पहले कदम का उजाला - 4 सीमा जैन 'भारत' द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • अपराध ही अपराध - भाग 24

    अध्याय 24   धना के ‘अपार्टमेंट’ के अंदर ड्र...

  • स्वयंवधू - 31

    विनाशकारी जन्मदिन भाग 4दाहिने हाथ ज़ंजीर ने वो काली तरल महाश...

  • प्रेम और युद्ध - 5

    अध्याय 5: आर्या और अर्जुन की यात्रा में एक नए मोड़ की शुरुआत...

  • Krick और Nakchadi - 2

    " कहानी मे अब क्रिक और नकचडी की दोस्ती प्रेम मे बदल गई थी। क...

  • Devil I Hate You - 21

    जिसे सून मिहींर,,,,,,,,रूही को ऊपर से नीचे देखते हुए,,,,,अपन...

श्रेणी
शेयर करे

पहले कदम का उजाला - 4

मेरा बचपन ***

हम तीन भाई – बहनों में बड़ा भाई, जो दादा – दादी का लाडला था। जिसे दादी हमेशा गोदी में लिए घूमती थी। उससे बचपन में दादा – दादी से बहुत प्यार मिला। छोटे वाले को नानी के घर में छुटकू की तरह बहुत प्यार मिलता था। बचपन में जब मैं दोनों जगह जाती तो ऐसा लगता था कि मैं अपनी जगह नहीं बना पा रही हूं।

दादी के घर में दादा – दादी के साथ मुझे लगता था मुझे वह प्यार नहीं मिल रहा है जो मेरे बड़े भाई को मिलता है। साथ ही बुआ और चाची मुझे बहुत काम करवाती थी। जो अच्छा नहीं लगता था। भाई तो आराम से खा रहा है। बातें कर रहा है और बहन कभी बर्तन जमा रही है। तो कभी दौड़ – दौड़ के पानी ला रही है। कभी सबको खाना खिला रही है।

मुझे काम करने से मना करने पर डाँट पड़ती थी। लड़की को तो काम आना ही चाहिये! जबकि मेरा भाई मुझसे एक साल ही छोटा था। मैं दादी के घर जाना पसंद नहीं करती थी। नानी के घर का भी वही हाल था छोटे भाई को वहां बहुत लाड़ मिलता था। मुझसे काम तो बिल्कुल नहीं करवाया जाता था मगर प्यार जैसा भी कुछ नहीं था।

बार-बार यदि यह सुना जाता रहे कि मेरा छोटा भाई बहुत अच्छा है! बहुत प्यारा है! सबको अच्छा लगता है! परिवार के लोग जब यह बात बार-बार कहते हैं तो वह नहीं जानते कि इसका दूसरे बच्चे पर क्या असर पड़ रहा है?!

उसका मन कहीं ना कहीं बहुत घायल होता है और टूटता भी है। जो किसी को दिखता नहीं है। यहां तक कि वह बच्चा कह भी नहीं पाता है कि उसे बहुत अपमानित – सा महसूस हो रहा है। क्या उसमें कोई भी खासियत नहीं है? कि उसे प्यार किया जाए या उसे महत्व दिया जाए?

इन दोनों घरों के अनुभव से मैंने बहुत जल्दी यह समझ लिया कि मुझे कहीं नहीं जाना है और अपने ही घर में रहना है। घर में किताबें पढ़ना और रंगीन पेंसिल से ड्राइंग बनाना मेरा शौक था। मेरा पूरा बचपन किताबों और रंगीन पेंसिल के साथ ही बिता। वहीं से मैंने अपना सुकून, अपना प्यार और अपनी शांति सब ढूंढ लिया और वह मुझे अच्छा भी लगता था।

पिताजी का व्यवसाय, जिससे हमारे परिवार का घर खर्च ठीक- ठाक चलता था। पिताजी, जिन्हें अपने काम से ही मतलब था। अपने काम के प्रति वह बेहद अनुशासित थे। अपने कपड़े खुद धोना, पूजा के बर्तन साफ़ करना ये उनकी आदतें मुझे बहुत अच्छी लगती थी।

अपने घर में हमेशा सबको अपना काम करते हुए मैंने देखा था। कोई मजबूरी हो तो अलग बात है मगर कभी किसी ने, किसी के झूठे बर्तन नहीं उठाये थे।

माँ ने हमेशा उनके कहे समय के अनुसार उनके लिए नाश्ता या खाना हमेशा बना कर रखा। इसमें कभी कोई गलती नहीं हुई थी। मैंने उनको बहुत कम बहस करते या लड़ते हुई देखा था। वो दोनों अपने – अपने फ़र्ज़ बड़ी निष्ठा और शांति से पूरा करते थे।

पिताजी को इस बात से कुछ ख़ास मतलब नहीं था कि कौनसा बच्चा, कैसी पढ़ाई कर रहा है? उसके दोस्त कैसे हैं? उसे क्या चाहिए? किसके कपड़े नये बनेंगे या कौन पुरानी किताब से ही पढ़ाई करेगा? ये सारी चीज़ें हमेशा माँ ने ही तय कि जिसमें पिताजी की सहमति शामिल होती थी।

बस उन्हें एक ही बात की जल्दी थी कि बड़ा भाई जल्दी से अपनी पढ़ाई पूरी करे और वे उसे अपने व्यवसाय में शामिल कर लें।

हमारे संस्कार में क्या कमी रह गई थी कि हम भाई -बहन और मैं ज़रा भी स्नेह नहीं था। या ये कहें कि मुझे अपने भाइयों का साथ अच्छा लगता था मगर उनकी अपनी दुनिया थी जिसमें उन्हें मेरी ज़रूरत नहीं थी। उनकी दुनिया उनके दोस्त, उनकी पढ़ाई के साथ ख़त्म हो जाती थी।

जो हाल शादी से पहले था वो तो शादी के बाद और भी बुरा हो गया। शादी के बाद भाइयों ने कभी पलटकर देखना, यह समझना नहीं चाहा कि उनकी बहन का हाल कैसा है?

रही बात माँ की तो वो एक बहुत धार्मिक महिला हैं। जो घर के काम के बाद अपना पूरा समय व्रत व पूजा को देना पसंद करती हैं। उनको किसी से उम्मीद या शिकायत कम ही होती है। उन्होंने ही मेरी शादी का निर्णय लगभग ख़ुद ही ले लिया था।

छोटा परिवार हो तो ज़िम्मेदारी कम ही होती है। इससे ज़्यादा की उम्मीद उन्होंने नहीं की थी। बाक़ी सब कुछ मुझे अपनी मेहनत से बनाना है ये उनका सोचना था।

दो भाइयों की एक बहन हूँ। बड़ा भाई दादा-दादी के पास पला, बड़ा हुआ। छोटा माँ की आँख का तारा! इन दोनों के बीच में मैं! घर हो या बाहर मेरा हर काम चुस्त-दुरुस्त होता था!

पढ़ाई से ज़्यादा चित्रकारी, संगीत का शौक था। पर उसके लिए कोई भी पैसा और साथ देने को तैयार नहीं हुआ। पढ़ाई पूरी करो और समय से शादी हो जाये बस मेरे लिए इतना ही सोचा गया था।

एक लड़की को यदि इतने भेदभाव के साथ बड़ा करना है तो पैदा होते ही उसका गला घोंट देने में क्या बुराई है? मन को मारकर एक शरीर को बड़ा करके ये लोग क्या करते हैं? लड़की माने दहेज! बस एक ही मतलब होता है शायद उनके लिए इसके कारण बाकी के सारे खर्चे काट दिए जाते हैं।

बेटी को बोझ समझने वाले अपनी आँखों पर डर, अज्ञान की ऐसी पट्टी बांधे रखते हैं कि उन्हें दुनिया की बेटियों की अद्भुत सफलता दिखती नहीं या आँख के साथ उनके कान भी बंद हो जाते हैं।

बेटी को साहस व साथ देने के लिए पैसे से ज्यादा नियत की जरूरत होती है। पैसा तो इरादों की ताकत में ही छुपा होता है। अपने निक्कमे लड़कों की एक क्लास पर चार साल पैसे लगाने वाले काश! अपनी बेटियों को हर साल, एक बार फ़ीस प्रेम व हिम्मत के साथ देते तो आज समाज की तस्वीर कुछ और ही होती।

उस समय मेरा साथ किसी ने नहीं दिया। घर में ही रह कर मैंने एम. ए. कर लिया था। कॉरेस्पॉन्डेंस कोर्स के लिए किसी ने मना नहीं किया। मेरा पढ़ने का शौक भी पूरा हो गया।

मेरे लिए एक रिश्ता आया। उन लोगों ने मुझे किसी समारोह में देखा था। उन्होंने रिश्ता भेजा। हमारी तरफ से तो वैसे भी कोई ख़ास सोच नहीं थी। उनको लड़की पसन्द तो इस परिवार को भी लड़का पसन्द था।

कमल, मेरे पति दिखने में बहुत अच्छे थे। बारहवीं के बाद पढ़ नहीं पाये। एक छोटी सी दुकान है बिजली का काम करते हैं। साथ में माँ व एक विवाहित बहन जो इसी शहर में है। पिता बहुत शराब पीते थे तो बीमारी के चलते कई साल पहले चल बसे।

माँ ने ही इन बच्चों को बड़ा किया। बेटी की शादी की। इस छोटे से परिचय के साथ एक मध्यम वर्गीय परिवार में मेरी शादी हो गई। एक बेटा और माँ, बस छोटा सा परिवार! सुखी रहने के लिए काफी था। किसे पता था की दुःख देने के लिए ज़िन्दगी को काला करने के लिए एक कोयला भी काफ़ी होता है। मुझे तो दो मिले थे।

सास को कम दहेज़ वाली बहू पसंद नहीं आ पायी। मेरे रूप, गुण किसी को भी कोई मौका ही नहीं मिला। मैं सम्मान, प्रेम की हर परीक्षा में फेल हो गई। पति को माँ की बात में मीन-मेख निकालने कि आदत नहीं, जो माँ को पसंद नहीं वो उन्हें कैसे पसन्द आती? रही सही कसर ननद पूरी कर देती थी। वो कभी नहीं चाहती थी कि हम सास-बहू में प्रेम पनपे।

जब पहली बार चाय बनाई थी तो माँ ने अपने लाड़ले कमल से पुछा था-“कैसी चाय बनी है बेटा?”

-“बहुत अच्छी है माँ!”

-“क्या, यह चाय तुझे अच्छी लगी? तो मैं जो आजतक तुझे बनाकर देती थी वो क्या गर्म पानी था?”

-“अरे, सुनो माँ को यह चाय पसंद नहीं, दूसरी बना कर लाओ!” कहते हुए उस प्यारे, लाडले कमल ने अपना कप भी मेरे हाथ पर ग़ुस्से से रख दिया था। वह दिन एक आज्ञाकारी बेटे के लिए काफ़ी था। अपनी माँ का इशारा समझने के लिए।

पाजामे में नील ठीक नहीं लगी है तो साड़ी में कलफ़ कम है। कोई भी काम कभी ठीक हो ही नहीं पाया। जो उन माँ – बेटे को ख़ुश रख पाता। मैं भी हमेशा सोचती कभी तो इनको ख़ुश रख पाऊँगी! यह वो सपना था, जो कभी भी पूरा न हो सका!

उसके बाद यही सब चलता रहा। शादी के कुछ महीनों बाद मैंने माँ से कहा था-“माँ, उस घर में रहना बहुत मुश्क़िल है। मुझे दिन-रात बहुत सताया जाता है। वो सब बर्दाश्त करने कि ताक़त मुझमे नहीं है।”

-“शादी की है तो निभाना भी सीखो! अपना घर अपनी मेहनत से ही बनता है!” माँ की आवाज़ बहुत रूखी थी। उसमें ये जानने की जिज्ञासा नहीं थी कि मैं क्या कहना चाहती हूँ। मैंने ही बात को आगे बढ़ाया।

-“माँ, चाय बनाने के लिए भी कोई योग्यता कि ज़रूरत होती है क्या? छः कप चाय बनाने पर ही ठीक चाय बन पाती है क्या? चादर ठीक नहीं लगाया, अदरक लंबा क्यों नहीं काटा, भिंडी हरी क्यों नहीं दिख रही है?” तड़फ कर मैंने माँ को बहुत कुछ बताना चाहा था।

माँ के मज़बूत दिल पर मेरी बातों का कोई ख़ास असर ही नहीं हुआ। मैंने सोचा था ये सब सुनकर माँ मुझे अपने सीने से लगा लेगी। पर माँ का जवाब ऐसा लगा जैसे किसी ने मेरे ऊपर पत्थर फेंक दिये हो – “अब क्या करें? जिसको जैसा घर मिले उसे निभाना पड़ता है!”

उस दिन मैंने सोचा था कि माँ मेरे दर्द से बड़े आराम से पिघल जायेगी। मैंने उनकी आँखों में सहानुभूति खोजते हुए कहा “ख़ुद को अपमानित करवाने कि कोई तो सीमा होनी चाहिये ना! दिन तो दिन रात में भी यदि…”

-“अब रात की बात तो अपनी माँ से मत करो! कुछ तो लिहाज़ करो!” माँ जो आराम से मुझसे बात कर रही थी अचानक चिढ़ते हुए मुझे चुप कराने के अंदाज़ में ज़ोर से बोली।

हमारे समाज की सबसे बड़ी गंदगी! हमारा ढोंग, सेक्स से जुड़े हज़ार अपराध हो सकते हैं। घर में न जाने कितने बच्चों, किशोरों के साथ ये अपराध होते हैं। मगर आप खुल कर बात नहीं कर सकते। कुछ समझ नहीं सकते, कुछ समझा नहीं सकते हैं।

शारीरिक सम्बन्धों की बात से तो जैसे इनको डंक लग जाता है। उस ज़हर का क्या, जो अनगिनत बच्चे या औरतें सहती हैं? पर बोल नहीं सकती। ये रिश्तों की चादर भी कितनी घिनौनी है? जिसके नीचे न जाने कितने ज़िस्म तड़फते हैं।

पर कुछ कह नहीं सकते क्योंकि जुल्म करने वाला कोई अपना ही है। ये लोग एक सुरक्षित जीवन चाहते हैं। उसकी कीमत कितनी, कौनसी कुर्बानी है इससे इन्हें मतलब नहीं।

-“ज़ुल्म के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना भी मुनासिब नहीं है? एक लड़की कहाँ जाये?” मैंने माँ को मनाने कि पूरी कोशिश कि थी। उस दिन मुझे अपने स्वाभिमान की चिंता भी नहीं थी। किसी तरह इस घर में और इनके दिलों में जगह मिल जाये ये मेरी इच्छा थी।

-“तेरे पापा का भी यही कहना है कि तुझे एडजेस्ट करना होगा! हम कुछ नहीं कर पायेंगे!” माँ ने अपनी बात को पूर्ण-विराम देते हुए कहा था।

-“मतलब मेरे दर्द की कोई दवा नहीं?” उस दिन आंखों से आँसू गिर पड़े थे। यह सोच कर की उस नर्क में वापस जाना होगा। उस दिन अपनी बेचारगी पर वो आख़री बूंदें गिरी थी। उस दिन के बाद मैंने अपने दिल को अलमारी में बंद करके रख दिया और चाबी को एक अनजान कुँए में फ़ेंक दिया था।

जब दिल की बात सुनने वाला कोई नहीं तो उसे रास्ते से हटा देना चाहिए।

-“अपने दर्द की दवा खुद ही बनो! हर औरत यही करती है। मैंने भी किया तुम भी करो! अपना सहारा तो तुम्हें ख़ुद ही बनना पड़ेगा! तेरे भाई का रिश्ता एक बड़े घर से आया है। वो लोग अपने व्यापार में हमको शामिल कर रहें हैं। ऐसे में तुझसे जुड़ी कोई भी बदनामी हमारे करे कराये पर पानी फेर देगी।” माँ को अपने बेटे की शादी की चिंता ज्यादा थी। बेटी को विदा करते वह अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो चुकी थी। कहाँ क्या है? कैसा है? यह सब अब मुझे भुगतना है।

बड़ी अजीब जिंदगी है! लड़की का कोई अपना घर नहीं होता एक मायका और एक ससुराल होता है। यदि दोनों जगह उसका कोई साथ ना दे, उसके पास अपनी आय का ज़रिया ना हो तो वह कहाँ जाये? इसका जवाब किसी के पास नहीं है। इसका जवाब भी उसे खुद ही ढूंढना पड़ता है।

अब किसी से कुछ भी कहने का मतलब नहीं है। पिता ने कभी दो पल मुझसे बात नहीं की कि मेरा ससुराल कैसा है? मेरे साथ उनका व्यहवार कैसा है? इसकी उन्होंने कभी चिंता नहीं थी।

उन दिनों उन्हें अपने डूबते व्यापार को बचाने की बहुत चिंता थी। जिसके लिए वह बड़े भाई का सौदा एक अमीर घर में कर रहे थे। उनकी नज़र में उनकी समस्या का यही एकमात्र समाधान था। जो ख़ुद चलकर हमारे घर आया था।

शादी के बाद पहली बार भी मायके में, पति मुझे लेने नहीं आये थे। मेरे उदास मन की किसी ने चिंता नही कि मुझे भाई घर छोड़ गया था। दूसरे दिन किसी ने ये पूछने की ज़हमत भी नहीं उठाई कि पतिदेव क्यों नहीं आये?

बड़ा भाई अपनी ख़ुशी से ज्यादा मुझ पर ध्यान दे यह हो नहीं सकता। छोटा को तो अपने दोस्तों से ही फ़ुर्सत नहीं मिल पाती है। शहर में रहकर भी उसने क़भी मिलने की कोशिश नहीं की।

मेरा अकेलापन ही था, जो मैं दौड़-दौड़ कर उनसे मिलने के रास्ते ढूंढती रहती थी। उनको कभी हलवा बना कर खिलाती तो कभी सबके लिए यहाँ आकर खाना बनाती। क्या करती उस घर में साँस लेना बहुत मुश्किल था!

उस दिन अपने आँसू पोंछे, एक कसम खाई कि अब कभी भी किसी से कोई उम्मीद नहीं रखनी है। जब हर तरफ़ से उम्मीद टूट जाये तो जीवन में दो ही रास्ते बचते हैं या तो ख़ुद को ख़त्म कर लिया जाये। जान देकर ही नहीं मरा जाता है मेरे हुए जीवन को जीना भी एक मौत ही है। दूसरा रास्ता मैंने चुना, अपने हर दर्द का गला घोंट दिया!

उस दिन माँ के घर से वापस तो आई पर मेरे साथ दो सपने थे! एक ज़िस्म में और एक मन में! इन दोनों पर अपनी जान लगा देना है। इन्हें बड़े जतन से पालना है! मेरे पास सोचने के लिए यही सब बचा था। मन को मजबूत बनाना है। अपने बच्चे को बहुत जतन से बड़ा करना है।

यह ठीक भी हुआ जिस बीमारी का इलाज़ ही नहीं हो, उसके लिए हक़ीम के पास जाने की क्या ज़रूरत है? इस सोच ने मुझमे एक रौशनी भर दी। मैंने यह सोचना छोड़ दिया कि पति और सास को कैसे ख़ुश रखूँ?

चुपचाप उनका काम करना और उनकी बातें सुनने को अपनी आदत बना लिया। हमारी ताकत लड़ने में व्यर्थ होती है जब हम किसी बात को स्वीकारते नहीं हैं। जब स्वीकार्य शुरू हो जाता है तो ऊर्जा नई दिशा ढूंढ़ने लगती है।

हम अपमान सहकर भी हल्के ही रहते हैं। बुद्ध ने सही कहा था किसी की गाली हमें नहीं लगती है। वो तो उसी के पास रहती है। मेरे साथ भी यही होने लगा इनके अपमान का पत्थर मुझे भारी नहीं कर पाता था। मेरा मन हल्का ही रहता था।

मैंने भी यह स्वीकार कर लिया था कि इन दोनों को ख़ुश रखना मेरे बुते से बाहर की बात है। हर अपमान, हर ज़िल्लत मुझे मज़बूत बनाने लगी थी।

घर में पैसों की बहुत दिक्कत होती थी। पति पूरी कमाई माँ के हाथ में रखते थे। एक डिस्प्रिन की गोली के लिए भी बहुत इंतजार करना पड़ता था!

यह याद करके दिल रो उठता है उस दिन मैंने पति से सुबह दस बजे कहा कि –“मेरे सर में बहुत दर्द है। दवा ला दो!” दोपहर के खाने तक दर्द के कारण मेरे आँसू गिरने लगे।

तब मैंने कहा- “अब तो सर को हिलाना भी मुश्किल है। मुझे अभी, इसी वक्त दवा चाहिए!”

“खाना खा कर दो मिनिट का भी चैन नहीं! इसे अभी दवा चाहिए!” बड़बड़ाते हुए बेटे और शह देती माँ को यह समझ नहीं कि मैं सुबह से काम कर रही हूँ। भूखी इनकी सेवा कर रही हूँ। मुझे दो रुपये की दवा भी समय से नहीं मिल सकती है। पेट में बच्चा भी भूखा है!

अब मैं यह सोचने लगी कि कैसे कुछ काम कर सकूँ? दो पैसे कमा लाऊँ? कम से कम इमरजेंसी के लिए कुछ तो हो। रास्ते योग्यता में नहीं इरादों में ही छुपे होते हैं! जितने इरादे मज़बूत होते हैं उतनी ही नज़र पैनी होने लगती है। सफ़लता भी उतनी ही साफ़ दिखाई देने लगती है।

कभी कहीं पढ़ा था कि अंधेरी काल कोठरी में कैद होने पर भी हमसें हमारी आज़ादी कोई नहीं छीन सकता है। यह बात मुझे बहुत सटीक लगी।

पेट में पल रहे बच्चे से मैं हर पल बातें करती थी। उसे हमेशा मजबूत रहने की, खूब मन लगाकर पढ़ने की, खुश रहने की बात कहते अचानक मेरे अंदर एक बदलाव आने लगा। मुझे लगा अपने आप को खुश रखना, मजबूत बनाना मेरी बहुत बड़ी जिम्मेदारी है! अपने छोटे-छोटे दुखों पर दुखी होना अब मुझे बचकाना सा लगने लगा।

यदि मैं ऐसे ही दुखी रही तो उस बच्चे को क्या सीखा पाऊंगी? अब लगने लगा कि सुखी रहना आसान है! अपने दुखड़े से ख़ुद को जितना भी मारो कम ही है। उसकी जगह ख़ुद को सम्हालना ज़्यादा सुकून देता है।

जब हम अपने रास्तों को समझ जाते हैं। मन एक जीत के अहसास से भर जाता है। वैसे भी ज़िन्दगी में सबसे पहले और आख़िर में ख़ुद को संतुष्ट करना ही सबसे ज़रूरी होता है। मानो तो बारिश की बूंद या फूल भी ख़ुशी दे सकता है। नहीं तो हज़ारों सुखों के बीच जीने वाले भी खुदकुशी कर लेते हैं।

किसी बड़े कलाकार ने अपनी वैवाहिक व व्यवसायिक ज़िन्दगी से जुड़े तनाव के चलते आत्महत्या की थी। वहीं एक कलाकार ने कहा था ‘मैं सप्ताह में एक बार अनाथालय ज़रूर जाता हूँ। मुझे मेरी तकलीफ़ें कभी बड़ी लग ही नहीं पाईं।‘

उस दिन सरदर्द के बाद लगा थोड़ा आसपास आँख उठाकर तो देखे कौन रहता है? किससे दोस्ती की जा सकती है? घर के ठीक पास वाला घर ही मेरा सहारा बन गया।

मैंने भी अपने जीवन को देखने का नज़रिया ही बदल लिया। कभी मन टूट जाता, घबराता तो डॉक्टर आंटी के प्यार से मुझे ताकत मिलती।

घर के ठीक पास वाला घर ही उनका था। ये भी एक सुखद संयोग ही था। अंकल डॉक्टर थे। आंटी घरेलू महिला थी। पर बहुत समझदार, वह एक अच्छी कलाकार थीं।

उनके हाथ में बहुत सफाई थी। वह गिफ़्ट पैकिंग का काम अपने शौक से करती थी। ख़ाली समय में खुद को व्यस्त रखने का यह एक सुंदर उपाय था।

उनकी एक विवाहित बेटी विदेश में थी। जिससे मिलने वो दोनों साल में एक बार जाते थे। उनका घर बहुत बड़ा था। ऊपर के हिस्से में उन्होंने कुछ पी.जी. रख लिए थे। आंटी उसको बहुत नियम के साथ चलती थी। बच्चों के पढ़ाई के परिणाम अच्छे हो, वो समय से घर आये। सीधी सी बात उनके पास वही रहे जो सचमुच पढ़ने आया है।

वे कहती “मैं और तुम्हारे अंकल इस बात का ख़्याल रखते हैं कि इन बच्चों को इस बात का दर्द है कि इनको इनके माता-पिता ने किन हालात में शहर में पढ़ने भेजा है? जिसे अपनी पढ़ाई का, अपनी जिम्मेदारी का अहसास नहीं वो हमारे घर में नहीं रह सकता है।”

ये बातें मुझे बहुत अच्छी लगती। जीवन के प्रति एक बेहद अनुशासित नज़रिया होना ही चाहिए। वो वहाँ रह रही एक लड़की की तो फ़ीस भी देते थे। जिसके पिता अचानक चल बसे। यदि आंटी उसका साथ नहीं देती तो वो होनहार लड़की अब तक अपने गांव चली गई होती और उसकी शादी भी हो जाती। मेरा इन दोनों से ही एक मधुर रिश्ता बन गया था। जो मेरा बहुत बड़ा सुकून था।

जिंदगी भी बड़ी खूबसूरत है जब जागो तब सवेरा! उनके साथ बैठकर मैं भी गिफ़्ट पैकिंग करती थी।

आंटी कहती “सरोज, तेरे हाथ में बहुत सफ़ाई है। ऐसा लगता ही नहीं कि तू ये सब पहली बार कर रही है।”

मैं पेट में पल रहे बच्चे के कारण कुछ इच्छाओं पर अपना वश नहीं रह पाती थी। मुझे कभी भी मिठाई अच्छी नहीं लगती थी। पर अब मुझे मीठा खाने की बहुत इच्छा होती।

मेरे पास कभी हाथ में एक रुपया भी नहीं होता था। होता भी तो मुझमें इतनी हिम्मत नहीं थी कि घर से बाहर अकेली जाकर कुछ ला पाऊँ।

घर में खाने का सामान जब आता तो मैं उसमें से मीठे बिस्कुट से अपना मन भरती। कभी तो शक्कर को कटोरी में लेकर खाने बैठ जाती थी।

मैंने कई बार पति और सास से कहा भी कि ‘मुझे मिठाई खाने की बहुत इच्छा होती है! मुझे बाहर से कुछ लाकर दे दो।’ घर में मीठा बनाने को पूछती तो सास कहती ‘अभी नहीं, दो-चार दिन बाद बना लेना।’ उनको कैसे समझती की मुझे दिन में कई बार बस मिठाई ही खाने की इच्छा होती है। चार दिन के लिए रूकना बहुत भारी पड़ेगा।

पति ने मिठाई हमेशा मेरे कहने के दस दिन बाद ही लाकर दी थी। वह भी आधी से ज़्यादा तो वो माँ-बेटे ही खा जाते। सजे सजाए घरों में जब एक लड़की अपने ससुराल आती है तो कोई नहीं जानता कि उसे रोटी भी पूरी तरह से नसीब होगी या नहीं।

कोई परिवार कैसा है ये जानने के लिए कोई दूसरा तरीका अपनाना चाहिए। ड्राइंगरूम में बैठकर बनावटी बातों से किसी भी असलियत को नहीं समझा जा सकता है।

बहू को गहना, कपड़ा और मिठाई से गोद भरने वाले कल उसे पेटभर रोटी देंगे या नहीं, दिखावे की चमक में कोई नहीं जान सकता है। उसके लिए तो हकीकत के अंधेरे ही काम आते हैं।

शादी की शुरुआत में मैं तीन रोटी खा लेती तो पति नाराज़ हो जाते। ‘इतना खाने की क्या ज़रूरत है?’ एक दो बार उनके मना करने के बाद भी खा लिया तो वे कई दिनों तक मुझसे बात नहीं करते। अपने पेट को काट कर जीना भी एक मज़बूरी थी। जिसकी कोई ज़रूरत तो नहीं थी पर ये एक बीमार आदमी का औरत पर हक़ जमाने का ऐसा तरीक़ा था जो सपने में भी सोचा नहीं जा सकता था।

इस शादी ने मुझसे वो सब करवाया जो एक यातना -गृह में हो सकता है। ऐसे रिश्तों का नाम ही शादी होता है। पर ये शादियाँ किसी ख़रीदी-बेची गई औरत के सौदे से ज़्यादा कुछ नहीं होती है।

मुझे अकेले बाजार जाने की इजाज़त नहीं थी। कभी दवाई या कोई ज़रूरी सामान समय पर न आने पर याद दिला देती तो पति चिल्ला कर बोलते ‘याद है मुझे, बहुत सारे काम होते हैं। याद नहीं रहता है। बार-बार एक ही बात कहकर परेशान मत किया करो!’

एक बार तो हद हो गई, ये दोनों बाहर बैठे कुछ खा रहे थे। इन दिनों मेरी नाक भी कुछ ज़्यादा ही तेज़ हो गई थी। अपने कमरे से बाहर झाँक कर देखा ये रसगुल्ला और आलू की टिकिया खा रहे थे।

सोचा मुझे भी आवाज़ देकर बुलायेगे पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। जब वो दोनों खाकर वहाँ से हटे तो मैं बाहर गई सोचा मेरे के लिए कुछ तो बचा ही होगा। खाली दौनों को देखकर मैं तड़प उठी थी।मुझे उस दिन एहसास हुआ कि मेरा इस घर में हाल कितना गिरा हुआ है। आज कल मेरी खाने की इच्छा हो तो उसे रोकना बहुत मुश्किल होता था।

कमरे से खाली दौने उठाते समय मन में यही ख्याल आया अपने लिए तो ना सही अपने पेट में पल रहे बच्चे को आज उसकी पसंद का नहीं खिला पा रही हूँ। तो कल उसकी परवरिश में यदि किसी भी चीज की ज़रूरत पड़ेगी तो क्या होगा? ख़ाली दौनों के साथ उसे कैसे सम्हाल पाऊँगी?

इन माँ- बेटे को गर्म खाना खिलाकर खाने वाली को बाहर से आया खाना खिलाना भी जरूरी नहीं? ऐसे परिवार होते हैं क्या?

मैंने अपने दुःख से हमेशा एक सबक लिया। यही मेरा जीवन का मंत्र रहा। खाने को न मिलना नयी बात नहीं थी। अब इस समस्या से कैसे निबटा जाए ये मैं सोचती रहती। जीवन का एक बहुत बड़ा सत्य मैंने पाया ‘सोचने से रास्ते निकलने लगते हैं।‘ मैं मन्दिर जाने लगी। सास कहती ‘अब ये मंदिर जाने की क्या ज़रूरत आ पड़ी है?’

अचानक एक यही रास्ता मुझे मेरी समस्या का समझ में आया। तो क्या करती? मैंने सास को कहा “मेरा मन करता है दोनों समय ठाकुर जी के दर्शन कर लूँ!”

“घर के मंदिर में भी तो वही हैं।” सास ने चिढ़ते हुए कहा था।

“मन्दिर की आरती देखने का मन होता है। शायद यह बच्चा ही कहता है मुझे।” इस जवाब ने उनके ओंठ सी दिये थे।

मंदिर में दोनों समय वहीं बैठकर प्रसाद खाने की आदत – सी हो गई थी। मुझे वहीं प्रसाद खाते देख पंडित जी क्या समझे पता नहीं? पर अब मुझे ज़्यादा प्रसाद मिलने लगा था। एक पुड़िया में भरकर!

पंडित जी आते-जाते मुझसे बात भी करने लगे थे। पंडिताइन तो अपने घर ले जाकर पूड़ी-हलवा भी खिला देती थी। उन दोनों के स्नेह में ईश्वर की दया बरसती दिखाई देती थी। अब पंडिताइन जी मेरी काकी हो गई थी। मैं उन्हें काकी बुलाती थी। वह भी मुझे बहुत प्यार करने लगी थी।मैं मन्दिर में जब भी हाथ जोड़कर खड़ी होती ईश्वर से एक ही बात कहती ‘तुम मेरे बाबा हो! मेरा कोई नहीं जो मेरी बात सुन सके। तुम मेरा साथ देना, मुझे अपनी कमाई की बहुत ज़रूरत है। मेरे लिए कोई रास्ता बना देना।

मेरे पास ऐसी कोई पढ़ाई नहीं है जो मेरी कमाई करवा सके। आज मिठाई के लिए तो यहाँ आ जाती हूँ कल बच्चे की बाकी की ज़रूरतों के लिए कहाँ जाऊँगी?

मैं मन्दिर में ही नहीं, कण-कण में तुमको महसूस करती हूँ। तुम मेरी नज़र में इंसानियत में जीते हो। पूजा पाठ में मेरा विश्वास नहीं है। तुम मेरी बात सुनना । मेरा हाथ थाम लेना। मुझे रास्ता दिखाना।’ कई बार यह सब कहते-कहते कब आँसू बहने लगते पता ही नहीं चलता।

मेरी प्रार्थना कोई आस्तिक सुनता तो कहता भगवान तुम्हारी कभी नहीं सुनेगें। वो सिर्फ़ उनकी ही सुनते है जो पूजा करते हैं, व्रत रख़ते हैं। मगर मैं जानती थी वो मेरी सुनता है इसीलिए हज़ार तकलीफों के बाद भी मुझमे जीने की आस है। वो हर रास्ते पर मेरे साथ है।

उन नौ महीनों में जब भी किसी छोटी-मोटी दवा की जरूरत पड़ी आंटी मेरा ध्यान रखती थीं। बिना अस्पताल जाये यदि घर में ही मेरा इलाज हो जाता है, तो पति और सास को भी मेरे उनके घर जाने से कोई शिकायत नहीं थी।

मैं कभी किसी के घर नहीं जा सकती थी। किसी से बात नहीं कर सकती थी। यदि किसी से बात करती तो सास पास में आकर खड़ी हो जाती। एक स्पष्ट सन्देश सामने वाले तक पहुंच जाता कि उन्हें हमारा बात करना पसंद नहीं है।

बाहर दो मिनट की बात से घर में दो घंटे का इतना बड़ा बखेड़ा खड़ा होता कि मैंने किसी से भी बात करना बंद ही कर दिया था।

आंटी के घर के बाद बस एक ही जगह जाने की इजाज़त थी वो था, माँ का घर! वहाँ जाना बहुत कम हो गया था। मेरी तबीयत ठीक नहीं रहती थी। माँ भी भाई की शादी की तैयारियों में व्यस्त थी। अब सच कहूं तो मेरा मन भी नहीं होता था।

मेरे दो ही सहारे थे, एक पंडित जी और एक अंकल-आंटी। डॉक्टर आंटी कभी-कभी अपने घर बुला लेती थी। उनके घर जाकर उनसे कभी मन की बात तो नहीं कह पाती थी। पर उन दोनों का स्नेह अच्छा लगता था।

नौ महीने पूरे होने पर जब अल्ट्रासाउंड हुआ तो बच्चा हिल नहीं रहा था। मैंने डॉक्टर से कहा-“मैं कहती हूँ तो वो हिल जाएगा!”

आश्चर्य से डॉक्टर बोली- “मैंने आज तक ऐसी माँ नहीं देखी जो अपने पेट के बच्चे से जो कहे और वो मान ले! बड़ा सुंदर रिश्ता है तुम्हारा अपने बच्चे से वो पेट में भी तुम्हारा कहना मानता है!”

अचानक मेरे मुंह से निकल गया-“ईश्वर सबको कुछ न कुछ देते हैं! यहाँ कोई भी पूरी तरह से ख़ाली नहीं होता है!” डॉक्टर इतने महीनों में मेरे बारे में काफ़ी कुछ समझ चुकी थीं।

उनकी आँखों में एक भाव आया पर वे बोली कुछ नहीं! एक असफल पत्नी को छोड़ वो आज एक माँ को देखकर ख़ुश थीं।

मुझे छूकर बोली-“अपना ध्यान रखना, हमेशा ऐसे ही हिम्मत से जीना!”

रोली का जन्म मुझे बहुत खुशी दे गया। एक ज़िम्मेदारी, एक चुनौती मेरे सामने है। जिसे मुझे पूरी लगन से पूरा करना है। रोली से पति और सास को कोई खास मतलब नहीं था।

बेटी हुई तो इन माँ -बेटे के बेहद कम सहयोग के साथ रोली की परवरिश शुरू हुई। जिसमें मुझे सबसे ज्यादा सहयोग डॉक्टर आंटी, अंकल का मिला।

आंटी ने मेरा बहुत साथ दिया। कोई भी छोटी परेशानी होती दवाई हो या बच्चे की देखभाल हो वो दोनों मेरे साथ होते। मुझें होसला देते!

मंदिर से काका-काकी एक बार रोली को देखने आये थे। उन्होंने घर का जो हाल देखा वो एक बार के लिए काफी था। वो कभी दोबारा घर नहीं आये।

रोली के पैदा होने की कोई ख़ास खुशी न मायके में हुई न ससुराल में। रोली के पैदा होने के दस दिन बाद ही भाई की शादी थी, तो माँ उसमें बहुत व्यस्त थी। रोली सीजर ऑपरेशन से हुई थी, इसलिए मैं शादी में जा नहीं पाई।

इस घर के लोगों ने मेरा उतना ही ध्यान रखना जितना कि बेहद जरूरी था। बाकी अपने दर्द को सहते हुए मैंने रोली को कैसे संभाला यह मेरा ईश्वर ही जानता है। घर में काम करने वाली बर्तन मांजने वाली बाई ने मेरा साथ दिया।

उसने एक घर का काम छोड़ दिया था। वह रोली को लेकर मेरे पास बैठी रहती थी। वह जानती थी कि मैं उसे पैसे नहीं दे सकती हूँ।उसके बावजूद उसका अपनापन मेरा सहारा बना। अपनी कुछ साड़ियां जरूर मैंने उसे दे दी, क्या करती? उसकी मेहनत को बदले उसे कुछ तो देना था।

ज़िन्दगी में सहायता मिलनी हो तो किसी भी रास्ते से मिल सकती है। उसे मुझसे कोई आस नहीं थी पर वो मेरी आस ज़रूर बन गई।

पति की व्यस्त दिनचर्या में सुबह उठकर बहुत आराम से बैठकर TV देखना, उसके बाद दुकान जाना। दिन में उनका टिफ़िन दुकान में जाता था। वो एक ऐसा बेताज नवाब था, जिसकी दिनचर्या बहुत कम लोग ही बदल सकते थे। पर उनमें मैं और रोली शामिल नहीं थे।

हमारी दुकान जो ठीक-ठाक चलती थी। पति के सारे शौक आये दिन के नए कपड़े, रोज की शराब, बाहर का खाना और साथ ही शहर में ही रह रही मेरी ननद की हर छोटी-बड़ी ज़रूरत पूरी करती थी। साथ ही इस घर को भी घसीट ही लेती थी।

रात में दुकान बंद करने के बाद दोस्तों के साथ अपने दिन भर के तनाव को दूर करना और रात में करीब बारह, एक या दो बजे घर आना उनका रोज़ का नियम था। जो मेरी ननद के हमारे घर आने पर या सासु माँ के बीमार होने पर ही बदलता था।

उनको नए कपड़ों का बहुत शौक था। जो आज इस उम्र तक पूरा नहीं हो पाया था। घर में किराना देरी से आ सकता है। पर उनके अरमान… कई बार घर में नमक या शक्कर भी नहीं होती थी। मगर उस माँ को अपने बेटे में कभी कोई ग़लती दिखाई ही नहीं दी। जिसे सुधारने की ज़रुरत हो।

रात को पति जब भी घर आये उन्हें खाना गर्म करके देना फिर खुद खाना यही नियम था। जिसका पालन मुझे करना पड़ता था।

रोली के पैदा होने के बाद बहुत मुश्किल आई थी। मुझे समय पर खाना चाहिए! नहीं तो इस नन्हीं सी जान का पेट कैसे भरेगा? इस नियम से छूट सिर्फ़ गर्भावस्था में ही थी। अब कोई छूट की उम्मीद नहीं थी।

रात में घर आने पर पहले तो मैं उनको खाना गर्म करके देती थी। पर अब रोली के होने के बाद नींद ही नहीं खुलती थी। पति कमरे की बत्ती जलाकर शोर मचाते ‘मुँह ढाँक कर सोईये, आराम बड़ी चीज है!’ तब जाकर नींद खुलती। मुझे जगाने के लिए यही शब्द इस्तेमाल किये जाते थे। पर इस सबसे रोली भी उठ जाती और रोने लगती। इस सबके बाद पति की नाराज़गी “तूने ये खाना गर्म किया है?”

एक बार बहुत सर्दी की रात थी। उस रात खाना ठीक से गर्म नहीं हुआ, तो पति ने मुझे अपने पास बुलाया। सब्जी के अंदर उससे मेरी उंगली डाल दी और कहा “देख ये सब्ज़ी गर्म की है तूने?” कटोरी उठाकर मेरे मुँह पर फेंक दी! उस अपमान को मैंने कैसे सहा ये कहना तो मुश्क़िल है। पर हर अपमान मुझे अपने पति से दूर ही करता था। मन करता था इस आदमी को उठाकर फेंक दूँ, बिल्कुल एक पहलवान की तरफ…

इस चिल्ला चोट का फायदा हमेशा की तरह मेरी सास लेती। बेटे को प्यार करती। मुझे यह दिखाती कि मुझे काम करना आता तो वो बेचारा मुझ पर नाराज़ ही क्यों होता?

दिन भर की थकान, अपमान के बाद रात को मेरा बेजान शरीर उसके जैसे भी काम आये उसका तो मेरे पास कोई हल नहीं था। पर मुझसे भावनाओं की कोई उम्मीद वो ना रखें ये मैंने अपने बर्फ़ से अहसास से उसे समझाना शुरू कर दिया था।

उसका नतीजा यह निकला कि हमारा रिश्ता लगभग ख़त्म -सा ही हो गया था। कई दिनों तक बात नहीं होती थी। एक दूसरे को आँख उठाकर देखे हुए महीना बीत जाता था।

वो रात मेरे जीवन में एक नया रंग ले आई। दुःख और अपमान में इंसान क्या नहीं करता है? ख़ुद मर जाये, अपने बच्चे को भी जहर दे दे, घर वालों को मारे… मेरा मन भी अजीब था हर नया दर्द एक नई दिशा ढूँढता था।

उस दिन से मैंने लिखना शुरू कर दिया। गिरते आंसुओं के साथ में मैंने पहली बार कुछ लिखा था। आँखों के नीचे साड़ी का पल्लू रख कर मैं लिख रही थी।

मेरा ध्यान बस इतना ही था कि जो लिख रही हूँ वो कहीं पानी से मिट न जाये…शब्द अपने आप कलम के सहारे पन्ने पर उतर रहे थे।

ये मेरी लिखी कुछ पक्तियां थी। लेखन के कई उद्देश्य हो सकते है। जो समाज सुधार से लेकर नाम, दौलत, शौहरत या पेट भरने का साधन हो सकता है। लेखन मेरे लिए राहत का काम करने लगा…

वक़्त… (इससे बड़ा कोई नहीं)

तू मुझ में धड़कता है, तभी तो मेरा जीवन चलता है।

आँखों के रास्ते, दिल के दरवाज़े से

कभी कुछ कहता, कभी कुछ दिखाता है।

तू मुझमें जीता है तभी तो….

खुशियों को दिखाता, दर्द से मिलवाता रहता है।

कभी मुस्कान, कभी आँसू दे जाता है।

तू मेरा हाथ थामे रहता है तभी तो….

कोई थामता, कोई गिरा देता है।

कभी ऊँचे तो कभी नीचे रास्तों से मिलवाता है।

तू मेरे संग ही सब देखता, समझता रहता है तभी तो…

आज दुआओं में तो कल बद्दुआओं में करवट लेता रहता है।

कभी आकाश तो कभी पाताल में ले जाता है

तू खुली बाहों से हर पल का स्वागत करता है तभी तो…

तालियों की गड़गड़ाहट हो या चीख़ते सन्नाटे हो

कभी फूलों पे तो कभी कांटों में जीना सिखाता है

तू हर पल गुनगुनाता रहता है तभी तो …

छोटे बच्चे की परवरिश में रात की नींद खराब करके बच्चे को पालना। रात को पति की सेवा, ज़्यादती सहना। एक औरत के अंदर कितनी ताकत होती है? वह ताकत घर में अपनी बिगड़ी जिंदगी को बचाने में किस कदर व्यर्थ होती है, इसका अंदाजा मुझे हर दिन होता था।

इतनी ही मेहनत मैं जीवन के किसी भी क्षेत्र में करूंगी तो कुछ तो पा ही लूँगी। यहाँ तो मुझे गालियाँ ही मिलनी है। जो बदल नहीं सकता है उस पर सोचना भी बेकार ही है।

रोली की उम्र बढ़ती गई। पर मेरी परेशानियाँ कभी कम नहीं हुईं। वो कब कितनी बड़ जाये मैं नहीं जानती थी।

रोली के स्कूल के एडमिशन के समय भी मुझे एक बहुत बड़े तूफान का सामना करना पड़ा। पति का कहना था “घर के पास ही जो सरकारी स्कूल है। रोली को उसमे ही भेज दो! बाद में किसी अच्छे स्कूल में एडमिशन करा देंगें।”

मेरा कहना था ‘इस शहर में जो मिशनरी का स्कूल है, उसकी फीस भी ज़्यादा नहीं है। उसमें छोटी कक्षा में एडमिशन मिलना आसान होता है। बाद में दिक्कत ज़्यादा आती है।’

जिंदगी में जो हमेशा हारते हैं वह कभी जीत भी जाते हैं। यह भी जिंदगी के अजीब से चमत्कार है। स्कूल के एडमिशन की बात पर कुछ दिनों बहस होती रही।

उस स्कूल के पास ही डॉक्टर अंकल का क्लीनिक था। तो उन्होंने मुझे वहां से फॉर्म लाकर दे दिया था। रोली को मिशनरी स्कूल में एडमिशन मिल गया। इंटरव्यू में उसके नम्बर सबसे ज्यादा थे। उसे पहले साल जो स्कॉलरशिप मिली वो आज तक मिल रही है।

पति का फीस से जुड़ा डर ईश्वर ने अपने ऊपर ले लिया था। स्कूल के पन्द्रह साल! रोली के नम्बरों ने स्कॉलरशिप का पीछा नहीं छोड़ा।