टापुओं पर पिकनिक - 84 Prabodh Kumar Govil द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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टापुओं पर पिकनिक - 84

मधुरिमा के माता - पिता आज ख़ुशी से फूले नहीं समा रहे थे। उनके तो पांव ही ज़मीन पर नहीं पड़ते थे। बात ही ऐसी थी।
आज मधुरिमा आ रही थी। उनकी वो बिटिया, जिसे उन्होंने कभी जापान में पढ़ने की बात मान कर वहां भेजा था, अब अपने पति और नन्ही बिटिया को साथ लेकर भारत आ रही थी।
उसके पति तेन को वैसे तो उन्होंने आगोश के एक दोस्त के रूप में देखा था, किंतु अब वो उसे पहली बार अपने दामाद के रूप में देखने वाले थे। सब प्रफुल्लित थे।
मधुरिमा जिस फ्लाइट से आ रही थी वो रात देर से दिल्ली हवाई अड्डे पहुंचती थी। अतः दोपहर बाद कार से दिल्ली एयरपोर्ट के लिए निकलने का प्लान बनाया गया। आख़िर बरसों बाद आ रहे बेटी- दामाद को धूमधाम से रिसीव जो करना था।
तनिष्मा को तो उन लोगों ने होने के बाद से कभी देखा ही नहीं था। केवल फ़ोन के स्क्रीन की ही यादें थीं।
मधुरिमा की मम्मी जानती थीं कि रात को इतनी देर से दिल्ली पहुंचने के कारण वो लोग रास्ते में फ्लाइट में ही डिनर लेकर उतरेंगे। फ़िर एयरपोर्ट से यहां घर तक आते- आते उन्हें लगभग सुबह का समय ही हो जाएगा, तब भी उनका मन नहीं मान रहा था और वो खाने - पीने की तरह- तरह की चीज़ें बनाने में सुबह से ही व्यस्त थीं।
उन्होंने दहीबड़े के लिए दाल पीस कर अभी मिक्सी से निकाली ही थी कि फ़ोन की रिंग बजी।
दोनों हाथ दाल से सने हुए थे। और कोई समय होता तो वो फ़ोन उठाने से पहले फ़ोन करनेवाले पर लानतें भेजतीं - ये कोई टाइम है फ़ोन करने का... ये फ़ोन के मस्ताने लोग कभी टाइम नहीं देखते, टाइम- बेटाइम चाहे जब फ़ोन घुमा देते हैं... हाथ आटे में खराब हों तो फ़ोन ज़रूर आयेगा... मानो लोग छिप कर ये देख लेते हों कि आग पर जब इनका बर्तन जल रहा हो, तब ही फ़ोन करना है... आदि- आदि।
लेकिन इस समय तो वो मानो आठ हाथ वाली दुर्गा बनी हुई थीं। हाथ धोकर ख़ुशी- ख़ुशी फ़ोन उठाया। हो न हो, मधुरिमा का ही होगा।
पर फ़ोन मधुरिमा का नहीं बल्कि मनप्रीत का था।
- हां, बोल बेटी। उन्होंने चहकते हुए कहा।
- आंटी हम भी चलेंगे एयरपोर्ट! मनप्रीत ने कहा।
- पर बेटा, गाड़ी में इतने लोग आयेंगे कैसे? लौटते समय तो वो तीन और बढ़ जाएंगे... वैसे तो इनोवा है, पर फ़िर भी...
- अरे आंटी, चिंता मत करिए साजिद भी तो अपनी गाड़ी ले चलेंगे ना! मनप्रीत ने कहा।
- ओके, स्वागत, आओ- आओ, मज़ा आ जाएगा... पर इस बार तो बीच में रिसॉर्ट में रुककर कोई शरारत नहीं करोगे ना आंटी के साथ? आंटी ने हंसते हुए कहा।
मधुरिमा की मम्मी बरसों पुरानी वो बात अभी तक भूली नहीं थीं जब एयरपोर्ट के रास्ते में ही इन सब बच्चों ने उन्हें चैस और लूडो खेलने में लगा कर गुपचुप तरीके से मधुरिमा की शादी ही करा दी थी। अब ये सब पुरानी बातें उन्हें गुदगुदा रही थीं।
मनप्रीत झेंप गई। बोली- सॉरी आंटी, आप अब तक भूली नहीं हैं हमारी शरारत! आपने हमें माफ़ तो कर दिया न?
- अरे बेटा, तुमने अपनी सहेली का घर ही तो बसाया... इसमें शरारत कैसी! आंटी ने उदारता से कहा।
सुख में भूलें कहां दिखाई देती हैं?
मधुरिमा या तेन की फ़ोन पर जितनी बात मनप्रीत और साजिद से होती थी उतनी अपने मम्मी- पापा से कभी नहीं होती थी।
मधुरिमा ने ही मनप्रीत को बताया था कि आगोश के जाने के बाद से तेन बहुत उदास है और उसका वो सारा प्लान ठप्प पड़ गया है जो उसने आगोश के साथ मिलकर बनाया था।
उन्हें ये सोचकर भी अब अचंभा होता था कि आगोश ने जो टूरिज्म कंपनी बनाई थी उसका सर्वेसर्वा तेन को ही बनाया था जैसे उसे ये अहसास हो गया था कि वह दुनिया में नहीं रहेगा।
साजिद और मनप्रीत के जापान में उनके घर हो आने से तेन अब उन लोगों को भी अपने काफ़ी करीब महसूस करने लगा था।
स्वभाव से भी तेन सभी के साथ दोस्ताना व्यवहार रखने वाला आदमी है, ये बात भी यहां अब अधिकांश लोग जान गए थे।
उन लोगों के आने की खबर से सभी उत्साहित थे।
ये थोड़े से कुछ दिन तो मधुरिमा और तेन के यहां ऐसे ही सबसे मिलने- जुलने और लंच- डिनर में निकल जाने वाले थे, लेकिन उसके बाद तेन अपने बिज़नेस ट्रिप्स के लिए भी थोड़ा समय निकालना चाहता था।
जब तीन गाड़ियों का काफ़िला दोपहर बाद सीधे दिल्ली एयरपोर्ट के लिए निकला तो सब बेहद ख़ुश थे। कितना फ़र्क होता है यात्रा का प्रयोजन बदल जाने से? कई साल पहले वे सब इसी तरह एक बार और निकले थे। मगर तब वो मधुरिमा को छोड़ने जा रहे थे, और आज उसे रिसीव करने जा रहे थे... उल्लास का छलकना तो स्वाभाविक ही था।
लेकिन आज उन्हें अपनी बेटी को एक परदेसी मेहमान की तरह चंद दिनों के लिए लाना था।
एक गाड़ी मधुरिमा का भाई पप्पू चला रहा था, दूसरी के स्टियरिंग पर साजिद था और तीसरी सिद्धांत चला रहा था।
यद्यपि तीसरी गाड़ी केवल इसलिए ली गई थी कि लौटते समय मधुरिमा और तेन अपनी बिटिया और लगेज के साथ आराम से आ सकें। आज मनन भी नहीं था, इसलिए सिद्धांत ने अंकल, यानी मधुरिमा के पापा को अपने साथ बैठा लिया था।
ढलती सांझ के झुटपुटे में जब शाम की चाय के लिए एक रिसॉर्ट में गाड़ियां रोकी गईं तो सबके ख्यालों में जाने कितनी ही यादें कौंध गईं, क्योंकि ये रिसॉर्ट वही था जिसमें मधुरिमा की शादी हुई थी।
आज नींद का तो किसी को ख्याल भी नहीं था। उन लोगों ने खाना भी एयरपोर्ट पर रात को साढ़े दस- ग्यारह बजे खाया। फ्लाइट को लगभग एक बजे आना था। उड़ान थी भी सही समय पर।
इंतजार खत्म हुआ।
एयरपोर्ट की शीशे की दीवार के पार से टोक्यो वाली फ्लाइट के यात्री कन्वेयर बेल्ट पर दिखने लगे थे।
लेकिन अभी केवल इंतजार ख़त्म हुआ था, बेचैनी नहीं।
कभी- कभी अगर इंतजार और बेचैनी एक दूसरे से अलग होकर छिटक जाएं तो बहुत तकलीफ़ होती है। यहां भी ऐसा ही हुआ। मनप्रीत बार- बार फ़ोन मिला रही थी पर मधुरिमा का फ़ोन उठ नहीं रहा था।
हर बार डायल करते समय मनप्रीत मधुरिमा की मम्मी की ओर देख लेती थी जहां उसे तेज़ी से बेचैनी का ग्राफ चढ़ता हुआ दिखाई दे रहा था।
- मधु फ़ोन क्यों नहीं उठा रही! फ्लाइट आए तो बारह- पंद्रह मिनट हो चुके हैं। मनप्रीत ने कहा।
- थोड़ा रुक कर फ़िर से कर... साजिद बोला। उतरते समय चार मुश्किलें होती हैं, छोटी बच्ची साथ है, हो सकता है उसे लेकर वाशरूम जाना पड़ा हो, फ़ोन पर्स में हो। अभी स्टार्ट ही न किया हो...
मनप्रीत को साजिद पर गुस्सा आया।
- अच्छा, बोल तो ऐसे रहे हो जैसे बच्चों को लेकर बहुत बार सफ़र किया हो? उसने कहा।
लेकिन फ़िर मनप्रीत ख़ुद ही अपनी बात पर झेंप गई जब उसने देखा कि आंटी और अंकल उसकी बात सुनकर हंस रहे हैं।
लेकिन तभी सबकी हंसी एकदम रुक गई। सबने देखा कि सामने से तेन एक हाथ में तनिष्मा की अंगुली पकड़े दूसरे से लगेज की ट्रॉली धकेलता हुआ चला आ रहा था।
मधुरिमा के पापा और मम्मी ने किलक कर तनिष्मा को थामने की कोशिश की। पर वो एक - दो कदम पीछे हट कर तेन से चिपक गई।
मनप्रीत ने उसे लपक कर गोद में उठाया। लेकिन लगभग सभी के चेहरे पर एक ही सवाल तैर रहा था- मधुरिमा कहां है? मधुरिमा कहां रह गई?
मम्मी और पापा के पैर छूकर आशीर्वाद लेता हुआ तेन बुदबुदाया- वो नहीं आई!
- अरे??? क्यों? कहां रह गई! घर से तो निकली थी... क्या हुआ, फ्लाइट मिस हो गई? तबीयत तो ठीक है? ऐसा क्या हुआ... सवालों के ढेरों मिसाइल्स सबकी निगाहों से छूट कर तेन के चेहरे पर टकराने लगे।
इस हड़बड़ी से तनिष्मा घबरा सी गई और ज़ोर- ज़ोर से रोने लगी।
- अच्छा- अच्छा... बैठो तो सही गाड़ी में.. की आवाज़ों के साथ अफरा- तफरी सी मच गई क्योंकि पप्पू और सिद्धांत गाड़ियां स्टार्ट करके वहीं खड़े थे।
साजिद की गाड़ी पार्किंग में थी, वह भी फुर्ती से गाड़ी लेने चला।
और ये काफ़िला जो "मधुरिमा को रिसीव करने" के नाम पर घर से निकला था, अब मधुरिमा के बिना ही लौट चला।