से माँ के जीवन को बहुत अधिक खतरा है तथा उनकी प्रसव के दौरान मृत्यु भी हो सकती है ? इन परिस्थितियों में माँ के जीवन को बचाने हेतु गर्भपात कराना होगा। इस खबर से सभी गहन दुख की स्थिति में आ गये थे। सेठ जी अपने प्रतिदिन के नियमानुसार नर्मदा दर्षन हेतु गये हुये थे और वहाँ पर उन्होंने दुखी मन से इस निर्णय को स्वीकार करने का मन बनाते हुए वापस अस्पताल जाकर काँपते हुए हाथों से इसकी सहमति पर हस्ताक्षर कर दिये। अब चिकित्सकों की टीम ने विभिन्न प्रकार की दवाइयाँ व इंजेक्षन देकर गर्भपात कराने का पूरा प्रयास किया।

उनकी पत्नी इससे अनभिज्ञ थी व तकलीफ के कारण बुरी तरह कराह रही थी। समय बीतता जा रहा था और उनकी तबीयत गंभीर होती जा रही थी। ऐसी स्थिति में चिकित्सकों ने ष्ल्य क्रिया के द्वारा स्थिति को संभालने का प्रयास किया। सेठ जी बाहर अश्रुपूर्ण नेत्रों से सोच रहे थे, यह कैसी विडम्बना है कि जिन हाथों से उन्होंने बच्चे को गोद में खिलाने की खिलाने की कल्पना की थी, उसे ही परिस्थितयों वष गर्भपात हेतू सहमति देनी पड रही थी। आपरेषन पूरा हो चुका था और नर्स ने बाहर आकर सेठ जी को बधाई दी और कहा कि आपको पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई है और आपकी पत्नी भी सुरक्षित है। सेठ जी यह सुनकर अवाक रह गये और प्रभु कृपा के प्रति भाव विभोर होकर हृदय से मन में उपजे अविष्वास में अनर्गल बातें कहने हेतु ईष्वर से माफी माँग रहे थे। सेठ जी की माता जी भी दादी बनने से अति प्रसन्न थी और प्रभु के प्रति इन विपरीत परिस्थितियो में भी माँ और बच्चे दोनो की रक्षा हेतु हृदय से आभार व्यक्त कर रही थी। मुनीम जी ने भी उनके कंधे पर हाथ रखकर कहा कि मालिक ईष्वर के घर देर हो सकती है, अंधेर नही। सेठ जी ने राजीव से कहा देखो आज तुम डाॅक्टर बन गये हो यह एक बहुत ही पवित्र पेषा है। मेरा अंतिम समय नजदीक दिखाई पड रहा है। मैं यह असीम धन दौलत तुम्हें सौंपकर जा रहा हूँ मेरी अंतिम इच्छा यही है कि जिन आदर्षाें को अपनाकर मैने अपना जीवन जिया, वे तुम्हारे जीवन में मार्गदर्षक बने रहे। इतना कह कर वे अपनी अंतिम साँस लेकर अनंत में विलीन हो गये। यह एक विचारणीय तथ्य है जिसे जन्म लेने से रोकने का प्रयास चिकित्सकों द्वारा किया गया, उसने प्रभु कृपा से जन्म लेकर अपने जीवन को सार्थक किया। आज राजीव षहर के जाने माने चिकित्सक के रूप में ख्याति प्राप्त कर चुका है और अपने पिता के बनाये आदर्षों पर दीन दुखियों की सेवा, परमार्थ हित एवं धर्मपूर्वक कर्म में अपना जीवन आनंद पूर्वक बिता रहा है।

३९. पाष्विकता

मैं प्रतिदिन सुबह घर के बगीचे मे आकर बैठ जाता था। वह एक बंदर था, जो नियमित रूप से उसी समय प्रतिदिन आकर याचनापूर्वक दोनो हाथों से मानो निवेदन करता हुआ बिस्किट माँगता था। मैं भी सहर्ष उसको बिस्किट देकर प्रसन्नता का अनुभव करता था। वह षांतिपूर्वक बिस्किट खाकर चला जाता था। एक दिन मैं बीमार हो गया, वह नियत समय पर आया, मैंने खिडकी से उसे बिस्किट दे दिया, उसने उसे लेकर बिना खाए संभालकर खिडकी के पास ही रख दिया। मैं तीन दिन तक बीमार रहा, वह प्रतिदिन तीन चार बार आकर खिडकी से मुझे देखकर वापस चला जाता था। मेरा स्वास्थ्य ठीक होने पर मैं वापस बगीचे मैं बैठने लगा। वह भी प्रसन्नचित्त होकर छिपाए हुए बिस्किट को खाकर चला गया। मैं अपने प्रति उसका व्यवहार देखकर आष्चर्यचकित था कि जानवर भी कितने संवदेनषील होते है। एक दिन वह रक्तरंजित अवस्था में बडी मुष्किल से लँगडाकर चलते हुए मेरे पास आया और बेहोष होकर गिर पडा। किसी ने उस पर पत्थर किया था, जिससे वह बुरी तरह जख्मी हो गया था। हम उसे तुरंत अस्पताल ले गए। जहाँ डाॅक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया। मैं दुखी मन से उसके बहते हुए रक्त में मानवीय क्रूरता का अट्ठहास महसूस कर रहा था एवं अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि देकर चुपचाप वापस घर आ गया। आज भी जब वह घटना याद आ जाती है, तो मैं द्रवित हो जाता हूँ और मनुष्य की पाष्विकता को नही भूल पाता।

४०. जीवन का सत्य

एक सुप्रसिद्ध महात्मा जी से एक नेताजी ने पूछा कि वे चाहते हैं कि उनकी मृत्यु के बाद भी उनके परिवार का भविष्य व्यवस्थित रहे। महात्मा जी ने मुस्कुराते हुए कहा कि व्यक्ति केवल सोच सकता है, प्रयास कर सकता है लेकिन अंतिम निर्णय और परिणाम तो ईष्वर और भाग्य के हाथ होता है। तुम स्वयं अपना भविष्य नही जानते और दूसरों के भविष्य की चिंता कर रहे हो। इस दुनिया में जब तक व्यक्ति जीवित है, बात तब कुछ और होती है और उसकी आँख मुँद जाने के बाद कुछ और हो जाती है। यदि तुम इसका अनुभव करना चाहते हो, तो कर सकते हो, और लोगो को यह विष्वास दिला दो कि तुम्हारी मृत्यु हो गई है।

नेताजी ने महात्माजी की बात मानकर एक दिन नाव पर बैठकर नदी पार करते समय बीच में ही नदी में छलाँग लगा दी। वे भीतर ही भीतर तैरकर चुपचाप इस प्रकार उस पार हो गए कि लोगों को लगा कि नेताजी नदी में डूबकर मर गए है। यह खबर सभी जगह फैल गई। उनके घरवालों को जैसे ही पता चला, सबसे पहले वे उनकी उस तिजोरी की चाबियाँ को खोजने लगे जिसमें उनके देष और विदेष में जमा करोंडों रूपयों के कागजात थे। वे जनता को दिखाने के लिए तो रो रहे थे, परंतु वे वसीयत और अन्य जरूरी जायदाद से संबंधित कागजात एवं बँटवारे के संबंध आपस में लगे हुए थे। नेताजी के जो अनुयायी थे, वे धीरे धीरे दूसरे नेताओं के चमचे बन गए। नेताजी जिस पद पर थे, अब उस पद पर कोई दूसरा नेता आसीन हो गया था और मन ही मन नेताजी के मरने पर खुष हो रहा था। उनके ना रहने के कारण ही यह पद खाली हो गया था और उसे प्राप्त हो गया था।

नेताजी का जो धन व्यापारियों के पास लगा हुआ था, उसने उस पर चुप्पी साध रखी थी और उसे हडप लिया था। नेताजी ने अपने पद पर रहते हुए लोगों के काम करवाने के लिए जो घूस ली थी, वे सभी उन्हें भ्रष्टाचाारी और हरामखोर बतलाते हुए मन ही मन ही बहुत प्रसन्न हो रहे थे। इस प्रकार किसी किसी को भी ना ही उनकी मृत्यु का दुख था और ना ही कोई उनका अभाव महसूस कर रहा था। नेताजी चुपचाप वेष बदलकर जीवन का सत्य देख रहे थे। इससे उनकी आत्मा को बडा कष्ट हुआ और उनका हृदय परिवर्तन हो गया। वे महात्माजी के पास पहुँचे और उनके चरण छूकर बोले कि मुझे जीवन की वास्तविकता का अनुभव हो गया है। अब मुझे अपने परिवार, मित्रों तथा तथाकथित षुभचिंतकों व हितैषियों की वास्तविकता मालूम हो गई है। अब मुझे संसार में काम, क्रोध, लोभ, मोह एवं माया से विरक्ति हो गई है। इतना कहकर वे अनजाने गन्तव्य की ओर प्रस्थान कर गए एवं वापस उस षहर में कभी नही आए। महात्माजी ने उन्हें समझा दिया था कि जीवन में मृत्यु के उपरांत सकारात्मक, सृजनात्मक एवं रचनात्मक कार्य जो मानव जनहित में करता है, वही याद रखे जाते है। उसका स्वयं का अस्तित्व मृत्यु के साथ ही समाप्त हो जाता है। सिर्फ अच्छे कर्मों से ही उनका नाम स्मृति में रहता है।

४१. नाविक

जबलपुर में नर्मदा के तट पर एक नाविक रहता है। उसका नाम है, राजन। वह एक कुषल और अनुभवी नाविक व गोताखोर है। उसने अनेक लोगों की जान डूबने से बचाई है। सुबह सूर्य भगवान की ओर यात्रा अपनी नौका की पूजा के साथ ही प्रारम्भ होती है उसकी दिनचर्या। उसने लालच में आकर कभी अपनी नौका में क्षमता से अधिक सवारी नही बैठाई, कभी किसी से तय भाडे से अधिक राषि नही ली। एक नेताजी अपने चमचों के साथ नदी के दूसरी ओर जाने के लिए राजन के पास आए। नेताजी के साथ उनके चमचों की संख्या नाव की क्षमता से अधिक थी। राजन ने उन्हें कहा कि वह उन्हें देा चक्करों में पार करा देगा, लेकिन नेताजी सबको साथ ले जाने पर अड गए। जब राजन इसके लिए तैयार नही हुआ, तो नेताजी एक दूसरे नाविक के पास चले गए। नेताजी के रौब और पैसे के आगे वह नाविक राजी हो गया और उन्हें नाव पर लादकर पार कराने के लिए चल दिया।

राजन अनुभवी था। उसने आगे होने वाली दुर्घटना को भाँप् लिया। उसने अपने गोताखोर साथियों केा बुलाया और कहा कि हवा तेज चल रही है और उसने नाव पर अधिक लोगों को बैठा लिया है। इसलिये तुम लोग भी मेरी नाव में आ जाओ। हम उसकी नाव से एक निष्चित दूरी बनाकर चलेंगे। वह अपनी नाव चलाने लगा। उसके साथियों में से किसी ने यह भी कहा कि हम लोग क्यों इनके पीछे चलें। नेताजी तेा बडी पहुँच वाले आदमी है, उनके लिए तो फौरन ही सरकारी सहायता आ जाएगी, लेकिन राजन ने उन्हें समझाया कि उनकी सहायता जब तक आएगी तब तक को सब कुछ खत्म हो जाएगा। हम सब नर्मदा मैया के भक्त है। हम अपना धर्म निभाएँ। उसकी बातेां से प्रभावित उसके साथी उसके साथ चलते रहें।

जैसी उसकी आषंका थी, वही हुआ। हवा के साथ तेज बहाव में पहुँचने पर नाव डगमगाने लगी। हडबडाहट में नेताजी और उनके चमचे सहायता के लिए चिल्लाने लगे और उनमें अफरा तफरी मच गई। इस स्थिति में वह नाविक संतुलन नही रख पाया और नाव पलट गई। सारे यात्री पानी में डूबने और बहने लगे, जिन्हें तैरना आता था, वे भी तेज बहाव के कारण तैर नही पा रहे थे। राजन और उसके साथी नाव से कूद पडे और एक एक को बचाकर राजन की नाव में चढाया गया। तब तक किनारे के दूसरे नाव वाले भी आ गए। सभी का जीवन बचा लिया गया।

पैसे और पद के अहंकार में जो नेताजी सीधे मुँह बात नही कर रहे थे, अब उनकी घिग्गी बँधी हुई थी। अपनी खिसियाहट मिटाने के लिए उन्होंने राजन और उनके साथियों को इनाम में पैसे देने चाहे तो राजन ने यह कहकर मना कर दिया कि हमें जो देना है वह हमारा भगवान देता है। हम तो अपनी मेहनत का कमाते है और सुख की नींद सेाते है। आपको बचाकर हमने अपना कर्तव्य पूरा किया है, इसका जो भी इनाम देना होगा, वह हमें नर्मदा मैया देंगी।

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