हम कैसे आगे बढे - भाग २ Rajesh Maheshwari द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

हम कैसे आगे बढे - भाग २

११. चतुराई

एक घने जंगल में एक हाथी अपने झुण्ड से भटककर घूम रहा था। वह थक चुका था और एक वृक्ष के नीचे आराम करने के लिये खड़ा हो गया। वह रूक-रूक कर चिंघाड़ रहा था। उसी पेड़ पर एक बन्दर विश्राम कर रहा था। हाथी की चिंघाड़ से उसकी निद्रा में व्यवधान आ रहा था। उसने हाथी से अनुरोध किया कि आप कहीं और जाकर विश्राम करने चले जाएं। मैं इस वृक्ष पर अनेक वर्षों से रह रहा हूँ। आपकी आवाज से मैं आराम नहीं कर पा रहा हूँ। हाथी को उसका यह कहना अच्छा नहीं लगा। उसे अपने बड़े और शक्तिषाली होने पर घमण्ड था। उसकी बात सुनकर वह और जोर से चिंघाड़ मारने लगा। इससे बन्दर को विश्राम करना दूभर हो गया।

बन्दर भी हार मानने के लिये तैयार नहीं था। उसने हाथी को षिक्षा देने की मन में ठान ली। वह वृक्ष से हाथी की पीठ पर कूदा और उसे गुदगुदी करने लगा। हाथी बेचैन हो गया, उसने अपनी सूड़ से उस बन्दर को पकड़ने का प्रयास किया। बन्दर सतर्क था वह उछल कर वृक्ष पर चढ़ गया। बन्दर बार-बार उसकी पीठ पर कूदता और जब हाथी उसे पकड़ने का प्रयास करता तो वह वृक्ष पर चढ़ जाता। इस प्रकार वह हाथी उस स्थान को छोड़ने के लिये मजबूर हो गया। उसने वह जगह छोड़ी और दूसरी जगह आराम करने चला गया। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि षक्तिषाली को भी बुद्धि और चतुराई से कम षक्तिवान भी पराजित कर सकता है। दूसरा हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि हमारे किसी कार्य से किसी दूसरे को कष्ट तो नहीं पहुँच रहा है। हमें अपने सुख के लिये किसी दूसरे को परेषान करने का कोई अधिकार नहीं होता है।

१२. आलसी

दो घोड़े अपनी पीठ पर एक-एक गट्ठर लाद कर ले जा रहे थे। आगे वाला घोड़ा ठीक तरह से चल रहा था, लेकिन पीछे वाला घोड़ा आलसी था। वह बार-बार लड़खड़ाने का अभिनय कर रहा था। वह ऐसे चल रहा था जैसे वह उस बोझ के कारण चल नहीं पा रहा है। उनके मालिक ने पीछे वाले घोड़े का गट्ठर भी सामने वाले घोड़े पर लाद दिया। गट्ठर का बोझ हटने के बाद पीछे वाला घोड़ा आसानी से चलने लगा। वह आगे वाले घोड़े से बोला- तुम मेहनत करो और पसीना बहाओ। तुम जितनी ज्यादा मेहनत करोगे तुम्हें उतना ही अधिक कष्ट उठाना पड़ेगा।

जब वे गन्तव्य तक पहुँच गये तो मालिक ने सोचा ’’ जब मैं एक ही घोड़े पर सारा सामान लाद सकता हूँ और एक ही घोड़े से मेरा सारा काम चल सकता है तो फिर मैं दो घोड़ों को खिलाने-पिलाने का खर्चा क्यों उठाऊँ, इससे अच्छा तो यह रहेगा कि मैं एक घोड़े को भरपेट खिलाऊँ और दूसरे को बेच दूँ। मुझे उसके अव्छे दाम बाजार में मिल जाएंगे। उसने ऐसा ही किया उस घोड़े को अब पहले से भी अधिक मालिक की सेवा करनी पड़ती है। वह मन ही मन पछता रहा था कि अगर वह आलस नहीं करता तो आज उसकी यह स्थिति नहीं होती।

१३. पालतू

ऊँट को सबसे पहले जिस आदमी ने देखा वह भाग खड़ा हुआ। लेकिन उसके मन में उसके बारे में जानने की लालसा जाग गई। वह अगले दिन फिर उसी स्थान पर गया। उसने वहाँ आसपास उसे खोजा। कुछ ही दूर पर वह ऊँट उसे दिखलाई दे गया। वह उसे छुपकर देखता रहा। उसने देखा कि वह घास-पत्ते खा रहा है। उसे समझ में आ गया कि यह तो षाकाहारी है। यह देखकर उसने उसके पास जाने का हौसला जुटाया और उसके पास तक गया। वह काफी देर उसके आसपास रहा। फिर धीरे से उसने उसकी गरदन पर हाथ फेरना प्रारम्भ कर दिया।

जब ऊँट की ओर से भी मैत्री पूर्ण व्यवहार मिला तो वह निष्चिन्त हो गया। अगले दिन वह एक रस्सी लेकर गया। वह फिर उस ऊँट का गला सहलाने लगा। बदले में ऊँट भी उसके प्रति अपना प्रेम दिखलाने लगा। तब उस आदमी ने उसके गले में रस्सी डाल दी। वह उसे अपने साथ ले आया। कुछ ही दिनों में वह ऊँट उस आदमी का पालतू जानवर बन चुका था और उसके काम करने लगा। आदमी पहली बार जब कोई अजीबो-गरीब चीज देखता है तो वह उससे आषंकित हो जाता है उसके मन में उसके प्रति भय का संचार होता है किन्तु धीरे-धीरे वह उससे संबंध स्थापित कर लेता है। यह मानव का स्वभाव है।

१४. परिश्रम

एक बार एक मुर्गी की आँखों की रोषनी चली गई। अन्धी होने के बाद भी वह बहुत मेहनत से भोजन की तलाष में जमीन खोदती रहती थी। इस मेहनती मुर्गी को आखिर क्या फायदा होना था। दूसरी तेज आँख वाली मुर्गी अपनी षक्ति को बचाकर रखती थी। वह हमेषा इस अन्धी मुर्गी के पास ही रहती थी और उसकी मेहनत का फल चखती रहती थी। जब भी अन्धी मुर्गी अनाज का दाना खोदकर निकालती थी तो उसकी तेज आँख वाली सहेली उसे खा जाती थी। चालाक मुर्गी दिनों दिन मोटी होती जा रही थी और बेचारी अन्धी मुर्गी मेहनत करके भी कमजोर थी और किसी तरह अपना जीवन काट रही थी। एक दिन एक कसाई आया। अन्धी मुर्गी को उसने यह सोचकर छोड़ दिया कि इससे उसे बहुत थोड़ा गोष्त मिलेगा। लेकिन उसने मोटी मुर्गी को पकड़ा और उसे काट डाला। मुर्गी एक बुद्धि और विवेक रहित प्राणी है। लेकिन हम इन्सान हैं। हमें ईष्वर ने विवेक दिया है। हम उचित और अनुचित को समझने की षक्ति रखते हैं। हम पाप और पुण्य में भेद कर सकते हैं। यदि हम मुर्गी के समान व्यवहार करते हैं और दूसरे के परिश्रम से प्राप्त किये धन या वस्तु को हड़पने का प्रयास करते हैं तो यह उचित नहीं है। एक दिन हमारी गति भी मोटी मुर्गी के समान हो सकती है।

१५. कौआ

एक कौआ था जिसका स्वभाव ही दूसरों को परेषान करना था। वह एक दिन एक भेड़ की पीठ पर जा बैठा। भेड़ को मजबूरी में उसे काफी समय तक इधर-उघर ढोना पड़ा। अंत में वह झल्लाकर बोली- अगर तुम किसी कुत्ते के साथ इस तरह का व्यवहार करते तो वह तुम्हें अपने तेज दांतों से मजा चखा देता। कौए ने हँस कर कहा- मैं कमजोरों को ही सताता हूँ और जो षक्तिषाली होते हैं मैं उनकी चापलूसी करता हूँ। मैं जानता हूँ कि मैं किसे परेषान कर सकता हूँ और मुझे किसकी चापलूसी करना चाहिए। मुझे विष्वास है कि नीति पर चलकर मैं काफी समय तक सुख पूर्वक जिन्दा रहूँगा और वृद्धावस्था में भी आनन्द पूर्वक जीवन व्यतीत करुँगा।

१६. साधन

अगर कोई षिकारी घोड़ागाड़ी पर सवार होकर छैः घोड़ों के पैरों का इस्तेमाल करता है और अच्छे बुद्धिमान सारथी को उनकी बागडोर थामने देता है तो वह बिना थके तेज जानवरों से आगे निकल जाएगा। अब यदि वह घोड़ागाड़ी के लाभ को छोड़ दे। घोड़े के उपयोगी पैरों व सारथी की निपुणता का इस्तेमाल न करे और पैदल ही जानवरों के पीछे भागने लगे तो उसके पैर भले ही कितने तेज हों, लेकिन वह जानवरों से आगे नहीं निकल पाएगा। इसीलिये कहा जाता है कि अच्छे घोड़े और मजबूत घोड़ागाड़ी का उपयोग करके साधारण से साधारण व्यक्ति भी जानवरों को पकड़ सकता है।

आवष्यकता के अनुसार साधनों का प्रयोग करके हम कम प्रयास से अधिक काम कर सकते हैं और सफलता प्राप्त कर सकते हैं जबकि साधनों के अभाव में हम कितना भी परिश्रम क्यों न करें हम उतनी सफलता प्राप्त नहीं कर सकते। जब हम किसी साधन का प्रयोग करें तो यह भी देखें कि जिस काम के लिये हमने जो साधन चुना है वह उसके लिये उपयुक्त है कि नहीं। जो काम हम घोड़ागाड़ी का प्रयोग करके कर सकते हैं वह काम हम खच्चर गाड़ी का प्रयोग करके नहीं कर सकते।

१७. सात्विका

मेरी तीन वर्षीय पौत्री सात्विका की मित्रता राहुल एवं राधिका से हैं। दोनों की उम्र उससे दो या तीन वर्ष अधिक है, वे तीनों मिलकर दिन भर खेलते-कूदते रहते हैं। राहुल एवं राधिका मेरे यहाँ भोजन पकाने वाली के बच्चे हैं। किन्तु स्वभाव से वे बड़े सीधे और सरल हैं। वे सात्विका को बहुत चाहते हैं। एक बार सात्विका को अपनी माँ के साथ 15 दिनों के लिये अपने नाना-नानी के घर उनके आमन्त्रण पर जाना था। वे दोंनों नियत दिन एवं समय पर मेरे साथ कार में स्टेषन जाने के लिये बैठ रहे थे तभी राहुल एवं राधिका एक-एक फूल लेकर मुख्य द्वार से अंदर आये और दौड़कर उन्होंने वे पुष्प सात्विका के हाथ में दिये। उनकी भावना उसकी सुखद और सुरक्षित यात्रा की थी। इसके साथ ही साथ उनके मन में बिछोह का दर्द भी होने के कारण अनायास ही उनकी आंखों से आंसू टपक पड़े और वे तीनों आपस में लिपटकर रोने लगे। यह देखकर मैं और उसकी मम्मी तुरन्त कार को छोड़कर उन बच्चों के पास गये और तीनों को समझाया कि सिर्फ पन्द्रह दिन की ही तो बात है उसके बाद तो सात्विका को वापिस आ जाना है और तुम बच्चों को वापिस पहले के समान ही खेलना-कूदना है। हमारी बातों का राहुल और राधिका पर प्रभाव पड़ा और उनके चेहरे पर मुस्कान आ गई। उन्होंने खुषी-खुषी सात्विका को कार में बैठाकर विदा किया। जब तक कार उनकी आंखों से ओझल नहीं हो गई तब तक वे दोनों हाथ हिलाकर उसे बाय-बाय कर रहे थे और सात्विका भी कार के पिछले कांच से अपना हाथ हिलाकर उन्हें देख रही थी।

मैं रास्ते में सोच रहा था कि बच्चों में इतना निष्छल, निष्कपट और बिना किसी स्वार्थ के आपस में प्रेम होता है। बच्चे अमीरी-गरीबी, धर्म-संप्रदाय, जाति आदि के भेदभाव से कितना दूर हैं। आपस में प्रेम से कितने करीब रहते हैं। जब हम बड़े होते हैं तो ये बातें धीरे-धीरे हमारे मन व मस्तिष्क ये दूर होने लगती हैं और हमारा स्वार्थ निष्छल प्रेम से हमें बहुत दूर कर देता है। काष! बड़े होने पर भी बच्चों के समान भावना बनी रहे तो मानव जाति की सभी समस्याएं अपने आप ही समाप्त होकर धरती पर स्वर्ग की अनुभूति हो सकती है। जीवन में यह सिर्फ एक कल्पना ही है जो कि कभी भी हकीकत न ही बनी है और न ही बन सकती है। मैं अपने विचारों में खोया हुआ था तभी आवाज से चैंककर देखा कि स्टेषन आ गया है। मैं उन्हें ट्रेन में बैठाकर टेªन के प्लेटफार्म छोड़ने तक हाथ हिलाकर विदा करता रहा। मेरे मन में उन बच्चों का हाथ हिलाना एक अमिट छाप छोड़ चुका था।

१८. ततैया

एक बार एक सभा हो रही थी। जहाँ यह सभा हो रही थी उसी के पास एक वृक्ष पर एक ततैये का छत्ता था। उसमें एक नौजवान ततैया बैठा मुख्यमंत्री का संबोधन सुन रहा था। मंत्री जी कह रहे थे- जो नाम मषहूर नहीं है वह बिना लपटों वाली आग की तरह है। हमेषा लोगों का ध्यान आकर्षित करना चाहिए। चाहे उसकी कोई भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े। वे और भी बहुत कुछ कह रहे थे किन्तु वह ततैया उनकी बात सुनकर सोच में पड़ गया। उसने सोचा अगर मुझे भी नाम कमाना है तो मुझे भी कुछ ऐसा करना पड़ेगा जिससे लोगों का ध्यान मेरी ओर आकर्षित हो। उसके मन मेें विचार आया कि क्यों न मुख्यमंत्री जी के माध्यम से ही मैं मषहूर हो जाऊं। ऐसा विचार आते ही वह अपने छत्ते से उड़ा और उसने जाकर मुख्यमंत्री जी के गाल पर अपना डंक मारा और उड़कर उनके ही ऊपर मंडराने लगा। जैसे ही उसने डंक मारा मुख्यमंत्री जी दर्द के मारे चिल्लाए। उनकी चिल्लाहट सुनकर वहाँ पर उपस्थित सभी लोगों का घ्यान उनकी और गया। वे अपना गाल पकड़कर कराह रहे थे। यह देखकर आसपास के सभी लोग उनकी और लपके। उनके बाडीगार्ड भी उनकी सुरक्षा में लग गये। पहले तो लोगों को समझ में नहीं आया कि क्या हुआ है किन्तु फिर जब लोगों ने उनके ऊपर उड़ते हुए ततैये को देखा तो सबकी समझ में माजरा आ गया। लोग उस ततैये को पकड़ने की कोषिष करने लगे। वह ततैया भी अपने को बचाते हुए उड़ा और उसने दूसरे एक और मंत्री को डंक मार दिया। वह ततैया उड़ रहा था और लोग उसे पकड़ने का प्रयास कर रहे थे। टी. वी. चैनलों के पत्रकार अपने कैमरों में उस उड़ते हुए ततैये की तस्वीरें ले रहे थे। उनके एंकर जोर-षोर से यह बता रहे थे कि यही वह ततैया है जिसने मुख्यमंत्री के गाल पर डंक मारा है।

अन्त में कुछ सुरक्षा कर्मियों ने उस ततैये को पकड़ लिया और उसे वहीं मार डाला। मुख्यमंत्री जी को वहाँ से तत्काल अस्पताल पहुँचाया गया और उन्हें सघन चिकित्सा कक्ष में भरती कर दिया गया। डाॅक्टरों की टीम उनका परीक्षण कर रही थी। उनमें से जो प्रमुख डाॅक्टर था वह हर आधे घण्टे में आकर उनके स्वास्थ्य का बुलेटिन जारी कर रहा था। टी.वी. चैनलों पर प्रसारण से पूरे प्रदेष में हल्ला हो गया था। उनके दल के लोग अपने नेता के स्वास्थ्य लाभ के लिये धार्मिक अनुष्ठान करने लगे। हर जगह टी.वी. चैनल वाले उनके स्वास्थ्य की स्थिति प्रसारित कर रहे थे। दो दिनों तक यह नाटक चलता रहा। घटना की जाँच के लिये आयोग का गठन हो गया। जाँच चलती रही और फिर धीरे-धीरे लोग उसे भूल गये। उस ततैये की ख्याति देखकर बहुत से दूसरे ततैयों में ख्याति प्राप्त करने की लालसा जाग्रत हो गई। सुरक्षा दल ने उस क्षेत्र के सारे ततैयों का सफाया कर दिया। जिन ततैयों के मन में ख्याति की लालसा जाग्रत हो गई थी वे मरने के बाद आदमी के रुप में पैदा हुए और अपने इस जन्म में वे नेताओं के आसपास मंडराते हुए देखे जा सकते हैं। ये ततैये जब भी मौका मिलता है नेताओं के गालों पर डंक मारने से बाज नहीं आते।

१९. चेहरे पर चेहरा

रामसिंह नाम का एक व्यक्ति था, वह पेषे से डाॅक्टर था। वह बहुत से लोगों को नौकरी पर रखे था। उसने यह प्रचारित किया था कि वह जनता के हित में एक सर्वसुविधा युक्त आधुनिक तकनीक से सम्पन्न अस्पताल बनाना चाहता है। वह हमेषा मंहगी कारों पर चला करता था। उसके पास घर पर मरीजों का तांता लगा रहता था। कुछ तो उससे अपना इलाज कराने के लिये दूर-दूर के दूसरे नगरों से भी आते थै। वह बीमारों के इलाज के बदले उनसे एक भी पैसा नहीं लेता था। गरीबों की मदद करने के लिये वह हमेषा तत्पर रहा करता था। उन्हें वह दवाएं भी बिना पैसोें के दिया करता था। उसकी षानो-षौकत व रहन-सहन देखकर लोग उसे बहुत अमीर, परोपकारी और ईमानदार मानते थे।

लोग उसे अस्पताल के लिये दिल खोलकर दान दिया करते थे। बहुत से लोगों ने अपना कीमती सामान और धन उसके पास सुरक्षित रख दिया था। वह उनके धन पर उन्हें ब्याज भी देता था। उनका ब्याज हमेषा उन्हें समय से पहले प्राप्त हो जाया करता था। एक दिन अचानक वह नगर से गायब हो गया। किसी को भी पता नहीं था कि वह कहाँ चला गया। लोग आष्चर्य चकित थे। कुछ दिन तक तो लोगों ने उसकी प्रतीक्षा की किन्तु फिर जब उनका धैर्य समाप्त होने लगा तो सबके सामने स्थिति स्पष्ट होने लगी। वह बहुत सा धन अपने साथ ले गया था। वह सारा धन जो लोगों ने उसके पास अमानत के तौर पर या व्यापार के लिये रखा था वह सब लेकर चंपत हो गया था।

लोगों ने जब उसकी षिकायत पुलिस में की तो पुलिस ने उसकी खोजबीन प्रारम्भ की और तब जाकर पता चला कि उसके पास उसका स्वयं का कुछ भी नहीं था। जो कुछ भी था सब किराये का था जिसका किराया तक उसने नहीं दिया था। उसकी डिग्री जो वह अपने बैठक खाने में टांगे था वह फर्जी थी। लोगों के पास अब सिवाय हाथ मलने और पछताने के कोई चारा नहीं बचा था। हमें किसी की चमक-दमक देखकर उससे प्रभावित नहीं हो जाना चाहिए। हमें अपने विवेक को जागृत करके रहना चाहिए वरना हम भी ऐसे जालसाजों एवं धोखेबाजों के षिकार हो सकते हैं। यदि किसी व्यक्ति की जीवन-षैली और कार्य करने की पद्धति सामान्य से भिन्न हो तो हमें हमेषा उससे सावधान रहना चाहिए। यह निष्चित समझिये कि वह कोई न कोई ऐसा कार्य करेगा जो समाज के लिये हितकारी नहीं होगा। ऐसे व्यक्ति पर विष्वास करना स्वयं अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना होता है।

पाँच वर्ष बाद की एक षाम-मैले कुचेले कपडे पहने भीगता हुआ एक व्यक्ति मंदिर की सीढी पर बैठा हुआ था। मंदिर में आरती हो रही थी, पुजारी जी आरती के उपरान्त सीढियों से नीचे उतर रहे थे कि उन्होंने उस व्यक्ति को देखा और ठिठक कर रूक गये। वो उसको पहचानने का प्रयत्न करने लगे। तभी वह हाथ जोडकर उनके करीब आया और बोला हाँ मैं वही हूँ जो आज से पाँच वर्ष पूर्व यहाँ के लोंगो को बेवकूफ बनाकर,धेाखा देकर, लाखों रूपये लेकर चम्पत हो गया था। मुझे मेरी करनी का फल मिल गया। देखिये आज मेरी कितनी दयनीय हालत है। पुजारी जी ने फिर पूछा ये कैसे हो गया। वह बोला मैंने यहाँ से जाकर उन रूपयों से एक उद्योग खोला था। मुझे उसमें घाटा होता चला गया। वह बंद हो गया और मेरी जमा पूँजी समाप्त हो गयी। मेरी पत्नी और मेरा एकमात्र बच्चा टीÛबीÛ की बीमारी में परलोक सिधार गये। मैं अकेला रह गया और आज दो वक्त की रोटी के लिये भी मोहताज हूँ। यह दुर्दषा मेरे गलत कार्यों के कारण हुई है। जीवन में कभी किसी को धोखा देकर उसका धन नही हडपना चाहिये। किसी के विष्वास को तोडना जीवन में सबसे बडा पाप होता है। मुझे इंसान तो क्या भगवान भी माफ नही करेंगे। मैं इसी प्रकार अब भटकता रहूँगा। इतना कहकर वह रोते हुए अनजाने गन्तव्य की ओर चला गया।

२०. मित्र और मित्रता

विद्याधर एक बहुत सम्पन्न व्यापारी था। उसका संतोष नाम का एक पुत्र था। वह बहुत ही सीधा-सादा भला नौजवान था। उसके मित्र उसकी सज्जनता का फायदा उठाते थे। उसके अनेक मित्रों ने उसे विष्वास में लेकर उससे काफी रूपया उधार ले लिया था। एक बार जब विद्याधर अपना हिसाब-किताब देख रहा था तो उसे समझ में आया कि उसके बेटे से लोगों ने बहुत रूपया ले रखा है तब उसने अपने बेटे को बुलाकर समझाया- जीवन में सभी से सद्व्यवहार रखते हुए मित्रतापूर्ण व्यवहार रखना चाहिए। परन्तु उन सभी को अपना मित्र नहीं समझ लेना चाहिए। सच्चा मित्र मिलना बहुत दुर्लभ है। यदि तुम्हें ऐसा मित्र मिल जाए जो तुम्हारे प्रति समर्पित हो, जिसके मन में यह चाह हो कि तुम जीवन में अपने सद्कार्यों से चमकते-दमकते रहो। तो तुम अपने को भाग्यवान समझना। उसने यह भी समझाया कि- बिना किसी जमानत के किसी को भी धन नहीं देना चाहिए।

पापा मैंने जिनको रूपये दिये हैं मैं उन सब को अच्छी तरह से जानता हूँ। वे सभी मेरे बहुत अच्छे और सच्चे मित्र हैं। ऐसा करो कि तुमने जिस-जिस को धन दिया है उनसे कहो कि तुम्हें धन की आवष्यकता है और फिर देखो कितने मित्र तुम्हें तुम्हारा धन लौटाते हैं। पिता के कहने पर पुत्र ने एक-एक कर अपने सभी मित्रों से ऐसा ही कहा। वह अनेक दिनों तक प्रयास करता रहा कि उसे उसका धन प्राप्त हो जाए और वह अपने पिता को सौंप सके। लेकिन किसी भी मित्र से उसे धन प्राप्त नहीं हो सका। अन्त में हारकर एक दिन उसने अपने पिता को सारी वास्तविकता बता दी। पिता ने बड़े स्नेह पूर्वक उससे कहा कि तुम उस धन की चिन्ता मत करो। वह धन तो गया। बहुत प्रयास करोगे तो थोड़ा बहुत प्राप्त भी हो जाएगा, लेकिन पूरा नहीं मिल पाएगा। किन्तु वह एक बहुत बड़ी षिक्षा और सबक दे गया है।

हम जिस युग में आज जी रहे हैं उसमें मन व तन पर धन की काल्पनिक चादर होने के कारण व्यक्ति के व्यक्तित्व को पहचानना कठिन हो गया है। जीवन में सच्चा मित्र खुली पुस्तक के समान होता है। वह आपको ज्ञान का रास्ता दिखलाता है। मि़त्रता कोमल सुमनों के समान होती है, वह पूजा की थाली के समान पवित्र होती है, वह किसी बहती हुई नदी के समान होती है जो अपने तट की भूमि को हरा-भरा रखती है और वह ठण्डी हवा के समान भी होती है जो हमें उस समय राहत पहुँचाती है जब हम कठिनाइयों में पड़कर उसी प्रकार बेचैन होते हैं जैसे कोई कड़ी धूप से गरमी में झुलस रहा होता है।