इश्क फरामोश - 3 Pritpal Kaur द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

इश्क फरामोश - 3

3. बेटा होता तो

शाम को जब आसिफ दफ्तर से आया तब तक किरण खुद को कुछ हद तक संभाल चुकी थी और साथ ही मन में वे सवाल भी तय कर चुकी थी जो उसे आसिफ से पूछने थे. हालाँकि उसे अंदाज़ा भी था कि वो उनका क्या जवाब देगा, फिर भी मन की तसल्ली के लिए ये कवायद ज़रूरी थी.

सुजाता का अगला फ़ोन आये और वह विस्तार से बात करे उससे पहले उसे जान लेना था कि वह किस ज़मीन पर खडी है. उसके पैरों के नीचे दलदल है या धरती या सिर्फ बादल; जो भ्रम तो देते हैं सपनों के विस्तार का लेकिन असल में सिर्फ एक खुशनुमा धोखा ही होते हैं. अक्सर बिन पानी वाले और वक़्त बेवक्त गडगड़ा कर भयभीत करने वाले.

किरण पर शादी के इतने सालों में धीरे-धीरे ये राज़ फाश हुआ है कि मर्द, ख़ास कर हिन्दुस्तानी मर्द शादी में दोस्ती नहीं बल्कि दासता की मांग करता है और वह भी दबी-छिपी ख्वाहिश के तौर पर नहीं, बल्कि एक बेशर्म और खुल्लम-खुल्ला दादागिरी की तर्ज़ पर.

आसिफ के ये दावे तो उसने किसी तरह निभाने सीख लिए थे लेकिन ये जो नया पन्ना उसके सामने उसके चरित्र का खुला था इसके बाद वह कुछ भी सोच समझ नहीं पा रही थी. दिन भर सोचने के बाद उसने तय पाया कि ये वक़्त सोचने से ज्यादा अपनी ज़मीन की खोज खबर लेने का है.

शाम की चाय पर वे बैठे ही थे, बच्ची हॉल में रखे अपने पालने में चैन से सो रही थी. उसके होंठ नींद में ही माँ का दूध पीते हुए सपनों में गाफिल थे. किरण उसे देखती हुयी मातृत्व में डूबी, अपने स्तनों में अतिरिक्त हो आये बहते दूध से भीगते टॉप को पास रखी शाल से ढँकने की कोशिश में लगी थी. गीले कपड़े उकताहट और बेचैनी पैदा कर रहे थे. लेकिन ये उकताहट सुबह से मन में छाई बेचैनी और छटपटाहट के सामने छोटी ही लग रही थी.

एक मन किया अन्दर जा कर कपडे बदल ले, लेकिन फिर मन माना नहीं. मन पर माँ के साथ हुयी बातचीत का दबाव बढ़ता जा रहा था कि सुबह से जिस दंश को भीतर समेटे बैठी है उसे खींच कर बाहर निकाले और इस यंत्रणा से छुटकारा पा ले. लेकिन क्या ऐसी यंत्रणाओं से छुटकारा पाना ऐसा आसान है?

चाय का एक भरा पूरा घूँट बिना स्वाद लिए निगल कर किरण ने आखिरकार बिना किसी लाग लपेट के ये सवाल आसिफ पर छोड़ ही दिया, “ तुमने माँ को बच्ची के बारे में गलत जानकारी क्यूँ दी थी?”

आसिफ एक बारगी तो मानों सकते में आ गया. चाय का कप उसके होंठो से लगा हुआ था. बिना घूँट भरे उसने उसे हटा लिया और जोर की आवाज़ के साथ सौसर में लगभग पटक सा दिया. कुछ पल की गूंगी बहरी खामोशी दोनों के बीच छाई रही.

फिर जो आसिफ के मुख से फूटा तो किरण मानो आसमान से ज़मीन पर आ गिरी.

फटे-फटे से स्वर में लगभग चीखते हुए आसिफ ने कहा था, “तो माँ बेटी में आखिर कार सांठ-गाँठ हो ही गयी. और क्या क्या साजिश रची है तुम लोगों ने मेरे खिलाफ?”

किरण एकाएक समझ ही नहीं पाई कि बात कहाँ थी और उसका सिरा कहाँ जा कर निकाल दिया है आसिफ ने अपनी समझ और तिकड़म की सुई में पिरो कर. बरसों से प्रशासनिक पद पर सुघड़ता से पैर जमाये किरण फ़ौरन समझ गयी कि यह पैंतरा आसिफ ने अपनी कमज़ोरी को छिपाने के लिए दे मारा है.

आक्रमण बेहतरीन रक्षा होती है. ये अक्सर कहा जाता है. लेकिन यहाँ इस तरह अपने ही घर के अन्दर अपनी लगभग एक माह की हो चुकी नवजात बच्ची के पिता से इस तरह युद्ध में हाथ दो-चार करने को उसे तत्पर होना होगा, ये किरण ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था.

घर में और वो भी दाम्पत्य में युद्ध? किरण का दिमाग बौरा गया. उसका जी किया कि हथियार उठा कर सुदर्शन चक्र के एक ही वार से दुश्मन को धराशायी कर दे. कुछ इस तरह कि भविष्य में कभी वह सर उठाने की ज़हमत न कर सके. इतनी क्षमता वह रखती है. ये वह बखूबी जानती है और अपनी कर्मस्थली पर आये दिन इसे साबित भी करती रहती है.

पत्रकार के तौर पर एक टेलीविज़न चैनल में स्क्रिप्ट राइटिंग करने वाला आसिफ उसकी मार नहीं झेल पायेगा किरण ये बात जानती है, लेकिन घर को बचाना है. घर को कुश्ती का अखाड़ा नहीं बनाना. यही भाव एक बार फिर उसके अन्दर धप्प से आ कर बैठ गया और वह चुपचाप उठ कर अन्दर चली गयी.

ड्रेसिंग रूम में दूध से भीगे टॉप को उतार कर गर्म भीगे तौलिये से जिस्म को पोछती किरण सोचती रही इस बात का जवाब किस तरह दे कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे. उसका दिल इस दौरान चुपचाप रो रहा था. मन में अफ़सोस बार-बार उठ कर समझ के दरवाजे पर दस्तक दे रहा था. कह रहा था ये कैसी बेवकूफी कर ली है तूने इस बंधन में बंध कर. अब निभा उम्र भर यूँही बुझ-बुझ कर. या कोई और रास्ता है तेरे लिए?

बदन सुखा कर नयी धुली ब्रा और टॉप पहन कर जब तक बाहर आयी तो आसिफ कही नहीं था. कनिका ने बताया कि साहब तो पनीर लेने मदर डेरी गए हैं. उसको कह के गए हैं शाम को पनीर टिक्का बनाना है इसका इंतजाम करने के लिए साजिद से कह दे.

किरण ने लम्बी सांस छोडी तो जनाब आज शाम व्हिस्की के साथ बिताएंगे. याने बातचीत की उम्मीद आज नहीं है. खैर! मन में सोचा आज नहीं तो कल आसिफ को जवाब तो देना ही होगा.

उसने टीवी चालू किया और हल्की आवाज कर के बच्ची के पालने के पास ही रखी अपनी आराम कुर्सी पर बैठ कर एक फिल्म देखने लगी.

आजकल छः महीने की मैटरनिटी लीव पर है खूब पढ़ रही है और टीवी देख रही है. फ़िल्में जो अक्सर काम की व्यस्तता के चलते वह नहीं देख पाती. किताबें जो बरसों से खरीद-खरीद कर एक बुक शेल्फ में अलग से "to be read" वाले खाने में इकठा हो गयी थी. अब सब पढ़ डाली हैं.

पसंद की फ़िल्में सब ढूढ़ ढूंढ कर देखी हैं. 'गाइड' कम के कम तीन बार देख ली. 'मेरा नाम जोकर' दो बार. 'साउंड ऑफ़ म्यूजिक' पांच बार.. 'शिन्द्लेर्स लिस्ट' दो बार…. 'ईट प्रे लव' तीन बार और भी जो दिल में दबे हुए अरमान थे लगभग सब निकाले हैं..

लम्बे लम्बे पैडीक्योर, मैनीक्योर और भी जाने क्या क्या. अब बच्ची पैदा हो गयी है तो पांच महीने बाद ड्यूटी ज्वाइन करनी है. बच्ची की व्यस्तता के साथ बचे-खुचे अरमान पूरे करने हैं. बच्ची को पालने के अरमान पूरे करने हैं. इस नन्हीं जान को जी भर कर पल-पल देखना और जीना है.

लेकिन इस सब के बीच दिल में ये मामला फाँस बन कर चुभ गया है. इसे ज़रूर निकालना है. दाम्पत्य में भी खुशियों को फिर से खींच कर ले आना है, बसाना है. कितने तो काम हैं. फिल्म में खोयी बच्ची की खुशबु भरी साँसों को सुनती किरण के दिमाग के बैक बर्नर पर इन्हीं विचारों की हांडी खर्रामा-खर्रामा पक रही है खद- बद करती.

दिन बीतते गए और बच्ची का नामकरण भी हो गया. इटावा के आसिफ के पुश्तैनी घर में जा कर ये काम किया गया. हालाँकि वे दो दिन के लिए आसिफ किरण और बच्ची होटल में ही रहे. आसिफ किरण को एक ही बार अपने घर ले कर गया है. एक तंग गली में मौजूद तीन मंजिला छोटी सी ज़मीन पर बने घर में करीब बारह सदस्य रहते हैं. जिनके लिए सिर्फ एक बाथरूम है. किरण के परिवार में सिर्फ माँ सुजाता है जो इंग्लैंड में थी और बीमारी की वजह से नहीं आ पाई.

बच्ची का नाम न से निकला जो सभी की रजामंदी के साथ नायरा रख दिया गया. सो नायरा चार महीने की हो गयी, गर्दन उठाने लगी, खिलखिला कर हंसने लगी, करवट बदलने लगी, अपनी खाट में एक सिरे से दूसरे सिरे तक सरकने लगी, रात-रात भर जगाने लगी और किरण के दिन और रात प्यार और लाड से भरपूर करने लगी.

उसके लिए किरण का प्रेम दिन दूना रात चौगुना बढ़ने लगा. कभी कभी किरण को लगता इतना प्यार वह कैसे संभालेगी. लेकिन एक नज़र बेटी पर पड़ती तो सब भूल भाल कर वह उसी में मगन हो जाती. भूल गयी कि मोटी पे पैकेट और रॉब दाब वाली एक नौकरी पलके बिछाए उसकी राह देख रही है.

वह अक्सर भूल जाती कि उसने इसी प्रेम-मयी बेटी के पिता से उसके जन्म को लेकर हुयी गलफ़त पर जवाब-तलब करना हैं. किरण ने कई बार उस दिन की बात को उठा कर सफाई मांगने की कोशिश में क़दम उठाने के बारे में सोचा लकिन फिर घर में मौजूद खुशी में सेंध का अंदेशा होते ही इस विचार को त्याग दिया.

हालंकि यह विचार सुलगता रहा उसके अन्दर. और तब तो यह यह डंक उठा कर डसने को आतुर हुआ जब उसने दो बार आसिफ को बेटी को बोतल से दूध पिलाने का आग्रह किया. उसका मानना था कि इस तरह बाप बेटी में एक भावनात्मक सम्बन्ध बनेगा. लेकिन आसिफ ने किसी न किसी बहाने दोनों बार टाल दिया.

किरण का दिल किया उससे इन मुद्दों पर खुल कर बात करे लेकिन वह चुप रही. घर में मौजूद खुशी के माहौल को खराब करने की उसकी हिम्मत नहीं हुयी. कई बार उसे यह ख्याल भी आया कि आसिफ की कई ज्यादतियों को वह सिर्फ इसलिए बरदाश्त कर लेती है क्यूंकि वह बदमजगी को टालती है. और यह काम वह लम्बे समय से करती आयी है.

फिर सोचा तो पाया कि शादी के शुरू के एक साल तक तो आसिफ अपने बर्ताव को लेकर बहुत संभल कर रहता था. कोई कडवी बात नहीं कहता था. लेकिन धीरे-धीरे वह मुलायम मुल्लमा उतरता गया था और अब बेटी के हो जाने के बाद आसिफ के यहाँ किसी भी तरह का कोई दबाव छिपाव नहीं रह गया था, वह जब चाहे जो मन चाहे करता और उसकी बात पूरी न होने की सूरत में बेहद उखड़ा हुआ और अपमान जनक वयवहार करता. केवल उसके साथ ही नहीं ड्राईवर और साजिद के साथ भी.

आया कनिका से उसका ज्यादा वास्ता नहीं पड़ता था सो वह बची हुयी थी. बेटी नायरा के साथ भी वह कम ही इंटरैक्ट करता. कभी कभी आया बच्चे को उसकी गोद में देती तो पांच मिनट में ही उकता कर उसे ले जाने के लिए कह देता.

किरण समझ नहीं पा रही थी कि कहाँ और क्या गलत हुआ है. और अब कैसे इसे लीक पर लाया जाए.

धीरे-धीरे पांच महीने पूरे होते न होते वह इतना समझ गयी थी कि इन दिनों आसिफ की किसी भी बात के लिए उसे चुनौती देना या सवाल जवाब करना खुद किरण के लिए अपने पाँव पर कुल्हाडी मारने के समान होगा. जो थोडा बहुत सुकून घर में बचा हुआ है वह भी लुट जायेगा. सो वह मन मार कर बच्ची की परवरिश में जुट गयी.

उसकी सारी खुशिओं का स्त्रोत अब बच्ची नीरू उर्फ़ नायरा थी. आसिफ को जब शारीरिक संपर्क के लिए किरण की ज़रूरत होती वह उसकी तरफ हाथ बढ़ा देता. किरण का दिल अब इस ओर से भी ऊब चला था. अब कई बार उसने बेटी के ही कमरे में सोना शुरू कर दिया था. इस पर आसिफ और झुंझला जाता. दोनों के बीच की दूरियां धीरे-धीरे बढ़ रही थी.

इन सबसे बेखबर नायरा दिन पर दिन खूबसूरत, दिलकश और शरारती होती चली जा रही थी. आसिफ की बेपरवाही से किरण का बुझा हुआ मन एक ही पल में नायरा को देखते ही खिल उठता और वह सब भूल-भाल कर सिर्फ और सिर्फ एक माँ हो जाती.

उस दिन भी वह पूरी की पूरी माँ हुयी नीरू को नहला कर गुलाबी तौलिये में लपेटे, चेंजिंग टेबल पर लिटाये खिलखिलाती बेटी के साथ मीठी-मीठी बातें कर रही थी, जब आसिफ कमरे में दाखिल हुआ. हमेशा की तरह उसने अपनी कार की चाभी लापरवाही से कहीं रख दी थी और अब उसे यकीन था कि किरण या कनिका ने संभाल ली होगी. उसी के बारे में पूछने के लये वह कमरे में आया था.

कनिका उस दिन कहीं बाहर गयी थी और किरण को किसी की मदद की दरकार थी. आसिफ को कमरे में दाखिल होते देख कर उसकी उम्मीद जगी.

वह कुछ कहती उससे पहले ही आसिफ ने पूछा, " तुमने मेरी कार की चाभी कहाँ रखी है?"

किरण ने अपने प्रेम में बहते उद्गारों और नीरू की व्यस्तता के रहते उसकी बात नहीं सुनी और कहा, "अच्छा हुआ तुम आ गए. ज़रा अलमारी से मुझे नीरू का वो सफ़ेद वाला जम्पर पकड़ा दो. मैं बिजी हूँ."

"मैं चाभी के बारे में पूछ रहा हूँ." आसिफ का स्वर चिढ़ा हुआ था.

"यार, बता दूंगी चाभी का पता भी. ज़रा एक मिनट के लिए अपनी बेटी के काम में हाथ बटा दो. देखो कैसी हसरत से तुम्हे देख रही है."

नीरू तब तक गर्दन घुमा कर आसिफ को देखने लगी थी और 'हूँ हूँ' कर के उसे बुलाने में लगी थी. वह पिता से बात करना चाहती थी. लेकिन आसिफ के मन में कोई भाव नहीं जागा. वह जल्दी में था.

"यह तुम्हें हर वक़्त बच्ची के चोंचले सूझते रहते हैं. मुझे चाभी दो. मुझे जाना है."

किरण का दिल इतनी बेपरवाही नहीं झेल पाया. वह बोल पडी, इतने दिनों से गुबार रुका हुआ था वह खुद को रोक नहीं पाई, "ये तुम हर वक़्त ऐसे उखड़े क्यूँ रहते हो? बेटी तुम्हारी भी तो है. कितनी प्यारी है. दो मिनट रुको, बात करो इससे. कैसी हसरत से तुम्हें बुला रही है?"

"तुम्हें तो हर वक़्त चोंचले सूझते हैं. मुझे चाभी नहीं देनी तो कह दो. ऑटो से चला जाउंगा."

"यार चाभी की बात नहीं है. बेटी से कुछ तो लाड किया करो." किरण का स्वर रुआंसा हो आया था. इतनी उपेक्षा?

लेकिन इस पर जो सुना तो किरण को अपने कानों पर यकीन नहीं हुआ.

"हाँ! करता लाड मैं भी. लड़का होता तो. लडकी का क्या करूँ?" आसिफ ने तल्ख़ स्वर में कहा था और कमरे से निकल गया. अगले ही पल बाहर के दरवाजे के जोर से बंद होने की आवाज़ से जड़ हुयी किरण होश में आयी थी.

किरण को याद नहीं उसके बाद किस तरह और कैसे उसने खिलखिलाती शरारतें करती नीरू को कपडे पहनाए और फिर खुद गीले कपडे बदल कर अपनी आराम कुरसी पर बेटी को लेकर सीने से चिपकाए बैठ गयी. बच्ची भूखी हो आयी थी. किरण की छाती से लगी दूध पीती-पीती सो गयी थी. किरण उसी तरह शाम तक बेटी को गोद में लिए उसी कुर्सी पर बैठी रही. बिना कुछ खाए पिए.

शाम को कनिका ने घर लौट कर उससे नीरू को लिया तो वह बाथरूम गयी और फूट-फूट कर रो पडी. नहा कर साफ़-सुथरे कपडे पहन कर जब तक बाहर आयी कनिका उसके लिए नाश्ता लगा चुकी थी. साजिद से उसे पता लग चुका था कि वह दिन भर से बिना खाए-पिए बैठी है.

कनिका ने नाश्ते की प्लेट उसके हाथ में पकड़ा कर अपनी बांग्ला मिश्रित हिंदी में कहा था, " माँ नहीं पीयेगी तो बच्चा दूध कैसे खायेगा?'

उस दिन किरण ने रात तक तीन गिलास भर कर दूध पिया था. रात भर उसका लिबास दूध से लथपथ रहा. नीरू ने हमेशा की तरह रात में दो बार दूध पिया था लेकिन किरण की छाती थी कि जैसे दूध की नदियाँ बहाए जा रही थी.