मैं, रोली की नजर से***
रोली, मेरे जीवन की सबसे बड़ी ताकत है। उसने यह शब्द कई बार मुझसे कहे हैं। कभी छू कर तो कभी बोलकर उसने मेरा मन सुख और शांति से भर दिया है। वह कुछ ऐसा ही कहती आई है...
‘जबसे याद करूँ माँ मुझे तुम्हारी ही छवि दिखाई देती है। स्कूल के लिए तैयार करती, बस तक छोड़ने आती, पेरेंट्स टीचर मीट में अधिकतर अकेली आती, मुझे होमवर्क करवाती, मेरी पसन्द का खाना बनाती, मुझे सस्ता पर अच्छा सामान दिलवाती और भी न जाने कितने काम करती।
इन सब कामों को तो आप बड़े आराम से कर लेती थी। इसके अलावा भी कई काम होते थे। जो आप करती तो थी पर कभी आपकी आँखों में आँसू आ जाते तो कभी गुस्सा आपके चेहरे पर होता था। पर आप कभी कुछ कहती नहीं थी।
आपने मुझे सिर्फ पढ़ना ही नहीं सिखाया, जीवन को ईमानदारी और लगन से कैसे जिया जाता है यह भी सिखाया। घर में पिता और दादी का साथ ना हो उसके बावजूद पढ़ाई कैसे दिल से की जाती है। कैसे हँस कर जिया जाता है। यह भी मैंने आपसे से ही सीखा।
स्कूल के वार्षिकोत्सव में वह कभी भाग नहीं ले पाई क्योंकि उन कपड़ों के लिए हमारे पास पैसे नहीं होते थे। अपने अमीर मित्रों के साथ दोस्ती निभाना एक गरीब के लिये आसान नहीं हो सकता है। पर वो कला भी उसने सीख ली।
स्कूल से पाँचवी कक्षा तक वह किसी भी यात्रा पर नहीं जा पायी। एक तो यात्रा के पैसे, साथ ही चार-पाँच दिन जितने नए कपड़े उसके पास कभी नहीं रहे।
बस एक बार मैं वह मुझ पर बहुत नाराज़ हुई थी। जब मैं उसका परीक्षा परिणाम लेने अकेले देर से गई थी, वो भी टेम्पो से! उस दिन उसे मेरे अकेलेपन, हमारी लाचारी पर बहुत गुस्सा आया था।
“घर में कार है उसके बाद अकेले इस तरह, इतनी देर से आने की क्या जरूरत है?” स्कूल से बाहर निकलते समय उसने मुझसे गुस्से में पूछा था।
मैं इतना ही कह पाई थी कि “अभी रिक्शे में बैठते हैं फिर बात करते हैं।”
रिक्शे में बैठते ही उसने फिर पूछा “अब बताओ क्या हुआ था?”
“तेरी दादी और पापा को चाय-नाश्ता दे कर, तेरे पापा से दो बार कह दिया कि थोड़ा जल्दी कर लो! देर से जाने पर टीचर नाराज़ होती है तो उन्होंने चाय का कप मेरे ऊपर फ़ेंक कर मारा!” मैंने उसे अपनी बाँह दिखाई जो लाल हो गई थी।
“उसके बाद दोबारा कपड़े पहने इसलिए देरी हो गई।” मेरे हाथ को पकड़ने के सिवाय उस बच्ची के पास कोई शब्द नहीं थे।
मैंने रोली के सर पर हाथ रखकर कहा –“हमेशा की तरह इस बार भी बहुत अच्छा परिणाम आया है। बस इस पर ही अपना ध्यान रखना बेटा।”
एक सिसकी मेरी आवाज़ के साथ बाहर तो न आ पाई पर शायद उसे रोली ने सुन लियाथा। रिक्शा चलाने वाले से अनजान हम दोनों को पता नहीं था कि वह भी यह सब सुन रहा था। रोली मेरे और करीब सट कर बैठ गई।
हम जब रिक्शे से उतरे तो रिक्शे वाले ने पैसे लेने से इनकार कर दिया। वह बोलो-“बहन आप दोनों की बात मैंने सुन ली थी।”
कहते हुए वे रोली की तरफ़ देखते हुए बोले- “बेटा, माँ हज़ार तकलीफें सहकर अपने बच्चों को पालती है। उसके इस दर्द को कभी भूलना मत! मन लगाकर पढ़ना, एक दिन अपनी माँ की सेवा करना!” कहते हुए उनकी आँखों में आँसू आ गये थे।
मैंने उनके हाथ जोड़कर उनको धन्यवाद दिया। हम आगे बढ़ते पर उनकी बात ने हमारे बढ़ते कदम रोक लिये। उन्होंने भी हमारे हाथ जोड़े और बोले- “मैं भी बहुत पढ़ना चाहता था। पर जब तक माँ जिंदा थी तब तक ही पढ़ पाया। उसके बाद पिताजी ने पढ़ाई छुड़वा दी और काम पर लगा दिया। एक माँ ही थी जो घर-घर काम करके मेरी पढ़ाई के पैसे जमा कर लेती थी। माँ के जाने के बाद हमारी दादी ने घर की बिजली कटवा दी थी। मैं सड़क पर कम्बल ओढ़कर पढ़ता था। मुझे पढ़ने का बहुत शौक था। पर बाहरवीं से ज़्यादा पढ़ नहीं पाया। एक बार तो एक पुलिस वाला पकड़कर रात में थाने ले गया था। उन्होंने मुझ पर शक किया था कि मैं चोरी के इरादे से यहां बैठा हुआ हूं। जब उनको घर के बारे में बताया तो उन्होंने घर में बिजली लगवाई थी और पढ़ाई के लिए पैसे भी दिए थे। कब किसका कौन साथ दे दे कोई नहीं जानता? जिनकी लगन सच्ची होती है वो कभी ख़ाली हाथ नहीं रहते हैं।” कहते-कहते उनकी आँखें भीग गई।
मैंने उनके हाथ जोड़ते हुए कहा –“बाबा, आपका बहुत शुक्रिया! ईश्वर आपका हमेशा साथ दें!” कहकर माँ ने अपने आँसू छुपाए और हम घर में दाख़िल हुए।
उस दिन रोली को अपने परिणाम की कोई खुशी नहीं हुई शायद मेरे जले हाथ के नीचे सब दब गया था।
रोली के साथ के बच्चे अपने माता-पिता की बुराई बड़े आराम से करते थे। जो वह मुझे बताती थी। उसे समझ नहीं आऐसा मैंने ऐसा क्या कर दिया जो इन बच्चों के माता-पिता नहीं कर पायें?
एक बार यही सवाल उसने मुझसे किया था। मेरा जवाब उसे कहीं न कहीं ठीक ही लगा था। मैंने कहा ‘बच्चे को एक अच्छी परवरिश के लिए यह अहसास चाहिए कि मेरी माँ मुझे प्यार करती है। यह कहने का नहीं करने का काम है।’ मुझे हर वक़्त घर पति और सास की डाँट सुनते हुए देखती थी। मैं इतनी समझदार कैसे हो सकती हूं? मुझे वह मेरी ईमानदारी के कारण पसंद करती थी। एक दिन उसे समझाते हुए मैंने कहा था – ‘हम बच्चे से ईमानदारी, तब ही माँग सकते हैं जब हम वो उसे दें भी। हम पार्टियों में घूमते रहें, उनको ट्यूशन लगवा दी और हर समय डाँटे की तुम्हारे परिणाम दूसरों से अच्छे क्यों नहीं तो बच्चा थकने लगता है। उसके अंदर का उत्साह माँ के प्यार में ही छुपा होता है।’
‘पर माँ, तुमने कम पैसों में ज़्यादा सन्तोष मुझे कैसे दे दिया?’ उसने पूछा था।
मैंने हँसकर कहा था ‘जो भी था सब तो तेरे सामने था ना रोली! मैंने ख़ुद पैसे उड़ाए और तुम पर बचत की ऐसा तो कभी नहीं हुआ ना?’
‘माँ’ कहकर उस दिन वह मुझसे लिपट गई थी। वह कहती ‘मेरे पापा-दादी जो भी कहें मेरी माँ एक शानदार औरत थी। जिसे एक बच्चे को पालने का हुनर पता था।’
उसे पापा और दादी की डाँट को नजरअंदाज करना सीखाना मेरा सबसे कठिन पाठ था। पर धीरे-धीरे उसने वो भी सीख ही लिया।
मैं उसे कहती ‘तुझे क्या करना है रोली, पहले यह समझ ले! या तो इन बुराइयों को भूल कर पढ़ ले या फ़िर इनमें उलझ कर अपनी पढ़ाई, अपना जीवन ख़राब कर ले! तूझे इससे क्या करना है बेटा? ये सब निरर्थक है। इस पर ध्यान मत दे!’
वह मेरी बात सुन तो लेती थी पर मुझे लगता था कि वह कहना चाह रही है कि मुझसे ये सब बर्दाशत नहीं होता है। तुम यहाँ से कहीं और चलो! ये दिन-रात का अपमान, झगड़ा देखना आसान नहीं है। पर वह कुछ नहीं कह पाती थी। मुझे घर में जिस हालत में देखती थी, उस दुःख को बड़ा नहीं सकती थी।
एक बात पर उसने हमेशा गर्व किया कि मैंने उसे वो सब दिया जो देना मेरे वश में था। मैंने उसे सन्तोष, गर्व का ऐसा पाठ पढ़ाया जो बहुत सुविधा संपन्न लोग भी अपने बच्चों को नहीं पढ़ा पाते हैं।
यह मेरे प्रेम की ताकत ही थी कि रिको दूसरों की किताबों से पढ़कर भी हमेशा अव्वल आई। बच्चे हर पार्टी में नया ड्रेस, हर साल नए फोन के बावजूद अपने माता-पिता को कोसते हैं। बच्चे का मन प्रेम से भर सकता है। सुविधा, साधन से कभी नहीं।
जब मैंने अपना टिफ़िन सेंटर शुरू किया तो हमारा जीवन बदलने लगा था। अब हम आराम से स्कूल की फीस या दूसरे खर्चे उठा सकते थे।
जब से मैंने काम शुरू किया। मैं बहुत ख़ुश रहने लगी थी।