पहले कदम का उजाला - 6 सीमा जैन 'भारत' द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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पहले कदम का उजाला - 6

रोली की बीमारी***

जब रोली बारह साल की थी तब एक बार उसे बुख़ार आया। तब अंकल-आंटी विदेश यात्रा पर गये हुए थे। मेरे पति ने दो-तीन दिन तक तो मेडिकल वाले से ही दवाई ला कर दी थी। रोली को बहुत तेज़ बुख़ार आता था, जो पानी की पट्टी रखने से भी नहीं उतरता था।

अपने बच्चे के लिए कोई पिता कितना लापरवाह हो सकता है। यह देखकर जी करता जोर -जोर से चीख़ कर सबको बताऊँ कि एक पिता या दादी अपने बच्चे के प्रति कितने लापरवाह हैं। ऐसा तो हम अनजान के साथ भी नहीं कर सकते जो इस घर में एक मासूम के साथ हो रहा था।

पास के छोटे डॉक्टर के पास, सात दिन तक इलाज़ चला।

मैं पति से कहती “रोली को बिल्कुल आराम नहीं मिल रहा है। एक बार किसी बड़े डॉक्टर से मिल लेते हैं।”

“ये बुख़ार एकदम से नहीं जाएगा। दो-चार दिन दवा दे देकर देख तो ले! इतनी जल्दी कैसे ठीक हो जाएगा बुख़ार?”

“पहले से भी तो इसका इलाज़ चल रहा था। अब और कितने दिन तक देखते रहेगें?”

“तो फिर जा जहाँ जाना है चली जा! मेरा दिमाग़ मत खा!”

“थोड़े पैसे तो दो, मेरे पास इतने पैसे नहीं है कि इसका इलाज़ करवा सकूँ!” मेरे पास सौ-दो सौ से ज़्यादा रुपये नहीं होते थे।

“दुकान जाकर कुछ कमा लाऊँ? दो दिन का भी सब्र नहीं हो सकता है इस औरत को! इसकी चिक-चिक ने घर का माहौल खराब करके रख दिया है। मुझे भी रोली की चिंता है। एक तू ही नहीं है इसकी चिंता करने वाली!”

बात कहाँ से शुरू होकर कहाँ चली जाती ये ही समझ नहीं आता था। काश! मेरे पास पैसे होते! न जाने कितने आँसू उन दिनों गिरे थे।

माँ का मन भी बड़ा अजीब होता है बच्चे की तकलीफ में इतना उलझ जाता है की पति ने मना कर दिया तो अब क्या करना है यह समझने में दिन लग गये।

अंकल के कारण मेरे पति को जो मुफ़्त के इलाज की आदत पड़ गई थी ये उसी के दुष्परिणाम थे। अचानक पंडित जी की याद आई। मैं भागती हुई मन्दिर पहुंची थी।

काका को रोली के बारे में जब सब कुछ बताया तो वह बोले “इतने दिनों तक बच्ची को घर में क्यों रखा? जब बुख़ार नहीं उतर रहा था तो बड़े डॉक्टर के पास क्यों नहीं गईं?”

मेरे गिरते आँसू उनसे क्या कह गए वह ही जाने पर उन्होनें मुझे स्नेह करते हुए कहा “अब रो मत बेटा! मेरे साले का बेटा बच्चों का डॉक्टर है। सरकारी अस्पताल में वह काम करता है। तेरी काकी के साथ अभी उसके पास चली जा! बाकी वह जैसा कहे, कर लेगें।” काकी मेरे पास बैठी सब सुन रही थी।

मेरे ऊपर अपना हाथ रखकर बोली-“सरोज, बेटा घबरा मत! सब ठीक हो जाएगा!”

ख़ुशी के मारे मैं भागती हुई घर पहुँची। घर में रोली अकेली सो रही थी। मेरी सास बाहर बैठी टी.वी. देख रहीं थीं। मैंने उनको बताया कि ‘रोली को लेकर डॉक्टर के पास जा रही हूँ।‘

तो कहने लगी “ऐसी भी क्या जल्दी है। अपने डॉक्टर ने जवाब तो नहीं दिया है ना अभी? हम भी इलाज़ करवा ही तो रहे हैं!”

“अब और इंतज़ार करना ठीक नहीं है। पंडिताइन जी का ही रिश्तेदार सरकारी अस्पताल में है। उसको दिखा कर आते हैं।”

उनको सही जवाब मिल गया था। जो उन्हें शांति देता ‘सरकारी अस्पताल’ साथ ही काकी का साथ माने फिर पैसों के बचत या छुट्टी, वो चुप हो गईं।

घर और रिश्ते कितने घिनोने हो सकते हैं ये कोई मुझसे पूछता? इस सबके बावजूद मैंने एक बात देखी अपने घर के बाहर रिश्तों की एक बड़ी दुनिया है जो हमारी हमदर्द हो सकती है। ज़रूरत है तो बस एक कदम बाहर की तरफ़ उठाने की।

मैंने रोली को उठाया और हम काकी को अपने साथ लेते हुए अस्पताल पहुँचे। डॉक्टर देव के पास जाकर लगा, एक सही डॉक्टर के पास आये हैं। जो हमसे ध्यान से बात कर रहे हैं। हमारी बात को, रिपोर्ट को ध्यान से देख रहे हैं।

उन्होनें मुझसे रोली के बुख़ार को लेकर कई सवाल किए – “बुख़ार किस समय आता है? पूरे दिन कैसा लगता है? बुख़ार के समय कंपकंपी आती है?”

इन सब जवाबों के बाद उन्होंने कहा “ये सारे लक्षण टी.बी. की तरफ़ इशारा कर रहे हैं।‘

उनका इतना कहना ही था कि मेरी आँखें आँसुओं से भर गई। ‘क्या?’ इससे ज़्यादा कुछ नहीं कह पाई थी मैं।

उन्होनें पंडिताइन जी, उनकी बुआ की तरफ़ देखकर हमें कहा था- “बुआ एक जाँच करनी पड़ेगी। जो थोड़ी महँगी है करीब पंद्रह हजार...”

‘एक मिनिट मेरी बात सुन!’ उनकी बात को बीच में रोककर काकी उनको अंदर लेकर चली गई थी। अंदर जाकर काकी ने उनको मेरी प्रसाद खाने वाली बात, हमरी गरीबी की बात बताई या क्या हुआ? पता नहीं, पर जब वो दोनों बाहर आये तो डॉक्टर देव ने इतना ही कहा ‘आप कल रोली को लेकर आ जायें। बाकी मैं देख लूँगा।’

काकी ने मेरा हाथ पकड़कर मुझे समझाया ‘बेटी, चिंता मत कर! बीमारी पकड़ में आ गई तो सही इलाज शुरू हो पायेगा।’

मन कह रहा था। बीमारी हुई ही क्यों? हमारी लापरवाही से? पैसों की कमी से? एक बच्ची अपने माता-पिता के मरे रिश्ते का शिकार हुई है। पर ये सब समझ कर भी मैं क्या कर सकती थी? जो होना था हो चुका था।

घर आकर जब रोली की टी.बी. की संभावना के बारे में पति और सास को बताया तो उन्होंने कहा ‘अभी से चिंता करने की क्या जरूरत है? ऐसा कुछ नहीं होगा! दो-तीन दिन रुक क्यों नहीं जाती हो?’

जांच की कीमत पन्द्रह हज़ार रुपये सुनकर तो उन दोनों का दिमाग खराब हो गया। थोड़ा रुक कर मैंने उनको बताया ‘काकी का भतीजा सरकारी अस्पताल में है। हमें इस जाँच के पैसे नहीं देने होगें।‘

यह सुनकर उन दोनों ने राहत की सांस ली। एक मूक सहमति मुझे मिल गई। कितनी अजीब बात है, डॉक्टर के पास मैं गई, इलाज काकी के कारण मुफ़्त में हो रहा है। इजाज़त मैं इनसे ले रही हूँ। जिनको न तो कोई दर्द है, न ही रोली की परवाह…

हमारी जिंदगी के दुख का कारण हम ही है। हमें समझ हो तो जागना शुरू हो सकता है। नासमझी में तो पूरी जिंदगी बीत सकती है ये कहते हुए की ‘मेरा नसीब खराब है!’ ये सरासर गलत है।

आज पहली बार मन में ये बात आई। आज से पहले तो इनकी अनुमति ही मेरी जरूरत होती रही है।

अगली सुबह आठ बजे रोली को लेकर अस्पताल जाना था। सुबह जल्दी उठकर पति, सास का नाश्ता बना कर रख दिया था। दोपहर में आने में देर हो सकती थी इसलिए खाना भी बना कर रखना था। मेरा फ़र्ज एक ऐसी चीज़ है जो हमेशा पूरा होना ही चाहिए। उसमें छूट की कोई गुंजाइश नहीं हो सकती है। इनकी बुद्धिमानी व चतुरता देखो की फर्ज की बात, एक तरफा ही चल रही है। चल क्या मुझे तो दौड़ा ही रही है। मैंने पति से कहा ‘थोड़ा जल्दी कर लो! सरकारी जगह है समय से नहीं पहुंचेंगे तो और देर लग जाएगी।’

सुनते ही हमेशा की तरह पति का चिल्लाना शुरु हो गया। ‘रात को थक कर आया हूँ। दिन भर काम करता हूँ। आधा घंटा लेट हो जाएंगे तो क्या हो जाएगा? पहचान तो है ना!’

‘अरे, डॉक्टर पहचान का है तो क्या हुआ? सरकारी जगह में भीड़ कितनी होती है। एक तो मुफ़्त में इलाज हो रहा है तब भी हम जिम्मेदारी नहीं दिखा सकते है क्या?’

इतना कह देना तो आग लगने जैसा खतरनाक था। ऊपर से पैसे की बात ने तो पेट्रोल का काम कर दिया।

‘हम जितना देर से जाएंगे, रोली को भी तो भूख रखा है जाँच के लिए। वो भी तो परेशान हो रही है।’ मेरा भी दिमाग़ खराब हो गया था जो बिना रुके के बोले जा रही थी।

पति ने गुस्से में कंघा फेंका और मेरी तरफ पलटे ही थे कि काकी घर में आ गई। उन्होंने कितना और क्या सुना ये तो पता नहीं पर वह बोली ‘सरोज, बेटी जल्दी कर! देव का फोन आया था समय पर पहुंचना ज़रूरी है।’

‘चलो काकी!’ कहकर मैंने रोली का हाथ पकड़ा और हम बाहर निकल गये। ईश्वर भी कुछ काम कैसे करवा देते है? कोई नहीं जानता? मेरे पति अब आराम से तैयार होकर और नाश्ता करके आ जायेगे। सबके काम अपने ढंग से करवाने वाले को मन ही मन शुक्रिया कहकर हम घर से बाहर निकल गए।

अस्पताल में डॉक्टर देव हमारा इंतज़ार ही कर रहे थे। रोली को लेकर वो लोग जल्दी ही ऑपरेशन थियेटर में चले गए। जाते-जाते वे मुझे सांत्वना देकर गये ‘आप घबराना नहीं, थोड़ी देर में ही रोली बाहर आ जायेगी। ये एक माइनर सा काम है।’ हमें भावना वहाँ से मिल जाती है जहाँ उम्मीद ही नहीं कि और जहाँ फर्ज़ के नाम पर ख़ुद को रगड़ कर रखा वहाँ से?

इस समय रोली के पिता को मेरे साथ होना था। पर साथ में वह हैं जिनके कोई भी काम, कोई सेवा मैंने नहीं कि। यही ईश्वर की लीला है जो हमारे न बह सके आँसू को भी देख लेती है। हमारा साथ देती है।

ये पृथ्वी के सारे जीव एक ही पिता की संतान हैं। हम सब एक हैं। ‘वसुदेव कुटुंम्बकम’ ये बात कही तो जाती है पर आज महसूस भी होने लगी। कब, कौन, कैसे साथ दे यह हम नहीं जानते हैं। पर एक हाथ आगे बढ़ने के लिए, एक कंधा थके सर को रखने के लिए मिल ही जाता है।

रोली के ऑपरेशन थियेटर में जाने की बहुत देर बाद एक बेहद करीने से तैयार हुआ व्यक्ति हमारे पास आकर खड़ा हुआ। उसकी उपस्तिथि मुझ पर एक अहसान सी लगी। जहाँ प्यार न हो वहाँ सुंदरता भी कुरूप लगती है।

रूप कितना निरर्थक लग सकता है यह आज मुझे पहली बार ख़्याल आया। यह वही इंसान है जिसने मुझे रोटी और छत तो दी पर यह कभी मेरे दिल के अंदर तो दूर करीब भी नहीं आ पाया। सौंदर्य बाहर नहीं होता है। ये एक भीतर का अहसास है।

जहाँ इंसानियत हो, वहाँ मन ही दिखने लगता है। शरीर गौण हो जाता है। पति करीब आधा घण्टा हमारे पास बैठे होंगे। पर हमने क्या खाया है या हम चार-पांच घण्टे तक रुकने वाले हैं तो क्या खायेंगे?

ये सब काम तो उसने कभी भी किया ही नहीं। क्या करें, उसका खाना, तैयार होना इस सब से आज तक उसका मन नहीं भर पाया। दुसरों के बारे में सोचने का उसे कभी वक़्त ही नहीं मिला।

अरे, नहीं ये बात मैं गलत कह गई। उसे दूसरों से निभाना भी बेहिसाब आता है बस ज़रूरत है वह व्यक्ति उसकी पहचान का हो या उसके किसी काम आने वाला हो!

तब उसका व्यवहार इतना क्रीम हो जाता है कि विश्वास ही नहीं होता ये वही स्वार्थी इंसान है जिसे अपने खाने और पहनने के सिवा कुछ दिखता ही नहीं है।

उसकी आवाज मुझे विचारों के भँवर से बाहर ले आई।

‘मैं दुकान जाता हूँ। तुम घर चली जाना।’ कहकर वो अपनी जिम्मेदारी पूरी करके चला गया।

आज इसकी बहन बीमार होती तो क्या ये ऐसा ही रहता? उसे जाता देख मैंने एक बात अपने मन में पक्की कर ली आज के बाद जब तक ये पूछे नहीं इसे रोली के बारे में कुछ भी नहीं बताऊँगी। मुझे घर जाने के लिए इसकी इजाजत की जरूरत थी जो मिल गई। मैं धन्य हो गई!

जब सारा काम बाहर वालों के साथ ही करना है तो कैसे चलना है यह भी हम ही निर्धारित करेंगे। हमारी चाल से ही हम डिफाइन होते हैं। अब मुझे अपनी चाल पर नजर रखनी है।

काकी ने मेरे ऊपर हाथ रखते हुए कहा “बेटा कुछ खा लें? तूने सुबह से कुछ नहीं खाया होगा। रोली के आने के बाद तो तू उसे एक पल को भी नहीं छोड़ पाएगी। वो आती ही होगी। मैं भी भूखी हूँ बेटा।”

काकी ने एक साथ वो सब कह दिया जिसकी ‘हाँ’ स्वाभाविक थी। वह भी कुछ खा कर नहीं आईं थीं। ये आख़िरी शब्द का तीर सबसे ज्यादा काम कर गया।

मेरा जवाब –“काकी पहले क्यों नहीं बोला? अब तो बारह बजने वाले हैं। चलिए कुछ खा लेते हैं।”

माइनर ऑपरेशन बस नाम के ही होते हैं। रोली करीब दो घण्टे बाद बाहर आई। उसके बाहर निकलते ही हम उसकी तरफ भागे। काकी जैसी बुजुर्ग महिला का साथ, अपनापन मेरे किसी भी, अपने से ज्यादा था।

‘आप आधा घण्टा इसे आराम करवा दीजिये। तब तक नशा उतर जाएगा। घर जा कर आप इसे कुछ हल्का खाने को दे सकती हैं।‘ रोली पर हाथ रखते हुए मैंने देव को गौर से देखा।

‘ठीक है।’ से ज़्यादा कुछ कह नहीं पाई थी मैं।

‘तीन दिन में इसकी रिपोर्ट आएगी। आप मुझसे फोन से बात कर लेना। फिर देखते हैं, इलाज क्या शुरू करना है। तब तक बुख़ार आने पर ये दवा दे दीजिए। जो दवा मेरे पास थी वो दे दी है बाकी आप ले लीजिए।’

कितना जिम्मेदार! एक साथ सारे काम कर दिए। अब कुछ भी पूछने की बात नहीं है। डॉक्टर देव ने मुझे पर्चा थमाया। मैंने अपने दोनों हाथ जोड़ लिए ‘बहुत धन्यवाद’ इतना ही कह पाई थी कि आँखें भर आईं। मैंने अपने आँसू छुपाने चाहे।

काकी ने बात को सम्हाला ‘अरे, धन्यवाद कैसा? देव अपना ही तो है।‘ अब काकी से क्या कहती कि ‘ये आपका अपना है मेरा तो कोई नहीं! मेरे अपने तो घरों में आराम से बैठे हैं।’

रास्ते में काकी ने देव के बारे में बताया…