पहले कदम का उजाला - 11 सीमा जैन 'भारत' द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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पहले कदम का उजाला - 11

स्वाद टिफिन सेंटर***

दो टिफ़िन से शुरू हुआ मेरा काम धीरे-धीरे बढ़ता गया। काम बढ़ने के साथ घर में पैसा आया तो बहुत सारी बुराइयों पर ताले लग गए। मैंने भी हर दिन एक नया सबक सीखा।

कोई ग्राहक पैसा समय से दे जाता है। कोई बाद में दे देता पर शांति से सब निबट जाता है। किसी की पैसा देने कि नियत ही न हो तो वो खाने में कमी निकालेगा या कुछ भी ऐसा करेगा जिससे पैसे कम हो जाये या देने ही न पड़े।

हर हाल में सब कुछ मुझे ही सम्हालना पड़ता था। मेरी परेशानी मेरे पति को एक अजीब सी ख़ुशी देती थी। एक बार तो शोर सुनकर पास से अंकल आ गए पर मेरे पति से कमरे से बाहर नहीं निकला गया।

अच्छा भी है, मुझे भी यह बात समझ में आने लगी कि कितनी और कैसी सावधानियों के साथ अपने काम को आगे बढ़ाना है।

मेरी हर अड़चन मुझे एक सबक दे जाती। साथ ही यह बात पूरी तरह से समझ में आ गयी। मेरे कमाये पैसे का फ़ायदा तो ये लोग उठा ही लेंगे पर मेरी असफलता इन्हें बहुत ख़ुशी देती है। सब कुछ समझकर जीना आसान होता है। हमारा दुःख प्रेम की कमी नहीं, हमारी उम्मीद होती है।

अब मैं आराम से रोली की जिम्मेदारियों को पूरा करने लगी। रोली ने अपनी पढ़ाई पूरी लगन व ईमानदारी से की उसे कभी पढ़ाई से जुड़े प्रवचन नहीं देने पड़े! जो बच्चे घर में माता-पिता के रिश्तों का बेमेल रूप देखते हैं वो या तो सम्हल जाते हैं या लड़खड़ा जाते हैं।

रोली को सम्हालने के लिए मेरा प्यार, मेरी मेहनत काफ़ी थी। सच तो ये है की उसने मुझे ज़्यादा सम्हाला, ज़्यादा हिम्मत दी! मेरे हर लड़खड़ाते कदम पर एक वो ही तो थी जो मेरे साथ खड़ी होती थी।

टिफ़िन सेंटर एक शुरुआत थी। मेरी ख़र्चे से जुड़ी परेशानियाँ ख़त्म हो गई। इस बात पर ध्यान ही नही गया कि खाने का पूरे घर का खर्च अब टिफ़िन सेंटर ही उठा रहा है। पति ने बड़े आराम के अपने हाथ पीछे खींच लिए थे।

उनकी कमाई अब उनके शौक पर ज़्यादा काम आने लगी थी। ननद को ज्यादा उपहार दिए जाने लगे थे। मेरा मान या अहसान मानने की ज़रूरत तो उन्होने कभी समझी ही नहीं।

उल्टा कभी अपने हक़ की बात की तो ये कहकर मुझे चुप कर दिया गया कि कमाई तो तुम हमारे घर से ही कर रही हो ना! तो फ़िर अहसान कैसा?

दो टिफिन से शुरू हुआ यह टिफिन सेंटर धीरे-धीरे अपना आकार लेता गया। इसके बढ़ते आकर में आसपास के बच्चों की बर्थडे पार्टी हो या कॉलोनी की औरतों की किटी पार्टी सब कुछ समाता गया!

‘स्वाद टिफ़िन सेंटर’ इस खाने के स्वाद ने मुझे बहुत अपमानित करवाया था। आज वही स्वाद मेरी ज़िंदगी का सबसे खूबसूरत हिस्सा बन चुका था। जब एक बार काम चल निकला तो कॉलोनी ही क्यों, कॉलोनी में ही रहने वाले लोगों के रिश्तेदार, पड़ोसी और दोस्तों के यहां भी छोटी-छोटी पार्टियों के खाने के आर्डर मुझे मिलने लगे।

जाहिर था, अब घर से बाहर जाना, लोगों से मिलना सब कुछ बढ़ने लगा। दुनिया में बुराई का मुंह बंद कर करने का एक अचूक रास्ता है। सफलता के साथ पैसा! जब पैसा आता है तो न जाने कितने बुराइयों के दरवाजे और मुंह सब बंद हो जाते हैं।

यह वही सरोज थी, जो कभी घर से बाहर नहीं निकलती थी। जो सिर्फ आंटी के घर जा सकती थी। कॉलोनी की औरतों से जिसनें कभी बात नहीं की, वही सरोज आज पूरे शहर में न जाने कितने लोगों से मिलने लगी।

मैं कितने लोगों के घर जाने लगी। सफलता का सिलसिला भी कहाँ रुकता है? हरसिंगार के फूलों की तरह एक के बाद एक आँचल में पता नहीं कितने सारे फूल आते जाते हैं।

वैसे ही मेरा भी सफलता से आँचल भरता गया। मैंने छोटी-छोटी कुकिंग कंपटीशन में भाग लिया और न जाने कितनी जगह कितनी नई चीजें बनाई। मेरी हर जीत के साथ मेरे ग्राहकों की संख्या और मेरी पहचान बढ़ती गई।

उसके बाद आंटी के ही घर में एक कमरा आंटी ने मुझे दिया और मैं कुकिंग क्लास चलाने लगी। दो साल में कितना कुछ बदल गया।

कुकिंग क्लास में नित नये लोगों से मिलना होता था। हर इंसान के साथ एक जीवित कहानी चलती है।

दुःख के सागर में कई औरतें जीती हैं। किसी की परेशानी अपने बच्चों से जुड़ी होती है तो किसी की परिवार से। मेरे कई महिलाओं से बहुत अच्छे सम्बन्ध हो गए थे।

घर से बाहर निकलने पर पता चलता है यहाँ बहुत लोग जीवन संघर्ष कर रहे हैं। बहुत सारी महिलाएँ घर से बाहर निकलकर कुछ काम करने को कुछ पैसे कमा लेने को तरसती हैं। हाँ, बहुत सी वो भी हैं जिनके जीवन में सुख, शांति है। वे कुछ थोड़ी -सी निश्चित ही भाग्यशाली हैं।

मेरे हाथ के खाने को मेरे मित्र तरह-तरह के नाम देने लगे। कल तक जिस खाने के साथ ‘कभी तो कुछ ढंग का बनाना सीख लो!’ अब इस की जगह ‘स्वाद स्पेशल ने ले लिया।‘

जिस दिन राष्ट्रीय स्तर की कुकिंग कंपटीशन में मैंने भाग लिया सपने में भी नहीं सोचा था कि आज इतनी बड़ी सफलता मेरे हाथ लगेगी। इस सारे दौर में अंकल आंटी और रोली ने जो मेरा साथ दिया उसके बगैर यह कुछ भी संभव नहीं था।

हमारे जीवन में सफलता हमें अकेले नहीं मिलती। कोई ना कोई, कहीं ना कहीं किसी रूप में हमारा साथ देता है! हमें हौंसला देता है! हमें स्वीकारता है! तभी हम सफलता की सीढ़ियों को चढ़ पाते हैं।

आज जो भी मिला है उसमें सच कहूँ तो एक हिस्सा मेरे माता-पिता का और एक मेरे पति और मेरी सास का भी है। यदि मैं इन रास्तों से नहीं गुज़रती, मेरे पति और सास अच्छे होते; तो मैं भी एक आम औरत की तरह अपना घर चलाती होती। पार्टियों में जाती, नित नये कपड़े पहनती और ख़ुश रहती।

यदि दुख में माता – पिता साथ देते, तो उनके घर रहती। उसके बाद क्या करती है, पता नहीं? इसका जवाब अभी मेरे पास नहीं मगर चुनौतियों के साथ जैसे मैंने खुद को संभाला है, सच कहूँ तो मेरी सफलता, दूसरे हर सुख से बहुत बड़ी है।

सफलता का कारण हमेशा हुनर, किसी का प्रोत्साहन हो ज़रुरी नहीं! बुरी परिस्थितियों में ख़ुद को सम्हालने की चाहत, बहुत ज्यादा बढ़ जाती है क्योंकि जब कोई रास्ता ही नहीं बचता तो एक संघर्ष जागता है हमारे भीतर। यदि इस संघर्ष में हम जीतेंगे नहीं तो जीयेंगे कैसे?

आज इस जीत में एक बहुत बड़ा हिस्सा अंकल-आंटी का था। वो अचानक अपनी बेटी के पास चले गए। उनके दामाद का कोई बड़ा ऑपरेशन होना था। उन दोनों की बहुत याद आ रही थी। आज वो होते तो मैं सबसे पहले उनके घर ही जाती। आंटी घर के बाहर खड़ी मेरा इंतज़ार कर रही होती।

वो तो रोली को भी अपने पास बुला लेती। घर में जो हंगामा होने वाला था। उसकी सावधानी वो पहले ही रखती। मुझे कितना सहारा, साहस दिया था। आज वो अस्पताल में बेटी-दामाद के साथ बहुत चिंता में होगी।

मैंने रोली को बोला-“अभी आंटी से बात कर सकते हैं क्या?”

“तुम फोन लगा कर देख लो! शायद वो अस्पताल से बाहर होंगी तो उठा लेंगी।”

फोन लग गया। आंटी ने सबसे पहला सवाल किया “घर आने पर क्या हुआ था?”

“कुछ नहीं आंटी, बस थोड़ा सा हंगामा किया था।”

“सच बता उसने तुझे हाथ नहीं लगाया था?”

… मेरी ख़ामोशी बोल गई।

“तूने जो पाया है ना, वह बहुत है बेटा, हम सब बहुत ख़ुश हैं। अपना ध्यान रखना। हमारे घर की चाबी भी तो तेरे पास ही है। तू कल वहाँ आराम कर लेना।” आंटी जो मरहम लगा सकती थी वही लगा रही थी।

“आप परेशान मत हो। रोली मेरा बहुत ध्यान रख रही है। बिल्कुल आपकी तरह।”

“चल, अब आराम कर बहुत रात हो गई है कल बात करेंगे।”

“ऑपरेशन कैसा रहा? दामाद जी ठीक हैं?”

“हाँ, रवि अच्छा है। तू घर से कोई भी सामान की ज़रूरत हो तो ले लेना। ठीक है?”

“सब ठीक है। हम कल बात करते हैं।” कहकर मैंने फोन रखा। आंटी से बात करके लगा मैंने अपनी माँ से ही बात कर ली।