पहले कदम का उजाला - 3 सीमा जैन 'भारत' द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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पहले कदम का उजाला - 3

हमारा घर***

एक तीन कमरों वाला किराए का छोटा सा घर। जिसमें एक ड्राइंगरूम, अंदर का कमरा वह हमारा बेडरूम और आखिरी वाला छोटा सा किचन है। बाहर का कमरा सासु माँ का कमरा भी है। जिसमें टी.वी. रखा है।, जो लगभग पूरे दिन चलता रहता है।

कैसा और क्या प्रोग्राम आ रहे हैं इससे उन्हें कोई मतलब नहीं! रोली की पढ़ाई, बचपन में उसकी नींद ख़राब हो या कोई और परेशानी हो, टीवी/TV को अपने पूरे शोर के साथ ही चलना है।

ये मां - बेटे दोनों अपना पूरा ख़ाली समय वहीं बिताते हैं। वहीं टीवी/TV के सामने खाना खाना। जुठे बर्तन वहीं छोड़कर, बिना हाथ धोए टी वी देखना इनकी आदतों में शामिल है।

इंसान जीवन में अपने आप को बेहतर बन सकता है मगर किसी और की आदतों में इंच भर भी यदि परिवर्तन कर सकता है तो वो एक चमत्कार ही होता है। जो इस घर में तो आज तक नहीं हो सका। जो जैसा था वैसा ही है।

मैं शादी के बाद से इनके जूठे बर्तन उठाती ही रही। चाहे मेरी तबियत ख़राब हो या कोई और कारण मेरी इन इन सेवाओं में कभी भी कोई परिवर्तन नहीं आया।

बीच का कमरा जो हमारा कमरा है। व्यवस्थित शब्द से मेरे पति का कोई मतलब नहीं है। वो सारे काम मेरी ज़िम्मेदारी का हिस्सा रहे हैं। हमारी शादी से पहले यह घर कैसे चलता होगा? यह विचार कई बार मेरे मन में आया मगर इसका कभी कोई जवाब नही मिल सका।

रोली के जन्म के बाद मेरी परेशानीयां बहुत बड़ गई थी। बाहर टीवी/TV की आवाज़ से रोली की नींद ख़राब हो या वह रोती रहे मगर मैं बीच का दरवाज़ा बंद नहीं कर सकती थी। सासू माँ या पति को कभी भी कोई ज़रूरत हो, वह आवाज दें और मेरा उपस्थित होना बहुत जरूरी था। उसके आगे हर तकलीफ़ छोटी थी। उनकी जरूरत वाली बात तब भी अपना फन उठाये वैसे ही खड़ी थी।

रोली ने बचपन से लेकर आजतक कि पढ़ाई किचन में ही की है। एक छोटा स्टूल जिस पर वह बैठ जाती है। दूसरा थोड़ा ऊँचा और बड़ा जिस पर एक बार में एक कॉपी, किताब ही रखी जा सकती है। बाक़ी का सामान ज़मीन पर रखा रहता है। बैग पर और कॉपी किताबों पर पति और सास के पैर या पानी के छींटे हमने कई बार सहे हैं।

जब भी ध्यान से चलने की बात कही, इतना हंगामा हुआ की वह सब मैंने बंद ही कर दिया। रोली भी समझ चुकी थी कि इस घर में बहस व सुधार की कोई जगह नहीं है। जीवन में हम सबको सफलता तो मिल जाती है पर उस सफलता से पहले हमने अपने आप को कितना भट्टी में तपाया है यह हम ही जानते हैं।

अपने ही ख़यालों में खोई मैं चल रही थी। हम चलते – चलते अपने घर के दरवाज़े पर पहुँच गये। ट्रेन से घर तक का रास्ता हम दोनों ने कैसे तय किया वो हमारा दिल ही जानता है। घर के पास पहुँच कर मैं पति के आगे हो गई। मेरा ध्यान तक टूटा जब मेरी पीठ पर एक झन्नाटेदार झापड़ पड़ा! मैं गिरते-गिरते बची। सामने मेरी सास ख़ड़ी थी। मेरे पति की प्राणवायु!

पीठ पर पड़ी मार से रीढ़ की हड्डी झनझना गई। मैंने अपनी पीठ पर हाथ रखा तब तक रोली दौड़कर मेरे पास आ गई। मेरी कंधों को अपनी दोनों बाहों से पकड़कर वह खड़ी हो गई। आगे कुछ भी हो सकता है। ये हम दोनों जानते हैं।

-“घर का नाम मिट्टी में मिला दिया! अब मिल गई तुझे शांति? पूरी दुनिया को बता दिया कि तू दुखियारी है! हमने तुझपर बहुत ज़ुल्म किये हैं!” सास की आंखों से आग निकल रही थी। चुप रहना ही बेहतर है! अब मेरे बोलने से कुछ फ़र्क नहीं पड़ेगा। इन माँ-बेटे को जितना बोलना है ये बोले बिना रुकने वाले नहीं है।

-“ख़ुद को महान साबित करने का मौका कैसे छोड़ सकती थी?” जैसी है वैसा ही तो बोलेगी ना! ख़ानदानी घर से होती तो ऐसी बात मुँह से कभी नहीं निकलती।” पति ने अपना तेल डाल कर आग भड़काने का काम शुरू किया।

औरत के खानदान को बुरा कहकर पति का परिवार किस तरह अपने को संतुष्ट करता है समझ नहीं आता है। पर ये बहुत पुरानी, स्थायी आदत है जो इनको बहुत सुकून देती है।

-“उस कुर्सी पर बैठे-बैठे मैं अपनी बुराई सुन रहा था। ऐसा लग रहा था कि कोई मुझ पर गर्म तेल डाल रहा हो! इस औरत ने तो इज्ज़त की ऐसी धज्जियाँ उड़ाई है कि इसे घर की, रोली की किसी की भी पर्वाह नहीं रही।”

रोली टेलिविज़न पर सब देख ही चुकी थी। (उसकी इंटर्नशिपके लिये उसे कुछ ज़रूरी काम करने थे। इसलिए वह मेरे साथ नहीं आ पाई थी)। अब इस घर में क्या होने वाला है इसका अंदाज़ा उस मासूम को था। इसीलिए वह बाहर के कमरे में बैठी हमारा इंतज़ार कर रही थी।

घर में उसने मुझे मार खाते हुए देख लिया था। अब वह मेरे पास खड़ी थी। अगले वार से बचाने के लिए। उसने बीच में टोकते हुए कहा- “माँ के सच से मेरा क्या बुरा हो सकता है?” रोली मुझसे सटकर खड़ी हो गई।

वह जानती थी मुझे कभी भी पति फ़िर से मार सकते हैं। ऐसे न जाने कितनी बार, यह बच्ची हम दोनों के बीच में खड़ी रहकर मुझे बचाती आई है।

-“अरे, वाह तो अब तुझ पर भी अपनी माँ का रंग चढ़ गया है? तेरी माँ ने जो किया उससे सिर्फ़ मेरा और मेरी माँ का ही लेना-देना है! हम दोनों ही तो ज़ालिम हैं!” पति की आँखों में गुस्सा बड़ ही रहा था।

उसका इतनी जल्दी ठंडा होने आसान भी नहीं। आज जो हुआ है वो कितने दिन लेगा या कुछ नया ही रूप ले ले कोई नहीं कह सकता है।

रोली चुप सुन रही थी। उसे पता था इस अंतहीन बहस से कुछ मिलने वाला नहीं है। हाँ, जितना बोलेंगें उतनी शांति दूर होती जाएगी। ज़िन्दगी की जंग बोलने से ज़्यादा कुछ करके ही जीती जा सकती है। कर्म हर सवाल का जवाब है। बहस तो कभी नहीं!

-“माँ से अच्छे संस्कार मिलते तो यह कभी भी इतना मुँह नहीं खोल सकती थी।” दादी ने आग उगलते हुए कहा

जो भी मेरा पक्ष ले वो बुरा हो जाएगा ये बहुत सीधी सी चाल है इन माँ-बेटे की। माँ ने अपने लाड़ले बेटे ‘कमल’ का पक्ष लिया।

-“अरे, माँ आज तो ट्रेन में भी इसने एक और महान काम किया था। एक लड़के को बैठने को जगह दी थी इन मैडम ने!” पति की आंखें गुस्से से फैल रही थी।

-“किसी कमज़ोर की सहायता करना कौनसी ग़लती है?” मेरे मुँह से अपने आप शब्द निकल गए।

-“अब तू अपना मुँह बंद करेगी या फिर…” पति ने अपना हाथ मारने के लिए उठाया। रोली हम दोनों के बीच आकर खड़ी हो गई।

-“घर और बाहर तुम्हारे दो रूप हैं! घर में औरत का अपमान करते हो और बाहर एक अपाहिज़ की जगह एक लड़की के लिए तुम्हारे दिल में ज़्यादा जगह है। जिस दिन मैंने अपना दूसरा रूप दिखा दिया ना…” पति के हाथ को पकड़कर मैंने ये सब बोल तो दिया पर रोली जो हमारे बीच में खड़ी थी। मुझे डर व आश्चर्य से देख रही थी। आज पहली बार मैंने पति को जवाब दिया था। साथ ही उसका हाथ रोक दिया था।

मैंने आँखों ही आँखों में पति को यह कह दिया कि आज उसने पीछे से जो मारा वही आख़री थप्पड़ था। सामने की मार को बचाने की हिम्मत अब मुझमें आ चुकी है।

अब यह कभी भी नहीं हो पायेगा। एक चेतावनी बहुत ज़रूरी थी। हमारे ऊपर जुल्म की अमरबेल तब ही पनपती है। जब हम उसे अपने ऊपर फैलने देते हैं। जब तक उसको खींच कर खुद से अलग न करे वो फैलती रहती है। उसकी जिंदगी हमारी कायरता में ही बसी होती है।

या फिलॉसफी तो सब जानते हैं। पर परजीवी को अपने से दूर कर देने की ताकत जब तक नहीं आती, तब तक इस बात का कोई अर्थ नहीं है।

सच ही कहा गया है जो जीवन में उतारा, आत्मसात किया आपने जीवन को उतना ही समझा है। बाकी सब किताबी ज्ञान है। जिसका कोई अर्थ नहीं है। किताबी ज्ञान तो हर तरफ फैला पड़ा है। उससे कुछ नहीं होता! जो ज्ञान जीवन को रूपांतरित कर दे वही सच्चा ज्ञान है।

रोली की आँखों में डर था। उसने मेरे हाथ को पकड़कर बोला- “माँ, कमरे में चलो!”

-“अब ये महारानी आराम ही तो करेंगी! जो करना, कहना था वो तो सब कर चुकी है! किसे पता था इसके ऐसे पर निकल आयेगें? इससे तो ये घर में ही अच्छी थी!” सास की तकलीफ़ वाजिब थी।

बहू के साथ जो किया जाता है वो बन्द कमरे में ही ख़त्म हो जाता है। सिसकती, जलती बहू तो घर से बाहर तब ही जाती है जब ससुराल वालों की बर्दाश्त के बाहर हो जाती है।

बहुओं को पढ़ाने वाले, बेटी के समान प्रेम व सम्मान देने वाले घर आज बहुत हैं। ये सब जिसके नसीब में हैं, वो खुशकिस्मत हैं। वो मैं कभी न बन पाई।

ये शब्द मेरे कानों में तो पड़े पर तब तक रोली ने कमरा बन्द कर दिया। कमरे के बन्द होने से कुछ भी बंद नहीं होगा। ये तो एक शुरुआत हुई है एक आग की जो पहली बार मेरी तरफ़ से लगायी गयी है।

कमरे में बहुत देर तक हम मां - बेटी चुप बैठे रहे। कुछ समझ नहीं आ रहा था की हम एक दूसरे से क्या कहे? वैसे भी जिनके दिलों में प्यार होता है उनके दिल इतने करीब होते हैं की अगर बातें ना भी की जाए तब भी वो एक दूसरे को सुन सकते हैं।

झगड़ा करते वक़्त दिल इतने दूर होते हैं कि चिल्लाकर अपनी बात कहनी पड़ती है। पर प्रेम के पल में दिल इतने पास होते हैं कि धड़कन को भी सुना जा सकता हैं। इस वक्त मेरे साथ पलंग पर लेटी रोली और मैं हाथ पकड़े एक दूसरे से बातें ही कर रहे थे।

बहुत देर बाद रोली बोली- “माँ, यह हाथ में क्या है?” मेरे हाथ को देखकर मुझे याद आया कि अरे, मेरे हाथ में तो यह लद्दाख की टिकट है।

रोली ने बोला तो मैंने उसे दिखाते हुए कहा –“अरे यही तो एक टिकट है, जो मैं वहाँ के उपहारों में से ले पाई। बाकी सारी चीजें तो वहीं छूट गईं। तू तो जानती है स्टेज पर बोलने के बाद तेरे पापा की आंखें जो कह रही थी। उससे मुझे डर तो नहीं लगा मगर इतना तो सोचा कि अब यहां से चुपचाप निकलना ही बेहतर है। स्टेज के पीछे एक नया सीन खड़ा करने की मेरी कोई इच्छा नहीं थी। आयोजक ने टिकिट मेरे हाथ पर रखा और मैंने भी उसे अपनी मुट्ठी में दबा कर रख ही लिया था।”

रोली ने टिकट देखते हुए बोला- “तो क्या आप पापा के साथ घूमने जाओगी?”

उसकी आंखों में देखते हुए मैंने कहा- “सच कहूं तो अकेले जाने का मन है! यही तो एक जगह है जहां मैं सालों से जाना चाहती थी। तुम मेरे साथ चलो तो बहुत अच्छा होगा। पर क्या यह अभी सम्भव है बेटा?… तेरे पापा के साथ जाकर भी क्या होगा? अभी वह जिस हाल में है मुझे लगता नहीं कि चार दिन के अंदर उसका मन इतना बदल जाए कि वह मेरे साथ चलने को तैयार हो जाएं। और यदि वह चलें भी तो उनका व्यवहार तो बदलने से रहा! उसी ज़हर के साथ, इन्हीं सब बातों के साथ जो यहां दिन-रात घर में चलती है। वहां भी यदि यही सब किया तो फिर वहां जाने की जरूरत ही क्या है? रोली, पहली बार बहुत इच्छा हो रही है कि या तो तेरे साथ, नहीं तो मैं अकेली जाँऊ! मुझे पता है कि इस समय तू मेरे साथ नहीं जा सकती है। तुझे तो अभी हैदराबाद जाना है। जिसे छोड़ना अभी तेरे लिए संभव नहीं है। क्या मैं सही सोच रही हूं?”

-“बहुत सही सोच रही हो!” रोली ने मेरा हाथ दबाते हुए कहा।

“तुम चार दिन अकेले सुकून से जीने का हक़ रखती हो! पिछले कई सालों में तुमने इस घर में अपनी कमाई से बहुत सहयोग दिया है। पापा ने कितना कमाया और कितना गँवाया, इसके बारे में तो कहना बेकार ही होगा। वैसे भी कहने से कौनसा सुधार होने वाला है? तुमने तो हमेशा अपनी ज़रूरत पर ही ख़र्च किया है। अपनी इच्छा का तो कभी सोचा भी नहीं! आज तुम इस उपहार में मिले टिकट का, अपनी शांति और अपने सुकून के लिए इस्तेमाल करोगी तो लगेगा तुमने अपने मन के लिए कुछ किया है। तुम ज़रूर चली जाओ! मगर याद रखना पापा और दादी के डर से घबराना नहीं! वो जो भी कहें उन्हें कहने दो! सबसे अच्छी बात तो यही है कि तुम चुप रहना! तुम्हारी जाने में तो अभी चार दिन बाकी है!”

घर का माहौल बच्चों को कितनी जल्दी परिपक्व बना देता है। यह रोली की बात से हमेशा लगा। रोली आज नहीं, आज से कई साल पहले भी इतनी ही समझदार थी।

घर की परिस्थिति में इंसान दो रूप में ढल सकता है या तो वह बुरे माहौल में बिगड़ जाए, खुद को बर्बाद कर ले। किसी गलत रास्ते पर चला जाए और अपनी बुराइयों का दोष बड़े आराम से अपने घर के बिगड़े हुए माहौल को दे दे। अधिकतर लोग ज़िन्दगी में यही करते हैं।

दूसरी परिस्थिति होती है बुरे माहौल में खुद को संभाल लेना। ये वैसा ही है जैसे लाल बहादुर शास्त्री को माली ने कहा था ‘यदि तुम्हारे पिता नहीं है तो तुम चोरी नहीं कर सकते! तुमको अपनी जिम्मेदारी खुद उठानी है।’ ऐसा ही कुछ हाल मेरा और रोली का रहा था।

जब बच्चा दिन – रात घर में पिता और दादी के कड़वाहट से भरे माहौल को देखता है। तो या तो वह खुद भी कड़वा हो जाए या वह जीवन में एक सबक ले ले कि उसे कभी किसी के साथ कड़वा नहीं होना है।

वह कहते हैं ना जिन्होंने दुख भोगे हो वह कभी किसी को दुख दे नहीं सकते। सच यही है जिस ने दुख का स्वाद चखा है वह जानता है कि दुख क्या है। जो खुद, दर्द से गुजरा हो वो कभी किसी को दर्द दे नहीं सकता।

रोली की आंखों में देखते हुए मैंने कहा- “थोड़ा डर तो लगता है! पहली बार हवाई जहाज में बैठूंगी! पहली बार एयरपोर्ट के अंदर जाऊँगी! मुझे तो यह भी नहीं पता है कि अंदर क्या करना होगा?”

-“कोई ड़रने की बात नहीं है! घबराने की जरूरत नहीं है! बहुत सीधी-सी एक बात है कि यदि हम कुछ नहीं जानते हैं, तो हम किसी से सहायता ले सकते हैं! हर जगह सिक्योरिटी वाले लोग खड़े होते हैं। हमें सहायता की जरूरत है यह कहने से कोई न कोई समझा ही देगा। मां, जब तुम किसी से बात करोगी तो कोई न कोई तुम्हारी सहायता कर ही देगा! तुम आराम से पहुंच जाओगी और तुम्हें कोई दिक्कत नहीं होगी! तुम अपनी तैयारी कर लो। वहां जाने के लिए तुम्हें गर्म कपड़ों की जरूरत होगी!”

हम मां - बेटी बातें ही कर रहे थे कि पति अंदर आए और आते ही बोले- “यह जो टिकट अपने हाथ में छुपा कर लाई थी, इसे फाड़ कर फेंक देना! तेरे साथ लद्दाख जाना तो दूर मैं आज के बाद सड़क पर चलना भी पसंद नहीं करूंगा!”

मैंने बहुत शांति से जवाब दिया- “जैसा आपका मन! मैं अकेली ही चली जाऊंगी! पर मैं यह टिकट नहीं फाड़ सकती! यही तो एक जगह है। जहां मैं जाना चाहती थी। पहली बार यह मौका मिला है।”

-“बस, चुप हो जा! अब तेरी महानता का गाना फिर से नहीं सुनना है! तूने कितना कमाया और कितना इस घर में लगाया! हम तो जैसे फालतू ही थे! तेरे कौनसे अरमान मैंने पूरे नहीं किये? तेरी कमाई से पहले तो यह घर ऐसे ही चल रहा था! तुझे खाना तो शायद तेरे घर वाले ही आकर खिला रहे थे!” कहते हुए पति ने सामने रखा पानी का गिलास उठाया और जमीन पर जोर से दे मारा।

वह कमरे से बाहर चले गए। उनके गुस्से का अंदाज़ा मुझे है। ये जो भी हो रहा है बहुत कम है मैंने तो इससे भी छोटी बात पर बहुत बड़ा तूफ़ान झेला है।

एक के बाद एक, झटके सहना उनके लिए वाकई आसान नहीं है! पहले स्टेज, उसके बाद बैसाखी और उसके बाद लद्दाख जाने की बात, वो भी अकेले!

मुझे सिर्फ एक ही काम करना है! चुप रहना है! मुझे जो कहना था वह मैंने कह दिया। जिंदगी में जितनी भी लड़ाइयां लड़ी जाती है। वह हमेशा ठंडे दिमाग से लड़ी जाती है। अशांत मन से निशाना कभी नहीं लगता! हमारा निशाना उतना ही अचूक हो सकता है जितने हम शांत हैं, गहरे हैं और ठंडे हैं!

हालाँकि, ये आसान नहीं है! कुछ भी करो कभी न कभी तो शब्द मुँह से निकल ही जाते हैं।

आज कुछ हॉसिल करने के बाद सबसे बड़ा सवाल एक ही है कि अब मैं ख़ुद को क्या जवाब दूंगी? जिंदगी में हमें जवाब सिर्फ खुद को देना होता है!

हमनें ज़िंदगी को कितना समझा और क्या किया? कोई हमारे साथ कुछ भी करे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। सबसे बड़ी बात यह है कि हम ख़ुद के साथ क्या करते हैं? क्या हम अपने साथ न्याय कर पाए? हमनें अपने मन की सुनी? हमनें अपने आत्म सम्मान को बचाया? ज़रूरी नहीं है कि हम बहुत बड़े पद पर पहुंच जाएं और बहुत सारा पैसा कमाएं। तभी अपने आत्मसम्मान के बारे में सोच पाएं।

छोटी सफलता के साथ जीकर भी अपने आप को ख़ुश रखा जा सकता है। आज पहली बार मैंने जो कदम आगे बढ़ाया है अब उसे पीछे नहीं रखा जाएगा।

आज के बाद इनको एक बार शांति से यह समझा दूँगी की अब आपकी बीमारी को सम्हालने की ताकत मुझमे नहीं है। मैं फ़र्ज पूरे कर दूँगी। स्वाभिमान की एक सीमा रेखा अब आपको भी समझनी होगी।

यदि पति और मेरी सास मेरी इच्छा के अनुरूप मुझे इस घर में रखते हैं तो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। मैं इनके साथ भी जी लूंगी। चाहे जो भी हो, रोली को पिता भी तो मिलेगें। नहीं तो मैं अकेली ही अपनी बेटी को पाल सकती हूँ। सबसे बड़ी ख़ुशी की बात यह है कि रोली मेरी हर सांस को समझती है। मुझे जीवन में उसे कभी समझाने की जरूरत नहीं पड़ेगी।

हमारा विश्वास हमारी चाल बदल देता है। या यूँ कहे कि हम रूपांतरित हो जाते है। जब हम बदलते हैं तो ये बात आसपास वाले भी समझने लगते हैं। हवा बहुत कुछ कह जाती है।

आज मुझे रोली के कहे कुछ शब्द याद आए। जब उसने मुझे कहा था कि ‘तुम्हें मुझे कभी भी, कुछ भी कहने और साबित करने की जरूरत नहीं पड़ेगी! तुम जब जो, जैसा करोगी मैं हरदम, हर हाल में तुम्हारे साथ हूँ। कभी भी, कुछ भी करते समय यह मत सोचना कि मैं क्या सोचूंगी या मुझे कैसा लगेगा? मैंने तुमको बहुत देखा है। तुम्हारी हर बात, तुम्हारी इस घर से जुड़ी ईमानदारी, मेहनत, तुम्हारा अपमान और तुम्हारी सफलता जो तुमने बहुत धीरे-धीरे पाई है। सब कुछ मैंने देखा, समझा है। याद रखना मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूँ!’ और सचमुच आज रोली ने यह साबित भी कर दिया कि वो कितनी समझदार है!

-“माँ ये नाना-नानी का तीसरा फ़ोन है। वो बहुत घबराये हुए हैं। तुमसे बात करना चाहते हैं!”

-“अभी मन नहीं है! कल बात करेगें! वो तब घबरा रहे हैं जब ज़रूरत नहीं है! जिस दिन मैं डर कर उनके पास गई थी उस दिन वो नहीं घबराये थे। उल्टा मुझे हिम्मत, हिदायत के साथ इन जानवरों के पास भेज दिया था। तब तुम मेरे पेट में थी।”

-“अब भूल जाओ! उस सब को याद करके अपने आप को परेशान मत करो!”

-“इसीलिए तो बात नहीं करनी है!” कहते-कहते नज़र धुँधली हो गई। यादें बहुत पीछे खींच कर ले गई! जहाँ सबकुछ बहुत साफ़ दिखाई दे रहा है।

मेरी सास, उनका प्यारा बेटा कमल! मेरी सास के अच्छे नैन नक्श, सांवला रंग, चश्मा, छोटे बाल साथ ही उन्हें सजने संवरने का बहुत शौक था जो उनकी सास के रहते तो वह कभी पूरा ना कर पाई। अपनी सास के जाने के बाद वह शौक उन्होंने अपनी विवाहित बेटी को कपड़े, मेचिंग चप्पल, बिंदी, रूमाल देकर पूरा किया और आज भी बड़ी शिद्दत से कर रही है।

अपनी बेटी के लिए साड़ियां खरीदना, छुप कर उसके लिए ब्लाउज सिलवाना मेचिंग का सामान लेकर आना और अपने बेटे के हाथ उसे बेटी तक पहुंचा देना। उनकी पूरी कोशिश रहती थी मुझे यह सब पता ना चले। मगर एक छोटे से घर में चीजों को छुपाना आसान भी तो कहां होता है?

मुझे कभी साड़ी, तो कभी उसका तैयार पैकेट दिख ही जाता। उसे देखकर वो कहती “इसको वहीं रहने दे! मैं अभी उठा लूँगी!”

उनके दो ही काम हैं टीवी देखना या फोन पर बातें करना। उनका फोन पर बात करने वाला तो वही हाल है जिसमें लोग रॉन्ग नंबर पर भी आधा घंटा बात कर सकते हैं। तो फिर राइट नंबर का तो खुदा ही मालिक है।

कब टीवी देखते – देखते वह बाजार चली जाएं कोई नहीं जानता?! वो मुझे कभी कह कर नहीं जाती हैं। उनके कमरे में टीवी चलता ही रहता और वह बाहर के बाहर चप्पल पहनकर बाज़ार चली जाती हैं। मैं पहले तो बाहर जाती तो बहुत आश्चर्य में रह जाती कि वह ऐसे खुला घर छोड़कर कहां चली गई? मुझसे कह कर क्यों नहीं जाती हैं?

जब वे आतीं और मैं उनसे कहती कि ‘दरवाज़े खुले पड़े थे। आप बता कर जाती तो मैं दरवाजा बंद कर लेती।’ इस पर उनका जवाब मुझे निरुत्तरित कर जाता।

वह कहती ‘बताने की क्या जरूरत है? दस मिनट के लिये ही तो बाहर गई थी। दूर जाती तो बता देती।’ वो दस मिनट की परिभाषा मुझे कभी समझ ही नहीं आयी।

बाहर का दरवाजा खुला, अंदर रोली सो रही है। मैं किचन में काम कर रही हूं। मन में डर लगता कोई अंदर के कमरे तक आ जाए रोली को उठा जाए तो? मगर इन सब की फिक्र कभी उन मां – बेटे को नहीं हुई। एक एस दो बार मैंने अपने पति से भी कहा तो उन्होंने कहा ‘पास में ही तो जाती है। हर बार तुम्हें बता कर जाना जरूरी है क्या?’

प्रेम शायद इसी को कहते हैं। जो वाकई अंधा होता है। वह कुछ भी सही – गलत नहीं देखता। जो किसी को प्यार करता है उसे वो हमेशा सही लगता है। यहाँ भी बेटे को माँ व माँ को बेटा हमेशा सही ही लगते हैं।

एक दिन मेरे मुंह से निकल गया ‘आप घर से बाहर गई उसके बाद घर में कोई घुस गया तो? उसे क्या पता कि आप कितनी दूर हैं?’

‘कितनी लम्बी जुबान है? सरोज, कितना मुंह चलाती है? इसे अपनी सास का लिहाज नहीं?’ एक महीने तक इन माँ – बेटे ने मुझसे बात नहीं कि थी। उसके बाद खुले दरवाजे को मैंने भगवान भरोसे ही छोड़ दिया।

कल घर में कुछ हो जाए, ये सोचना भी छोड़ दिया था। हम जैसों के घरों में क्या है? और क्या मिलेगा? शायद चोर भी ये जानते थे। इन माँ और बेटी-बेटा ने एक दूसरे की हर आदत को इतनी मजबूती से पकड़े रखा था कि उसे बदलना नामुमकिन था। इस घर की पल-पल की खबर बेटी को देना और उसके घर के हर बात में दखल देना यही इनका काम था। एक फोन घरों में कितनी आग लगा सकता है यह कोई इनकी बेटी के ससुराल वालों से पूछे।

जहां बहू ने घर का कोई फ़र्ज तो पूरा किया नहीं उल्टा अपने बीमार सास -ससुर को छोड़कर एक अलग मकान में रहने लगी। मेरी ननद की सास एक बार हमारे घर भी आई थी। उन्होंने मेरी सास से हाथ जोड़कर विनती की थी कि उनके घर में दखल ना दिया करें। वह अपने इकलौते बेटे को छोड़कर नहीं रह पाएंगे।

उनका बेटा भी अपनी मां को बहुत प्यार करता था। मगर मेरी ननद ने उनको धमकी दी कि यदि वो अलग नहीं हुए तो वह घर छोड़कर चली जाएगी। अपने बच्चे को बहुत प्यार करने वाले इस पिता ने अपनी पत्नी और बेटे को चुना। उसके माता-पिता ने अपने बेटे के घर को तोड़ना ठीक नहीं समझा।

अब वह सुबह और शाम दोनों समय अपने माता – पिता से मिलने जाते हैं। मगर उनके माता-पिता कभी अपने बेटे के घर नहीं आ सकते क्योंकि उनकी बहू को अपने सास-ससुर पसंद नहीं हैं। वह उनके आने से डिस्टर्ब हो जाती है। बहू के कितने अलग-अलग रुप हो सकते हैं? इसी घर में देखकर पता चलता है! एक मैं, जो हर काम के बाद भी कभी अच्छी नहीं बन पाई। एक वो जिसने घर तोड़ दिया, माता-पिता का कभी कोई काम नहीं किया उसके बावजूद उसके पति उसके आगे कुछ कह नहीं पाते हैं।

यहां तक कि उसके सास - ससुर भी बहुत गिड़गिड़ाये थे। ‘हमसे अलग मत जाओ! हम अपने बेटे को देखे बगैर नहीं जी पाएंगे!’ मगर मगर बहू का दिल नहीं पसीजा और बहू अपने घर से अलग हो गई।

इन मां – बेटे के हिसाब से बीमार सास – ससुर की सेवा करना उनकी बेटी की जिम्मेदारी नहीं है। वह क्यों उनकी सेवा करें? वह सिर्फ अपना घर देखेगी! अपने पति और बच्चे को देखेगी! इससे ज्यादा उसकी कोई जिम्मेदारी नहीं है। अब यही हो रहा है जैसा और जो मां समझाती है उसी ढंग से उनकी बेटी का घर चल रहा है।