Ishq Faramosh - 15 books and stories free download online pdf in Hindi

इश्क फरामोश - 15

15.  कभी छूटा ही नहीं था

रौनक आज घर आया तो जैसे वो रौनक नहीं था. कोई और ही था. या शायद जब रौनक था तब उसके बाद किसी एक दिन से उसका रौनक होना छूट गया था. वह डॉक्टर छाबडा हो गया था. आज अचानक एक मरीज़ आयीं और उसकी बेटी ने उसे फिर से रौनक बना दिया था. आज फिर एक बार भापाजी पर रोष हो आया था. ऐसा रोष जो कभी व्यक्त नहीं कर पाया था. मगर अंदर ही अंदर हलके हलके पल रहा था उसके.

दिन तो मरीजों के साथ निकल गया था. शाम आज उसकी खाली थी. सोमवार को अक्सर वह सर्जरी नहीं रखता था. शनिवार और रविवार बहुत बिजी रहते थे. सोमवार और मंगलवार वह हलके रखता था. आज रह-रह कर किरण की याद आ रही थी. वैसे वो किरण को कभी भूला ही नहीं था. बस फर्क इतना था कि उसे उम्मीद नहीं थी की किरण से फिर कभी मुलाकात होगी.

बी. ए. के बाद किरण अपनी माँ के साथ इंग्लैंड चली गयी थी. और उसके हिसाब से अब उसे वहीं होना चाहिए था. इंग्लैंड जा कर कोई वापिस आता है भला?

मगर ये लडकी तो यहीं थी जाने कब से. यहीं उसके बगल में. इसी नॉएडा में. शायद शादीशुदा भी थी. रौनक को उसको लेकर ज्यादा नहीं सोचना चाहिए. वो खुद भी तो शादीशुदा है. सोनिया का चेहरा आँखों के सामने घूम गया.

आज कल रौनक का मन सोनिया से काफी उखड़ा रहने लगा है. घर अलग हो गये हैं और यहाँ इस उजाड़ से घर में मन नहीं लगता उसका.

भापाजी और माँ से मिलने रोज़ शाम वहीं चला जाता है. रात का खाना वहीं खा कर आता है. दिन का खाना क्लिनिक में मंगवाता रहा है हमेशा से. इस चक्कर में बच्चों के साथ उसका वक्त बहुत कम हो गया है. ये बात सालती है.

सोनिया को जाने क्या मजा आ रहा है इस तरह उजड़े उजड़े रहने में? क्या इसी जॉइंट फॅमिली का सपना देखा था भापाजी ने? सोच कर और भी उदास हो गया रौनक. इसी जॉइंट फॅमिली के सपने को देखते हुए तो भापाजी ने उसे किरण से जुदा किया था. तो फिर भापाजी की समझ और फैसला तो सही साबित नहीं हुआ. घर तो टूट ही गया.

रौनक आज तक हर काम भापाजी के कहे अनुसार ही करता रहा है. उसे हमेशा यही लगता रहा है कि वे बड़े हैं, ज्यादा समझदार हैं, दुनियादारी उससे ज्यादा जानते हैं. उन्हें ही फैसले लेने चाहिए. मगर यहाँ पहुँच कर आज वह ठगा सा खडा है. उनके किये लगभग सभी फैसले एक के बाद एक गलत साबित हो रहे हैं.

रौनक आज बहुत उदास है और क्षोभ से भी भर गया है. अपने पिता के प्रति तो उतना नहीं, जितना उन हालात के प्रति जो हर बार उसकी पहुँच से बाहर हो जाते हैं और वह ठगा जाता है.

दोष दे तो किसे? भापाजी तो उसका भला ही चाहते हैं. वे चाह कर तो उसका बुरा नहीं करते. लेकिन हर बार कुछ गलत हो जाता है.

वह सोच में पड़ गया है कि कहीं रौनक का ये अलग घर ले कर रहने का भापाजी का फैसला भी गलत न हो जाए. ख़ास तौर पर जॉइंट फॅमिली की उनकी प्रबल इच्छा को लेकर किये गए सारे फैसले अब तक गलत ही साबित हो रहे हैं.

किरण के हर तरह से एक अच्छी लडकी होने के बावजूद भापाजी ने उससे रौनक की शादी को नकार दिया था, इस शक पर कि वह आधुनिक परिवार की सिंगल माँ की बेटी है, जॉइंट फॅमिली में नहीं निभ पायेगी. मगर खुद जिस लडकी का घर परिवार सब देख-परख कर रौनक की शादी करवाई वो तो पांच साल भी साथ नहीं निभा पायी. अलग होने के लिए जिन हथकंडों का इस्तेमाल किया उसकी तो रौनक ने सपने में भी कल्पना नहीं की थी. वो तो भापाजी की की साख ऐसी है और पहुँच है तो इज्ज़त बची रह गयी वर्ना आज जेल में बैठा अपनी किस्मत को रो रहा होता.

सोनिया से उसका रिश्ता भी इस दिन के बाद से हिचकोले ही खा रहा है. जब उसके सामने नहीं होती तो उसका ख्याल ही तकलीफ देता है. जी चाहता है कभी मुंह तक न देखे. लेकिन जब सामने आती है तो उसी सोनिया पर प्यार भी आने लगता है. बच्चे सामने होते हैं तो ये प्यार कई गुना बढ़ जाता है. तब दिल कहता है कि एक गलती की माफी दी जा सकती है उसे.

ये सब सोच कर रौनक के मन में शक का एक बड़ा सा कीड़ा घूम गया. कहीं आगे चल कर रौनक का इस तरह अपनी पत्नी और बच्चों के साथ अलग रहने का फैसला जो हालात के मद्देनज़र, सोनिया की हठधर्मी और बेवकूफी भरी चालाकी को देखते हुए भापाजी ने लिया है, वह भी आगे जा कर गलत न साबित हो जाए.

रौनक आज तक भापाजी जी की हर बात मानता आया है. उसके जीवन से जुडी हर छोटी-बड़ी बात. उसके बावजूद आज जहाँ रौनक खडा है, वहां अपनी निजी ज़िंदगी को लेकर बहुत खुश नहीं है. और आज सुबह से जब से किरण से इतने सालों के बाद फिर मुलाक़ात हुयी है, यह बात बार-बार दिल में चुभ रही है.

किरण आज भी वैसी ही लगी उसे. वही किरण, वही मुस्कान, वही ठहरा हुया व्यक्तित्व, वही मीठी आवाज़, सोच-सोच कर बोलती हुयी किरण.

उसने फिर सर को एक झटका दिया. किरण को लेकर रोमांटिक होने का अब उसे कोई हक नहीं है. खुद ही तो दिल तोड़ कर आया था रौनक. क्या-क्या न गुज़री होगी उसके दिल पर. खुद रौनक को तो भापाजी ने संभाल लिया था.

वे बहुत दिनों तक उसे शाम को अपने साथ क्लब ले जाते रहे. जानते थे कि किरण के अलावा और कोई दोस्त ही नहीं था उसका. सो उस दिल टूटने के बाद के वीराने से उन्होंने ही संभाला था रौनक को.

रौनक को वाइन पीने का सलीका खुद भापाजी ने क्लब में उन्हीं दिनों सिखाया. व्हिस्की भी पिलाई. बियर भी. सब के तौर-तरीके समझाए. ये भी समझाया कि कितना पीना है और कितना दिखाना है. कब पीना है और कब सिर्फ दिखावा करना है पीने का और कब बिलकुल सख्ती से नहीं पीना है. और उसी सख्ती से इन सभी नियमों का पालन करना है.

डेंटल सर्जन के तौर पर ये नियम रौनक के बहुत काम आते हैं. इस प्रोफेशन में खुद को डिसिप्लिन में रखना बहुत ज़रूरी है. वर्ना तो कब पाँव फिसल जाए और मुसीबत घेर ले, कुछ कहा नहीं जा सकता.

अपने प्रोफेशन से रौनक को आज कोई शिकायत नहीं है. ये भी भापाजी का ही चुनाव था. रौनक और किरण का ग्रेजुएशन साथ ही पूरा हुआ था. उन दिनों रौनक ये सोच ही रहा था कि आगे क्या करना है.

किरण के बारे में उसे मालूम हो चूका था कि वह अपनी माँ के साथ इंग्लैंड चली गयी है. उससे मिलने की उम्मीद दिन पर दिन धुंधली हो रही थी. जब तक यहाँ थी तो लगता था किसी दिन उसका गुस्सा ठंडा पडेगा और उसे अपनी दोस्त तो कम से कम वापिस मिल ही जायेगी. मगर ये उम्मीद अब ख़त्म हो गयी थी.

उसने सोचा तो लगा कि उसे केमिस्ट्री या जूलॉजी में एम्.एस.सी. कर लेनी चाहिए. ये दोनों ही विषय उसे पसंद थे. अगले दो साल तक उसका भापाजी के कारोबार में शामिल होने का इरादा नहीं था. भापाजी की तरफ से फिलहाल कोई ऐसी बात आयी भी नहीं थी. और इन दो सालों में ज़िंदगी को अपनी धुन से जीने का यही तरीका किताबी कीड़े रौनक को समझ में आया.

उन्हीं दिनों जब ये फैसला कर के वो निश्चिन्त हो चुका था और इंतज़ार कर रहा था इन कोर्सेज में एडमिशन के शुरू होने की. उनके घर में एक भूचाल आया.

भापाजी के एक तथाकथित दोस्त ने जो दरअसल उनके दुश्मन थे, यानी आस्तीन के सांप थे, भापाजी के खिलाफ इनकम टैक्स में एक लिखित शिकायत भेज दी. जिसमें विस्तार से उन सौदों का विवरण था जिनमें कई तरह से हेरा-फेरी कर के टैक्स की चोरी की गई थी.

घर में और दफ्तर पर टैक्स विभाग का छापा पड़ा. बदनामी हुयी. परेशानी भी बेहद हुयी. गनीमत ये रही कि टैक्स विभाग के ही एक मध्यम स्तर के अधिकारी ने समय रहते भापाजी को आगाह कर दिया था, जिसके चलते टैक्स वालों को सबूत के तौर पर कोई चीज़ नहीं मिली. न कोई फर्जी सौदों के कागज़ात और न ही भापाजी की टैक्स रीटर्न में भरी गयी इनकम से अधिक की कोई राशि, कैश अथवा सोने के रूप में. बेनामी प्रॉपर्टी भापाजी ने कभी न ली, न रखी. जो भी प्रॉपर्टी है वो तीनों के नाम से है. टैक्स वगरेह भर कर. पूरी तरह से सारी कागजी कार्यवाई के साथ. कुछ प्रॉपर्टी अमरीका में बसे हुए भाई के नाम से भी है, जो बाकायदा एन. आर. आई. कानूनों के तहत रजिस्टर्ड है.

परेशानी भरपूर हुयी. बदनामी जम कर की गयी. सामाजिक सभाओं और शादियों में लोगों ने अचानक बुलाना भूलना शुरू कर दिया.

क्लब में या कहीं और मिलने पर चौंक कर कहते "अरे, भापाजी आप आये नहीं? फलां दिन शादी थी आप को बहुत मिस किया"

और भापाजी सोचते कि इनविटेशन कहाँ रह गया? फिर समझ आने लगा. ये उनके सामाजिक बहिष्कार के दिन थे.

जो भरोसा और इज्ज़त मेहनत और अपने मीठे स्वभाव से कमाई थी, वो ईर्ष्या के चलते कुछ खुदगर्ज़ लोगों की नज़र चढ़ कर कुर्बान हो गयी थी. भापाजी के लिए यह बहुत बड़ा झटका था.

ये वही दिन थे जब भापाजी ने रोज़ शाम को रौनक को अपने साथ क्लब ले जाना शुरू कर दिया था. वे बेटे को अपनी इस दुर्दशा के बारे में बताना तो नहीं चाहते थे. मगर उसका उनके साथ बने रहना उन्हें भावनात्मक सहारा देता था. इसके अलावा बेटा सामाजिक तौर पर उनके साथ है, इस बात का संकेत अपरोक्ष रूप में उनके प्रतिद्वंदियों तक पहुँच जाता था. यह एक मज़बूत और सोची समझी हुयी रण- नीति का एक हिसा था.

भापाजी का दुर्भाग्य यहीं ख़त्म नहीं हुया था. उन्हीं दिनों एक और अफवाह उनके बारे में उड़ा दी गयी. ज़ाहिर है उन्हीं लोगों के द्वारा कि भापाजी सोने की स्मगलिंग में भी लगे हुए हैं. इस बात में कोई दम नहीं था. किसी ने एक बेनामी शिकायत भी एएक्साइज विभाग में दी. मगर उस बात को भापाजी ने अपने रसूख और पैसे के दम पर दबा दिया. लेकिन समाज में उनकी छवि को इस अफवाह से बहुत नुक्सान हुया.

ये वही वक़्त था जब रौनक ने ग्रेजुएशन कर लिया था. भापाजी ने रौनक से बात नहीं की थी लेकिन मन ही मन में प्लान किया था कि अब वे कुछ महीनों में आहिस्ता-अहिस्ता रौनक को अपने कारोबार में ले लेंगें और साल भर के अंदर एक अच्छी सी घरेलू लडकी देख कर उसकी शादी करवा देंगे.

लेकिन इस नयी मुसीबत ने उनके इस प्लान को धराशयी कर दिया. तहस-नहस हो चुका कारोबार जब तक इस झटके से उबर कर फिर से पटरी पर नहीं लगता तब तक रौनक को उसमें घसीटना उन्हें अनुचित लगा. बेटे को कोई तकलीफ नहीं देना चाहते थे. दूसरे ऐसी बदनामी के बाद अच्छे घराने की लडकी उन्हें बहु के रूप में नहीं मिलेगी, ये बात वे समझते थे. इसलिए जब तक ये कलंक माथे से धुल नहीं जाता तब तक के लिए उन्होंने रौनक की शादी के मसले को मुल्तवी कर दिया.

ये वो दिन थे जब भापाजी चारों तरफ से घिर गए थे. बेटे की खामोश और मज़बूत उपस्थिति उनके लिए बहुत बड़ा संबल थी. साथ ही गायत्री का साथ भी. गायत्री हमेशा अच्छी-अच्छी बातें करती. जब भी वे निराश हो कर रोने लगते तो उनके पास बैठ जाती. उन्हें एक बच्चे की तरह सहलाती और दिलासा देती कि जैसे अच्छे दिन नहीं रहे ये दिन भी नहीं रहेंगें.

और यही हुआ. इनकम टैक्स की जांच जल्दी ही पूरी कर के उन्हें क्लीन चिट दे दी गयी. स्मगलिंग वाला मामला झूठा था सो उसे दबाना मुश्किल काम साबित नहीं हुआ. मगर इस सारी मशक्कत में पैसा बहुत लग गया. कारोबार में भी बहुत नुकसान हुआ. जिन लोगों के घर आनान-फानन में इनकम रेड से पहले पैसा और सोना रखवाया था, उनमें से दो ने कुछ रोक लिया. यानी अमानत में खयानत कर डाली. क्या किया जा सकता था?

लेकिन एक बात अच्छी हुयी. उनकी साख एक बार फिर जो कायम हुयी तो पहले से कई गुना बढ़ कर कायम हुयी. बाज़ार में भापाजी के नाम का सिक्का जम गया. जो लोग उन्हें दोषी मानते थे वे उनकी चतुराई, दक्षता और रसूख से अभिभूत थे कि कितनी सलाहियत से बेदाग़ बच निकले और जो उन्हें दोषी नहीं मानते थे, उनकी नज़र में वे और भी पाक-साफ़ साफ़ हो गए. क्योंकि सरकारी महकमों तक ने उन्हें निर्दोष साबित कर दिया था.

इस अंधरी गुफा से निकलने के बाद भापाजी ने रौनक के बारे में सोचा तो पाया कि रौनक को इस कारोबार के झमेले में नहीं डालना है. वो पढ़ने लिखने वाला ज़हीन लड़का है. मिजाज़ से नाज़ुक भी है. पिता की हर बात मानता है. वो अपने इस शरीफाना अंदाज़ के साथ इस तरह के कारोबार को नहीं संभाल पायेगा. सो उन्होंने फैसला किया कि उसे आगे पढ़ना चहिये. आगे की पढ़ाई भी उसे प्रोफेशनल ही करनी चाहिए जिसे कि वो अपना प्रोफेशन बना सके.

रात में सोते वक़्त ये बात उन्होंने गायत्री से कही तो उसे भी जाँच गयी. और अगली सुबह नाश्ते की मेज़ पर ये बात भापाजी ने रौनक के सामने रखी. रौनक तो अचम्भे में पड़ गया. उसके लिए तो बिल्ली के भागों छीका टूटने वाली बात थी.

वो बचपन से ही जनता था कि उसे भापाजी का फैला हुआ कारोबार संभालना है इसलिए डेंटल सर्जन बनने के अपने बचपन के सपने को मन के किसी कोने में बहुत पहले ही दफना दिया था. यहाँ तक की कभी उसने इसके बारे में अपनी प्रेमिका और गहरी दोस्त किरण को भी नहीं बताया था.

मगर आज तो किस्मत का दरवाज़ा उसके सामने बिना सिम-सिम बोले ही खुल गया था.

उसने एक भी पल गवाए बिना कहा, "भापाजी मैं तो डेंटल कॉलेज जाना चाहता हूँ."

भापाजी ने भी बिना पलक झपकाए, बिना एक भी पल गवाए कहा, "तो बेटा, देख कहाँ एडमिशन हो रहे हैं? साल खराब नहीं करना है. डोनेशन दे कर भी एडमिशन लेना है. आज ही ढूंढ."

रौनक ने उसी दिन पता किया और उसे दिल्ली में ही जामिया मिल्ल्लिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी के डेंटल कॉलेज के एंट्रेंस टेस्ट के बारे में जानकारी मिल गयी. उसने किसी और कॉलेज के बारे में पता ही नहीं किया.

उसे यकीन था कि मेहनत कर के तैयारी के साथ टेस्ट देगा तो उसका एडमिशन हो ही जायेगा. और यही हुया भी. पहली ही बार में उसका एडमिशन हो गया. चार साल का कोर्स कर के उसने एक साल का इंटर्नशिप किया. इंटर्नशिप के बाद रौनक चाहता था कि कहीं नौकरी कर ले और फिर अपना क्लिनिक खोले. लेकिन भापाजी का मानना था कि उसे पहले मास्टर्स भी कर लेनी चाहिए.

पढ़ाई और डिग्री की कीमत क्या होती है, वे जानते थे. उन्हें अपनी पढ़ाई पूरी करने का मौका नहीं मिला था. जो कुछ भी सीखा था ज़िंदगी की यूनिवर्सिटी में धक्के खाते हुए ही सीखा था. भाई को पढ़ा सकते थे और उसकी मर्जी के मुताबिक़ इंजीनियरिंग की पढ़ाई करवा दी थी.

मगर जब बेटे को कारोबार में लगाना चाहते थे तो इश्वर ने उन्हें एक नया सबक सिखा दिया था, जिसके चलते बेटे को पढ़ाई की तरफ मोड़ दिया था. अब वे चाहते थे कि बेटा अपने फील्ड की सब से ऊंची डिग्री हासिल कर के एक शानदार करियर बनाए और नाम भी कमाए.

आठ साल जम कर पढ़ाई की रौनक ने. उसके एम. डी. एस. पूरा करते न करते उसके लिए शानदार डेंटल क्लिनिक खडा कर दिया था भापाजी ने. इसी को अब वह चला रहा था. खूब कमाई भी कर रहा था और नाम भी कमा रहा था.

सब कुछ सही चल रहा था. पांच साल पहले भापाजी ने देख-भाल कर एक बेहद घरेलू किस्म की साधारण मिडिल क्लास परिवार की बेहद खूबसूरत बी.ए. पास लडकी सोनिया से रौनक की शादी करवा दी. खूब धूमधाम से हुयी इस शादी में बड़े बड़े नामी लोग शरीक हुए थे. राजनीति, कला और व्यापार सभी क्षेत्रों के.

जो थोड़ा बहुत संदेह भापाजी के मन में अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा को लेकर था. वो रौनक के बड़ा डॉक्टर बन जाने से और इस शादी में सब के बढ़-चढ़ कर शरीक होने से दूर हो गया. वे एक बार फिर पहले जैसे ठसके वाले भापाजी बन गए थे. आगे हो कर सामजिक समारोहों में हिस्सा लेते थे. कई सामाजिक सेवा संगठनों से जुड़े थे. कई जगह दान-पुन्य भी करते थे. यानी वे अपने क्षेत्र के एक बेहद लोकप्रिय और जाने-माने व्यापारी थे.

मगर घर की बहू सोनिया ने उनकी कद्र नहीं की. न ही अपने सोने जैसे पति की. जो इस तरह उन्हें पुलिस रिपोर्ट करवा कर कुछ घंटों की ज़लालत में डाल दिया. इस बात से भापाजी ने एक और सबक सीखा. ये सबक कि सब बच्चे रौनक जैसे आज्ञाकारी नहीं होते. ख़ास तौर पर तब, जब कि वे आपके खून के बच्चे न हों, बल्कि कानून के ज़रिये आप के बच्चे हों, जैसे कि बहु.

बहु सोनिया की जिद्द जो वे अब तक देख समझ कर भी अनजान बने हुए थे, एक ही पल में पूरी करने को आमादा हो गए थे. यहाँ तक कि अब ज़रुरत से ज़्यादा एक भी दिन बहु को अपने घर में रखने को राजी नहीं थे. एक ही महीने के अन्दर एक फ्लैट किराये पर लिया, बहु के हाथ पर बेटे के ज़रिये पैसे रखवा दिए उस घर को फर्निश करने के लिए. और गृह-पूजा के अगले ही दिन खुद जा कर चारों जिगर के टुकड़ों को वहां बसा कर आये.

लेकिन आजकल दिल नहीं लगता उनका इस घर में जो खुद इतने मेहनत और अरमानों के साथ उन्होंने खडा किया था. तीन मंजिला, दसियों कमरे, बेहतरीन महंगे फर्नीचर, दुनिया की हर ऐशो-आराम की चीज़.

क्या नहीं था इस घर में? मगर खुशी निकल गयी थी घर से. वो भी चोर दरवाजे से नहीं. घर के मुख्य दरवाजे से, दिन दहाड़े, घोषणा कर के, " देखो मैं जा रही हूँ. तुम जैसा जॉइंट फॅमिली का सपना देखते रहे वो नहीं पूरा होने दिया. अब देखो सपने अकेलेपन के. अकेले बैठ कर अपनी पत्नी के साथ. वो तुमसे हर दम कहती रही कि ज़बरदस्ती न करो लेकिन तुमने उसकी बात भी नहीं सूनी. अब भुगतो. "

भापाजी को कई बार लगता कि कहीं किरण की बद-दुआ तो नहीं लग गयी उनके घर को?

जैसा वे चाहते थे वैसा नहीं हुआ. बहुत सोचा तो पाया कि उन्होंने कभी किसी का दिल नहीं दुखाया था. ये सोचा और यहीं आ कर ठिठक भी गए. नहीं, ये बात सच नहीं है.

उस रात यहीं आ कर ठिठक गए. अचानक किरण याद आ गयी थी. किरण को उन्होंने इसलिए अस्वीकार कर दिया था क्योंकि उन्हें लगा था कि वो जॉइंट फॅमिली में नहीं रह पायेगी. लेकिन उनकी खुद की पसदं की हुयी लडकी भी कहाँ रह पायी?

किरण जैसी संवेदनशील लड़की इस तरह की हरकत हर्गिज़ कभी न करती जो सोनिया ने की थी, इसका उन्हें यकीन आज भी था. किरण को नकार देने का अफ़सोस उन्हें उस रोज़ पहली बार हुआ था. मगर अब क्या हो सकता था?

कुल्हाडी उन्होंने अपने पैर पर खुद ही मारी थी. बेटे का दिल भी दुखाया था. वे उन दोनों के गुनाहगार थे. किरण के और अपने ही बेटे रौनक के भी. चुपचाप शांत मन से अपने इस अकेलेपन की सज़ा काट रहे थे. बस बार-बार उनकी आंख्ने छलक आतीं और गायत्री उनके पास बैठ जाती हमेशा की तरह उन्हें दिलासा देती हुयी.

आज भी कुछ ऐसा ही मंज़र था. दोनों पति-पत्नी नाश्ते के बाद दिसंबर के रविवार की सुबह की गुनगुनी धुप का मज़ा लेते पीछे के आँगन में आराम कुर्सियों पर बैठे छिटपुट बातें कर रहे थे. जब बच्चों के हँसने की आवाजों और भागते हुए कदमों की उजली सी धमाचौकड़ी ने उन्हें उदासी के बवंडर से एक ही पल में आज़ाद कर दिया.

गायत्री फ़ौरन उठीं. ऐसे पलों में वे अपने घुटनों और पीठ के दर्द को पूरी तरह भूल जाती हैं. वर्ना यही दरद उन्हें काफी परेशान किये रहते हैं. इन दिनों उनकी परेशानी की बड़ी वजह थी भापाजी की उदासी और बहते आंसू. उनके इन आंसुओं के बहते वे खुद अपनी उदासी का न तो ज़िक्र ही कर पाती थीं और न ही इसे दबा पाती थीं. और सितम तो तब होता था जब भापाजी बीच-बीच में उन्हें पूछ भी लेते, "क्यों तुम्हें नहीं याद आती अपने पोते पोती की?"

इस पर वे चिढ़ कर कहतीं, "ना जी मुझे क्यों याद आयेगी भला? वो मेरे क्या लगते हैं? वो तो सिर्फ आप के पोता पोती हैं. आप ने ही तो अपने पेट से पैदा किया है उनको भी और उनके बाप को भी."

इस पर भापाजी खिसिया जाते हैं. अमूमन हर बात में अपना पक्ष सबसे ऊपर रखने वाले भापाजी अपनी पत्नी पर भी खासा रौब रखते हैं. मगर कभी-कभी जब उनके पत्ते कमज़ोर हों तो अपनी कारोबारी बुध्दि का उपयोग करते हुए दब भी जाते हैं. और यही वक़्त होता है जब गायत्री इंतज़ार में होती हैं कि अपनी बात को वज़नदार तरीके से रख कर 'सौ सुनार की और एक लुहार की' वाली कहावत को सच कर ले जाएँ.

आज बच्चे सुबह ही दादा-दादी के पास आ गए थे. इसकी वजह भी जल्दी ही उन्हें पता लग गयी. सोनिया की आज एक किटी पिकनिक थी. सन्डे का दिन रौनक अपने क्लिनिक पर बेहद व्यस्त होता है और उषा को तीन दिन से बुखार आ रहा था. दो दिन से बच्चों के सारे काम खुद करती हुयी सोनिया पस्त हो चुकी थी. आज की पिकनिक छोड़ने का उसका कोई इरादा नहीं था. तिस पर उषा का बुखार आज कुछ कम तो हुआ था मगर वो कमजोरी की वजह से बच्चों को सँभालने लायक स्थिति में नहीं थी.

सो कुछ देर सोच विचार के बाद सोनिया ने बच्चों को तैयार किया. भापाजी और माँ के घर आ गयी. जो कुछ दिन पहले तक उसका भी घर था. वैसे भापाजी और माँ के ज़ेहन में आज भी वह उन सभी का घर था. मगर सोनिया अब अपने नए घर को पूरी तरह स्वीकार कर चुकी थी, जो उसकी बातचीत से साफ हो जाता था.

ससुराल के इस घर को अब वह भापाजी का घर कहती थी. रौनक अभी तक समझ नहीं पा रहा था कि उसका घर कौन सा था. बचपन से जिसमें रह रहा था, जहाँ उसके माँ-बाप रहते थे, वो या अब जहाँ वह अपनी पत्नी और बच्चों के साथ रह रहा था. वो?

वो खुद तो उसे अपना घर कहते हुए हिचक जाता था. ये घर उसे सोनिया का घर लगता था. बातचीत में अक्सर वो ये बात कह भी जाता था.

कल ही गायत्री के कुछ पूछने पर उसने कहा था, "मैं जब सोनिया के घर जाऊंगा तब देख लूँगा वहां."

रौनक अपने कुछ कागजों के बारे में पूछ रहा था जो माँ के पास रखे रहते थे और जिन्हें घर शिफ्ट करते वक़्त एक दिन गायत्री ने सोनिया को दे दिए थे अपने घर में संभाल कर रखने के लिए. इन कागजों के उस घर में न होने और सोनिया के घर में होने की सम्भावना पर रौनक का दिल कुछ बैठ सा गया था.

उसे उस दिन लगा था कि शायद अब वही घर उसका होने वाला है. ये घर सिर्फ भापाजी और माँ का ही रह जाएगा. और उसी दिन उसे सोनिया का दर्द भी समझ में आया था. सोनिया ने जो अपना घर छोड़ा था उसकी पत्नी बन कर इस घर में आयी थी. तो ये घर उसका हो कर भी उसका नहीं हो पाया था. ये घर सब के लिए भापाजी और माँ का घर ही था. या ज़्यादा से ज्यादा रौनक का था.

चूँकि रौनक के भी ज्यादा दोस्त मित्र नहीं थे, तो घर की वाशिन्दगी में सोनिया की पैंठ कभी बन ही नहीं पाई. शायद यही वजह रही कि आहिस्ता-आहिस्ता वह घर से छिटक रही थी. और ये दिन आ गया कि जिस अलग घर में ये चारों लोग रह रहे हैं और वो घर सोनिया का घर कहलाता है. सोनिया शायद खुश भी है. रौनक ने एक लम्बी सांस ली थी. वो खुश रहेगी तो बच्चे भी खुश रहेंगें. उसकी खुशी के लिए उसकी डॉक्टरी है और भापाजी माँ का घर तो हैं ही.

बच्चे भागते दौड़ते घर में दाखिल हो गए थे. जहाँ हॉल में ही बाहें फैलाए दादी खड़ी मिल गयी थी. "दादी, दादी" करते हुए दोनों गायत्री से लिपट गये थे. सोनिया एक तरफ खड़ी सोच रही थी कि बात कैसे शुरू करे. कई दिनों के बाद वह आयी थी. उस घर में जहाँ बहु बन कर आयी थी और जहाँ पांच साल तक रही भी थी. आजकल यहाँ आना बहुत कम हो गया था तो एक अजनबी पन सा मन में उतर आया था.

बच्चे और दादी आपस में उलझे थे. बहुत सी बातें बच्चों को बतानी थीं. बहुत सी बातें दादी को पूछनी थी. वे उन दोनों के लिए-दिए वहीं सोफे पर बैठ गयीं. दोनों उनके अगल-बगल बैठ कर बढ़-चढ़ कर अपनी अपनी कहानियाँ सुनाने लगे.

सोनिया ने भी सामने वाले सोफे पर बैठ कर इंतजार करना ही बेहतर समझा.

कुछ देर बच्चों की धारा-प्रवाह बातें सुनने के बाद माँ को होश आया कि बहु काफी देर से चुपचाप  बैठी है.

उन्होंने बच्चों से कहा, "बच्चा लोग. अब आप दोनों बाहर जा कर दादा जी से मिलो. वे तुम्हारी वेट कर रहे हैं. पीछे के लॉन में. जाओ."

और बच्चे चिल्लाते हुए बाहर की तरफ भाग लिए. जल्दी ही भापाजी का एक भरपूर ठहाका और बच्चों के खुशी से चिल्लाने की आवाजें पूरे घर को गुंजाती हुयी सास बहु तक आ पहुँची.

कुछ देर दोनों के बीच खामोशी पथराई सी बैठी रही. फिर माँ ने ही उसे धकेल कर मौन को तोड़ा.

"कैसी है बेटा? दिल लग गया आपका नए घर में?"

"जी मम्मी जी. मैं ठीक हूँ. मन भी लग गया है. बच्चे भी खुश हैं. बस आप को याद करते हैं."

"हाँ हम भी बहुत याद करते हैं. थोडा जल्दी-जल्दी भेजा करो इनको."

"जी मम्मी जी आज तो पूरा दिन आपके पास ही रहेंगें. उषा बीमार है. मुझे एक पिकनिक के लिए जाना है. "

"हाँ. हाँ. ज़रूर बेटा. शाम तक यहीं रहने दो. रात को खाने के बाद हम ही छोड़ आयेंगें इनको. या रौनक ही ले जायेगा. क्लिनिक के बाद"

"ठीक है. मम्मी जी. मैं चलती हूँ देर हो रही है. "

"ठीक है बेटा, एन्जॉय योर डे."

दोनों स्त्रियों में पिछले दिनों एक दूरी पनप आयी थी. जिसका बीज शायद बहुत पहले पड़ गया था.

कब? ये दोनों को ही नहीं पता था. शायद उस दिन जब इस घर को पहली बार माँ के घर के तौर पर सुना था बहु ने. या फिर जिस दिन किसी दोस्त ने उसके घर आने से इसलिए मना कर दिया था कि वहां उसकी सास लिविंग रूम में होती हैं तो उसे ऑकवर्ड लगता है. या शायद उस दिन जिस दिन सुबह-सुबह सास की नींद रौनक की परेशानी भरी बातों से खुली थी, जब बहु की शिकायत पर उसे पुलिस चौकी में तलब किया गया था.

बहरहाल एक दूरी थी जिसे पाटने की कोशिश कोई नहीं कर रहा था.

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