इश्क फरामोश - 16 Pritpal Kaur द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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इश्क फरामोश - 16

16. बच बच के निकलना

सुजाता दो दिन से सोच रही है कि आसिफ से बात की जाए. मगर आसिफ के पैरों को तो मानो पर ही लग गए हैं. सोमवार को सुजाता दिन भर दांत में दर्द के मारे ढीली तबीयत के चलते अपने कमरे में ही रहीं. वो दिन आसिफ का ऑफ होता है मगर वह घर से गायब रहा. किरण ने कनिका और साजिद से पूछा लेकिन किसी के पास कोई जानकारी नहीं थी.

किरण समझ गयी कि आसिफ को सुजाता का आना और तीन महीने तक घर में साथ रहना पसंद नहीं आया है. मगर इस बारे में वह कुछ नहीं कर सकती थी. सुजाता खुद भी इस बात का अंदेशा जान कर गुडगाँव वाले फ्लैट में जा कर रहना चाहें तो भी वह हरगिज़ माँ को नहीं जाने देगी.

मन ही मन उसने यह फैसला खुद ही के साथ कर लिया. इसकी कई वजहें थीं. सबसे पहली तो माँ का अकेले वहाँ रहने का विचार ही ठीक नहीं था. दूसरे वे बीमारी से उबर रही थीं. इंग्लैंड में अकेली रहती आयी थीं. इसके अलावा यहाँ उनका दांत का इलाज शुरू हो गया था. नीरू के पैदा होने के बाद पहली बार आयी थी. कुछ ही दिनों के लिए आयी थीं और सबसे बड़ी बात वे माँ थीं.

कई बार किरण ने आसिफ से कहा है कि उसकी माँ को बुलाये. लेकिन आसिफ साफ़ कह देता है कि उसे उनके साथ रहना पसंद नहीं है. वे पुराने ख्यालात की हैं. खुद किरण ही उनसे परेशान हो जायेगी.

इस पर किरण ने कहा था, “ ये मैं खुद देख लूंगी. मेरी फ़िक्र मत करो. वे तुम्हारी माँ हैं. उन्हें कभी तो हमारे घर में आना चाहिए. “

इस पर वह तुनक गया था,”तुम जिस बात के बारे में न जानो उससे दूर ही रहो न. उन्हें तुम नहीं झेल पाओगी. मैं ही नहीं झेल पाता. उनका खाना पीना रहना सहना सब हम लोगों से बहुत अलग है. छोडो इस बात को. तुम्हें मिलवा तो दिया था.”

शादी के बाद एक बार दो दिन के लिए गयी थी किरण आसिफ के साथ उसके पुश्तैनी घर इटावा

में. शहर के अंदरूनी इलाके में एक पतली गली के अंदर दो सौ गज में बना तीन तल्ले का एक पुराना सा रंग उड़ा सा घर. आस-पास ज़्यादातर आसिफ के रिश्तेदारों के ही घर थे. लगभग हर घर के बाहर एक या दो बकरे बंधे हुए थे. जो अपने सामने रखी घास को बेमन से चर रहे थे.

इतने बकरों को देख कर उत्सुकता से उसने पूछ किया था तो आसिफ ने बताया था कि ये बकरीद के लिए हैं. जो अगले महीने आने वाली थी. उसने ये भी बताया कि पारम्परिक तौर पर घर के हर मर्द के नाम से एक बकरे की कुर्बानी दी जाती है मगर उसने जब से दिल्ली का रुख किया है अपने नाम से होने वाली इस कुर्बानी को बंद करवा दिया है. जिस पर उसकी माँ और उसके बीच काफी मन-मुटाव भी है.

उस बार दो ही दिन वहां रह कर किरण घबरा गयी थी. उसके बाद ही उसने सोचा था कि आसिफ की माँ को अपने घर ही बुलाया जाए. वह चाहती थी कि आसिफ के परिवार से उसका कुछ रिश्ता बने. अपने परिवार में अकेली होने की वजह से कभी-कभी उसे बहुत अकेलापन लगता था. आसिफ का इतना बड़ा परिवार देख कर उसे आस बंधी थी कि शायद इन लोगों में से कुछ के साथ उसके सम्बन्ध पुख्ता हो जाएँ तो उसे एक परिवार की जो कमी मह्सूस होती है वह दूर हो जाए.

लेकिन आसिफ इस दिशा में बिलकुल कोरा ही साबित हुया था. वो जिस घर और परिवार को छोड़ आया था, उससे कोई गहरा जुड़ाव महसूस नहीं करता था और ना ही इसके लिए कोई कोशिश ही करना चाहता था. किरण ने गर्भवती होने फिर फिर एक बार आसिफ से आग्रह किया कि वह अपनी माँ या किसी भाभी या बहन को ही उसकी मदद के लिए बुलवा ले. चूँकि यह किरण का पहला बच्चा था और किरण बच्चों के बारे में कुछ जानती भी नहीं थी. मगर इस बार भी आसिफ ने यह प्रस्ताव सिरे से ही नकार दिया.

उसका कहना था,” वे तुम्हारी तरह से कुछ नहीं कर पाएंगी. उलटे घर में माहौल ऐसा हो जाएगा कि हम दोनों का रहना ही मुश्किल हो जाएगा. तुम आया रख लो अभी से, वही बाद में बच्चे की भी देख-भाल करेगी.”

किरण अब तक अच्छी तरह से समझ गयी थी कि उसे आसिफ के परिवार से कोई उम्मीद नहीं रखनी चाहिए. ये उसकी आखिरी कोशिश थी. जल्दी ही एक दोस्त की मार्फ़त कनिका का घर में आना हुया था. कनिका बहुत दक्ष महिला साबित हुयी. उसने आते ही कुछ ही दिनों में घर की सारी देखभाल अपने सर ले ली. किरण की बहुत सेवा की और अब नीरू को लगभग एक माँ की तरह ही पाल रही है.

लेकिन अब आसिफ का नया रवैया देख कर किरण के मन में आसिफ के प्रति जो रोष था वह बढ़ता ही जा रहा था. सुजाता तो हरगिज़ ऐसी माँ नहीं थीं जिनके आने से घर के माहौल में कोई बदलाव आता. उलटे घर में रौनक बढ़ ही गयी थी. नीरू दो दिन में ही नानी से बेहद हिल-मिल गयी थी. अभी-अभी चलना सीखी नीरू नानी को देखते हुई लपक कर नानी के पास जाने लगी थी. किरण घर आती तो अक्सर नीरू को कनिका की बजाय सुजाता की गोदी में बैठी हुयी बातें करती या कुछ खाती हुयी मिलती. नीरू के माईल स्टोंस भी तेज़ी से बढ़ रहे थे.

इन सारी बातों के बीच आसिफ गायब था. सुजाता को आये एक हफ्ता हो गया था. अब तक एक भी बार आसिफ ने ढंग से बैठ कर सुजाता से बातचीत नहीं की थी. बस आते-जाते 'हेल्लो मम्मी' कहता, उनकी तबीयत के बारे में पूछता और जवाब को ढंग से सुने बिना ही बाहर निकल जाता. किरण से तो बोलचाल बंद ही थी. कभी-कभी नीरू के सर पर हलके से हाथ फेर देता. उसे तो शायद ये भी एहसास नहीं था कि सुजाता का दाढ़ का इलाज चल रहा था.

सुजाता ये सब देख-गुन रही थी और मन ही मन विचलित हो रही थी. दिन पर दिन उनका दिल और उदास हो रहा था. जी चाहता था कि दोनों के सामने बिठा कर बात करें. लेकिन कैसे? आसिफ तो पकड़ में ही ना आता था. आखिर एक दिन सुबह-सुबह हिम्मत कर के उस वक़्त आसिफ को टोका जब वो नाश्ता कर के उनकी बगल से होता हुआ बाहर निकल रहा था.

“बेटा, आसिफ, रुको आपसे कुछ बात करनी है.”

“जी कहें.” वह रुक कर उनके सामने खड़ा हो गया. उसकी भंगिमा में आदर नहीं था. एक जिज्ञासा सी थी और थोड़ी बेचैनी भी.

“बैठ जाओ. बेटा. लम्बी बात है. किरण को भी बुला लो अंदर से.” सुजाता को पता था किरण को अभी ऑफिस जाने में वक़्त है. कुछ देर बात हो सकती है.

“नहीं मम्मी. बैठ कर बात करने का वक़्त नहीं है. आज मुझे जल्दी जाना है. एक शूट है. और हाँ मेरी माँ की तबीयत ठीक नहीं है. मैं शायद ऑफिस से ही इटावा चला जाऊं अगर छुट्टी मंज़ूर हो गयी तो. सूटकेस बना कर रख दिया है मैंने कमरे में. मैं ड्राईवर को भेजूंगा. उसके हाथ आप भेज देना.”

ये कह कर वह बिना सुजाता का जवाब सुने उनकी तरफ पीठ मोड़ कर घर से बाहर हो गया. यानी पति-पत्नी के बीच संवाद बिलकुल नहीं है. जिस बात का अंदेशा था वो आज पुख्ता हो गयी. सुजाता ने एक बार फिर मन ही मन पक्का कर लिया कि आसिफ के इटावा से आते ही पहली फुर्सत में अलगाव के इस आइस बर्ग को धराशयी करना है.

किरण जब तैयार हो कर नाश्ते के लिए आयी तो सुजाता ने आसिफ की साथ हुयी बाकी बातचीत को बचाते हुए सिर्फ इतना सन्देश दे दिया कि उसका इटावा जाने का प्लान है और वह दिन में अपना सूटकेस मंगवा लेगा. ये भी बता दिया की उसकी माँ की तबीयत ठीक नहीं है. किरण ने चुपचाप सुन लिया. कोई प्रतिक्रिया नहीं दी. सुजाता भी चुप रहीं. नाश्ता करते हुए ही उन्हें आज शाम के डेंटल सर्जन के साथ अपॉइंटमेंट की याद आ गयी.

“हाँ, बेटा, शाम का सात बजे का अपॉइंटमेंट है. दांत का. “

“हाँ मम्मी मुझे याद है. मैं साढ़े छ तक हर हाल में घर आ जाउंगी. आप तैयार रहना. यहाँ से पन्द्रह मिनट की ड्राइव है क्लिनिक की. “

“ठीक है बेटा.” सुजाता कुछ और उदास हो गयी थी. कई बातें हैं. बेटी के घर की खामोशी उन्हें पल पल सता रही थी. खुद सारी ज़िंदगी इसी खामोशी के साथ गुज़ारने के बाद उन्हें उम्मीद थी कि किरण की ज़िंदगी में तो चहल-पहल होगी. किरण के घर में पति भी था, बच्चा भी, सारी सुविधाएं भी. मगर खुशी सिरे से ही गायब थी.

सुजाता सोच रही थी कि शायद बातचीत से कोई रास्ता निकल आये. उम्मीद पे दुनिया कायम है. ये सोच कर उठी और टेलीविज़न लगा लिया. यहाँ छुट्टियाँ मना रही थी तो दिन भर टेलीविज़न देखना और नीरू के साथ खेलना, बस यही होता था. पढ़ना-लिखा वापिस इंग्लैंड जा कर करने के लिए मुल्तवी कर रखा था.

दिन में एक बजे के करीब ड्राईवर आ कर आसिफ का सूटकेस ले गया था. कहा कि साहब ने आई. एस. बी. टी. पहुँचाने को कहा है. वहीं मिलेंगे. बस से इटावा जायेंगें.

सुजाता को एक बार ये ख्याल भी आया कि कहीं माँ की बीमारी का बहाना सुजाता से बात करने से बचने के लिए तो नहीं बनाया? लेकिन सुजाता ने जब बातचीत के लिए बैठने को कहा तो सूटकेस पहले ही पैक हो चुका था. यानी बीमारी की बात सच्ची है. ठीक भी है. माँ बीमार है तो बेटे को उससे मिलने जाना तो चाहिए ही.

शाम को किरण ने बाहर से ही उसे गाडी में आ जाने को कहा था. सुजाता तैयार ही थी. दाढ़ की फिलिंग ठीक ही लग रही थी. फिलिंग के दो दिन बाद एक दिन बीच में ड्राईवर के साथ जा कर दिखा आयी थी. तभी आज की अपॉइंटमेंट दी थी डॉक्टर ने क्राउन का नाप लेने के लिए.

आज वही देने जाना था. क्राउन का नाप जो इस फिलिंग के ऊपर लगाया जाना था. आज वह एक कच्चा क्राउन भी फिट कर देगा ताकि खाना पीना आसान हो जाये सुजाता के लिए. अभी तक तो इस फिलिंग को बचा कर ही बहुत ध्यान से हल्का खाना हो रहा था.

वैसे भी सुजाता खाने के मामले में किरण की ही तरह ज्यादा मसालेदार या चटपटा खाना नहीं खाती. सादा घर का खाना दोनों को ही बहुत पसंद है. वैसी ही सादा सरल बिना किसी उलझन से भरी ज़िंदगी भी दोनों पसंद करती हैं. मगर इसके बावजूद ड्रामा दोनों की ही ज़िंदगी में भरपूर रहता है.

अब यही किरण को ही देख लो. खुद अपनी मर्जी से देख-भाल कर शादी की है मगर शादी का जो हाल है वो सुजाता एक हफ्ते से देख-देख कर खामोश आंसू बहा रही है. क्या करे? कुछ नहीं कर सकती. बेबस हो गयी है. आसिफ से बात करने का मंसूबा भी धरा का धरा रह गया है. लेकिन हार नहीं मानी है सुजाता ने. कितने दिन भागेगा घर से आसिफ. वे तो अभी तीन महीने यहीं है. आखिर तो बात करनी ही होगी उसे.

डॉक्टर के यहाँ पहुंचे तो किरण बाहर ही बैठ गयी. सुजाता ने उसे अंदर आने से मना कर दिया. ऑफिस से थकी हुयी आयी है. यहाँ तक ले आयी है. इतना ही काफी है.

किरण बाहर बैठ तो गयी मगर दिल आज कुछ ज्यादा ही उदास है. आज सुबह जब से माँ ने बताया है कि आसिफ उन्हें अपने इटावा जाने की बात बता कर चला गया है. उसका दिल डूबा-डूबा सा हो गया है. लग रहा है कि शायद उसने आसिफ को अलग कमरे में रहने की जो सज़ा दी थी वह लम्बी खिंच गयी है. कम से कम सुजाता के आने पर तो उसे अन्दर अपने बेडरूम में ले ही लेना चाहिए थे.

ज़ाहिर है आसिफ इस बात से बहुत अपमानित महसूस कर रहा है. इसीलिये सुजाता के सामने आने में कतरा रहा है. मगर अब ये ग़लती तो हो ही गई थी. लेकिन गलती क्या उसने शुरू की थी?

एक बार फिर उस रात वाला आसिफ उसकी आँखों के सामने आ गया. एक बार फिर मन उतने ही रोष से भर उठा. किरण नहीं समझ पाती कि कभी भी वो इस हादसे से उबर पायेगी? लेकिन अगर ऐसा हो भी जाए तब भी क्या आसिफ के साथ उसका रिश्ता पहले जैसा हो सकता है?

उस आसिफ के साथ जो लगातार एक के बाद एक गलती करता ही जा रहा है. अब माँ के आने पर उसके पास एक मौका था कि वह माँ से अच्छा वयवहार कर के दोनों के बीच आ चुकी इस खाई को कुछ पाट सकता था. लेकिन वो माँ के साथ भी बहुत रूखा वयवहार कर रहा है. माँ कुछ कहती तो नहीं लेकिन किरण सब महसूस कर रही है.

आसिफ के बारे में सोचती है तो शादी के शुरुआती दिन याद आते हैं. रौनक की तरह तो प्यार नहीं किया था उसने आसिफ के साथ. मगर एक लगाव था. जवानी का जोश भी था. जिस्म की ज़रूरतें भी.

पढ़ाई पूरी हो गयी थी. एक स्थाई और अच्छी नौकरी थी. एक बंधा-बधाया जीवन अपने ढर्रे पर चल रहा था तो जीवन में साथी की कमी शिद्दत से महसूस होने लगी थी. लगता था शाम को जब घर आये तो किसी का इंतजार हो या वो घर जाए तो कोई उसका इंतजार करता हुआ मिले. बातें हों, दुनिया की, प्यार की, मोहब्बत की.

उन्हीं दिनों एक पार्टी में आसिफ से मुलाक़ात हुयी थी किरण की. उसे अच्छा लगा था. दरम्याने क़द का, बेहद आकर्षक. बातचीत में सलीके वाला, रख-रखाव में बेहद प्रभावी. पहली नज़र में ही भा गया था किरण को. दिल ने कहा था, "ये होता है परफेक्ट हस्बैंड मटेरियल.”

रौनक के साथ हुए हादसे के बाद से और इंग्लैंड में हुए दोनों प्रेम संबंधों ने उसे सिखा दिया था कि अब की बार एक स्थाई सम्बन्ध की संभावना देख कर ही आगे बढ़ना है.

आसिफ में उसे वही नज़र आया था. वे कई बार मिले. खाने पर. लंच और डिनर दोनों पर. हर बार उसे आसिफ पहली बार से ज्यादा आकर्षक और समझदार लगा. आम लड़कों की तरह खिलंदड़ा पन किरण ने कभी नहीं पाया उसमे.

जिस दिन पहली बार उसके घर वह डिनर पर आया और खाने के बाद वे अन्तरंग होने लगे तो किरण झिझक गयी. किरण की कमीज़ के अन्दर से उसकी कमर पर रखा हाथ झटक कर वह उठ खड़ी हुयी थी. हालाँकि दिल उसका भी था. जिस्म उसका भी मांग कर रहा था. लेकिन एक ही पल में पिछले दोनों सम्बन्ध याद आ गए जो जिस्मानी होने के बाद छिटक कर अधूरे ही रह गए थे. प्रेम जिनमें ढूंढें से भी उसे नहीं मिला था.

एक और वैसे ही खोखले सम्बन्ध की दरकार नहीं थी. न ज़रुरत और ना ही ढो ले जाने की मंशा. अब उसे एक स्थाई सम्बन्ध चाहिए था जो उम्र की खोह से होते हुए उसे जीवन के कठोर धरातल पर से बेरोक-टोक आसानी से मज़बूत पांवों के साथ मगर उतनी ही कोमलता के साथ गुज़ार ले जाए.

आसिफ ने फ़ौरन अपना हाथ खींच लिया था. और उसके सामने आ कर खड़ा हो गया था. कुछ देर एक दुसरे को देखते रहे थे. फिर वही बोला था, “ अगर आज मुझे स्वीकार करती हो तो अभी इस वक़्त से तुम मेरी पत्नी हो. बोलो, करती हो स्वीकार अपना शौहर मुझे?”

इसके बाद क्या कहना बचा था? कुछ नहीं कहा था किसी ने भी. उस रात ने ही कहा था जो भी कहना था. हर पल के साथ एक धड़कती हुई दास्ताँ रात ने लिखी थी, किरण और आसिफ के सांझे जीवन पर. सुबह आसिफ तडके ही अपने एक कमरे पर चला गया था जो उसने अपने एक दोस्त के साथ सांझे में लिए हुए फ्लैट में अपना डेरा बना रखा था.

उसके बाद कई दिन और रात उनके सांझे होने लगे थे. वे दिन मस्ती के दिन थे. जिस्मों की भाषा सर चढ़ कर बोलने के शुरुआती दिन थे. मन भरता ही न था. हर बार की संतुष्टि के बाद एक अलग सी असंतुष्टि मन पर हावी हो जाती. दिल दूर होता तो उदास हो जाता. साथ होते तो और उदास हो जाता. आने वाली दूरी जो सोच सोच कर.

और बस उसी उधेड़-बुन के दरम्यान इन दोनों ने शादी कर ली थी. आसिफ ने एक बार प्रस्ताव रखा था निकाह करने का. मगर किरण ने धर्म परिवर्तन से साफ़ इनकार कर दिया. उसका मानना है कि धर्म तो वो है जो इंसान के कर्मों से बनता है. इसके अलावा धर्म वो है जिसमें वह पैदा होता है. क्षत्रिय परिवार में जन्मी किरण ने इस्लाम को स्वीकार करने की कोई वजह अपने अंदर नहीं पायी. सो दोनों ने कोर्ट में शादी कर ली.

शादी भी सही चल रही थी. सब ठीक ही था. शुरुआती इश्किया उन्माद चाहे दोनों के बीच नहीं रह गया था मगर शादी में कोई जाहिराना कमी भी नहीं थी. यह चार कमरों का फ्लैट किरण ने इंग्लैंड से अपने साथ लाये हुए और यहाँ की गयी सेविंग्स के धन से काफी कम दामों में तब ले लिया था जब फ्लैट्स के दाम आसमान छूने शुरू नहीं हुए थे.

यहीं से इन दोनों प्रेमियों ने अपनी साझा ज़िंदगी की शुरुआत की थी. दो साल अच्छे ही बीत गए थे. कभी कोई बड़ी अनबन दोनों में नहीं हुयी थी. किरण ने एक दिन परिवार बढ़ाने की बात की तो आसिफ ने शिद्दत से उसे चूम लिया था. और इस सपने को हकीकत बनाने का काम उसी पल से शुरू कर दिया था.

जब तक बेटी नहीं हुई थी सभी कुछ अच्छा ही चल रहा था. आज सोचती है तो किरण को ख्याल आता है कि लोग-बाग ये क्यो कहते है कि शादी मे दिक्कत हो तो बच्चा पैदा कर लो. यहाँ तो अच्छी-भली चल रही शादी बच्चे के आने से तबाह हो गयी थी. किरण को लगता है बच्चा आने से तो दुश्वारियां बढ़ती ही हैं. कम नहीं होतीं. कम से कम किरण की ज़िंदगी में तो ऐसा ही हुया था.

तभी सुजाता बाहर आ गयीं तो किरण अपने ख्यालों के भंवर से बाहर निकली और उठ खड़ी हुयी. रौनक भी साथ में ही था.

“हेल्लो, किरण. कैसी हो?” उसकी आँखों में तरलता थी. आवाज़ में ठहराव, जो अपनेपन का एहसास दिला रहे थे.

“मैं ठीक हूँ. तुम कैसे हो?” किरण ने खुद को पूरी तरह सामान्य रखने की कोशिश की. कितना सफल हो पाई, नहीं जानती.

“आंटी की फिलिंग सही है. टेम्पररी क्राउन लगा दिया है. नाप ले लिए है. एक हफ्ते में बन कर आ जायेगा. मैं तुम्हें फ़ोन कर के बता दूंगा. आय विल कॉल यू. प्लीज गिव मी योर नंबर.”

आखिर नंबर मांग ही लिया था उसने. किरण कुछ न तो सोच पाई, न कह ही पायी. चुपचाप अपने बैग में से निकाल कर अपना विसिटिंग कार्ड उसकी बढ़ी हुयी हथेली में थमा दिया.

घर आते ही सुजाता नीरू में व्यस्त हो गयी. किरण अपने कमरे में फ्रेश होने चली गयी. उस रात कोई ख़ास बात नहीं हुयी. बच्ची जल्दी सो गयी तो ये दोनों भी टेलीविज़न बंद कर के अपने-अपने कमरों में चली गयी. साजिद को जल्दी ही भेज दिया गया क्यूंकि अक्सर देर से आने वाला आसिफ तो आज इटावा में था.

अपने कमरे में आकर रात के कपडे पहन कर किरण लेटी ही थी कि उसका फ़ोन बज उठा. नंबर उसके फ़ोन में फीड नहीं था. उसने काल ले कर 'हेल्लो' की ही थी कि उधर से आयी 'हाय किरण' को सुन कर जैसे उसका दिल उछल कर हथेली पर आ कर बैठ गया, जोर जोर से धड़कता हुआ.

जब कुछ पलों तक बोल नहीं पायी तो उधर से मधुर आवाज़ में रौनक ने कहा, “बात कर सकते हैं? टाइम है?”

वो जैसे होश में आयी.

“हाँ. हाँ. क्यों नहीं.”

“तो मैं मिलना चाहता हूँ तुमसे. कॉफ़ी पर, या चाय पर, या लंच पर. जब भी जहाँ भी तुम्हें ठीक लगे.” रौनक की आवाज़ में थोड़ी सी झिझक तो थी लेकिन एक दोस्त का जज्बा भी था और दोस्ती का हक भी.

“हां, ठीक है. लंच पर मिल सकते हैं. मेरा ऑफिस पास ही है. मैं एक घंटे के लिए निकल सकती हूँ.”

थोड़ी देर बाद जब किरण नींद और खवाब के मुहाने पर तैरती सी एक नयी दुनिया की भूल भुलैया में डूबने उतराने की कवायद कर रही थी तो उस वक़्त रौनक भापाजी के घर से अपने घर की तरफ ड्राइव करते हुए सोच रहा था कि आखिर वो क्यूँ मिलना चाहता है किरण से?

सोनिया का ख्याल इस दौरान एक बार भी नहीं आया था उसे. सच तो ये था कि इन दिनों सोनिया को देख कर उसे कोई भी ख्याल आना बंद सा हो गया था. दोनों के बीच शारीरिक दूरियां बढ़ रही थीं. कई बार ऐसा हुया था कि सोनिया ने उसकी तरफ उम्मीद से हाथ बढ़ाया था और उसने नींद में होने का बहाना करते हुए उसके स्पर्श को ही नकार दिया था.

चुपचाप लेटे हुए वो सोचता रहा था कि क्या वो घर से अलग हो जाने की सजा दे रहा था सोनिया को या कि उसके खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट लिखाने की? या फिर सोनिया में वो कशिश ही नहीं बची थी. कहीं ऐसा तो नहीं कि अब सोनिया पुरानी हो गयी थी. जैसा कि लोग अक्सर कहते हैं कि शादी के कुछ साल बाद शादी में पहले जैसी कशिश नहीं रह जाती.

बहरहाल जो भी हो, किरण का अचानक यूँ मिल जाना एक बेहद सुखद घटना साबित हो रही थी. वो भी ऐसे समय में जब रौनक की निजी ज़िंदगी एक बुरे दौर से गुज़र रही थी.