पहले कदम का उजाला - 10 सीमा जैन 'भारत' द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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पहले कदम का उजाला - 10

मेरा दिल***

रोली की बीमारी, डॉक्टर देव से मिलना इन सबमें इतनी उलझ गए थी कि मन कुछ अजीब से सपने देखने लगा था।

बालू के घर,

पानी पर लकीर,

क्यों सुकून देती हैं?

हवा के महल,

ताश के घर,

क्यों अच्छे लगते हैं?

जिंदगी के रास्ते,

ज़रूरतों के वास्ते,

बहुत तपाते हैं।

जो सुन न सके,

वो गीतों में,

जो देख न सके,

वो चित्रों में,

जो मिल न सके,

वो ख्यालों में,

जो चल न सके,

साथ-साथ राहों में,

उनके बगैर जीते हैं।

वो हरदम ख्यालों में रहते हैं।

दुआओं के धागे,

धड़कनों के आगे,

हम साँस तो लेते हैं।

पर

यादों में जीते हैं।

इसीलिए

बालू के घर,

पानी पर लकीर,

सुकून देते हैं।

जीने के सहारे,

कुछ यादों में,

कुछ बातों में,

बस यूँ ही मिलते हैं।

इस बीमारी के बावजूद रोली अपनी कक्षा में तीसरे नम्बर पर आई।

अब मुझे भी अपने मन को हर तरफ से हटा कर शांत करना ज़रूरी था। कुछ दिनों डॉक्टर देव की बहुत याद आयी। उस पागलपन ने जो करवाया उसे याद करना भी बेवकूफ़ी लगती है। वो सब छोड़कर मैंने अपने आप को एक बार फ़िर घर से जोड़ लिया।

उम्र के साथ रोली के खर्चे बढ़ने लगे। जिसके लिए मुझे बहुत ज्यादा परेशानी उठानी पड़ी। उसके स्कूल की फीस यदि पहले महीने मिल गई है तो अगले महीने लेट फीस के बाद भी दस बार स्कूल से संदेशों के बाद भी फीस कब जाएगी पता नहीं?

पति के अपने खर्चे ही कभी पूरे नहीं होते। घर खर्च के प्रति उन्होंने अपनी जिम्मेदारी कभी समझी ही नहीं थी। कभी वक्त से पैसा मिल जाता था और कभी पता नहीं कब?

यही सब करते हैं हर वक्त मन में एक ही बात चलती रहती थी कि मुझे भी पैसा कमाना है। रोली की जरूरतें उम्र के साथ बढेगी। उसकी पढ़ाई और उसकी पढ़ाई से जुड़े खर्च उठाना अब आसान नहीं होगा।

किसी और से उम्मीद तो आज तक नहीं कि थी। और उससे लिए अपना वक्त या अपनी सोच को कहीं भी लगाने का कोई मतलब भी नहीं था।

डॉक्टर अंकल का जीने का तरीका मुझे एक नई ऊर्जा से भर देता था। अपने काम के बाद भी वो कभी ख़ाली हाथ नहीं बैठते थे। अपनी नर्सरी हो, किताबें या आसपास के लोगों की मदद वो सबके लिए हरदम तैयार रहते थे। नियम व अनुशासन के पक्के अंकल को सब लोग प्यार करते थे।

अंकल क्लीनिक के बाद का ख़ाली समय पौधों को देते थे। उन्होंने घर के बग़ीचे में एक छोटी सी नर्सरी बना कर रखी थी। जिसमें वो आम, पीपल, गुलमोहर की पौध तैयार रखते थे। घर के आस-पास कॉलोनी के आसपास जहां भी उन्हें लगता कि पेड़ लगाने की जगह है, वह जाकर पेड़ जरूर लगाते और उस पर एक लोहे का गार्ड भी लगा देते थे।

वह आसपास के ही लोगों से विनती भी करते कि वह उसे पानी दें और उसका ध्यान रखें। दो-चार दिन में उन्हें जब भी समय मिलता तो वह या आंटी जाकर उस पौधे को जरूर देखते थे। अंकल आंटी का संवेदनशील मन मुझे बहुत अच्छा लगता।

दोनों अपनी जिम्मेदारी को पूरी करते हैं। दूसरों की सहायता भी करते हैं। अंकल आसपास के लोगों को पेड़ उपहार में भी देते थे। उनकी कोशिश रहती थी कि ज्यादा से ज्यादा पेड़ लगे। वह घर के बगीचे में पौधे तैयार ही करते रहते थे।

अंकल के इस काम में कहीं कोई रोजगार का अवसर है क्या? कई बार सोचा पर समझ नहीं आया। कम पढ़े लिखे इंसान की यही तकलीफ है उसे बिना पैसों का साथ ही तुरन्त कमाई के अवसर वाला काम चाहिए। वो ट्यूशन हो सकता है पर उसके लिए या तो आप किसी स्कूल में काम कर रहे हों या आपमें कोई विशेष योग्यता हो। मेरे पास दोनों ही नहीं थे।

कुछ दिनों तक तो यही सोचती रही कि मैं क्या कर सकती हूँ? मैं जब भी कुछ नयी डिश बनाती, तो आंटी को हमेशा देकर आती थी।

एक दिन मैंने उनको पावभाजी बना कर दी। उन्होंने जो शब्द कहे वो मन को एक राह दिखा कर चले गये थे। -“सरोज, तेरे हाथों में अजीब – सा स्वाद है। तेरे अंकल कहते हैं कि सरोज जैसा खाना कोई नहीं बना सकता है!”

आंटी जब भी बाहर जाती अंकल के खाने का ध्यान मैं ही रखती थी। उनसे सम्बंध ऱखने में मेरी सास और पति को कोई आपत्ति नहीं थी। एक तो अंकल डॉक्टर थे, रोली का इलाज़ हमेशा मुफ़्त में ही हुआ। उन्होंने दवाइयाँ भी अपने पास से ही दी।

अब ऐसे लोगों से रिश्ता ऱखने को कोई क्या मना करेगा? अपने फ़ायदे की समझ तो सबमें होती है। पूरी कॉलोनी में वही एकमात्र घर था जहाँ मैं जा सकती थी। बाकी तो किसी से बात करने पर पति का शक या सास के सवाल मुझे घायल कर देते थे।

इस बार निशा आंटी कुछ दिनों के लिए अपनी बेटी के पास जा रही थी तो मुझसे बोली-“सरोज, तू अंकल को दोनों टाइम का खाना बना कर दे देगी क्या? घर में जो खाना बनाती थी वह अभी छुट्टी पर है। उसका पति बीमार है। वह अगले पन्द्रह दिन नहीं आएगी। तुझे तो पता है, स्वाति को बच्चा होने वाला है उसके पास जाना जरूरी है! अंकल को भी साथ में ले जाती पर इस समय वे अस्पताल छोड़कर नहीं जा पायेंगे।”

-“अरे, आंटी इतना सोचने की क्या जरूरत है? अंकल को खाना मैं दे दूंगी! आप आराम से स्वाति के पास जाओ!”

मैंने उन दिनों अंकल को खाना तो दिया, पर हर बार एक ही बात सोचती रही कि क्या ऐसा ही टिफिन सेंटर नहीं खुल सकता है? यह भी तो मेरी एक आय का ज़रिया हो सकता है। थोड़ा- बहुत काम शायद मिल ही जाएगा। कॉलोनी में पढ़ाई के लिए रहने वाले, कामकाजी लोगों को खाने की ज़रूरत तो होती होगी।

जब आंटी घर आई तो उन्होंने मेरे हाथ पर कुछ पैसे रख दिये। मैंने पैसे लेने से मना किया तो वह बोली- “क्या मैं जानती नहीं कि तेरे घर के हालात क्या हैं? बेटा, तूने काम कर दिया यही क्या कम है? तेरे अंकल तो कह रहे हैं कि ‘तुम तो जब चाहे स्वाति के पास चली जाया करो! सरोज के हाथ का खाना तो मुझे इतना अच्छा लगता है कि उसके बाद मेरी कोई जरूरत नहीं!’ तुम इस खाना बनाने वाली को बोलो-‘सरोज जैसा खाना बनाना सीख ले!’

मैं और आंटी खिलखिलाकर हँस तो पड़े मगर उस हँसी ने कमाई का एक रास्ता दिखा दिया। मैंने आंटी से बोला- “आंटी यदि मैं अपना टिफिन सेंटर खोल लूँ तो? मुझे पैसों की बहुत जरूरत रहती है। छोटी-छोटी जरूरतों के लिए कई बार मांगने पर भी पैसे नहीं मिलते हैं। मेरे लिए तो ठीक है पर रोली की दवाई या स्कूल से जुड़ी किसी जरूरत पर समय से पैसे नहीं मिलते हैं; तो मन बहुत दुखी हो जाता है। आप तो जानती है मुझे देने वाला कोई भी नहीं और सच कहूँ तो किसी से भी नहीं चाहती!”

-“सरोज, काम शुरू करना है तो कर ले! ज्यादा सोच मत! मैं तेरा साथ जितना दे सकूँगी, दे दूंगी! अपने सब पड़ोसियों को बोल दे! हमारे घर में किराएदार, जो लड़के पढ़ रहे हैं। अभी तो खुद ही खाना बनाते हैं। परेशान होते रहते हैं! आए दिन होटल से खाना लाते हैं। तू बात कर लेना तेरे हाथ का खाना ऐसा है की जिसनें एक बार तेरे हाथ का खाना खा लिया तो फिर कभी वो उस स्वाद को भूल नहीं पाएगा! तुझे जब भी काम शुरू करना हो मुझे बताना, हम मिलकर सब कर लेगें!”

-“आंटी, आपको तो साथ देना ही होगा! स्वाद नाम कैसा रहेगा?”

-“बहुत अच्छा! बहुत सही सोच रही है तू! जल्दी से शुरु कर ले! तेरे अंकल भी अपने अस्पताल में परिचितों को घर में आने वालों के तेरे बारे में बतायेंगे तो काम चल ही जायेगा!”

आंटी की बात सही थी। मैं ज़्यादा सोचती तो कुछ नहीं कर पाती। मैंने कुछ ही दिनों में अपना काम शुरू कर दिया। इतने समय तक मेरी आंटी से दोस्ती गहरी हो गई थी। घर की बातें मैं उनको बता देती थी।

एक बार मैंने उनसे पूछा “आंटी, जब भी इनको कोई बात बुरी लगती है तो ये घर के काँच के बर्तन तोड़ने लगते हैं। जितना रोको उतना ही ज़्यादा नुक़सान होता है। मैं बहुत डर जाती हूँ। क्या करूँ? इनको कैसे समझाऊँ?”

“तू यही तो गलती कर रही है, वह जो करे उसे करने दे! उसे कुछ समझाने की ज़रूरत नहीं है। वह तुझसे ज़्यादा समझदार है। वह तुझे डरा कर ही रखना पसंद करता है। इसलिए ये सब करता है। नुक़सान तो उसके पैसों का ही हो रहा है ना! तू डरती है और वह तुझे डराता है। आराम से उसे बर्तन तोड़ते हुए देखा कर! फिर बताना क्या हुआ? हाँ, एक बात याद रखना तू तो हमेशा स्टील के बर्तन ही ख़रीदना।” दुःख भी हँसी का कारण बन सकता है ये मैंने आंटी से सीखा। हम दोनों खिलखिलाकर हँस पड़े।

“वैसे हुआ क्या था?” आंटी ने पूछा

“दो दिन से मुझे बुख़ार है, रोली की परीक्षा चल रही है। छोटे से घर में कोई आ जाये तो बच्चे को पढ़ाई में दिक्कत आती है। ननद-जीजाजी को खाने पर बुलाना था। मैंने कहा अभी रुक जाइये! दो-चार दिन बाद बुला लेगें। उस दिन ननद का जन्मदिन था। तो बस हंगामा…”

“हंगामें से डरते नहीं, उनका डट कर मुकाबला करते हैं। डर की उम्र डर ही होती है।” सच में तब से काँच के बर्तन टूटने बन्द हो गए!

पति और सास को जब मैंने बताया कि मैं अपना टिफिन सेंटर खोलना चाहती हूँ। तो उन दोनों ने चिल्लाना शुरु कर दिया। ‘यह सब करने की क्या जरूरत है? क्या घर का खर्चा चल नहीं रहा है? खाना बनाना तो आता नहीं है!’

रोली ज़रूर एक बार चिंता में पड़ गई थी। वह बोली “तुम्हारा काम कितना बढ़ जाएगा? अभी तो दिनभर सबको हाथ में खाना देती हो, इनके झूठे बर्तन उठाती रहती हो। टिफ़िन सेंटर का काम माने और ज़्यादा खाना बनाना, उसे भेजना। कैसे कर पाओगी?”

“कुछ तो करना पड़ेगा बेटा! ऐसे कब तक चलेगा? शुरुआत तो करते हैं। फ़िर रास्ते ही समझायेंगे की क्या करना है? डरने से तो कभी आगे ही नहीं बढ़ पायेंगे। इन सबकी डाँट सुनने से ज़्यादा कठिन काम कोई और नहीं हो सकता है। तू मत डर! काम शुरू तो करें बाकी वक्त ही समझायेगा।” रोली की चिंता गलत नहीं थी। पर इन दिनों मुझ पर एक धुन सवार हो गई थी कि कुछ करना है।

‘टिफिन बना कर क्यों अपनी ही हंसी उड़ा रही हो? कौन खाएगा तुम्हारे हाथ का खाना? जिनके टिफिन सेंटर होते हैं उन लोगों को खाना बनाने का ढंग होता है! उनके पास व्यवहार भी होता है! कुछ दोस्त होते हैं, जिनके कारण काम चलता है। दोस्ती, पहचान, व्यवहार ही तो होता है जिसके कारण लोग सफल होते हैं।‘

यही सब कह कर पति और सास ने मेरा मन तोड़ने की भरपूर कोशिश की मैंने एक ही जवाब दिया- “रोली की बढ़ती उम्र के साथ पैसों की जरूरत बढ़ रही है! मैं अभी शुरूआत तो करती हूँ।” उनकी बाकी की बातों का जवाब वक़्त को ही देने दो!

क्या पता कल कौन सही साबित हो जाये?