अवसान की बेला में - भाग ७ Rajesh Maheshwari द्वारा मनोविज्ञान में हिंदी पीडीएफ

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अवसान की बेला में - भाग ७

56. मानवीयता श्रेष्ठ धर्म

जबलपुर विकास प्राधिकरण के पूर्व अध्यक्ष और भारत सरकार में अस्सिटेंट सालिसिटर जनरल के पद पर अपनी सेवाएँ दे चुके श्री राशिद सुहैल सिद्दीकी ने जन्म और मृत्यु के संदर्भ में कहा कि मृत्यु एक शाश्वत सत्य है। पुनर्जन्म पर मेरा विश्वास नही है। ये दुनिया एक सराय है, जिसने भी यहाँ जन्म लिया है वह अपना समय बिताकर पुनः ब्रह्म में लीन हो जाता है। जीवन की सार्थकता इसी में है कि हम नैतिकता और ईमान के रास्ते पर चलते हुए जीवन व्यतीत करें।

स्माज का विकास तभी हो सकता हैं। जब आपस में भाईचारा एवं एकता रहेगी। प्रकाश का अर्थ है भौतिक और नैतिक विकास जो कि एक दूसरे के पूरक है। मैं अपने शेष जीवन को समाज की सेवा हेतु समर्पित करना चाहता हूँ। गरीबों को न्याय एवं सम्मान जीवन में मिल सके इसके लिए मैं सदैव प्रयत्नशील एवं समर्पित रहता हूँ। उन्होंने एक बहुत मार्मिक सत्य घटना के विषय में बताया कि हम लोग अयोध्या के रहने वाले हैं, मेरे दादा स्व. एजाज हुसैन वहाँ के जमींदार थे और आज भी हम लोगों की वहाँ जमीनें है। मेरे दादा के पास विभिन्न मंदिरों के महंत आया करते थे। हम लोग मंदिरों के लिये उनके माध्यम से कुछ जमीन दे दिया करते थे। आज भी हमारी भूमि पर अनेक मंदिर है। महंतों के साथ मेरे दादा के मित्रवत संबंध थे।

मेरे पिताजी जस्टिस एस.एस.ए सिद्दीकी सुप्रीम कोर्ट रजिस्ट्रार जनरल थे। उस समय के तत्कालीन चीफ जस्टिस व्यकंट चलैया द्वारा 6 दिसंबर के आंदोलन में बाबरी मस्ज्दि की मानिटरिंग की जबाबदारी मेरे पिताजी को सौपी गयी थी। मेरे दादा उस समय अयोध्या में थे। उनका विश्वास था कि अयोध्या में कैसी भी परिस्थितियाँ हो जाये उन्हें कोई हानि नही पहुँचेगी। उन्हें पुलिस महानिदेशक ने भी भरोसा दिलाया था कि आप निष्चिंत रहिए आपकी सुरक्षा की जवाबदारी हमारी है और मेरे दादा से रिवाल्वर ले लिया गया था। घर पर पाँच एक की गार्ड लगा दी गयी थी। हमारे स्टेट मैनेजर श्री दुर्गा यादव जिन्हें हम सब दुर्गाचाचा कहकर बुलाते थे। उनके अयोध्या छोडने के अनुरोध को भी मेरे दादाजी ने ठुकरा दिया।

6 दिसंबर को कार सेवकों में बहुत से असामाजिक तत्व भी घुस गये थे जिन्होंने हमारे घर पर हमला कर दिया। वहाँ पर तैनात पुलिस वाले तो भीड देखकर ही भाग गये। दुर्गा चाचा और उनके चार लडके लाठियों से उस भीड का मुकाबला करने लगे। उनके घायल हो जाने के उपरांत भीड ने मेरे दादा को लिहाफ में डालकर जिंदा जला दिया। हम लोगों को तभी इस दुर्घटना की खबर मिल चुकी थी और पूरा परिवार स्तब्ध था। उस समय मुख्य न्यायाधीश वेंकट चलैया ने पापा को बुलाया और दुख व्यक्त करते हुए कहा कि आप घर चले जाइये, मैं आपके स्थान पर किसी और को आपके कार्य पर लगा देता हूँ परंतु मेरे पापा नही माने और रात 12 बजे तक सर्वोच्च न्यायालय में रहे। हम लोग लगातार फोन कर रहे थे। मेरे पिताजी ने अपने कर्तव्य को पूरा किया और दूसरी ओर दुर्गा चाचा थे जिन्होने अपने प्राण की परवाह न करते हुए मेरे दादा की बचाने का हर संभव प्रयास किया। आज भी जब अयोध्या जाता हूँ तो आँखों के आगे दुर्गा चाचा आ जाते हैं। उनकी याद आते ही लगता है कि आज भी भारत में दुर्गा चाचा जैसे लोग है और बहुतायत से है पर राजनीति के गंदे खेल के आगे हम सब मजबूर है।

57. आत्मविश्वास

कुछ वर्षों पूर्व नर्मदा के तट पर एक नाविक रहता था। वह नर्मदा के जल में दूर-दूर तक सैलानियों को अपनी किश्ती में घुमाता था। यही उसके जीवन यापन का आधार था। वह नाविक बहुत ही अनुभवी, मेहनती, होशियार एवं समयानुकूल निर्णय लेने की क्षमता रखता था। एक दिन वह किश्ती को नदी की मझधार में ले गया। वहाँ पर ठंडी हवा के झोंकों एवं थकान के कारण वह सो गया। उसकी जब नींद खुली तो वह, यह देखकर भौंच्चका रह गया कि चारों दिशाओं में पानी के गहरे बादल छाए हुए थे। हवा के तेज झोंकों से किश्ती डगमगा रही थी। आँधी-तूफान के आने की पूरी संभावना थी। ऐसी विषम परिस्थिति को देखकर उसने अपनी जान बचाने के लिए किसी तरह किश्ती को एक टापू तक पहुँचाया और स्वयं उतरकर उसे एक रस्सी के सहारे बांध दिया। उसी समय अचानक तेज आँधी-तूफान और बारिश आ गई। उसकी किश्ती रस्सी को तोड़कर नदी के तेज बहाव में बहती हुई टूटकर टुकड़े-टुकड़े हो गयी।

नाविक यह देखकर दुखी हो गया और उसे लगा कि अब उसका जीवन यापन कैसे होगा ? वह चिंतित होकर वहीं बैठ गया। उसकी किश्ती टूट चुकी थी और उसका जीवन खतरे में था। चारों तरफ पानी ही पानी था। आंधी, तूफान और पानी के कारण उसे अपनी मौत सामने नजर आ रही थी। उसने ऐसी विषम परिस्थिति में भी साहस नही छोड़ा और किसी तरह संघर्ष करते हुये वह किनारे पहुँचा। उसकी अंतरात्मा में यह विचार आया कि नकारात्मक सोच में क्यों डूबे हुए हो ? जब आंधी, तूफान और पानी से बचकर किनारे आ सकते हो तो फिर इस निर्जीव किश्ती के टूट जाने से दुखी क्यों हो ? इस सृष्टि में प्रभु की सर्वश्रेष्ठ कृति मानव ही है, तुम पुनः कठोर परिश्रम से अपने आप को पुनर्स्थापित कर सकते हो।

यह विचार आते ही वह नई ऊर्जा के साथ पुनः किश्ती के निर्माण में लग गया। उसने दिनरात कड़ी मेहनत करके पहले से भी सुंदर और सुरक्षित नई किश्ती को बनाकर पुनः अपना काम शुरू कर दिया। वह मन ही मन सोचता था कि आँधी-तूफान मेरी किश्ती को खत्म कर सकते हैं परंतु मेरे श्रम एवं सकारात्मक सोच को खत्म करने की क्षमता उनमें नही हैं। मैंने आत्मविश्वास एवं कठिन परिश्रम द्वारा किष्ती का नवनिर्माण करके विध्वंस को सृजन का स्वरूप प्रदान किया है।

58. धन की महिमा

एक धनवान व्यक्ति था किन्तु वह बहुत कन्जूस था। एक बार उसने अपनी सारी सम्पत्ति को सुरक्षित रखने का एक उपाय सोचा। उसने अपना सब कुछ बेच दिया और सोने की एक बड़ी सिल्ली खरीद ली। उसने उसे दूर एक सुनसान जगह पर जमीन के भीतर छुपा दिया। अब वह प्रतिदिन उसे देखने जाने लगा। उसे देखकर वह संतुष्ट हो जाता और प्रसन्नता पूर्वक वापिस आ जाता था। उसके एक नौकर को उत्सुकता जागी कि उसका मालिक प्रतिदिन कहाँ जाता है। एक दिन उसने छुपकर उसका पीछा किया। उसने देखा कि मालिक एक जगह पर जाकर जमीन के भीतर कुछ खोदकर देख रहे हैं फिर उसे वैसा ही पूर कर वापिस लौट आए हैं। उनके आने के बाद वह वहाँ गया। उसने वहाँ खोदकर देखा। उसे वहाँ वह सोने की सिल्ली मिली। उसने उसे रख लिया और मिट्टी पूर कर वापिस आ गया।

अगले दिन वह कंजूस जब अपना धन देखने गया तो वहाँ कुछ भी नहीं था। यह देखकर वह रोने लगा। वह दुख में डूबा हुआ रोता हुआ घर वापिस आया। उसकी स्थिति पागलों सी हो गई थी। उसकी इस हालत को देखकर एक पड़ौसी ने इसका कारण पता किया और कारण पता लगने पर वह उस कंजूस से बोला- तुम चिन्ता मत करो। एक बड़ा सा पत्थर उठाकर उस स्थान पर रख दो। उसे ही अपनी सोने की सिल्ली मान लो। तुम उस सोने का उपयोग तो करना ही नहीं चाहते थे। इसलिये तुम्हारा रोना व्यर्थ है, तुम्हारे लिये तो उस पत्थर और सोने में कोई फर्क नहीं है।

59. चापलूसी

सेठ पुरूषोत्तमदास शहर के प्रसिद्ध उद्योगपति थे। जिन्होने कड़ी मेहनत एवं परिश्रम से अपने उद्योग का निर्माण किया था। उनका एकमात्र पुत्र राकेश अमेरिका से पढ़कर वापिस आ गया था और उसके पिताजी ने सारी जवाबदारी उसे सौंप दी थी। राजेश होशियार एवं परिश्रमी था, परंतु चाटुरिकता को नही समझ पाता था। वह सहज ही सब पर विश्वास कर लेता था। उसने उद्योग के संचालन में परिवर्तन लाने हेतू उस क्षेत्र के पढ़े लिखे डिग्रीधारियों की नियुक्ति की, उसके इस बदलाव से पुराने अनुभवी अधिकारीगण अपने को उपेक्षित महसूस करने लगे। नये अधिकारियों ने कारखाने में नये उत्पादन की योजना बनाई एवं राकेश को इससे होने वाले भारी मुनाफे को बताकर सहमति ले ली। इस नये उत्पादन में पुराने अनुभवी अधिकारियों को नजरअंदाज किया गया।

इस उत्पादन के संबंध में पुराने अधिकारियों ने राकेश को आगाह किया था कि इन मशीनो से उच्च गुणवत्ता वाले माल का उत्पादन करना संभव नही है। नये अधिकारियों ने अपनी लुभावनी एवं चापलूसी पूर्ण बातों से राकेश को अपनी बात का विश्वास दिला दिया। कंपनी की पुरानी साख के कारण बिना सेम्पल देखे ही करोंडो का आर्डर बाजार से प्राप्त हो गया। यह देख कर राकेश एवं नये अधिकारीगण संभावित मुनाफे को सोचकर फूले नही समा रहे थे।

जब कारखाने में इसका उत्पादन किया गया तो माल उस गुणवत्ता का नही बना जो बाजार में जा सके। सारे प्रयासों के बावजूद भी माल वैसा नही बन पा रहा था जैसी उम्मीद थी और नये अधिकारियों ने भी अपने हाथ खड़े कर दिये थे। उनमें से कुछ ने तो यह परिणाम देखकर नौकरी छोड़ दी। राकेश अत्यंत दुविधापूर्ण स्थिति में था। यदि अपेक्षित माल नही बनाया गया तो कंपनी की साख पर कलंक लग जाएगा। अब उसे नये अधिकारियों की चापलूसी भरी बातें कचोट रही थी।

राकेश ने इस कठिन परिस्थिति में भी धैर्य बनाए रखा तथा अपने पुराने अधिकारियों की उपेक्षा के लिए माफी माँगते हुए, अब क्या किया जाए इस पर विचार किया। सभी अधिकारियों ने एकमत से कहा कि कंपनी की साख को बचाना हमारा पहला कर्तव्य है अतः इस माल के निर्माण एवं समय पर भेजने हेतु हमें उच्च स्तरीय मशीनरी की आवश्यकता है, अगर यह ऊँचे दामों पर भी मिले तो भी हमें तुरंत उसे खरीदना चाहिये। राकेश की सहमति के उपरांत विदेशो से सारी मशीनरी आयात की गई एवं दिनरात एक करके अधिकारियो एवं श्रमिकों ने माल उत्पादन करके नियत समय पर बाजार में पहुचा दिया।

इस सारी कवायद से कंपनी को मुनाफा तो नही हुआ परंतु उसकी साख बच गई जो कि किसी भी उद्योग के लिये सबसे महत्वपूर्ण बात होती है। राकेश को भी यह बात समझ आ गई कि अनुभव बहुत बड़ा गुण है एवं चापलूसी की बातों में आकर अपने विवेक का उपयोग न करना बहुत बड़ा अवगुण है और हमें अपने पुराने अनुभवी व्यक्तियों को कभी भी नजर अंदाज नही करना चाहिये क्योंकि व्यवसाय का उद्देश्य केवल लाभ कमाना नही होता यदि व्यवसाय को भावना से जोड़ दिया जाये तो इसका प्रभाव और गहरा होता है।

60. आदमी और संत

नर्मदा नदी के तट पर एक महात्मा जी रहते थे। उनके एक शिष्य ने उनसे निवेदन किया कि मुझे आपकी सेवा करते हुये दस वर्षों से भी अधिक समय हो गया है और आपके द्वारा दी हुई शिक्षा भी अब पूर्णता की ओर है। मैं भी अब संत होना चाहता हूँ और आपके आशीर्वाद की अपेक्षा रखता हूँ महात्मा जी ने मुस्कुराकर कहा - पहले इंसान बनने का गुण समझो फिर संत बनने की अपेक्षा करना। इंसान का गुण है कि धर्म, कर्म, दान के प्रति मन में श्रद्धा का भाव रखे। उसके हृदय में परोपकार एवं सेवा के प्रति समर्पण रहे। ऐसे सद्पुरूष की वाणी मे मिठास एवं सत्य वचन के प्रति समर्पण हो। उसका चिंतन सकारात्मक एवं सदैव आशावादी रहे। वह जुआ, सट्टा व परस्त्रीगमन से सदैव दूर रहते हुये अपने पूज्यों के प्रति आदर का भाव रखता हो। ऐसा चरित्रवान व्यक्ति क्रोध, लोभ एवं पापकर्मों से दूर रहे। जीवन में विद्या ग्रहण एवं पुण्य लाभ की हृदय से अभिलाषा रखे एवं अपने गुणों पर कभी अभिमान न रखे। इन गुणों से मानव इंसान कहलाता है।

संत बनने के लिये पुण्य की भावना, पतित-पावन की सेवा, उनकी मुक्ति की कामना जीवन का आधार रहे। मन में सद्विचार पर्वत के समान ऊँचे एवं सागर की गहराई के समान गंभीर हों। वह अपने भाग्य का स्वयं निर्माता बनने की क्षमता रखे तथा आत्मा को ही अपना सर्वोत्तम साथी रखे। उसके कर्मों का फल उसकी आत्मा को पाप और पुण्य का अहसास कराने की शक्ति उत्पन्न कर दे। सत्य से बड़ा धर्म नही, झूठ से बड़ा पाप नहीं, इसको वह जीवन का सूत्र बना ले। आत्म बोध सदा उपकारी मित्र होता है, इसे अंतर आत्मा में आत्मसात् करे। वह कामना ही मन में संकल्प को जन्म देती है और लोकसेवा से ही जीवन सार्थक होता है, इसे वास्तविक अर्थों में अपने जीवन में अंगीकार करें। इतने गुणों से प्राप्त सुकीर्ति संत की पदवी देती है। मैंने तुम्हें इंसान और संत बनने की बातें बता दी हैं। अब तुम अपनी राह अपने मनन और चिंतन से स्वयं चुनो। यह कहकर महात्मा जी नर्मदा में स्नान करने हेतु चले गये। इतना सुनने के बाद वह शिष्य पुनः महात्मा जी की सेवा में लग गया।

61. प्रायश्चित

एक कस्बे में एक गरीब महिला जिसे आँखो से कम दिखता था, भिक्षा माँगकर किसी तरह अपना जीवन यापन कर रही थी। एक दिन वह बीमार हो गई, किसी दयावान व्यक्ति ने उसे इलाज के लिये 500रू का नोट देकर कहा कि माई इससे दवा खरीद कर खा लेना। वह भी उसे आशीर्वाद देती हई अपने घर की ओर बढ़ गई। अंधेरा घिरने लगा था, रास्ते में एक सुनसान स्थान पर दो लड़के शराब पीकर ऊधम मचा रहे थे। वहाँ पहुँचने पर उन लड़को ने भिक्षापात्र में 500रू का नोट देखकर शरारतवश वह पैसा अपने जेब में डाल लिया, महिला को आभास तो हो गया था पर वह कुछ बोली नही और चुपचाप अपने घर की ओर चली गई।

सुबह दोनो शरारती लड़को का नशा उतर जाने पर वे अपनी इस हरकत के लिये शर्मिंदा महसूस कर रहे थे। वे शाम को उस भिखारिन को रूपये वापस करने के लिये इंतजार कर रहे थे। जब वह नियत समय पर नही आयी तो वे पता पूछकर उसके घर पहुँचे जहाँ उन्हें पता चला कि रात्रि में उसकी तबीयत अचानक बिगड़ गयी और दवा न खरीद पाने के कारण वृद्धा की मृत्यु हो गई थी। यह सुनकर वे स्तब्ध रह गये कि उनकी एक शरारत ने किसी की जान ले ली थी। इससे उनके मन में स्वयं के प्रति घृणा और अपराधबोध का आभास होने लगा।

उन्होने अब कभी भी शराब न पीने की कसम खाई और शरारतपूर्ण गतिविधियों को भी बंद कर दिया। उन लडकों में आये इस अकस्मात और आश्चर्यजनक परिवर्तन से उनके माता पिता भी आश्चर्यचकित थे। जब उन्हें वास्तविकता का पता हुआ तो उन्होने हृदय से मृतात्मा के प्रति श्रद्धांजलि व्यक्त करते हुये अपने बच्चों को कहा कि तुम जीवन में अच्छे पथ पर चलो और वक्त आने पर दीन दुखियों की सेवा करने से कभी विमुख न होओ, यहीं तुम्हारे लिये सच्चा प्रायश्चित होगा।

62. सेवा

एक दिन विभिन्न रंगों के फूलों से लदी हुयी झाडी पर एक चिडिया आकर बैठी और फूलों से बोली तुम लोग कैसे मूर्ख हो कि अपना मकरंद भंवरों को खिला देते हो। वह अपना पेट भरके तुम्हें बिना कुछ दिये ही उड जाता है। फूलों ने मुस्कुराकर कहा कि कुछ देकर उसके बदले में कुछ लेना तो व्यापारियों का काम है। निस्वार्थ भाव से किया गया कार्य ही सच्ची सेवा एवं त्याग है। यही जीवन का उद्देश्य होना चाहिये कि दूसरों के लिये काम आने में ही जीवन की सार्थकता हैं।