पहले कदम का उजाला - 17 सीमा जैन 'भारत' द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • My Passionate Hubby - 5

    ॐ गं गणपतये सर्व कार्य सिद्धि कुरु कुरु स्वाहा॥अब आगे –लेकिन...

  • इंटरनेट वाला लव - 91

    हा हा अब जाओ और थोड़ा अच्छे से वक्त बिता लो क्यू की फिर तो त...

  • अपराध ही अपराध - भाग 6

    अध्याय 6   “ ब्रदर फिर भी 3 लाख रुपए ‘टू मच...

  • आखेट महल - 7

    छ:शंभूसिंह के साथ गौरांबर उस दिन उसके गाँव में क्या आया, उसक...

  • Nafrat e Ishq - Part 7

    तीन दिन बीत चुके थे, लेकिन मनोज और आदित्य की चोटों की कसक अब...

श्रेणी
शेयर करे

पहले कदम का उजाला - 17

लद्दाख***

पहले चट्टानों के विविध रंगों से सजे पर्वत दिख रहे थे। फ़िर बर्फ के पहाड़… अब इस नैसर्गिक सौंदर्य का कैसे बखान करूँ? बर्फ के पर्वत तो ऐसे लग रहे थे जैसे किसी ने इन पर आइसिंग शूगर लगा कर इन्हें सजा दिया हो।

अब तो शहर के मकान, मोनेस्ट्रिस और संगम दिखाई दे रहे थे। इतनी ऊपर से नदी एक महीन लकीर जैसी ही दिख रही थी। जिसका रंग हरे काँच जैसा था। उस बालू की जमीन पर वह ऐसी लग रही थी जैसे किसी ने हाथ से एक सुंदर घुमाव दे कर उस जमीन पर नदी बना दी हो। न जाने कितने सालों से चाहती थी इन पर्वतों से बात करना! जीवन को बड़े कैनवास पर देखो तो हम ख़ुद बहुत छोटे हो जाते हैं और हमसें विशाल, सुंदर दूसरी कई चीजें नजर आती हैं।

लेह एयरपोर्ट से बाहर निकलते हुए मैंने देखा कि मेरे नाम की तख़्ती के साथ कोई मुझे लेने के लिए खड़ा था। होटल में रिसेप्शन पर लद्दाखी मफलर के साथ फूलों से मेरा स्वागत हुआ। सबको धन्यवाद देकर मैं अपने कमरे में जा ही रही थी कि एक वेटर ने बड़े प्यार से ‘जुले’ (नमस्ते) कहा।

मैंने भी मुस्कुराते हुए ‘जुले’ कहा और आगे बढ़ गई।

कमरे के अंदर जाकर सबसे पहले मेरी निगाह बड़ी सी खिड़की की ओर गई। सामने नीला साफ आकाश जैसे किसी ने अभी ही आकाश को साफ करके सामने ला दिया। नीचे विशाल पर्वत उनको देखकर तो ऐसा लगा जैसे वो मुझसे बातें करने का इंतजार ही कर रहे थे।

वहीं खिड़की के पास रखी कुर्सी पर मैं बैठ गई। शब्द मेरे ऊपर बरसने लगे। मैंने आज तक जब भी लिखा मन में कुछ उमड़ने लगता था। एक बहाव मुझसे कुछ लिखवा लेता था। आज तो मेरे ऊपर बारिश सी होने लगी।

वक़्त! इससे बड़ा कुछ भी नहीं है। जीवन का हर एहसास इसी में समाया है। इससे बाहर तो जीवन ही ख़त्म हो जाएगा तो फिर अहसास किस काम के?

ये सुनता है साथ ही सुनाता भी है कुछ इस तरह…

मैं वक़्त की महक को महसूस कर सकती हूँ। उसके होने के अहसास से ख़ुद को भर सकती हूँ। वो मेरे साथ ही है, मैं उसके काँधे पर सर रख सकती हूँ, उसकी बाहों में जीती हूँ….

वक्त

तु मुझमें धड़कता है,

तभी तो मेरा जीवन चलता है।

आंखों के रास्ते दिल के दरवाजे से,

कभी कुछ कहता, कभी कुछ दिखाता है।

तू मुझ में जीता है तभी तो…

खुशियों को दिखाता, दर्द से मिलवाता रहता है।

कभी मुस्कान, कभी आंसू दे जाता है।

तू मेरा हाथ थमे रहता है तभी तो ...

कोई थामता, कोई गिरा देता है।

कभी ऊंचे तो कभी नीचे रास्तों से मिलवाता है।

तू मेरे संग ही सब देखता, समझता रहता है तभी तो...

आज दुआओं में तो कल बद्दुआओं में करवट लेता रहता है।

कभी आकाश तो कभी पाताल में ले जाता है।

तू खुली बाहों से हर पल का स्वागत करना सिखाता है तभी तो...

तालियों की गड़गड़ाहट हो या चीखते सन्नाटे हों,

कभी फूलों पर तो कभी कांटों में जीना सिखाता है।

तू हर पल गुनगुनाता रहता है तभी तो...

तेरी बाहों में जीती हूं, तेरे कंधे पर रोती हूं,

तू मेरी हर सांस को समझता है।

हर हाल में मुझे थामें रहता है तभी तो...

तू जो दिखाएं देख लेती हूं,

कोरे पन्ने - सा जीवन जीती हूं।

तू क्या लिख दे नहीं जानती हूं।

अपनी हथेलियां तेरे हाथों पर रख देती हूं।

तू लकीरों का मतलब समझाता रहता है तभी तो...

तेरे बिना कैसे जी पाऊँगी?

तेरे बिना कैसे चल पाऊँगी?

तू है तो यह दिल धड़कता है।

मुझे तो तू मेरा सब कुछ लगता है। तभी तो...

जिसने मुझे पाला,

सींचा है वो तनहा है,

पर मेरी आंखों में बसा रहता है।

तू है तो देख पाती हूं,

नहीं तो बेनाम हो जाऊंगी।

छूत के नियमों में बंध जाऊंगी।

वक्त की सांसे हैं।

वक्त की आंखें हैं।

वक्त है, तो एहसास है।

तू है तो मैं हूं।

तुझे हर जगह पाती हूं।

तेरी धड़कन को महसूस कर सकती हूं।

कभी पर्वत जैसा अटल,

कभी बादल जैसा चंचल,

कभी फूलों सा खिलता,

कभी जुगनू सा चमकता,

कभी बयार सा गुदगुदाता,

कभी ओस सा झिलमिलाता,

कभी सागर सा गहरा,

कभी तारों से ऊंचा,

कभी फूलों से सहलाता,

कभी ठोकर मार कुछ कहता,

तू हर पाठ पढ़ाता है।

जो तुझमें जीता है,

वह कभी तन्हा नहीं हो सकता है।

जो था, जो है और जो रहेगा।

जिसे दुनिया वक्त कहती है।

जिसके दामन में हर दास्तां छुपी रहती है।

जो हर सांस की गवाही दे सकता है।

जो पत्थर और पेड़ों से भी बातें कर सकता है।

मैं ऐसे साथी से प्यार करती हूं।

वक्त से बड़ा किसी को नहीं समझती हूं।

उसने संभाला,

उसने पाला,

कभी हंसाया,

कभी रुलाया,

पर उसने हमेशा मुझे अपनी आंखों में बसाया है।

वक्त के प्यार में मैं ग़ज़ल लिख सकती हूं।

उसकी धुन पर थिरक सकती हूं।

जो मुझ में रंग भरता है।

उसे क्या मैं कुछ एहसास नहीं दे सकती हूं?

वक्त की स्याही से जो किससे लिखे जाते हैं,

वह कभी नहीं मरते,

वह तारे बन जाते हैं।

वक्त बादशाहों का बादशाह है।

जिसने उसे प्यार किया है,

उसने वक्त की दीवार पर अपना नाम लिखा है।

वह राम के साथ भटका था।

वह सीता के संग समा गया था।

वह कृष्ण के संग नाचा था।

वह राधा के संग मुस्कुराता था।

वह गोपियों के संग थिरका था।

वह मीरा के संग मूरत में समा हो गया था।

वह हर धुन में समाया था।

वह छोटा- बड़ा नहीं जानता है।

वह सब में समाया,

सबको अपना मानता है।

उसने शिव के संग विष पिया था।

उसने बुद्ध के मौन को सुना था।

उसने महावीर की आंखों को पढ़ा था।

वो कबीर के संग गुनगुनाता था।

वह नानक के संग डूब गया था।

जो इतिहास को याद रखते हैं।

वो वक्त से जीत जाते हैं।

वक्त उनकी रफ्तार को तेज कर देता है।

कम में ज्यादा का एहसास हो जाता है।

यह गीत कभी पूरा नहीं हो पाएगा।

मेरे सांसों के बाद भी गाया जाएगा।

मेरे जैसे आते और जाते रहते हैं।

वक्त की बांह कुछ देर पकड़ते फिर बिछड़ते हैं।

जो किस्से पूरे हो जाते हैं।

वह भुला दिए जाते हैं।

जो अधूरे छूट जाते हैं।

वह रातों को महकाते हैं।

वह एक कसक के साथ सिर्फ जन्म लेते हैं।

वक्त का हाथ पकड़ फिर डगमगाते हैं।

नन्हे कदम के संग जीवन के फासले तय करते जाते हैं।

यह दास्तां अधूरी है,

पर जो हर लम्हा पूरा जीता है।

वह वापस नहीं आता है।

समझो तो जो अधूरा है,

वह भी पूरा ही है।

एक पल से बड़ा तो कुछ भी नहीं है।

एक पल में निगाहें मिल जाती है,

कभी दिल में उतर जाती है।

एक पल ही सरताज बना देता है।

कभी धूल में भी मिला देता है।

एक पल में कोई जी जाता है।

सौ जन्मों का चैन पा जाता है।

एक पल में मन मर जाता है।

सांसे चलती पर सब रुक जाता है।

कभी कोई मरकर भी अमर हो जाता है।

एक पल में सदिया छपी है।

न जाने कितने अफसाने,

कितनी आहें दबी है।

किसी की खिलखिलाहट,

किसी की खामोशी गूंजती है।

एक पल में ही यह दुनिया सजी है।

एक पल में बिखर जाएगी।

वक्त के आगे किसी की ना चल पाएगी।

यहां कोई सदियों तक भटकते हैं।

कोई एक पल में ही सदियां जी लेते हैं।

जो वक्त की कीमत जानते हैं,

वह इतिहास नहीं दोहराते हैं।

बिखरे पन्नों से सब सीख जाते हैं।

वक्त के साथ अपने किले भी बनाते हैं।

वह वक्त से आगे निकल जाते हैं।

वक्त उनकी पीठ पर अपना हाथ रखता है।

उनके पीछे चल कर भी गर्व से भर जाता है।

उसका साथ जिसने पाया है,

उसकी सफलता की गूंज सदियों में बसी है।

 

तालियों की गड़गड़ाहट में दास्तां छपी है।

जिसे कर्म की प्यास है,

उसकी आत्मा अपनी धुन में रमी है।

वक्त उनके पास बैठ जाता है।

उनकी सुनता,

उन्हें आसमां तक ले जाता है।

वक्त ही हमें ऊपर उठाता,

हमारे गीत गाता है।

दुनिया जिनके लिए आंसू बहाती है।

उन्हें वक्त ने संवारा है।

उनके समर्पण को सुंदर बनाया है।

वक्त की कीमत जो नहीं जानते हैं।

वह अपना घर नहीं बना पाते हैं।

खाली हाथ आए खाली ही जाते हैं।

वक्त देर- सवेर नहीं जानता है।

जब उठे, जब चलें,

तभी जाग जाता है।

वो सिर्फ दिल की आवाज सुन पाता है।

वक्त अधूरे सपने देख लेता है।

अनकहे अल्फाज सुन लेता है।

कभी दामन भरता,

कभी तन्हा कर जाता है।

आरती के दीए को,

धूप की महक को,

मंदिर की घंटियों को,

मस्जिद की अजान को,

अरदास की गूंज को भी सुनता है।

किले की दीवारों में,

महल के झरोखों में,

रेत के पहाड़ हो या बर्फ की दीवार हो,

वह हर पल की गवाही दे सकता है।

आंसू और मुस्कुराहट दोनों देखता है,

वह हरदम एक ही बात कहता है-

यहां कुछ नहीं टीका,

यह भी बीत जाएगा,

तु जी ऐ दिल तेरा वक्त भी आएगा।

हम कभी दर्द सह नहीं पाते हैं,

आंसुओं में डूब जाते हैं।

वह उसको भी देखता है।

लगन सच्ची हो तो रेगिस्तान में में भी सागर की राह बना देता है।

वह मंजिल से पहले हाथ नहीं छोड़ता है।

यहां सागर से गहरा कुछ भी नहीं,

उसके मिलने उससे मिलने के बाद कहीं जाना भी नहीं।

हम कुछ पल जो सागर के पास बिताते हैं।

लहरों को सुनते,

उसे अपनी बात बताते हैं।

हम एक अजब सी तृप्ति से भर जाते हैं।

खारे पानी से हम अपनी प्यास बुझा पाते हैं।

जो पानी आंखों में बसता है,

जब वह बाहर भी मिल जाता है।

जीवन उससे जुड़कर अनंत हो जाता है।

जो शब्दों की माला बना सकते हैं।

जो उनको हीरो सा चमका सकते हैं।

उनके गीत हो या किस्से वक्त अपने गले में पहन लेता है।

उन्हें कभी गिरने नहीं देता,

उन्हें कभी मुरझाने नहीं देता,

उनका एहसास हर पीढ़ी को होता है।

जो वक्त के माथे पर चढ़ गया,

वह बिना ताज का सरताज हो गया।

उसकी आंखों में सागर दिखता है।

उसकी आंखों में नदियां- सा नीर बहता है।

उसके नाम अलग-अलग हैं।

वह शेर- सा दहाड़ता है।

वह गिरगिट- सा रंग बदलता है।

उसके सुर कोयल से लगते हैं।

वह खरगोश- सा दौड़ता है।

वह कछुए – सा जीत जाता है।

उसका पैर गज -सा भारी है।

उसके एहसास पंख से भी हल्के हैं।

वह मोर-सा नाचता है।

वह नदिया-सा बहता है।

वह सागर-सा गहरा है।

वह पर्वत- सा अटल है।

वह नभ को छू सकता है।

उसके सितारे कभी डूबे नहीं,

जितने तारे आसमान में चमकते हैं।

उतने वक्त के दामन में जड़े हैं।

यह जगत वक्त में समाया है।

एक इंसान में पूरा जगत जीता है।

यह जगत इंसान में रहता है।

एक में दो रूप- सा दिखता है।

कितने किले ढह गए।

कितने महल विरानों में बदल गए।

कितने डेरे बसे,

कितने उजड़ गए।

वक्त इन सब का हिसाब रखता है।

वक्त कुछ कहता नहीं,

फिर भी किस्से सुनाता रहता है।

जो घाटियों में गूंजते हैं।

जो आकाश को चीर देते हैं।

ऐसे अफसानों से वक्त का आंचल भरा है।

हर तारे में एक लम्हा छुपा है।

हम सबकी यादों से यह आसमां सजा है।

तारे बनते और टूटते रहेंगे,

किस्से बनते और बिगड़ते रहेंगे।

अरमानों की बातें की जाती रहेंगी।

दिल के अफसानों से वक्त की झोली भरी है।

फूलों की महक,

तारों की चमक से यह जगत बना है।

वक्त इन सब का गवाह बना और बनता रहेगा।

हम उसकी उंगली थामे या नहीं,

वह हमारे साथ चलता है चलता रहेगा। तभी तो...

हवा का झोंका मुझे सिरहन दे गया। दूर घरों की रोशनी में अब सिर्फ पर्वतों की एक गहरी आकृति ही दिखाई दे रही थी।

रोली और देव की बहुत याद आ रही थी। पर उस याद में अब तड़प नहीं थी। एक पूर्णता का अहसास था। प्रेम के अहसास सबके अलग-अलग होते होंगे। मैं आज अपने आप को पूर्ण महसूस कर रही थी।

प्रेम उस पल ही पनप गया, उसने मंजिल पा ली जब ये चाहत दोनों के दिल में एक सी है, ये बात पता चल जाये। पाना क्या है? पाना तो एक सांसारिक क्रिया है। आँखों ने जो पी लिया, कानों ने जो सुन लिया वो पल अमर हो गया।

‘उस पल से बड़ा कुछ भी नहीं उससे ज़्यादा किसी को मिलता भी नहीं!’ यही तो एक अहसास था जिसके कारण लैला जी गई। उसका कभी मजनूं से मिलन नहीं हो सका। ज़माना दर्द ही देता रहा पर वो दोनों एक अनजानी राह पर कभी ज़ुदा न होने के लिए मिल गए, अमर हो गये…

इस पहले कदम के उजाले में आज मेरी ज़िंदगी बहुत सुकून पा गई। वक़्त ने मुझे वो दे दिया जो सिर्फ वो ही जानता था। जो मैंने कभी उससे भी नहीं कहा था।

वक़्त जिसे प्यार कर दे वो कभी तन्हा मर नहीं सकता है। वो वक्त की बाहों में जीता उसी में मरता है...यहाँ मिट्टी से पैदा हुआ जिस्म मिट्टी में ही तो बदलना है किसी को कहीं नहीं जाना है।

हम सब यहाँ हैं और यहीं रहेंगे! आसपास ही कहीं घण्टियों की आवाज़ गूँज रही थी। सड़क पर आते-जाते लोग उन घण्टियों को बजाते हुए आगे बढ़ते हैं। वो मन में दोहराते होंगे…’नाम यो हो रेंगे कयो...’ ईश्वर की ऊर्जा हम पर बरसे! हम इस जीवन को खिले हुए कमल की तरह जीयें, दुखों के साथ पर उनसे ऊपर...

रात के आगोश में मुझे आज जो सुकून मिला वो अनुठा था। लद्दाख की सुबह, इतनी ताज़ी, हल्की और खुशनुमा लग रही थी कि उसे शब्दों में बयान करना थोड़ा मुश्किल ही होगा। अब हम हवा की ताजगी को लिखकर कैसे बता सकते हैं? सामने धुले हुए बादल, आकाश, पर्वत सब एकदम नये, मुस्कुराते हुए लग रहे थे।

हमारे होटल के पास की जमीन पर किसी का खेत था। सुबह-सुबह किसान खेत में बुवाई कर रहा था। किसान हल चला रहा था। वे हल में वहाँ का बहुत ताकतवर चौपाया याक को जोतते हैं।

उस व्यक्ति के साथ में एक महिला लद्दाखी वस्त्र पहने साथ में चल रही थी। उसने एक लंबा कोट जैसा कुछ पहन रखा था। जिसके जेब में से वह बीज बिखेरती जा रही थी।

इस जगह जहाँ हमें चलने में भी थकान लगती है। वह पुरुष कोई गीत गा रहा था। बहुत ऊँचे, मीठे स्वर में। मुझे लगा प्रकृति ही मुझे यह गीत सुना रही है। मेरा स्वागत कर रही है। दो इंसानों का साथ कितना मधुर हो सकता है? मेहनत के साथ, बुनियादी सुविधाओं के साथ भी जीवन कितना मधुर हो सकता है?

लद्दाख में ऑक्सीजन की कमी के कारण पहला दिन आसपास में ही घूमने की सलाह दी जाती है। यहाँ से ज्यादा ऊंचाई पर जाने पर साँस लेने में तकलीफ हो सकती है। होटल के स्टॉफ ने मुझे यहाँ के बारे में जानकारी दी। लेह में कई दर्शनीय स्थल हैं।

आज मैं नाश्ता करके पैदल ही घूमने निकली। सोचा आगे कोई दर्शनीय स्थल देखने जाना चाहूँगी तो चली जाऊँगी।

अपने होटल से पैदल बाहर निकल कर इन पतली सड़कों पर चलना अच्छा लग रहा था। प्रकृति का साथ कितना हसीन हो सकता है। चारों तरफ पर्वत या पेड़ दिख रहें हैं।

हम शहरों में रहने वाले लोगों को यह सुकून कितना जरूरी है! ठंडी हवा, गुनगुनी धूप में अकेले चलने का सुखद अहसास मेरे तन-मन को एक नयी ऊर्जा से भर रहा था।

पहाड़ी लोगों की आंखों में हम अनजान पर्यटकों के लिए एक अजीब सा स्नेह, स्वागत दिखता है। जो बहुत अच्छा लग रहा था। वो रास्ता बताने को, कुछ भी समझाने को तत्पर रहते हैं।

हर घर के बाहर बहुत सारे पेड़, पीछे पृष्ठ भूमि में पर्वत, मेरे साथ चलते बादल इससे ज्यादा हमारी क्या जरूरत हो सकती है?

मुझे प्रकृति से बातें करना बहुत अच्छा लगता है। मैं ऐसे ही बातें करते-करते बाजार में आ गई। सड़क के दोनों तरफ खाने-पीने की दुकानें साथ ही हाथ से बुने ऊनी सामान, लद्दाख की मोनेस्ट्रिस की सुंदर पेंटिंग और भी न जाने क्या-क्या दिख रहा था। कश्मीरी सामान भी यहाँ के बाजार में था।

आगे चौक में चारों तरफ दुकानें थी। बीच में बैठने के लिए लम्बी बेंचें लगी हुई थी। एक बेंच पर बैठ कर मैं आराम से आते-जाते लोगों को देख रही थी। यह कितना सुकून भरा समय है।

कहीं जानें कि जल्दी नहीं, कोई काम नहीं, कोई आवाज नहीं, कोई दखल नहीं।

यहाँ सिर्फ हम हैं, अपनी पूरी शांति के साथ। ये शांति हममें कितनी ताकत भर देती है। यहाँ बैठे-बैठे मैंने निर्णय लिया अब मैं साल में एक या दो बार ऐसे ही यात्रा जरूर करूँगी।