धरती गोल है।
और गोल चीज़ कितनी भी बड़ी हो, छोटी सी ही दिखती है। लुढ़कती है तो सब कुछ बार- बार आंखों के सामने आ जाता है।
लेकिन इस वक्त तो आंखों के सामने कुछ नहीं आ रहा था। केवल धुआं ही धुआं। आंखों से पानी।
बुरी तरह लपटें उठ रही थीं आग की।
भगदड़ मची हुई थी। दिल्ली शहर से एक के बाद एक दमकलें घंटियां बजाती सड़कों पर दौड़ी चली आ रही थीं। लेकिन ज्वाला थी कि थमने में ही नहीं आ रही थी। लगता था मानो सब कुछ भस्म हो कर रहेगा।
ये कोई जंगल की आग तो थी नहीं कि लोग दूर से देखा करें।
ये तो भरी पूरी बस्ती के बीचों - बीच लगी आग थी।
लाल, सुनहरी, केसरिया लपटें।
अंगारे, धमाके और धूं - धूं जलती ज़िंदगियां भी।
करोड़ों रूपए की मशीनें स्वाहा!
लाखों रुपए का सामान, कीमती वाहनों का अंबार। सब कुछ ऐसे जल रहा था मानो प्रलय का दिन है।
चीखने- चिल्लाने की आवाज़ें। चीत्कार, विलाप, क्रंदन।
ओह, कुछ लोग इधर - उधर भाग रहे थे, तो कुछ इधर- उधर से दौड़ कर इस दावानल में से अपनों की जान- ज़िन्दगी बीनने, खोजने के लिए आग में अपने को झौंकते हुए।
आसपास की कॉलोनियों से पानी के बर्तन, टैंकर, पाइप लेकर दौड़ते लोग।
क्या चाहता था विधाता?
ये लाक्षागृह कोई युद्ध का मैदान नहीं था कि लोग किसी सनकी राजा की ख्वाहिश पर मर मिटने को जान दे रहे हों, जान ले रहे हों।
ये तो एक विश्वस्तरीय बेहतरीन सुख- सुविधाओं वाला पांच - सितारा हस्पताल था जिसमें किसी मानवीय भूल से आग लग गई थी।
किसी को पता नहीं था कि आग क्यों लगी, कैसे लगी, और न ही ये पता लगाने का वक्त था। इस वक्त का तकाज़ा तो ये था कि जैसे भी हो इस धू- धू जलते मंजर की लपटों को और फैलने से रोका जाए।
जिस इलाके के फायर - ब्रिगेड को खबर मिलती वही इस तरफ का रुख करता।
क्या हुआ था? ये किसका क्रोध था जो इस तरह फट पड़ा।
ये कैसा तांडव था मौत का।
कोई नहीं जानता था कि आग की ये लहर कहां से शुरू हुईं और कैसे?
ओह!
सब कुछ भस्मीभूत होने की कगार पर।
आग बुझाने के एक से एक उपाय, उपकरण और यंत्र मौजूद, मगर सब विफल। क्या ये किसी की शरारत थी या फ़िर अनभिज्ञता। क्यों नहीं पाया जा पा रहा था इस भयंकर आग पर काबू।
आग थी ही इतनी विकराल।
इतनी बड़ी इमारत की हर मंज़िल पर रोगी। लाचार लोग। मर्द, औरत, बच्चे। एक तो वैसे ही अपने शरीर की बेबसी लिए दवाओं और इंजेक्शंस के सहारे यहां पड़े थे ऊपर से ये दर्दनाक कहर।
कौन किसको बचाए? किसी के परिजन चाय - पानी या दवा के लिए बाहर, किसी का रोगी गहरी नींद में सोया पड़ा। कोई डॉक्टर,कंपाउंडर, नर्स देखभाल में मशगूल तो कोई परामर्श में। अनेकों कर्मचारी अपने- अपने कामों में व्यस्त। कौन किसका ख्याल करे!
पूरी बस्ती हिल गई।
लगभग नौ- दस घंटे की मशक्कत के बाद तो ये नौबत आई कि आग सड़क पार की इमारतों में और न फैले।
कीमती मशीनों का लोहा, पीतल, तांबा और न जाने कौन - कौन सी धातुएं मोम की तरह पिघल कर बिछ गईं। तमाम आधुनिक फिटिंग्स, कंप्यूटर्स, लाइट्स बच्चों के खेलने के क्ले- मॉडल्स में बदलते जा रहे थे।
वार्डों में ही मजार, वार्डों में ही चिताएं।
अपने- अपने गद्दे, चादरों में दफ़न बेबस लाशें।
हे भगवान, ये क्या हो गया?
कई किलोमीटर का एरिया पुलिस ने घेर लिया। कौने- कौने से पत्रकार चले आए। प्रशासन, ट्रैफिक वाले, वकील, परिजनों और रोगियों को तलाशते उनके घर वाले।
लेकिन एक बात बेहद चौंकाने वाली।
इतने बड़े हॉस्पिटल के बड़े- बड़े डॉक्टर, अफ़सर, ज़िम्मेदार लोग कहीं दिखाई नहीं पड़ रहे थे। नीचे पार्किंग में खड़े वाहनों की जगह राख के ढेर। मलबे। सुलगती हुई गाड़ियां। कई शव इधर - उधर फंसे हुए।
हॉस्पिटल के सामने बड़े से बगीचे के बीचों- बीच बना संगमरमर का वो बड़ा सा चबूतरा चारों ओर से धूल- धुएं और अंगारों से काला पड़ा हुआ था जिसे भविष्य में कोई सुन्दर स्मारक या मूर्ति स्थापित करने की दृष्टि से हाल ही में बनवाया गया था।
इस हस्पताल के बनने के बाद इस इलाक़े के लोगों को अपने क्षेत्र की सुविधाओं को लेकर एक गौरव सा हो गया था, किंतु अब उस पर कोई ग्रहण लग गया।
जब कहीं भी कोई नई इमारत बनती है तो आरंभ में उसका भूमिपूजन किया जाता है। इस पूजन का तात्पर्य यही होता है कि इसके द्वारा इस भूमि पर पहले कभी घटी किसी अमंगलकारी घटना अथवा अपशगुन यदि कोई हो, तो उसका शमन किया जा सके।
यदि यहां कोई भूल अथवा अपराध कार्य हुआ है तो उसका अदृश्य प्रायश्चित हो सके।
पूर्ण विधि- विधान के साथ भूमि - पूजन करके किसी स्थान के प्रयोजन को पावन बनाया जाता है।
तो क्या यहां कभी कोई चूक हो गई?
क्या इस इमारत को खड़ा करते वक्त इसके प्रयोजन की पवित्रता का ख़्याल नहीं रखा जा सका?
क्या इसमें प्रयुक्त संसाधन और पैसा दोषपूर्ण थे।
ये सब वो तरह- तरह की शंकाएं थीं जो लोगों के मन में आती थीं।
कुछ पंडित और वास्तुशास्त्री तो यहां तक कहने लगे थे कि भूमि तो आपस में हर जगह की हर जगह से जुड़ी हुई होती है। कहीं का भी दोषपूर्ण विधान कहीं भी जाकर गुल खिला सकता है।
हो सकता है कि कोट्टायम के किसी चर्च में उपासना- रत बैठी हुई कोई नन अपनी बेचैनी में आसमान में बैठे हुए ईश्वर का क्रोध जगा दे और परिणाम स्वरूप दिल्ली की कोई इमारत नेस्तनाबूद हो जाए।
धत! ऐसी दकियानूसी बातों से कहीं दुनिया चलती है। ये कैसे हो सकता है?
भला ऐसा भी कहीं होता है कि वेनेजुएला में किसी अधेड़ के पेट में टीस से जलन हो और साइबेरिया की किसी घाटी में कोई जलजला उठे। बेकार की बात।
ऐसा कुछ नहीं होता। जहां की भूल, वहां का ही विध्वंस! ये साधारण सी बात तो समझ में आ भी सकती है।
पर ये साधारण सी बात भी कोई समझाने वाला ज़िम्मेदार आदमी वहां मौजूद तो हो। वहां तो कोई था ही नहीं।
देर रात तक दुनिया भर के मीडिया के लोग वहां शिकारी की भांति कोई काम की बात सूंघने की कोशिश में घूमते भी रहे और दनादन एक से एक भयावह तस्वीरें भी लेते रहे।
मरने वालों को क्या मुआवजा मिलेगा, कब मिलेगा, कैसे मिलेगा ये सब तो बाद की बात थी फ़िलहाल तो वो सब दोजख और जन्नत की कतार में थे। जो घायल अथवा जले हुए लोग जीवित रह गए थे उनकी दुर्दशा मृतकों से ज़्यादा थी।
राख, अंगारे और शरारे पत्र- पत्रिकाओं के रंगीन पेजों की सुर्खियां बन रहे थे। संवेदनाएं किसी विराट शून्य में विलीन हो गई थीं।
अगले दिन सभी अख़बार और खबरी चैनल्स इस बात पर ताज़्जुब कर रहे थे कि इतने बड़े हॉस्पिटल में कोई ज़िम्मेदारी लेने वाला कोई भी शख्स वहां नहीं दिखा। इतना बड़ा हादसा हो कर रह गया।
सुर्खियां ज़रूर थीं पर शर्म से सुर्ख हुए चेहरे नदारद रहे थे।
इस घटना से जयपुर में भी मातम छा गया।
कभी ज़ोर - शोर से ये प्रचारित किया गया था कि इस हॉस्पिटल की स्थापना का श्रेय जयपुर नगर को ही है क्योंकि इसके ओनर्स यहीं रहते थे।
डॉक्टर साहब शहर से बाहर थे। उनके परिवार- जन में से भी वहां कोई नहीं था। उनका पूरा बंगला उजाड़ और वीरान सा पड़ा था।
दो- तीन बार साजिद और मनप्रीत यहां आए भी पर न कोई मिला और न ही किसी की कोई खबर मिली।
आगोश की मम्मी जापान जाते समय साजिद और मनप्रीत को ही कह गई थीं कि उनकी अनुपस्थिति में ज़रा घर का ख्याल रखें।
वैसे सिद्धांत भी इन दिनों यहीं था।
जबसे उसने अपना प्रॉपर्टी -डीलर का ख़ुद का ऑफिस खोल लिया था तब से वह शहर से बाहर बहुत कम ही जाता था। ज़्यादातर यहीं रहता था।
दिल्ली के पास हुए इस भीषण अग्निकांड ने यहां भी तहलका मचा दिया था। समाचार के अनुसार हॉस्पिटल पूरी तरह जल कर खाक हो गया था।
मुश्किल से उस इमारत का दस प्रतिशत हिस्सा ही आग के भीषण वज्रपात से बच पाया होगा किन्तु वह हिस्सा भी अब पुलिस की कड़ी निगरानी में था।
ये इमारत आसमान में उठती दुनिया भर ने देखी थी और अब सुलग कर धराशाई होती भी सबने देखी, पर न तब कोई इसके बारे में कुछ बता पा रहा था और न अब।