टापुओं पर पिकनिक - 59 Prabodh Kumar Govil द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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टापुओं पर पिकनिक - 59

अब जाकर मनन के चेहरे पर थोड़ी हंसी आई। मज़ा आ गया उसे।
दो बार से तो वो चित्त हो रहा था। अंकल उसे पटक देते और उस पर चढ़ बैठते।
इस बार अंकल नीचे थे और वो ऊपर। मज़ा आया।
मनन मधुरिमा के पापा को अंकल कहता था। केवल वो ही नहीं, बल्कि उनकी मंडली के सारे दोस्त ही उन्हें अंकल कहते थे।
मगर इस समय आसपास कोई नहीं था। कमरे में बस वो दोनों ही अकेले थे।
उन दोनों को ही समय का कोई ख़्याल नहीं था। मस्ती से एक दूसरे को पछाड़ने-गिराने में लगे थे।
नहीं - नहीं... उनके बीच कोई कुश्ती नहीं हो रही थी। वो दोनों तो चैस खेल रहे थे, शतरंज!
मधुरिमा के पापा वैसे तो अच्छे खिलाड़ी थे पर आज बरसों बाद खेलने का मौक़ा मिला था। मनन नया - नया सीखा हुआ नौजवान खिलाड़ी। पर दो बार की हार के बाद अब उसने भी बाज़ी पलट दी थी।
अगली चाल चलने से पहले अंकल को भी पसीना आ रहा था। कैसे बचाएं अपना वज़ीर!
मनन ने मैंगोशेक का ग्लास उठा लिया और मुस्कुराते हुए चुस्कियां लेने लगा। उसे लगा- अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे। इतनी देर से तो अंकल उसे दबाए हुए थे। बिल्कुल हिलने नहीं दे रहे थे।
अंकल का मैंगोशेक ऐसे ही रखा था।
वेटर और भी दो- तीन प्लेटों में तरह- तरह के स्नैक्स रख गया था।
कभी- कभी उसे भी मज़ा आता। वह कुछ रखने या बर्तन उठाने यहां आता तो खेल देखता हुआ वहीं खड़ा रह जाता। उसे भी तो एक जवान लड़के और एक बूढ़े खिलाड़ी की ये गुत्थम- गुत्था देखने में रस आ रहा था।
जब अंकल के लिए हाथी को चलने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचा तो मनन ने ख़ुशी से किलकारी मारी।
अंकल ने जैसे हथियार डाल ही दिए, और हाथ में काजू की प्लेट से एक भुना काजू उठा कर मुंह में डाल लिया।
- अरे, ये कहां चली गईं? उन्होंने मानो अपने आप से ही कहा।
इतने शानदार रिसॉर्ट की गहमा- गहमी और चहल- पहल से अभिभूत होकर मधुरिमा की मम्मी बाहर बगीचे में टहलती हुई कहीं दूर निकल गई थीं।
पहले कुछ देर तो वो भी यहीं बैठ कर खेल देख रही थीं मगर जब उन्होंने अपने पति को बार- बार मनन से जीतते देखा तो जल्दी ही उकता गईं। वो बाहर के नजारों का आनंद लेने निकल गयीं । आज मौसम भी तो बेहद सुहाना था। धूप का कहीं नामोनिशान नहीं था।
उन्हें बार - बार लॉन में चक्कर काटते देख कर एक वेटर लड़का उनके पास आकर खड़ा हो गया।
बोला- भीतर चलिए, आइए मैडम।
मधुरिमा की मम्मी जिज्ञासावश उसके साथ जाने लगीं। वो उन्हें पास ही एक स्पा में ले गया।
उन्हें कुछ सकुचाता देख कर लड़का बोला- सोचिए मत आंटी, ये फ़्री है... आपके पैकेज में ही शामिल है। अलग से कोई चार्ज नहीं है... सारी थकान उतर जाएगी।
मधुरिमा की मम्मी वहां पड़े एक सोफे पर बैठ गईं। लड़के ने उत्साहित होकर एक साफ़ सफेद - झक्क चादर वहां पड़े दीवान पर फैलाई और उन्हें बुलाने लगा।
कुछ संकोच के साथ मधुरिमा की मम्मी उठ गईं तो लड़का समझ गया कि मैडम शायद कुछ शरमा रही हैं। उसने कहा- लेट जाइए यहां।
- यहां कोई लेडी वर्कर नहीं है?
- ओह! है न, आइए, मैं बुलाता हूं। लड़का भीतर चला गया। वह समझ गया कि ये महिला किसी फीमेल से ही ट्रीटमेंट लेना चाहती है।
कुछ देर बाद मधुरिमा की मम्मी एक ढीला सा गाऊन पहने बेड पर उलटी लेटी हुई थीं और वह लड़की उनकी आरामदायक मसाज कर रही थी।
लड़का बीच- बीच में झांक कर देख लेता था। शायद उस समय कोई और ग्राहक न होने के कारण वह भी ख़ाली ही था।
जब तरोताजा होकर अपने कपड़े वापस पहन कर मधुरिमा की मम्मी पुनः उसी कमरे में आईं तब भी मनन और उनके पति खेल में ही मशगूल थे। शायद उनके छह- सात गेम हो चुके थे।
- अभी तक नहीं आए ये लोग? कहां चले गए सब लोग? मधुरिमा की मम्मी ने कहा। पर उन्हें किसी ने कोई जवाब नहीं दिया। शायद किसी को कुछ पता भी नहीं था। और ऐसा लगता था कि जैसे किसी को किसी की कोई फ़िक्र भी नहीं थी। सब अपने- अपने टाइम पास में लगे थे।
मनन ने फ़िर से अंकल को हरा दिया था और अंकल मानो उससे बदला लेने के लिए फ़िर से कमर कस रहे थे। उन्होंने झटपट मोहरे दोबारा जमाना शुरू कर दिया।
कमरे में एक वेटर आया तो मधुरिमा की मम्मी ने उससे पूछा- बाक़ी लोग कहां हैं जो हमारे साथ थे!
वेटर ने कोई ध्यान नहीं दिया। वह बर्तन समेटने में लगा रहा।
शायद या तो उसने उनकी बात सुनी ही नहीं होगी या फ़िर उसे कुछ मालूम नहीं होगा। उसके चेहरे पर ऐसा सपाट सा भाव आया मानो कहना चाहता हो कि तुम्हारे लोग कहां हैं ये जब तुम्हें ही नहीं मालूम तो मैं क्या जानूं?
पर उसने ऐसा कुछ कहा नहीं, बल्कि अदब से बोला- आप लोगों के लिए चाय ले आऊं मैडम?
- ले आओ... शायद मधुरिमा की मम्मी ने इंतजार से ऊब कर ही चाय के लिए हां कह दिया।
वेटर ने खेल रहे अंकल और मनन की ओर भी देखा, मानो उनसे भी पूछना चाहता हो। अंकल ने भी "हां" में सिर हिला दिया। मनन ने पीछे से कहा- मेरे लिए कॉफ़ी लाना।
वेटर चला गया।
उन लोगों को वहां बैठे- बैठे लगभग दो घंटे होने वाले थे। इस बीच वो काफी कुछ खा- पी भी चुके थे।
कुछ भी हो, ये जगह बड़ी शानदार और आनंददायक थी।
ये दिल्ली के समीप रास्ते में पड़ने वाला एक रिसॉर्ट था जो मेन रोड से कुछ भीतर काफ़ी बड़े क्षेत्र में फ़ैला हुआ था।
आज सुबह ही दो कारों से ये सब लोग दिल्ली जाने के लिए रवाना हुए थे।
एक कार आगोश चला रहा था और उसमें मधुरिमा, मनप्रीत और सिद्धांत साथ में थे। दूसरी गाड़ी साजिद चला रहा था जिसमें मधुरिमा के पापा - मम्मी और मनन भी थे।
यहां आने के बाद उन सबने खाना एक साथ खाया था। खाने के बाद मधुरिमा के पापा और मम्मी को एक कमरे में आराम करने के लिए छोड़ कर वो लोग कहीं चले गए थे। मनन को उन लोगों के साथ छोड़ दिया गया था ताकि किसी बात की दिक्कत उन्हें न हो। मनन को मधुरिमा ने ही बताया था कि पापा शतरंज खेलने के बहुत शौक़ीन हैं और घंटों बिना थके हुए खेलते रह सकते हैं।
मनन ने भी चैस खेलना नया- नया सीखा था इसलिए उसे खेलने में बड़ा मज़ा आता था। अपने बचपन में कभी मनन ने शतरंज का खेल सीखने के लिए स्कूल समय के बाद चलने वाली क्लास भी ज्वॉइन की थी पर तब पढ़ाई के बोझ के कारण उसका खेलना बीच में ही रुक गया था।
अब वो अपने बचपन के इस शौक़ को पूरा करने में बहुत रुचि लेता था।
शायद इसीलिए मधुरिमा ने पापा के साथ खेलने के लिए उसे कहा था। मधुरिमा तो घर से चलते समय शतरंज का डिब्बा भी गाड़ी में रखना नहीं भूली थी।
पर यहां आकर जब रिसॉर्ट में पूछताछ की तो चैस यहां भी मिल गया।
बस, एक के बाद एक बाजियां जमने लगीं।
मधुरिमा ये भी जानती थी कि मम्मी और पापा को दोपहर में सोने की बिल्कुल आदत नहीं है, इसलिए उसने मनन से कहा था कि पापा- मम्मी का टाइमपास चैस और लूडो से बढ़िया होगा।
सचमुच, चाय पीने के बाद मम्मी ने कहा था- अब लूडो खेलो, मैं भी खेलूंगी, मैं अकेली बैठी हुई बोर हो गई।
और बाज़ी जम गई थी।
नीली गोट पापा की... पीली मम्मी की, और लाल गोट मनन की!