मोतीबाई--(एक तवायफ़ माँ की कहानी)--भाग(३) Saroj Verma द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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मोतीबाई--(एक तवायफ़ माँ की कहानी)--भाग(३)

कुछ ही दिनों में मोतीबाई उस कोठे की सबसे मशहूर तवायफ़ बन गई,अपनी गायकी और नाच से वो सबकी दिलअजीज बन गई,उसकी आवाज़ का जादू अच्छे अच्छो का मन मोह ले लेता,जो एक बार अजीजनबाई के कोठे पर मोतीबाई की ठुमरी सुन लेता वो बार बार सुनने के लिए आता,अजीजनबाई के दिनबदिन ग्राहक बढ़ते ही जा रहे थें,अजीजनबाई की आमदनी भी बहुत बढ़ गई थी,जिससे वो मोतीबाई की हर इच्छा मान लेती,मोतीबाई जो भी कहती तो अजीजनबाई कभी भी उसकी बात नहीं काटती।।
इस तरह मोतीबाई इस काम से खुश तो नहीं थी लेकिन उसके पास अब दौलत और शौहरत की कोई कमीं नहीं थी,जिससे उसकी सास मधुबनी का मुँह भी बन्द रहता,मोतीबाई ने अब खुद का एक अच्छा सा घर खरीद लिया था,उपेन्द्र भी मोतीबाई का बहुत ख्याल रखता।।
इस तरह मोतीबाई पहली बार माँ बनी,उसके इस बच्चे के लिए मधुबनी कतई राजी नहीं थी,वो बोली बच्चा आ जाने तेरे काम में खलल पड़ेगा,उसने ये बात अजीजनबाई से कही....
अजीजनबाई ने जब मधुबनी की बात सुनी तो बोली.....
मधुबनी! ये तो आल्लाह ताला का दिया हुआ खूबसूरत तोहफा,इसे तू क्यों ठुकरा रही है? कुछ ही महीने तो मोतीबाई का काम रूकेगा,ज्यादा से ज्यादा एक साल,इसके बाद जब मोती गाया करेगी तो बच्चे को मैं सम्भाल लिया करूँगी,खुद की औलाद का सुख ना तुझे मिला और ना मुझे मिला तो इसका मतलब ये तो नहीं कि और भी ये सुख ना ले पाएं,इस बच्चे के इस दुनिया में आने के बाद ,तेरा जो हर्जाना होगा वो मैं भरूँगी लेकिन बच्चे को इस दुनिया में आने से मत रोक।।
अजीजनबाई की बात सुनकर मधुबनी बोली.....
मुझे कोई एतराज़ नहीं,अगर तुम मुझे पैसो दोगी....
और इस तरह कुछ महीनों बाद महुआ की पहली सन्तान इस दुनिया में आई जो कि एक बेटी थी,परियों सी सुन्दर,फूल सी नाजुक,अपनी माँ की हमशक्ल,महुआ और उपेन्द्र उसे देखकर फूले नहीं समाए,प्यार से उसका नाम उन्होंने रिमझिम रखा।।
रिमझिम के कुछ महीनों का होते ही महुआ फिर से नाचने गाने जाने लगी,उसका शरीर देखकर अब भी नहीं लगता था कि वो एक बच्चे की माँ है,मोतीबाई के लौटने से एक बार फिर अजीजन का कोठा आबाद हो गया ,कोठे की रौनक बढ़ गई,अजीजनबाई की झोली रूपयों से हर रात भर जाती ,लोंग मोतीबाई की ठुमरी सुनकर इतना खुश होते थे।।
अब मोतीबाई ने गज़लें गाना भी शुरू कर दिया था,अजीजनबाई उसे मशहूर शायरों की गज़लें लाकर देती और कहती इनका भी रियाज़ करो,लोंग आजकल ये भी सुनना पसंद करते हैं और मोतीबाई ऐसा ही करती।।
लेकिन रात किसी गाँव के जमींदार अपनी बग्घी में कोठे से होकर गुजरें,उन्होंने जैसे ही मोतीबाई की गज़ल सुनी तो कोचवान से बग्घी रोकने को कहा और कोठे के भीतर गए,वें मोतीबाई की गज़ल बेसुध होकर सुन रहें थें,जब गज़ल खतम हुई तो सब के जाने के बाद वें बोल पड़े.....
क्या गला पाया है आपने ?कसम से कहते हैं कि ये नजाकत, ये गाने की अदा हम ने आज तक किसी में नहीं देखीं,अपनी जिन्द़गी में हमने बहुत गाने वाली सुनी हैं,लेकिन मोहतरमा आप जैसी गायकी आज पहली बार सुनी.....
जमींदार की बात सुनकर अजीजन पूछ बैठीं.....
कौन हैं जी आप?पहले तो यहाँ कभी नहीं देखा।।
हम तो मौसिकी के कद्रदानों में से एक हुआ करतें हैं,जमींदार प्रभातसिंह हैं हम,वो जमींदार बोले।।
अच्छा हुजूर! आइए तशरीफ़ रखिए,आप जैसे कद्रदानों की तो हमें भी बहुत कद्र रहतीं हैं,अजीजनबाई बोली।।
इन मोहतरमा की आवाज़ का जादू हमें यहाँ खींच लाया,माशाल्लाह जितना अच्छा गला पाया है सूरत भी खुदा ने वैसी ही बख्शी है,जमींदार साहब बोलें।।
जी,जमींदार साहब आपकी निगाहों पर जरा काबू रखें,अजीजनबाई बोली।।
जी,मैं तो फनकारा की तारीफ़ कर रहा हूँ,जमींदार साहब बोलें।।
जी,बस,यहाँ आएं हैं तो हद में भी रहना सीख लीजिए,अजीजनबाई बोली।।
मोहतरमा! मैं अपनी हद में ही हूँ,किसी के फन की तारीफ करना गुस्ताखी तो नहीं,जमींदार प्रभातसिंह बोलें।।
जी,बिल्कुल नहीं,फन की तारीफ़ गुस्ताखी नहीं लेकिन यहाँ पर फनकारा की तारीफ करना गुस्ताखी मानी जाती है,अजीजन बोली।।
ओह..समझा! तो अगर मैने अपनी हद पार की हो तो गुस्ताखी माफ,अब इस गुस्ताख़ से ऐसी गुस्ताखी कभी ना होगी,जमींदार प्रभातसिंह बोले।।
मुझे आपसे ऐसी ही उम्मीद है,अजीजनबाई बोली।।
मैं वायदा करता हूँ,आपकी ये उम्मीद कभी ना टूटेगी लेकिन इस मौसिकी के आशिक को इन मोहतरमा की गायकी बहुत ही पसंद आई तो क्या कभी कभी हम इनकी गायकी सुनने आ सकते हैं?जमींदार प्रभातसिंह ने पूछा।।
जी,जुरूर,जहेनसीब! कभी कभी क्या रोजाना तशरीफ़ रखिए?लेकिन हद में रहकर,अजीजनबाई बोली।।
जी,हम सब समझ गए,अभी चलते हैं,हवेली पर हमारी बेगम इन्तज़ार करतीं होंगीं,जमींदार प्रभातसिंह बोलें।।
माफ़ कीजिए,एक बात पूछना चाह रही थीं अगर एतराज़ ना हो तो,अजीजन बोली।।
जी,पूछिए,भला हमें क्यों एतराज़ होने लगा? जमींदार प्रभातसिंह बोले।।
वो ये कि उर्दू पर आपकी पकड़ बहुत अच्छी है,अजीजन बोली।।
जी,वो इसलिए कि हम शायर हैं और जो गज़ल अभी ये मोहतरमा गा रहीं थीं वो हमारी ही लिखी हुई हैं,जमींदार प्रभातसिंह बोलें।।
लेकिन वो तो किसी बेनाम शायर ने लिखी है,इतने में मोतीबाई बोल पड़ी।।
जी,हम जमींदार होकर अपनी गजलों की छपी किताब में अगर ये नाम डालें कि शायर जमींदार प्रभातसिंह तो कितना भद्दा लगेगा,प्रभातसिंह बोलें।।
ये सुनकर सब हँस पड़े और अजीजन बोली....
आप बहुत ही दिलचस्प इन्सान हैं।।
जी !तो हम चलते हैं फिर कभी मुलाकात होगी और इतना कहकर जमींदार प्रभातसिंह सिंह चलें गए।।

अब जमींदार प्रभातसिंह का कोठे पर आने का सिलसिला जारी हो गया,वो केवल मोतीबाई की गजलें सुनने ही आते थे,बदलें में अपनी लिखीं कुछ शायरियाँ और गजलें मोतीबाई को दे देते,पन्द्रह गाँवों के जमींदार थे वें,भगवान की दया से उनके दो बच्चे थे एक बेटा और एक बेटी,दोनों बच्चे अपनी नानी के पास ही रहते थे क्योंकि जमींदार साहब के परिवार में उनके बड़े भाई उनसे अलग रहते थे और माँ बाप का सालों पहले ही देहान्त हो गया था,
सबसे मुश्किल बात ये थी उनके लिए कि उनकी पत्नी का कमर के नीचे का भाग लकवाग्रस्त था ,जिसकी वें स्वयं देखभाल करते थे,चन्द्रिका से उन्होंने प्रेमविवाह किया था,दो बच्चों के जन्म के बाद जिंदगी अच्छी खासी चल रही थी एकाएक ना जाने किसकी नजर लग गई और सालों से चन्द्रिका बिस्तर में ही पड़ी है,बच्चों की देखभाल प्रभातसिंह कर नहीं पा रहें थे इसलिए उन्हें ननिहाल भेंज दिया,चन्द्रिका ने कई बार उनसे दूसरा ब्याह करने को कहा तो प्रभातसिंह ने ये कहकर मना कर दिया कि अगर मैं तुम्हारी जगह होता तो क्या तुम ऐसा करती.....?
प्रभातसिंह का जवाब सुनकर फिर चन्द्रिका कुछ ना कहती,इसलिए प्रभातसिंह अपना मन बहलाने के लिए शायरियां लिखने लगें ,उनकी लिखी शायरियाँ मशहूर होतीं गई और उन्हें मुशायरों में भी बुलाया जाने लगा,वो अपनी जिन्द़गी से उदास जरूर थे लेकिन दुखी नहीं थे।।
जब कोई उनसे चन्द्रिका के बारें में कुछ कहता तो वें कहते कि मैं तो केवल उसका ख्याल ही रख रहा हूँ लेकिन जो सालों से करवट लेने के लिए भी लाचार है उसका क्या? उसके दिल से पूछो कि एक ही बिस्तर पर एक ही कमरें में ,एक ही छत को निहारना कितना मुश्किल होता है?मैं तो सारे काम खुद कर सकता हूँ लेकिन उससे पूछो कि वो खुद से पानी भी नहीं पी सकती,उसको इस तरह अधर में छोड़ना नाइन्साफ़ी होगी,मैं खुद से कैसे नजरेंं मिलाऊँगा अगर मैने उसे धोखा दिया तो।।
वें कोठे आते तो मोतीबाई से कुछ देर जुरूर बात करते,इससे अजीजन को तो कोई एतराज़ ना था लेकिन मधुबनी को था उसने एक दिन उपेन्द्र के कान भर दिए कि तेरी बीवी का उस जमींदार से इतना मेल जोल अच्छा नहीं,बहुत पैसे वाला है वो अगर उसने अजीजनबाई से उसे खरीद लिया तो क्या करेगा तू?
मधुबनी की बात सुनकर उपेन्द्र का माथा ठनक गया और वों एक दिन जमींदार का पता ठिकाना पूछते पूछते उसकी हवेली पहुँच गया.....
प्रभातसिंह बोले.....
आओ मियाँ! कहों कैसे आना हुआ? कोई पैगाम लाए हो क्या?
जी नहीं ! मैं तो हिसाब-किताब चुकता करने आया था,उपेन्द्र बोला।।
क्यों मियाँ? ऐसा भी क्या हो गया? प्रभातसिंह ने पूछा।।
मुझे अपनी बीवी से आपकी नजदीकियाँ बरदाश्त नहीं हो रहीं,इस मुवामले में आप कोई सफाई पेश करेंगें,उपेन्द्र गुस्से से बोला।।
बरखुर्दार! आप तो खाँमखाँ में नाराज होतें हैं,प्रभातसिंह बोले।।
जी,मुझे मेरे सवाल का जवाब दीजिए,उपेन्द्र बोला।।
सच कहूँ या झूठ,प्रभातसिंह बोले।।
सच ही कहिए,उपेन्द्र बोला।।
मोतीबाई मेरी छोटी बहन की तरह है,मेरी नज़रे और लोगों की तरह उस पर नहीं उठतीं,मैं सिर्फ अपना मन हल्का करने के लिए कोठे पर उसका गाना सुनने जाता हूँ,मेरा मोतीबाई के साथ केवल इन्सानियत का नाता हैं,तुम्हें ये मन्जूर नहीं तो ठीक है,प्रभातसिंह बोले।।
क्यों ?आपके पास तो बहुत दौलत है,आप तो दौलत से हर सुख खरीद सकते हैं फिर आपको कोठों पर जाने की क्या जुरूरत?उपेन्द्र ने पूछा।।
चलो तुम्हें कुछ दिखाता हूँ और ये कहकर प्रभातसिंह ,उपेन्द्र को अपनी पत्नी चन्द्रिका के कमरे की खिड़की के पास ले जाकर बोले.....
उसे देखकर रहें हो ,मेरी पत्नी चन्द्रिका है,सालों हो गए कमर के नीचे लकवाग्रस्त है,उसकी घुटन,उसकी तड़प,उसकी लाचारी ,उसकी उलझन को केवल मैं ही समझ सकता हूँ और कोई नहीं,उसकी आत्मा कैसे तड़प हो रही होगी मुक्त होने के लिए उसके अलावा मैं ही इस बात को समझ सकता हूँ,चाहता तो कर लेता दूसरा ब्याह ,नहीं किया,कारण जानते हो क्या है ? कि मैं उससे अब भी प्रेम करता हूँ,उसे बीच मँझधार में कैसें छोड़ दूँ?क्योंकि मेरा प्रेम उथला नहीं गहरा है,तुम प्रेम की गहराई को समझते होते ना तो मोतीबाई कभी भी कोठे पर ना दिखाई देती,इसलिए आज के बाद भाई बहन के रिश्ते पर ऊँगली मत उठाना।।
जी,मुझे मुवाफ कर दीजिए,आपको समझने में मुझसे बहुत बड़ी भूल हो गई,उपेन्द्र बोला।।
कोई बात नहीं बरखुरदार!गल्तियाँ हो जातीं हैं,प्रभातसिंह बोलें।।
और उस दिन उपेन्द्र ,प्रभातसिंह की हवेली से अपने मन का मैल धोकर वापस आ गया।।

क्रमशः.....
सरोज वर्मा.....