अवसान की बेला में - भाग ६ Rajesh Maheshwari द्वारा मनोविज्ञान में हिंदी पीडीएफ

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अवसान की बेला में - भाग ६

46. अंतिम दान

सेठ रामसजीवन नगर के प्रमुख व्यवसायी थे जो अपने पुत्र एवं पत्नी के साथ सुखी जीवन बिता रहे थे। एक दिन अचानक उन्हें खून की उल्टी हुयी और चिकित्सकों ने जाँच के उपरांत पाया कि वे कैंसर जैसे घातक रोग की अंतिम अवस्था में हैं एवं उनका जीवन बहुत कम बचा है। यह जानकर उन्होने अपनी सारी संपत्ति अपनी पत्नी एवं बेटे के नाम कर दी। कुछ माह बाद उन्हें महसूस हुआ कि उनके हाथ से बागडोर जाते ही उनकी घर में उपेक्षा आरंभ हो गई है। यह जानकर उन्हें अत्यंत दुख हुआ कि उन पर होने वाला दवाइयों, देखभाल आदि का खर्च भी सभी को एक भार नजर आने लगा है। जीवन का यह कडवा सत्य उनके सामने था और एक दिन वे आहत मन से किसी को बिना कुछ बताये ही घर छोडकर एक रिक्शे में बैठकर विराट हास्पिस की ओर रवाना हो गये। किसी का भी वक्त और भाग्य कब बदल जाता है, इंसान इससे अनभिज्ञ रहता है। रास्ते में रिक्शे वाले ने उनसे कहा कि यह जगह तो कैंसर के मरीजों के उपचार के लिये है यहाँ पर गरीब रोगी रहते है जिन होने वाला खर्च उनके परिवारजन वहन करने में असमर्थ होते हैं आप तो वहाँ पर दान देने जा रहे होंगे। मैं एक गरीब रिक्शा चालक हूँ परंतु मेरी ओर से भी यह 50 रू वहाँ दे दीजियेगा। सेठ जी ने रूपये लिये और उनकी आँखे सजल हो गयी।

उन्होने विराट हास्पिस में पहुँचकर अपने आने का प्रयोजन बता दिया। वहाँ के अधीक्षक ने अस्पताल में भर्ती कर लिया। उस सेवा संस्थान में निशुल्क दवाईयों एवं भोजन की उपलब्धता के साथ साथ निस्वार्थ भाव से सेवा भी की जाती थी। एक रात सेठ रामसजीवन ने देखा कि एक मरीज बिस्तर पर बैठे बैठे रो रहा है वे उसके पास जाकर कंधे पर हाथ रखकर बोले हम सब कि नियति मृत्यु है जो कि हमें मालूम है तब फिर यह विलाप क्यों? वह बोला मैं मृत्यु के डर से नही रो रहा हूँ। अगले सप्ताह मेरी बेटी की शादी होने वाली है मेरे घर में मैं ही कमाऊ व्यक्ति था अब पता नही यह शादी कैसे संपन्न हो सकेगी। यह सुनकर सेठ जी बोले कि चिंता मत करो भगवान सब अच्छा करेंगे तुम निश्चिंत होकर अभी सो जाओ। दूसरे दिन प्रातः सेठ जी ने अधीक्षक महोदय को बुलाकर कहा मुझे मालूम है मेरा जीवन कुछ दिनों का ही बाकी बचा है। यह मेरी हीरे की अंगूठी की अब मुझे कोई आवश्यकता नही है। यह बहुत कीमती है इसे बेचकर जो रूपया प्राप्त हो उसे इस गरीब व्यक्ति की बेटी की शादी में दे दीजिये मैं समझूँगा कि मैने अपनी ही बेटी का कन्यादान किया है और बाकी बचे हुये धन को आप अपने संस्थान के उपयोग में ले लें। इस प्रकार सेठ जी ने अपने पास बचे हुये अंतिम धन का भी सदुपयोग कर लिया। उस रात सेठ जी बहुत गहरी निद्रा में सोये। दूसरे दिन जब नर्स उन्हें उठाने के लिये पहुँची तो देखा कि वे परलोक सिधार चुके थे।

47. श्रममेव जयते

मुंबई महानगर की एक चाल में रमेश एवं महेश नाम के दो भाई अपनी माँ के साथ रहते थे। रमेश अपनी पढ़ाई पूरी करके षासकीय सेवा में शिक्षक के पद पर चयन का इंतजार कर रहा था। वह बचपन से ही पढ़ाई में काफी होशियार था और शिक्षक बनना चाहता था। महेश का बचपन से ही शिक्षा के प्रति कोई रूझान नही था वह बमुश्किल ही कक्षा दसवीं तक पढ़ पाया था। वह क्या काम करता था इसकी जानकारी उसके घरवालों को भी नही थी परंतु उसे रूपये की तंगी कभी नही रहती थी।

एक दिन अचानक पुलिस उसे पकड़ कर ले गई। रमेश और उसकी माँ को थाने में पहुँचने पर पता चला कि वह एक पेशेवर जेबकतरा है। यह सुनकर उनके पाँव तले जमीन खिसक गई। वे महेश की जमानत कराकर वापस घर लौट आये। माँ ने उससे इतना ही कहा कि यदि तुम यहाँ रहना चाहते हो तो यह घृणित कार्य छोड़ दो। बेटा क्या कभी तुमने सोचा कि जिसक जेब काटी उसके वह रूपये किस काम के लिये थे, हो सकता है कि वह रूपये उसकी माँ के इलाज के लिये हों, उसकी महीने भर की कमाई हो या फिर उसकी त्वरित आवश्यकता के लिये हों। उन्होने नाराजगी व्यक्त करते हुये उससे बात करना भी बंद कर दिया।

महेश अपनी माँ और भाई से बहुत प्यार करता था। उनके इस बर्ताव से उसे अत्याधिक मानसिक वेदना हो रही थी। वह आत्मचिंतन हेतु मजबूर हो गया और इस नतीजे पर पहुँचा कि बिना मेहनत के आसानी से पैसा कमाने का यह तरीका अनुचित एवं निंदनीय है। उसने मन में दृढ़ संकल्प लिया कि अब वह यह काम नही करेगा बल्कि मेहनत से पैसा कमाकर सम्मानजनक जीवन जियेगा चाहे इसके लिये उसे छोटे से छोटा काम भी क्यों ना करना पड़े तो वह भी करेगा। दूसरे दिन से उसकी दिनचर्या बदल गयी थी, उसने एक चैराहे पर बूट पालिश का काम शुरू कर दिया था। यह जानकर उसकी माँ अत्यंत प्रसन्न हुयी और बोली कि कोई भी काम छोटा नही होता है। अपनी मेहनत एवं सम्मानजनक तरीके से कमाये हुये एक रूपये का मूल्य मुफ्त में प्राप्त सौ रूपये से भी अधिक रहता है।

48. लक्ष्मी जी का वास

एक धनवान व्यक्ति को स्वप्न में लक्ष्मी जी के साक्षात दर्शन हुये। वे भाव विभोर हो गये परंतु लक्ष्मी जी द्वारा यह कहने पर कि अब मैं तुम्हारे पास कुछ दिन की ही मेहमान हूँ फिर मैं विदा होकर दूसरे स्थान जा रही हूँ, उनके होश उड़ गये और वे हडबडाकर नींद से उठकर बैठ गये। वे दिनभर ऊहापोह की स्थिति में मनन करते रहे कि अब ऐसी परिस्थिति में क्या करना चाहिये। वे संशय की स्थिति में अपने पारिवारिक गुरू जी के पास जाते है और उन्हें सब बातों से अवगत कराकर उनसे मार्गदर्शन माँगते हैं। गुरू जी ने उनसे कहा कि लक्ष्मी जी विदा होने के पहले एक बार और अवश्य ही दर्शन देंगी तब तुम उनके पैर पकडकर कहना कि हे माँ जाने से पहले मेरे परिवार के ऊपर एक कृपा कर दीजिये हमें यह आशीर्वाद देकर जायें कि हमारे परिवार के सभी सदस्यों में आपस में प्रेम, सद्भाव, विश्वास एवं नैतिकता हमेशा बनी रहे।

कुछ समय पश्चात एक रात्रि पुनः स्वप्न में उसे लक्ष्मी जी के दर्शन हुये। लक्ष्मी जी ने विदा होने से पूर्व उसकी मनोकामना पूछी, तब उसने गुरूजी के कहे अनुसार उनके पाँव पकड़कर अपनी मनोकामना पूरी करने की प्रार्थना की । यह सुनकर लक्ष्मी जी ने मुस्कुरा कर कहा कि यह सब माँगकर तुमने मुझे रूकने पर विवश कर दिया है। जहाँ पर ये सब गुण होते है वहाँ पर ही मेरा वास रहता है किंतु एक बात का ध्यान रखना कि यदि तुम्हारे परिवार में लालच, बेईमानी, अनैतिकता आदि दुर्गुणों का प्रवेश हुआ तो मैं तुम्हें बिना बताये ही चुपचाप चली जाऊँगी।

49. नेता जी

एक दिन शहर के एक धार्मिक स्थल पर रात में किसी शरारती तत्व द्वारा गंदगी फेंक दी गई और अवांछनीय पोस्टर भी धर्मस्थल पर चिपका दिये गये। दूसरे दिन सुबह जब धर्मावलंबियों ने यह देखा तो वे आगबबूला हो गये और कु्रद्ध हो गये एवं दूसरे धर्म के धर्मावलंबियो पर यह निंदनीय कृत्य करने का आरोप लगाने लगे। दोनो धर्मावलंबियों के बीच देखते ही देखते वाद विवाद बढने लगा और आपस में मारपीट की स्थिति निर्मित होने लगी। उसी समय क्षेत्र के एक नेताजी दौड़े-दौड़े वहाँ पर आये और पूरा माजरा जानने के बाद दोनो पक्षों को समझाइश देने लगे एवं आपसी सद्भाव और एकता पर लंबा चौडा उद्बोधन दे दिया। इससे प्रभावित होकर दोनो पक्षों ने गंभीरतापूर्वक मनन किया की यह किसी शरारती तत्व द्वारा किया गया निंदनीय कृत्य है जिसका उद्देश्य दोनो समुदायों के बीच वैमनस्य फैलाना था। अब नेताजी ने वहाँ साफ सफाई कराकर दोनो पक्षों के बीच सौहार्दपूर्ण वातावरण बनाकर वहाँ से चले गए। वहाँ पर उपस्थित सभी लोग नेताजी की सक्रियता से बहुत प्रभावित थे। रात के अंधेरे में एक व्यक्ति चुपचाप अकेले नेताजी के घर आकर उन्हें बधाई देते हुए बोला कि आपका काम हो गया है। अब आपकी चुनाव में जीत सुनिश्चित है। नेताजी ने भी मुस्कुराकर उसे नोटो की गड्डी दी और अगले सप्ताह दूसरे मोहल्ले में ऐसा ही कृत्य करने का निर्देश दे दिया।

50. कैंसर – निराशा से बचें

डा. ईश्वरमुखी को मई 2018 में 85 वर्ष की अवस्था में कैंसर हो गया। जब रोग का पता लगा वह थर्ड स्टेज पर पहुँच चुका था परंतु अब वे पूर्ण स्वस्थ्य है। रोग होने से रोग ठीक होने तक की उनकी यात्रा उन लोगों के लिए एक मार्गदर्शन है जो कैंसर के नाम से ही निश्चित मृत्यु की कल्पना करने लगते है। हमारे प्रश्नो का सिलसिलेवार उत्तर देते हुए वे कहती है कि -

मानव जीवन स्वयं के शुभ कर्मों के फलस्वरूप प्राप्त होता है। जीवन में सकारात्मक भाव रखते हुए सुख और दुख को सहज भाव से लेना चाहिए। स्वयं के, परिवार के, समाज के, राष्ट्र के और मानवता के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन तत्परता से करना चाहिये। वे कैंसर से स्वस्थ्य होने के पश्चात जीवन को उसी प्रकार क्रियाशील रखना चाहती है जैसी पहले थी। बीमारी के दौरान कई बार निराशा की स्थिति बनती थी तब अपने चारों ओर दृष्टिपात करती थी और पाती थी कि मेरी स्थिति अनेक अन्य रोगियों से बेहतर हैं,यह बात बहुत सांत्वना देती थी।

पंचतत्वों से बनी इस काया में आत्मा का होना जीवन है और आत्मा का इसे छोड कर चले जाना मृत्यु है परंतु शारीरिक पीडा कम महत्वपूर्ण नही है। उस समय तो शरीर ही सब कुछ लगता है। रोग हमारी असावधानियों का परिणाम है। ये किसी पाप का फल नही है। कुछ रोग अनुवांशिक भी होते है। उन्हें असाध्य नही मानना चाहिए। उचित उपचार और संयम का सहारा लेकर, डाक्टर पर भरोसा रखते हुए मन में सकारात्मक भाव रखना चाहिए। सदैव प्रसन्न रहें, जीवन का पूर्ण आनंद लें। परोपकार, दान, सेवा आदि को अपने जीवन का आदर्श बनायें। इस रोग का रोगी बहुत सी विपरीत स्थितियों का सामना करता है। ऐसी स्थितियों में परिवारजनों को उसकी सेवा करना और आत्मबल बनाये रखना चाहियें। समाज का भी दायित्व है कि रोगी के आसपास निराशा का वातावरण न बनायें

85 वर्ष की अवस्था में मई 2018 के अंतिम सप्ताह में मुझे एक सप्ताह के टेस्ट के बाद बायप्सी कराने को कहा गया। दिल्ली में टेस्ट में पाया गया कि कैंसर रोग पेट में फैला था और थर्ड स्टेज पर पहुँच चुका था। पहली कीमो हुई तो तबीयत बिगड गयी और इमरजेंसी में शिफ्ट किया गया। दूसरी कीमो में कोई परेशानी नही हुई। सात बार ब्लड चढाना पडा। नवम्बर को मेरी अंतिम कीमो हुई और तब से अब तक दो बार टेस्ट हो चुके है और सब कुछ नार्मल है।

इस दौरान मुझे इंफेक्शन से बचाने के लिये अलग कमरे में रखा गया। सब लोगों से मिलने नही दिया गया। खाना ताजा और डाक्टर के निर्देशो के अनुसार दिया गया। मैं कोशिश करके प्रतिदिन 15 मिनिट व्यायाम और 15 मिनिट प्राणायाम करती रही। अब मैं बाहर आने जाने लगी हूँ। कुछ दवाइयाँ चल रही है। नियमित रूप से कच्ची हल्दी का रस शहद मिलाकर, जवारे का रस व गाजर चुकन्दर का सलाद सूप लेती हूँ। बच्चों की सेवा और प्यार से मैं स्वस्थ्य हूँ और आगे भी प्रभु से प्रार्थना है कि मुझे रोगमुक्त रखें।

51. आत्मा अमरधर्मा

श्री आर. आर सिंघई 85 वर्ष वन विभाग से सेवानिवृत्त है। उन्होंने जैन धर्म, सनातन धर्म, भक्ति साहित्य के साथ, अंग्रेजी साहित्य का भी गहन अध्ययन किया है। उनका व्यक्ति, परिवार और समाज के नैतिक उन्नयन पर चितंन एवं प्रयास अनुकरणीय है। उनका चिंतन है कि 85 वर्ष की आयु पार कर लेने के बाद अब ना जाने कितनी सांसे और बची है। वह किसी भी घंटे, सेंकेंड पर मृत्यु को प्राप्त हो सकते है किंतु मृत्यु का यह रहस्य आज तक किसी को ज्ञात नही हो सका है। शरीर मरण धर्मा है और आत्मा अमर है अर्थात जिस जिस ने जन्म लिया है उसका मरण अवश्यम्भावी है। मनुष्य जन्म प्राप्त होना बडी उपलब्धि है और उसे सार्थक बनाना महान उपलब्धि होती है। बुढापा एक बिन बुलाए मेहमान के समान है जो आता है तो अपने साथ लेकर ही जाता है। बुढापा जीवन का एक परिपक्व व मीठा फल है जिसमें ज्ञान की पूर्णता, अनुभव की मिठास, जीवन जीने की गहराई होती है। कई व्यक्तियों ने बुढापे में ही जीवन की महत्वपूर्ण सफलताएँ अर्जित की है अस्तु इसे अशक्ति, बीमारी और पराधीनता का अभिशाप न समझे और अपनी सोच सकारात्मक रखे। अपने परिवारजन, पुरजन एवं समाज से कुछ आशा अपेक्षा न रखें अन्यथा दुखी होना पडेगा।

भारतीय संस्कृति के अनुसार धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार पुरूषार्थ माने गए है। यदि मनुष्य धर्म के नियंत्रण में अर्थोपार्जन और काम अर्थात् अपनी इच्छाओं की पूर्ति करते हुए इस काल में भी मोक्ष मार्ग पर चल सकता है। गृहस्थ के लिए धन की आवश्यकता है, साधु का जीवन बिना धन के चल जाता है उसी में उसकी शोभा है। आज के इस अर्थ प्रधान युग में यह बात स्पष्ट हो गई है कि अर्थ है तो कुछ अर्थ है नही तो सब व्यर्थ है। युवाओं में शक्ति भंडार, आगे बढकर काम करने की रूचि और लक्ष्य तक पहुँचने का दृढ संकल्प रहता है परंतु उन्हें जोश में होश का ध्यान रखना चाहिए। मैं अपने आप में संतुष्ट हूँ और सुख शांति का अनुभव करता रहता हूँ। मेरा समाज के लिए संदेश है कि वह गुणों की उपासना करे, अपनी वाणी में मिठास रखे, उसके मन में पाप, दुष्कर्मों के प्रति शर्म हो, अपने आहार और विचारों में संतुलन और विवेक रखे। हमेशा अपने प्रति किये गये उपकारों और उपकारी को कभी न भूले और उनके प्रति कृतज्ञ बना रहे। यदि जीवन में यह आदर्शवादिता पा सके तो उसका जीवन आदर्श जीवन बन जायेगा।

वे अपने जीवन का एक संस्मरण बताते है कि सन् 1970 में प्रदेश के इंदौर संभाग में पदस्थ था, एक हैडकांस्टेबल और दो कांस्टेबल को लेकर वनों के औचक निरीक्षण को निकला। झाबुआ में एक स्थान पर वन में वृक्षों पर कुल्हाडियों के प्रहारों की आवाजें आने लगी तब जंगल में प्रवेश करके देखा तो करीब 40 से 50 आदिवासी सागौन, महुवा आदि वृक्षों को निर्भय होकर काट रहे थे। जैसे ही आरोपियों ने वन विभाग, पुलिस और जीप को देखा। वे सब पास की पहाडी की ओर भागने लगे। मेरे आदेश पर पुलिस ने हवाई फायर किया। वे शीघ्र ही पहाडी पर चढ गये। वहाँ पर उन्होंने अपने तीर कमान छिपा रखे थे। वे तीर बरसाने लगे। हम लोगों ने किसी प्रकार भागकर अपनी रक्षा की। वे पहाडी पर थे और उनकी संख्या अधिक थी। हम अपने काम में सफल नही हो सकते थे। वहाँ से आकर मैंने उच्चाधिकारियों को रिपोर्ट दी। अपनी वह असफलता मैं भूल नही पाता हूँ।

जैन धर्म का अनुयायी होने के कारण मैं पुनर्जन्म पर विश्वास करता हूँ। कर्म ही जगत की विविधता और जीवन की विषमता का जनक हैं। कर्म हम अपने मन, वाणी और शरीर की क्रियाओं से निरन्तर करते रहते है। जो जैसा करता है उसे वैसा ही फल भोगना पडता है। इस प्रकार जीव संसार रूपी चक्र में भ्रमण करता रहता है। अंत में मैं गांधी जी ने जो कहा था उसे बताना चाहता हूँ कि “ वैल्थ विदाऊट वर्क इन ए सिन“ और “ नालेज विदाऊट मारेलिटि इज ए सिन “ अर्थात् नैतिक और आध्यात्मि विकास के बिना यह प्रवृत्ति हमें पतन की ओर ले जाएगी। अंग्रेज कवि शैक्सपियर अपने प्रसिद्ध नाटक जूलिया सीजर में लिखता है “कावर्डस डाइ मैनी टाइम्स बिफोर द डेथ, बट ए ब्रेव मैन डाइज वन्स एंड वन्स फारएवर “।

52. कर्मफल

डा. श्याम शुक्ल 75 वर्ष, रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय जबलपुर में विभिन्न महत्वपूर्ण पदों पर कार्यरत रहे है। वे अभी भी भारतीय बाल कल्याण परिषद, नई दिल्ली एवं मध्यप्रदेश बाल कल्याण परिषद में भी विभिन्न पदों पर सक्रिय रूप से कार्यरत है। जीवन पर अपने विचार व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा कि जीव में चेतना का संचार ही जीवन है और चेतना का तिरोहण मृत्यु। चेतना की तीन श्रेणियाँ मानी गई हैं। भौतिक चेतना, शुद्ध चेतना और दिव्य चेतना।

भौतिक चेतना वह होती है जहाँ व्यक्ति केवल देह की सीमा तक स्थित होता है, शुद्ध चेतना व्यक्ति को बुद्धि और विवेक के साथ केवल आत्मा के आदेश पर आचरण और व्यवहार करवाती है और दिव्य चेतना व्यक्ति को विष्णुत्व और शिवत्व प्रदान करती है। मनुष्य भौतिक चेतना में रहकर अपना जीवन जीना चाहता है अथवा वह उसका विकास कर शुद्ध चेतना तक जाना चाहता है। यह उसके बुद्धि और विवेक पर निर्भर करता है। वे कहते है कि मैं अपने परिजनों के व्यवहार से संतुष्ट हूँ क्योंकि मैंने उनसे हमेशा सुसंस्कृत, मर्यादित एवं अनुकूल व्यवहार किया है। यह उसी का प्रतिफल है। वे अपने शेष जीवन का सदुपयोग पीड़ित मानवता की सेवा तथा बुराइयों के प्रति सामाजिक जागरण एवं स्वाध्याय में व्यस्त रहते हुए करना चाहते है।

जीवन और मृत्यु अपनी सोच और जीवन दर्शन से समाज को मार्गदर्शन के संबंध में उन्होंने कहा कि जीवन और मृत्यु के विषय में मेरी स्पष्ट धारणा है यह सनातन सत्य है कि यहाँ कोई अमर होकर नही आता। संसार में प्रतिदिन अनेकों जीवधारी मृत्यु को प्राप्त होते है लेकिन इनके लिए विलाप करने वाला कोई नही होता। केवल कुछ विरले ही ऐसे होते है जिनके अवसान से न केवल मन विचलित हो जाता है वरन् करूण हृदय आंसुओं के सागर में डूब जाता है। मेरा मानना है कि ऐसे ही लोग वास्तव में जीवन जीते है शेष अर्धमृत समान रहते है।

जीवन के अविस्मरणीय संस्मरण को बताते हुए उन्होंने कहा कि वर्ष 1974 में वे विश्वविद्यालय के मुद्रणालय अधीक्षक थे। उस समय वे एक प्रतिभावान विद्यार्थी के माध्यम से एक स्वामी जी के संपर्क में आये। स्वामी जी अनेक भाषाएँ धारा प्रवाह बोलते थे। स्वामी जी ने बतलाया कि वे फिल्म अभिनेता शिवकुमार के पिता है और उस युग के प्रसिद्ध अभिनेता प्रेमनाथ के आध्यात्मिक गुरू है। उन्होंने अपने तप के बल पर 19 वर्ष बाद प्रेमनाथ की फिल्मों में वापिसी कराई है। उनके सामने अनेक पत्रिकाएँ रखी थी जिनमें वे अनेक बडें अभिनेताओं और अभिनेत्रियों को आशीर्वाद देते हुए दिखलाए गये थे। उनको लगा कि वे स्वामी जी के माध्यम से फिल्मी दुनिया में प्रवेश कर सकते हैं।

एक दिन स्वामी जी ने मनोकामना व्यक्त की कि वे अतंर्राष्ट्रीय योग एवं आध्यात्मिक संस्थान जबलपुर में बनाना चाहते है। इस हेतु नर्मदा नदी के किनारे जिलहरी घाट में प्रेमनाथ जी की कुटी से लगी ढाई एकड जमीन पसंद की गई और इस कार्य को आगे बढाने के लिए म.प्र. के पाँच प्रमुख शहरों में फिल्म स्टार नाइट का आयोजन कर समुचित धन एकत्र कर लिया जाएगा। इस कार्य को आगे बढाने के लिए एक बैठक प्रेमनाथ जी के घर प्रेमबीना में स्वामी ओंकारानंद जी की अध्यक्षता में आयोजित की गई जिसमें सर्वसम्मति से संस्थान का नाम प्रेम विश्व आध्यात्मिक शांति संस्थान रखा गया। अभिनेता प्रेमनाथ, गायक किशोर कुमार की पत्नी रोमा गुहा ठाकुर एवं अभिनेत्री शमा दत्त संरक्षक बनाए गए। महारानी रीवा प्रवीण कुमारी की अध्यक्षता में एक कार्यकारिणी का गठन किया गया जिसमें शहर के गणमान्य जनो को शामिल किया गया। महारानी रीवा ने सहमति प्रदान की थी कि वे पचास हजार रूपये की राशि ऋण स्वरूप देंगी जो कि आयोजन बाद प्राप्त राशि में से उन्हें वापिस कर दी जायेगी। उन्होंने तत्कालीन शासकीय अधिकारियों से सहयोग प्राप्त करने का जिम्मा भी अपने ऊपर ले लिया।

श्याम शुक्ल जी प्रतिदिन आयोजन के सिलसिले में स्वामी जी से मिलने जाते थे। एक सप्ताह बाद स्वामी जी ने कहा कि वे फिल्मस्टार नाइट के आयोजन के संबंध में मुम्बई जाना चाहते है ताकि वे सिनेमा के बडे कलाकारों से संपर्क स्थापित करके उनकी सहमति प्राप्त कर सकें। उनकी आने जाने और ठहरने की सारी व्यवस्था मुझे करना थी। अभी धन एकत्र नही हुआ था और स्वामी जी ने बडा खर्चा बता दिया था। मैंने किसी तरह उनके ठहरने की व्यवस्था मुंबई स्थित महारानी रीवा की कोठी में उनकी सहमति से कर दी ताकि गाडी टेलीफोन आदि की सुविधा उपलब्ध रहे।

आयोजन के सिलसिले में मेरा आना जाना महारानी जी के पास होता रहता था। एक दिन जब मैं उनसे वार्तालाप कर रहा था तभी टेलीफोन पर किसी से हुई वार्तालाप के बाद उनका चेहरा क्रोध से तमतमाया हुआ था और उन्होंने बताया कि वह धूर्त साधु वहाँ कोठी में अर्मादित तथा असहज आचरण कर रहा है। वह वहाँ कुछ लोगों के साथ जिनमें महिलाएँ भी है शराबखोरी कर रहा हैं। यह सुनकर मैं हतप्रभ रह गया और यह कहकर कि उसे तत्काल कोठी से बाहर कर दें। मैं उनके निवास से आ गया और इस घटना के बाद से मैंने महारानी के पास जाना बंद कर दिया था।

एक दिन रात को 12 बजे महारानी जी का फोन आया। वे काफी क्रोध में थी। उन्होंने बतलाया कि हिन्दी ब्लिट्ज में एक समाचार छापा गया है जिससे उन सब की बदनामी हो रही है। दूसरे दिन मेरे मित्रों ने मुझे फोन पर तंज करना शुरू कर दिया कि क्यों भइया यह क्या करने लगे हो। मुझे अखबार दिखाया जिसके 15 वें पृष्ठ पर छपा था “जबलपुर में लड़कियों के व्यापार का रैकिट सक्रिय“। शमा दत्त के एक बडे फोटो के साथ आरोपियों में वे सभी नाम लिखे गये थे जो संस्थान हेतु गठित समिति में थे। उन दिनों मेरे विवाह की बात चल रही थी, जो टूट गयी। मैं आसमान से जमीन पर आ गिरा। निराशा और बदनामी से बाहर आने में मुझे काफी समय लगा। कुछ समय बाद हिन्दी ब्लिट्ज में हमारा स्पष्टीकरण प्रकाशित हुआ तब बडी मुश्किल इस मामले का पटाक्षेप हुआ।

उन्होंने कहा कि हमने भी कुछ ऐसे प्रसंग देखे है जिनमें एक बालक अपनी पूर्व जन्म की यादों को न केवल प्रस्तुत करता है वरन साक्ष्य के रूप में उन संबंधों तथा स्थानों का साक्षात्कार कराता है। इससे पुनर्जन्म की अवधारणा सम्पुष्ट होती है। समाज और शासन से उनकी अपेक्षाएं है कि संस्कारशील, प्रबुद्ध, समाज के निर्माण का प्रयास हर व्यक्ति को अपने स्तर पर करना चाहिए। समाज अपने आप अच्छा बनेगा।

53. जीवन का उत्तरार्ध

श्री कौशल किशोर अग्रवाल (80 वर्ष) जो कि एक व्यवसायी है, ने जीवन के संबंध में विचार, संभावनाओं, जीवन जीने की इच्छा एवं दृष्टिकोण की व्याख्या करते हुए बताया कि, न जाने क्यों ज्यों ज्यों उम्र बढ़ती है हम जिम्मेदारियों के बोझ तले दबते चले जाते है। मैंने भी कभी सपने संजोए थे कि जीवन के उत्तरार्ध में ऐसा जीवन जिऊँगा, वैसा जीवन जिऊँगा परंतु आज के वातावरण में सब कुछ तिरोहित हो गया। अब तो यही कामना है कि अंतिम चरण बिना किसी व्याधि या तकलीफ के व्यतीत हो। मेरा प्रयास है कि जीवन के इस पड़ाव में आकर कामनाएँ न्यूनतम हों, चित्त प्रवृत्तियाँ संयमित हों और काम, क्रोध, आशा, तृष्णा मुझ पर हावी न हो सकें। गोस्वामी तुलसीदास जी का पद है -

ममता तू न गई मेरे मन तें,

टूटे दसन वचन नही आवत, सोभा गई मुखन तें,

श्रवन वचन नहिं सुनत काहू के, जोति गई नैनन तें,

ममता तू न गई मेरे मन तें,

निष्क्रिय रहना मेरे स्वभाव में नही है इसलिये समय मिलने पर साहित्य पढ़ने में अपने आपको व्यस्त रखता हूँ। मेरी दृष्टि में इस उम्र में सही समय का सर्वोत्तम सदुपयोग यही है। मेरा सक्रिय रहने के पीछे एक मकसद और भी है - मैं नही चाहता मृत्यु मेरी प्रतीक्षा करे और ना ही मैं मृत्यु की। जब मेरा वक्त पूरा हो जायेगा तब वह स्वयं आ जायेगी और मैं उसका अभिनंदन करते हुए अपनी साँसों को उसे सौंप दूँगा। मेरे परिजनों एवं निकटवर्तियो में कुछ ना कुछ प्रतिक्रिया तो होगी ही -

साँस थमते ही अरे, ये क्यों मचा कोहराम है ?

प्रियजनों समझो जरा, कितना मुझे आराम है।

जीवन जहाँ है, वहाँ एक दिन मृत्यु भी अवश्य होगी अतः इससे डरने या घबराने में कोई लाभ नही हैं। मैं वर्तमान पीढ़ी से अपेक्षा करता हूँ कि वह कड़ी मेहनत, ईमानदारी और नैतिकता के पथ पर चलते हुए अपने व्यक्तित्व को प्रतिष्ठित कर अपना परिचय स्वयं बनाए और देशहित हेतु समर्पित रहें।

54. प्रभु दर्शन

डा. राजकुमार तिवारी ’सुमित्र’ (81 वर्ष) साहित्यिक, सांस्कृतिक गतिविधियों में प्राण-पण से सक्रिय व समर्पित रहते है। वे दैनिक नवीन दुनिया के पूर्व संपादक, दैनिक जयलोक के सलाहकार संपादक, महाकौशल हिंदी साहित्य सम्मेलन के कार्यकारी अध्यक्ष एवं कई संस्थाओं से जुडे हुये है। उनका मानना है कि मृत्यु अटल सत्य है किंतु अब जीवन सीमित है यह सोच, समय के पहले ही मृत्यु का आभास कराने लगती है और हम सकारात्मकता छोड़कर नकारात्मकता की ओर अनजाने में ही बढ़ जाते है। मेरे अनुसार हमारी दृष्टि सकारात्मक होना चाहिए और जीवन के प्रत्येक क्षण को महत्वपूर्ण मानते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से जीना चाहिए। इससे हमारे मन में ज्ञान की जिज्ञासा बढे़गी और हमें पढ़ने लिखने की ओर प्रेरित करेगी।

कुछ वर्ष पूर्व मैं अपनी बुआ एवं अन्य परिजनों के साथ चित्रकूट गया था। सायं हम लोग तैयार होकर होटल से बाहर निकले। अंधेरा उतर आया था। हम लोग सडक पर आकर आगे बढ़े कि बुआ ने आवाज दी- कहा देखो सड़क के उस पार झाँकी सजी है, चलो दर्शन कर लें। हम सब ने बालरूप राम, लक्ष्मण, जानकी के दर्शन किये, आरती की। उन्होंने मेरे सिर पर हाथ फेरा। वहाँ पीतवस्त्रधारी एक वृद्ध भी बैठे थे। दर्शन कर हम मुश्किल से पचास कदम आगे बढे होंगे तभी बुआ ने आवाज दी और कहा कि भैया झाँकी ? हम लोगों ने देखा- वहाँ कुछ नही था। प्रश्नाकुल मन लिये हम लोग प्रमोद वन के कार्यक्रम में गये। वहाँ से लौटकर फिर देखा, झाँकी की जगह कुछ नही था। सुबह जल्दी उठकर फिर देखा, एक दीवार थी, झोपडी या झाँकी का कोई निशान नही था। सोचा कि मंडली वाले होंगे। शाम तक पता चला कि उस वर्ष वहाँ एक भी मंडली नही आई थी। फिर झाँकी ? रात को चर्चा करते करते हम सब की आँखों से अश्रुपात हो रहा था। क्या प्रभु ने दर्शन दिये थे ? क्या झाँकी एक भ्रम थी ? क्या एक साथ पाँच व्यक्ति भ्रमित हो सकते है ? यह घटना अविश्वसनीय परंतु सत्य है। जीवन में अपेक्षाओं का अंत नही है परंतु जो कुछ भी हमें प्रभु कृपा से प्राप्त हुआ हो उसी में संतुष्ट रहना चाहिए और मन में यह भाव रखना चाहिए कि ईश्वर ने हमें हमारी आवश्यकताओं से अधिक ही प्रदान किया है। इससे हमें हमेशा संतुष्टि, सुख एवं तृप्ति का अनुभव होगा।

55. संघर्ष

श्री देवेन्द्र सिंह मैनी 84 वर्ष के हो चुकें है। उनका जन्म वर्तमान पाकिस्तान के पुंछ क्षेत्र में हुआ था। उनका कथन है कि वे अपने आप को बहुत भाग्यशाली मानते है कि उन्हे इतनी लंबी आयु ईश्वर ने दी है। वे अपने जीवन से बहुत संतुष्ट एवं प्रसन्न हैं। वे इसके लिए वाहे गुरू को धन्यवाद करते है। उन्हें कैंसर हो गया था जो कि थर्ड स्टेज पर पहुँच चुका था किंतु उन्होंने समाज सेवा के कार्य पूर्ण लगन एवं समर्पण के साथ करना नही छोडा था। वे अपनी बीमारी से संघर्ष करके सफल होकर आज पूर्णतया स्वस्थ्य है। जीवन और मृत्यु एक चक्र है। एक व्यक्ति जीवन को सफल और सार्थक कर सकता है यदि वह दूसरों के लिए जनहित के कार्य करता रहे, प्रसन्न रहे, कठिन परिश्रम करे और समाज की मदद के लिए हमेशा तत्पर रहे।

वे पुनर्जन्म पर विश्वास नही करते है। उनका कहना है कि लोगों का भला करो परंतु उनसे कोई अपेक्षा मत रखो। नौजवानों को यही सलाह है कि वे गंभीरतापूर्वक अध्ययन करे और जीवन का भरपूर आनंद ले। वे एक घटना के संबंध में बताते है कि जब वे 13 वर्ष के थे तभी उन्होने भारत पाकिस्तान के विभाजन की विभीषिका को देखा है। आजादी के पहले झेलम में उनका बहुत बडा लकडी का व्यवसाय था। सन् 1947 में उन्हें वह सब छोडकर बडी मुश्किल से दिल्ली होते हुए जबलपुर आना पडा। यहाँ आकर उन्होंने अपना व्यवसाय प्रारंभ किया। कठोर परिश्रम, ईमानदारी के साथ परिस्थितियों पर विजय प्राप्त की। उनके पाकिस्तान से भारत आने के बीच जो अमानवीयता, अनैतिकता, खूनखराबे का दृश्य दिखा वह आज भी उनके मानस पटल पर दस्तक देता है।