पहले कदम का उजाला - 18 - अंतिम भाग सीमा जैन 'भारत' द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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पहले कदम का उजाला - 18 - अंतिम भाग

मैं अपने ख्यालों में खोई ख़ुद से बातें कर रही थी। मेरे सामने दो युवतियाँ आईं।

मुझसे मुस्कुराकर ‘हैलो’ कहा।

मैंने भी जवाब में ‘हैलो’ कहा।

उन्होंने मुझे बताया कि वो मेरे ही होटल में ठहरी हुई हैं। मेरे पास वाले कमरे में। वो दोनों वियतनाम से यहाँ आईं हैं। कल का उनका घूमने का प्रोग्राम उन्होंने मुझे बताया। साथ ही यदि मैं चाहूँ तो उनके साथ घूमने जा सकती हूँ। हम तीनों ने मिलकर कल के लिए टैक्सी बुक की।

लौटते समय हम तीनों साथ थे। भाषा के थोड़े से सहारे से भी रिश्ते बन जाते हैं। जिनमें कम बात किये भी काम चल जाता है। हम जो एक दूसरे की भाषा समझते हैं क्या एक दूसरे को समझ पाते हैं? यदि इसका जवाब हां होता तो पूरी दुनिया के आधे झगड़े खत्म हो गए होते।

रात का खाना होटल के डायनिंग हॉल में खाकर कमरे में आई। रोली को फोन लगाया पर लाइन नहीं मिल पाई। लद्दाख में सुरक्षा कारणों से मोबाईल के नेटवर्क की थोड़ी परेशानी है। उसे एक सन्देश देकर मैंने अपना फोन रखा और कमरे की बत्ती बन्द की। सुबह जल्दी उठना है। हर दिन का पूरा उपयोग करना है तो पहाड़ों पर घूमने के लिए जल्दी निकलना ही ठीक होता है।

सुबह सबसे पहले अपना फोन देखा-उसमें रोली का सन्देश था। जिसे पढ़कर आँखे नम हो गई। ‘Hi beautiful, enjoy each and every moment, I love you! I’m fine here.’

सुबह मेरे दोनों साथी मेरा इंतजार करते हुए मिले। हमनें साथ में नाश्ता किया और हम टैक्सी में बैठ निकल पड़े अपने पहले गंतव्य की ओर…

बुद्ध की मोनेस्ट्रिस कला, आस्था का एक अनुपम उदाहरण है। चटकीले रंगों से बनी खूबसूरत पेंटिंग, बुद्ध की प्रतिमा को भी बहुत सुंदर रंगों से सजाया था।

उनके आसपास की दीवारें बहुत अच्छी लग रही थी। दीये की अखण्ड जोत ईश्वर से एक कामना ही होगी, दिल में प्रेम, विश्वास को जलाये रखने की।

मन्दिर, मेरी नजर में एक जगह है, ख़ुद से बात करने की, अपने आपको देखने, समझने की। जितना हम खुद को जानते है उतना ही अपने करीब होते जाते हैं। एक नयी ताकत महसूस करते हैं।

लद्दाख के रास्ते, वहाँ की मोनेस्ट्रिस से शहर का नज़ारा ये सब बहुत अद्भुत है। मेरे जैसे कईं होंगे जिनके लिये प्रकृति एक राहत का काम करती है।

ईश्वर ने हमारे लिए कितना कुछ बनाया है! अपने दायरों से बाहर निकले तो दुनिया बहुत लुभावनी लगती है। जिसमें हम छोटे हो जाते हैं। बाकी सब बहुत विस्तृत लगने लगता है। हमारे मन, हमारी आत्मा को अपने में समेट लेता है।

अपने नए साथियों के साथ पहला दिन बहुत अच्छा रहा। लौटते समय हमनें बाहर ही खाना खाया। वो दोनों भारतीय खाना बहुत चाव से खा रही थीं। उनको खाने से जुड़ी जानकारी जब मैंने दी तो वो बहुत खुश हुई।

हम भारतीय अपने देश में कितना घूम पाते हैं पता नहीं? पर ये विदेशी पर्यटक हमारे देश के बारे में कई जानकारियों के साथ, बिना हिंदी जाने बड़े आराम से यहाँ का आनंद लेते है। संस्कृति, सभ्यता से जुड़ी इनकी जिज्ञासा मुझे लुभा गई।

लद्दाख की कईं जगह घूमने के बाद हम बहुत थक गए थे। कल मुझे अकेले ही पागोंग झील देखने जाना है। रात को वहीं टेंट में रुकने का इंतजाम होटल की ओर से होगा। अगले दिन में नुब्रा वेली को देखती हुई वापस आऊँगी।

पाँच घण्टे के रास्ते को तय करके हम पागोंग झील तक पहुँचे। दूर पर्वतों के बीच में से जब उस झील की एक झलक दिख रही थी तो वो मुझ पर कैसा जादू कर रही थी। कैसे बताऊँ?

पर्वतों ने अपनी गोद में किसी प्यारे बच्चे की तरह उस झील को सम्हाल कर रखा है। मुझे तो कुछ ऐसा ही लग रहा था। झील भी एक मासूम, शांत बच्चे की तरह अपने सात रंगों के साथ अपनी मस्ती में गुनगुना रही थी।

पंच तत्व से बना हमारा ज़िस्म जिसमें पानी का प्रतिशत सबसे ज्यादा होता है। शायद इसीलिए कईं लोगों को पानी बहुत मोहित करता है।

इंसान के जीवन की शुरुआत माँ के गर्भ के खारे पानी से ही तो होती है। गर्भ से लेकर सागर तक का पानी एक सा ही तो है। माँ के गर्भ से निकल कर हम दुनिया के गर्भ में बढ़ते हैं।

बहुत ठंडी बर्फ़ीली हवा, झील का किनारा, पर्वतों के दायरे… इससे ज्यादा प्रकृति हमें क्या दे सकती है। ये नज़ारा मेरी आँखों से अब कभी हट नही पायेगा। जिसनें इस दुनिया को, हमको बनाया है उसे याद करके आँखों में आँसू आ गए।

एक धन्यवाद, एक शुक्रिया! कितना दिया है तुमने? क्या हम इसे समझ पाये? अपनी शिकायतों के आगे कुछ देख पाये? मुझे आज इस जगत का रचयिता बहुत भोला, मासूम लगा।

वो कैसे इतना कुछ देकर भी हमारी शिकायतें सुनता है? कभी कहता नहीं की – जरा, एक नजर उस ओर तो करो जहाँ तुम खत्म होते हो! तुमसे आगे, तुम्हारे दर्द के आगे भी एक दुनिया है!

यहाँ सबके आँचल में कोई न कोई दाग तो हैं ही। इसका मतलब ये कतई नहीं है कि ईश्वर ने हमारा साथ या हाथ छोड़ दिया है। हर कमी के बावजूद वो हमारे साथ है। पूर्णता की ओर का ये रास्ता हम उसकी ऊँगली थामकर तय कर सकते हैं।

रचनाकार कभी भी अपनी रचना को भूलता नहीं है। जैसे ही हम उसकी ओर हाथ बढ़ाते हैं वो हमें थाम लेता है। सिर्फ पहला कदम हमें आगे बढ़ाना पड़ता है उसके आगे…

झील के किनारे रात का समय, आसमान में सितारे, एक इंसान को कवि, लेखक, दार्शनिक क्या नहीं बना सकता है? आज ऐसा लग रहा था कि ये रात यहीं ठहर जाये। कुछ पल जीवन को कितना जीवंत कर सकते हैं ये मैंने आज जाना।

रात की गहराई के साथ ठंड इतनी बढ़ गई थी कि मुझे अपने टेंट में जाना पड़ा। अपनी खिड़की से आसमान को देखते-देखते कब आँख लग गई पता नहीं! सुबह जब आँख खुली तो मंद, ठंडी हवा हौले से मेरे पास आई मुझे जगाने के लिए।

नुब्रा वेली को देखते हुए मैं अपने होटल में आ गई। मेरा मन थोड़ा उदास था। प्रकृति से दूरी कभी-कभी मुझे बहुत बेचैन कर देती है। वो जगह मेरे मन से हटती ही नही। एक अजीब सा खाली पन मेरे अंदर भर गया।

बचपन में एक बार परिवार के साथ ऋषिकेश गई थी। तब भी वहाँ से निकलते समय मेरा मन बहुत उदास था। तब प्रकृति से बात करने जितनी समझ नहीं थी। पर उस आकर्षण को भूलना मेरे लिये बहुत मुश्किल रहा था।

वहाँ से लौटना आसान नहीं था। गाड़ी में बैठते हुए भी लगा कुछ देर और ठहर जाऊँ। जीवन आगे बढ़ने का नाम है। ये मन की तिजोरी भी बड़ी अजीब है। कितना भी सौंदर्य भर दो और माँगती है। इसका मन भरता ही नहीं!

अगले दिनों में हॉल ऑफ फेम, कुछ गोम्पा ( जहाँ बौद्ध भिक्षु रहते हैं) देखे। संगम, नदी जो मुझे ऊपर हवाई जहाज से बहुत महीन सुंदर दिख रही थी।

एक तरफ से सिंधु और दूसरी और से जांस्कर नदी जहाँ मिलती है उसे संगम कहते हैं। दो नदियाँ मिलने से संगम का पाट चौड़ा हो जाता है। नदी का वेग भी बढ़ जाता है। मैंने पानी को छुआ, वो बहुत ठंडा था। हरे रंग के काँच जैसा पानी बहुत अच्छा लग रहा था।

यहाँ अपनी मस्ती में झूमती बहती नदी सुंदर लग रही थी। नदी ही तो हमें सिखाती है। बहते रहना, जो साथ रखने लायक नहीं है उसे किनारों पर छोड़ते हुए आगे बढ़ने का नाम ही जीवन है!

आज की रात मेरी लद्दाख में आखिरी रात है। कल सुबह अपने शहर, घर वापस जाना है। इन सात दिनों की यादें तो इतनी है कि मैं रोली को न जाने कितने दिनों तक यह सब बताती रहूँगी या खुद से बातें करती रहूँगी।

सुबह सात बजे मेरी फ्लाइट है। आज रात भर मुझे नींद नहीं आई। लद्दाख की शांतिमय जीवन मुझे रास आ गया था।

कल जाना है यह सोच कर मन बहुत उदास था। एक रोली ही थी जिसकी याद मुझे वापस ले जा रही थी। नहीं तो मन कह रहा था यहीं कहीं अपना कोई काम तलाश कर रुक जाओ। उस भीड़ में उस घर में वापस जाने का मन नहीं हो रहा था।

शांति के स्वाद के बाद जीवन का हर स्वाद मुझे फीका लग रहा था। मैंने अपना फोन उठाया तो देखा उसमें बहुत से लोगों के मैसेज थे। वह सब तो अब घर जाकर ही देख पाऊंगी। अभी पढ़ने का मन नहीं था।

हाँ, रोली और देव के मैसेज थे। पहले रोली के मैसेज देखे। वह घर वापस आ गई है। उसकी इंटर्नशिप बहुत अच्छी रही। अब उसे मेरा इंतजार है। मेरे बिना उसे घर बहुत सुना-सुना लग रहा है। आज उसने खाना भी नहीं खाया उसे मेरी बहुत याद आ रही है।

उसे मुझसे बहुत सारी बातें करनी है। अरे, यह सब पढ़ते-पढ़ते मुझे भी लगा कर जल्दी पहुंच जाऊं। रोली को अच्छे से खाना खिला दूँ। कितने दिनों से मैंने उसे खाना नहीं दिया। वह हमेशा कहती थी ‘तुम्हारे खाने के तुम्हारे हाथ के खाने के अलावा मुझे किसी हाथ मुझे किसी के हाथ का खाना नहीं भाता है।‘

मैं हंसकर उससे कहती ‘तेरे पापा और दादी ने सुन लिया तो कहेंगे तेरा भी दिमाग मेरी तरह खराब हो गया है।‘

‘उन्हें जो कहना है कहने पर मेरे लिए तो यही सच है।’

रोली के संदेशों ने जाने का उत्साह भर दिया। जो अभी तक बेजान - सा पड़ा सिसक रहा था।

अब देव के संदेश देखे ‘कैसी हो? कैसा लग रहा है? ऐसे ही कई छोटे-छोटे मैसेज।

देव को मैंने जवाब दिया- ‘सब कुछ अच्छा रहा! पर आज थोड़ा मन उदास था। जाने की इच्छा ही नहीं हो रही थी। अब रोली के मैसेज देखे तो घर की याद आने लगी।’

देव का जवाब आया- ‘जब चाहो मेरे पास आ सकती हो! उधमपुर बहुत सुंदर जगह है।’

जवाब पढ़ कर सोचा कि देव भी अभी तक जागे हैं। एक बार फोन लगा कर देखती हूँ। शायद लाइन मिल जाए। इतने में फोन बज उठा। एक मुस्कुराहट से मैंने फोन उठाया।

फोन उठाते ही देव ने कहा –‘ सरोज, क्यों परेशान हो रही हो? तुमको लोगों से मिलकर अच्छा लगेगा। बहुत लोग तुम्हारा इंतजार कर रहे होंगे। तुम दोनों जब चाहो मेरे पास आ सकते हो।’

देव ने तो एक सांस में सब कह दिया पर मैंने वह सारे फर्क महसूस कर लिए जो आज से पहले हमारे बीच में थे। औपचारिकता की हर दीवार गिर गई थी। उसे समझ कर मैंने भी अपना कदम आगे बढ़ाया।

‘रोली से जुड़ी जिम्मेदारी के बाद मैं ऐसे ही किसी जगह रहना पसंद करूंगी। ये यात्रा मुझे रास आ गई। मेरे जीवन के उद्देश्य भी साफ हो गए। कहते-कहते आवाज भारी हो गई।’

‘अब क्या सोचने लगी?’ देव ने मेरी बात को रोककर पूछा शायद वो दर्द की आवाज सुन रहा था।

‘कुछ नहीं देव, जीवन ने मुझे बहुत दे दिया। जो मांगने का तो दूर सोचने का भी हक नहीं रखती थी। वह सब मिल गया। मेरा आंचल खुशी सम्मान और तृप्ति से भर गया है।’

‘तुममें लगन और हुनर दोनों है। यह सब तो मिलना ही था। कब मिलेगा यह कोई नहीं जानता है। अब तुम्हारी व्यस्तता बहुत बढ़ जाएगी। चिंता मत करो बहुत लोग तुम्हारा इंतजार कर रहे होंगे।’

‘हाँ, देव पर हमारा यह रिश्ता?!’

‘इतना मत सोचो! दोस्ती से खूबसूरत रिश्ता कोई भी नहीं है। आज जो एहसास मिला है उसे किसी किंतु परंतु में मत उलझाओ। इसे यूँ ही रहने दो। माँ -पापा को तुम्हारे बारे में सब पता है। तुम उनसे मिलोगी तो उनको बहुत अच्छा लगेगा।’

‘अरे, वाह यह तो तुमने बहुत अच्छा किया देव! उनसे मिलकर तो मुझे भी बहुत अच्छा लगेगा। मैं उनसे मिलने जरूर जाऊंगी!’

‘रोली को भी ले जाना! उसे पापा से मिलकर अच्छा लगेगा। उन्हें बेटियां बहुत प्यारी है। कहते-कहते अचानक देव ने कहा-‘ ‘तुम्हारे फ्लाइट का समय क्या है?’

‘देव, समय तो हो गया है!’ मैंने समय देखा फ्लाइट में दो ही घंटे बाकी है।

‘तुम आराम से जाओ। हम फिर बात करते हैं।’ देव की आवाज में भीगे प्रेम को मैंने महसूस किया। एक तृप्ति की सांस ली। फोन बंद करके कमरे में नजर दौड़ाई, सामान तो पहले ही समेट कर रख दिया था। बस मन को समेटने में मुश्किल हो रही थी।

देव से बात करने के बाद वह भी आसान लगने लगा। कमरे में होटल के फोन की घंटी बजी।

फोन उठाया तो रिसेप्शन से आवाज आई ‘गुड मॉर्निंग मैडम, आपकी टैक्सी तैयार है।’

‘गुड मॉर्निंग, दो मिनट में नीचे आती हूँ!’ कहकर मैंने फोन रखा कोट पहन कर सामान उठाकर कमरे से बाहर निकली।

एक रूम बॉय बाहर खड़ा था। मेरा सामान लेने के लिए। उसके अभिवादन का जवाब दिया। एक छोटी- सी लगैज के लिए किसी को क्या परेशान करना? उसने जिद कि तो मुस्कुराते हुए मैंने अपना सामान उसे दिया। गाड़ी में सामान रखने के बाद उसे कुछ देना चाहा तो उसने लेने से मना कर दिया। बहुत मनाने के बाद उसने लिया।

गाड़ी में बैठकर अपने सुंदर होटल को आख़िरी बार देखा। रास्ते में पर्वतों को निहारती रही। एयरपोर्ट पहुंच औपचारिकता पूरी करने के बाद में आराम से कुर्सी पर बैठे हुए उगते सूरज को देखना बहुत अच्छा लग रहा था। विमान में बैठने की घोषणा हुई। इस बार भी मुझे खिड़की वाली सीट मिली। विमान उपर उठा मैंने एक बार फिर यहाँ के सौंदर्य को जी भर कर देखा।

पर्वत, नदी, विहार सबसे विदा ली। जैसे ही यह सब मेरी निगाहों से दूर हुए मैंने अपनी आंखें बंद कर ली। कब आंख लग गई पता ही नहीं चला।

एयरहोस्टेस ने मुझे छूकर जगाया ‘हम लैंड करने वाले हैं! आप सीधे बैठ जाए।’

विमान ने भी अपने पहिये जमीन पर लगाये। मैंने भी अपने आपको बाहर कदम रखने के लिए तैयार किया। एक उत्साह के साथ मुझे भी बाहर निकलने की जल्दी होने लगी। एयरपोर्ट से बाहर निकल कर सोचा टैक्सी ले लेती हूं इतने में देखा रोली हाथ हिला कर तुझे बुला रही है। मेरे कदमों की गति तेज हो गई। मैं रोली के पास गई उसे अपनी बाहों में ले लिया।

एक गहरा आलिंगन जिसके बाद कहने सुनने को कुछ भी नहीं होता है। हम दोनों के जीवन की बहुत बड़ी ऊर्जा रहा है। रोली ने मेरा सामान अपने हाथ में लिया। मेरा एक थामा और हम बातें करते हुए आगे बढ़ने लगे।

रोली को देख कर मन बहुत प्रसन्न था। वह बताने लगी- ‘घर में कितने लोग मुझसे मिलने आए। कितने उपहार आए हैं! साथ ही कितने लोग हैं जो अपने को शो में मुझे लेना चाहते हैं। मुझे जज बनाना चाहते हैं।‘

अचानक मेरे मन में एक एहसास आया। आनंद की एक मेरे मन में उठी। कितना मिला है मुझे? एक ऐसी लहर, एक ऐसा एहसास जो जीवन के सुख दुख से ऊपर है।

एक बार जिसने इस आनंद को पी लिया उसके जीवन का हर पल सुंदर ही होगा। सुख मिले तो खुश, दुख में भी खुश! यही तो जीवन है।

दिन और रात की तरह उनसे घबराना कैसा? ये एयरपोर्ट मेरे जाते समय भी जगमगा रहा था। आज भी वैसा ही जगमगा रहा है। इसे किसी के आने-जाने से तो क्या आप किस लिए कहाँ जा रहे हो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है।

हमारा मन भी ऐसा हो जाये तो हमने सब कुछ पा लिया। मैं रोली का हाथ थामें चल रही थी। एक ऐसा रंग मुझे भीगो गया जिसकी रंगत उतर नहीं सकती है।

ये रंग सबको मिले! बस जीवन में पहला कदम उठाने का साहस जगाना होता है। जिसने इसे जगा लिया वो रोशनी में समा जाता है। अंधेरे फिर दिखते हैं पर छू नहीं पाते हैं।

अपने से बातें करते मेरी आंखों में पानी आ गया। मन में रॉबर्ट फ्रॉस्ट की कविता की पंक्तियां गूंज उठी ‘वन बहुत सघन और सुहाना है किंतु मुझे कुछ वचन निभाने है और सोने से पहले मिलों दूर जाना है…

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