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अवसान की बेला में - भाग २

6. हार-जीत

सुमन दसवीं कक्षा में एक अंग्रेजी माध्यम की शाला में अध्ययन करती थी। वह पढ़ाई के साथ-साथ खेलकूद में भी गहन रूचि रखती थी और लम्बी दूरी की दौड़ में हमेशा प्रथम स्थान पर ही आती थी। उसको क्रीड़ा प्रशिक्षक, प्रशिक्षण देकर यह प्रयास कर रहे थे कि वह प्रादेशिक स्तर पर भाग लेकर शाला का नाम उज्ज्वल करे। इसके लिये उसके प्राचार्य, शिक्षक, अभिभावक और उसके मित्र सभी उसे प्रोत्साहित करते थे। वह एक सम्पन्न परिवार की लाड़ली थी। वह क्रीड़ा गतिविधियों में भाग लेकर आगे आये इसके लिये उसके खान-पान आदि का ध्यान तो रखा ही जाता था उसे अच्छे व्यायाम प्रशिक्षकों का मार्गदर्शन दिये जाने की व्यवस्था भी की गई थी। उसके पिता सदैव उससे कहा करते थे कि मन लगाकर पढ़ाई के साथ-साथ ही खेल कूद में भी अच्छी तरह से भाग लो तभी तुम्हारा सर्वांगीण विकास होगा। सुमन की कक्षा में सीमा नाम की एक नयी लड़की ने प्रवेश लिया। वह अपने माता-पिता की एकमात्र सन्तान थी और एक किसान की बेटी थी। वह गाँव से अध्ययन करने के लिये शहर में आयी थी। उसके माता-पिता उसे समझाते थे कि बेटी पढ़ाई-लिखाई जीवन में सबसे आवश्यक होती है। यही हमारे भविष्य को निर्धारित करती है एवं उसका आधार बनती है। तुम्हें क्रीड़ा प्रतियोगिताओं में भाग लेने से कोई नहीं रोकता किन्तु इसके पीछे तुम्हारी शिक्षा में व्यवधान नहीं आना चाहिए।

एक बार शाला में खेलकूद की गतिविधियों में सुमन और सीमा ने लम्बी दौड़ में भाग लिया। सुमन एक तेज धावक थी। वह हमेशा के समान प्रथम आयी और सीमा द्वितीय स्थान पर रही। प्रथम स्थान पर आने वाली सुमन से वह काफी पीछे थी। कुछ दिनों बाद ही दोनों की मुलाकात शाला के पुस्तकालय में हुई। सुमन ने सीमा को देखते ही हँसते हुए व्यंग्य पूर्वक तेज आवाज में कहा- सीमा मैं तुम्हें एक सलाह देती हूँ तुम पढ़ाई लिखाई में ही ध्यान दो। तुम मुझे दौड़ में कभी नहीं हरा पाओगी। तुम गाँव से आई हो। अभी तुम्हें नहीं पता कि प्रथम आने के लिये कितना परिश्रम करना पड़ता है। तुम नहीं जानतीं कि एक अच्छा धावक बनने के लिये किस प्रकार के प्रशिक्षण एवं अभ्यास की आवश्यकता होती है। मेरे घरवाले पिछले पाँच सालों से हजारों रूपये मेरे ऊपर खर्च कर रहे हैं और मैं प्रतिदिन घण्टों परिश्रम करती हूँ तब जाकर प्रथम स्थान मिलता है। यह सब तुम्हारे और तुम्हारे परिवार के लिये संभव नहीं है इसलिये अच्छा होगा कि तुम अपने आप को पढ़ाई-लिखाई तक ही सीमित रखो। इतना कहकर वह सीमा की ओर उपेक्षा भरी दृष्टि से देखती हुई वहाँ से चली गई।

सीमा एक भावुक लड़की थी उसे सुमन की बात कलेजे तक चुभ गई। इस अपमान से उसकी आँखों में आंसू छलक उठे। घर आकर उसने अपने माता-पिता दोनों को इस बारे में विस्तार से बताया। पिता ने उसे समझाया- बेटा! जीवन में शिक्षा का अपना अलग महत्व है। खेलकूद प्रतियोगिताएं तो औपचारिकताएं हैं। मैं यह नहीं कहता कि तुम खेलकूद में भाग मत लो किन्तु अपना ध्यान पढ़ाई में लगाओ और अच्छे से अच्छे अंकों से परीक्षाएं पास करो। तुम्हारी सहेली ने घमण्ड में आकर जिस तरह की बात की है वह उचित नहीं है लेकिन उसने जो कहा है वह ध्यान देने लायक है। तुम हार-जीत की परवाह किए बिना खेलकूद में भाग लो और अपना पूरा ध्यान अपनी शिक्षा पर केन्द्रित करो। उसकी माँ भी यह सब सुन रही थी। उसने सीमा के पिता से कहा- पढ़ाई-लिखाई तो आवश्यक है ही साथ ही खेलकूद भी उतना ही आवश्यक होता है। इसमें भी कोई आगे निकल जाए तो उसका भी तो बहुत नाम होता है। सीमा के पिता को उसकी माँ की बात अनुचित लगी। वह भी सीमा को बहुत चाहते थे। उनकी अभिलाषा थी कि बड़ी होकर वह बड़ी अफसर बने। सीमा दोनों की बातें ध्यान पूर्वक सुन रही थी। उसकी माँ ने उससे कहा- दृढ़ इच्छा शक्ति और कठोर परिश्रम से सभी कुछ प्राप्त किया जा सकता है।

सीमा अगले दिन से ही गाँव के एक मैदान में जाकर सुबह दौड़ का अभ्यास करने लगी। वह प्रतिदिन सुबह जल्दी उठ जाती और दैनिक कर्म करने के बाद दौड़ने चली जाती। एक दिन जब वह अभ्यास कर रही थी तो वह गिर गई जिससे उसके घुटने में चोट आ गई। वह कुछ दिनों तक अभ्यास नहीं कर सकी, इसका उसे बहुत दुख था और वह कभी-कभी अपनी माँ के सामने रो पड़ती थी। जब उसकी चोट ठीक हो गई तो उसने फिर अभ्यास प्रारम्भ कर दिया। अब वह और भी अधिक मेहनत के साथ अभ्यास करने लगी। वह उतनी ही मेहनत पढ़ाई में भी कर रही थी। इसके कारण उसे समय ही नहीं मिलता था। वह बहुत अधिक थक भी जाती थी। उसके माता-पिता दोनों ने यह देखा तो उन्होंने यह सोचकर कि विद्यालय आने-जाने के लिये गाँव से शहर आने-जाने में उसका बहुत समय बरबाद होता है। उन्होंने उसके लिये शहर में ही एक किराये का मकान लेकर उसके रहने और पढ़ने की व्यवस्था कर दी। शहर में उसके साथ उसकी माँ भी रहने लगी। इससे उसके पिता को गाँव में अपना कामकाज देखने में बहुत परेशानी होने लगी किन्तु उसके बाद भी उन्हें संतोष था क्योंकि उनकी बेटी का भविष्य बन रहा था।

शहर आकर सीमा जिस घर में रहती थी उससे कुछ दूरी पर एक मैदान था। लोग सुबह-सुबह उस मैदान में आकर दौड़ते और व्यायाम करते थे। सीमा ने भी अपना अभ्यास उसी मैदान में करना प्रारम्भ कर दिया। एक बुजुर्ग वहाँ मारनिंग वाक के लिये आते थे। वे सीमा को दौड़ का अभ्यास करते देखते थे। अनेक दिनों तक देखने के बाद वे उसकी लगन और उसके अभ्यास से प्रभावित हुए। एक दिन जब सीमा अपना अभ्यास पूरा करके घर जाने लगी तो उन्होंने उसे रोक कर उससे बात की। उन्होंने सीमा के विषय में विस्तार से सभी कुछ पूछा। उन्होंने अपने विषय में उसे बतलाया कि वे अपने समय के एक प्रसिद्ध धावक थे। उनका बहुत नाम था। वे पढ़ाई-लिखाई में औसत दर्जे के होने के कारण कोई उच्च पद प्राप्त नहीं कर सके। समय के साथ दौड़ भी छूट गई। उन्होंने सीमा को समझाया कि दौड़ के साथ-साथ पढ़ाई में उतनी ही मेहनत करना बहुत आवश्यक है। अगले दिन से वे सीमा को दौड़ की कोचिंग देने लगे। उन्होंने उसे लम्बी दौड़ के लिये तैयार करना प्रारम्भ कर दिया शाला में प्रादेशिक स्तर पर भाग लेने के लिये चुने जाने हेतु अंतिम प्रतियोगिता का आयोजन किया गया था। इसमें 1500 मीटर की दौड़ में प्रथम आने वाले को प्रादेशिक स्तर पर भेजा जाना था। प्रतियोगिता जब प्रारम्भ हो रही थी सुमन ने सीमा की ओर गर्व से देखा। सुमन पूर्ण आत्मविश्वास से भरी हुई थी और उसे पूरा विश्वास था कि यह प्रतियोगिता तो वह ही जीतेगी। सुमन और सीमा दोनों के माता-पिता भी दर्शक दीर्घा में उपस्थित थे। व्हिसिल बजते ही दौड़ प्रारम्भ हो गई।

सुमन ने दौड़ प्रारम्भ होते ही अपने को बहुत आगे कर लिया था। उसके पैरों की गति देखकर दर्षक उत्साहित थे और उसके लिये तालियाँ बजा-बजा कर उसका उत्साह बढ़ा रहे थे। सीमा भी तेज दौड़ रही थी किन्तु वह दूसरे नम्बर पर थी। वह एक सी गति से दौड़ रही थी। 1500 मीटर की दौड़ थी। प्रारम्भ में सुमन ही आगे रही लेकिन आधी दौड़ पूरी होते-होते तक सीमा ने सुमन की बराबरी कर ली। वे दोनों एक दूसरे की बराबरी से दौड़ रहे थे। कुछ दर्शक सीमा को तो कुछ सुमन को प्रोत्साहित करने के लिये आवाजें लगा रहे थे। सुमन की गति धीरे-धीरे कम हो रही थी जबकि सीमा एक सी गति से दौड़ती चली जा रही थी। जब दौड़ पूरी होने में लगभग 100 मीटर रह गये तो सीमा ने अपनी गति बढ़ा दी। उसकी गति बढ़ते ही सुमन ने भी जोर मारा। वह उससे आगे निकलने का प्रयास कर रही थी लेकिन सीमा लगातार उससे आगे होती जा रही थी। दौड़ पूरी हुई तो सीमा प्रथम आयी थी। सुमन उससे काफी पीछे थी। वह द्वितीय आयी थी। सीमा की सहेलियाँ मैदान में आ गईं थी वे उसे गोद में उठाकर अपनी प्रसन्नता जता रही थीं। वे खुशी से नाच रही थीं। मंच पर प्राचार्य जी आये और उन्होंने सीमा की विजय की घोषणा की। सीमा अपने पिता के साथ प्राचार्य जी के पास पहुँची और उसने उनसे बतलाया कि वह प्रादेशिक स्तर पर नहीं जाना चाहती है। उसकी बात सुनकर प्राचार्य जी और वहाँ उपस्थित सभी लोग आश्चर्यचकित हो गये थे। प्राचार्य जी ने उसे समझाने का प्रयास किया किन्तु वह टस से मस नहीं हुई।

सीमा ने उनसे कहा कि वह आईएएस या आईएफएस बनना चाहती है। इसके लिये उसे बहुत पढ़ाई करने की आवश्यकता है। दौड़ की तैयारियों के कारण उसकी पढ़ाई प्रभावित होती है इसलिये वह प्रादेशिक स्तर पर नहीं जाना चाहती। अन्त में प्राचार्य जी स्वयं माइक पर गये और उन्होंने सीमा के इन्कार के विषय में बोलते हुए सुमन को विद्यालय की ओर से प्रादेशिक स्तर पर भेजे जाने की घोषणा की। यह सुनकर सुमन सहित वहाँ पर उपस्थित सभी दर्शक भी अवाक रह गये। सुमन सीमा के पास आयी और उसने पूछा कि तुमने ऐसा क्यों किया। सीमा उसे भी वही बतलाती है जो उसने प्राचार्य से कही थी। उसने सुमन को एक ओर ले जाकर उससे कहा कि मेरा उद्देश्य क्रीड़ा प्रतियोगिता में आने का नहीं था वरन मैं तुम्हें बताना चाहती थी समय सदैव एक सा नहीं होता। कल तुम प्रथम स्थान पर थी आज मैं हूँ कल कोई और रहेगा। उस दिन पुस्तकालय में तुमने जो कुछ कहा था उसे तुम मित्रता के साथ भी कह सकती थी किन्तु तुमने मुझे नीचा दिखाने का प्रयास किया था जो मुझे खल गया था। मेरी हार्दिक तमन्ना है कि तुम प्रादेशिक स्तर पर सफलता प्राप्त करो।

नियत तिथि पर सुमन स्टेशन पर प्रतियोगिताओं में भाग लेने जाने के लिये उपस्थित थी। विद्यालय की ओर से प्राचार्य और आचार्यों सहित उसके अनेक साथी एवं उसके परिवार के लोग भी उसे विदा करने के लिये आये हुए थे। सुमन सभी से मिल रही थी और सभी उसे शुभकामनाएं दे रहे थे किन्तु उसकी आँखें भीड़ में सीमा को खोज रही थीं। ट्रेन छूटने में चंद मिनिट ही बचे थे तभी सुमन ने देखा कि सीमा तेजी से प्लेटफार्म पर उसकी ओर चली आ रही है। वह भी सब को छोड़कर उसकी ओर दौड़ गई। सीमा ने उसे शुभकामनाओं के साथ गुलदस्ता भेंट किया तो सुमन उससे लिपट गई। दोनों की आँखों में प्रसन्नता के आंसू थे।

7. दृढ़ संकल्प

ठंड से ठिठुरती हुयी, घने कोहरे से आच्छादित रात्रि के अंतिम प्रहर में एक मोटरसाइकिल पर सवार नवयुवक अपने घर वापिस जा रहा था, उसे एक चैराहे पर कचरे के ढ़ेर में से किसी नवजात बच्चे के रूदन की आवाज सुनाई दी। जिसे सुनकर वह स्तब्ध होकर रूककर उस ओर देखने लगा, वह यह देखकर अत्यंत भावुक हो गया कि एक नवजात लडकी को किसी ने कचरे के ढ़ेर में फेंक दिया है। अब उस नवयुवक के भीतर द्वंद पैदा हो गया कि इसे उठाकर किसी सुरक्षित जगह पहुँचाया जाए या फिर इसे इसके भाग्य के भरोसे छोड दिया जाए। इस अंतद्र्वंद में उसकी मानवीयता जागृत हो उठी और उसने उस बच्ची को उठाकर अपने सीने से लगा लिया और उसे तुरंत नजदीकी अस्पताल ले गया। वहाँ पर उपस्थित चिकित्सक से उसने अनुरोध किया कि आप इस नवजात षिषु की जीवन रक्षा हेतु प्रयास करें यह मुझे नजदीक ही कचरे के ढ़ेर में मिला है। इसकी चिकित्सा का संपूर्ण खर्च मैं वहन करने के लिए तैयार हूँ। यह सुनकर डाॅक्टर उस नवजात को गहन चिकित्सा कक्ष में रखकर इसकी सूचना नजदीकी पुलिस थाने में दे दी।

कुछ समय पष्चात पुलिस के दो हवलदार आकर उस नवयुवक जिसका नाम राकेष था, उससे कागजी खानापूर्ति कराकर अपनी सहानुभूति व्यक्त करते हुए उसकी प्रषंसा करते हुए चले जाते है। दूसरे दिन सुबह राकेष अपने घर पहुँचता है और अपने माता पिता को रात की घटना की संपूर्ण जानकारी देता है। जिसे सुनकर उसके माता पिता भी स्तब्ध रह जाते है और कहते है कि आज ना जाने मानवीयता कहाँ खो गयी है। वे राकेष की प्रषंसा करते हुए कहते है कि तुमने बहुत नेक काम किया है। वह नवजात बच्ची जीवन और मृत्यु के बीच संघर्ष करते हुए अंततः प्रभु कृपा से बच जाती है। उस बच्ची को देखने के लिए राकेष के माता पिता भी अस्पताल पहुँचते है। वे उस लड़की का मासूम चेहरा देखकर भावविह्ल हो उठते है और आपस में निर्णय लेते है कि अपने परिवार के सदस्य की तरह ही उसका पालन पोषण करेंगें। इस संबंध में राकेष सभी कानूनी कार्यवाही पूरी कर लेता है। वे बच्ची का नाम किरण रख देते है। कुछ वर्ष पष्चात राकेष के माता पिता उसके ऊपर षादी के लिए दबाव डालने लगते है। यह सब देखकर राकेष एक दिन स्पष्ट तौर पर उन्हें बता देता है कि वह षादी नही करना चाहता और सारा जीवन इस बच्ची के पालन पोषण और उज्जवल भविष्य हेतु समर्पित करना चाहता है। राकेष की इस जिद के आगे उसके माता पिता भी हार मान गये।

किरण धीरे धीरे बडी होने लगती है और अत्यंत प्रतिभावान और मेधावी छात्रा साबित होती है। कक्षा बारहवीं प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण करने के पष्चात वह उच्च षिक्षा के साथ साथ राकेष के पैतृक व्यवसाय दुग्ध डेरी का कार्य भी संभालने लगती है और अपनी कडी मेहनत और सूझबूझ से अपने व्यवसाय को बढाकर उसे षहर के सबसे बडे डेयरी फार्म के रूप में विकसित कर देती है। समय धीरे धीरे व्यतीत हो रहा था और राकेष के मन में किरण के विवाह की चिंता सता रही थी। एक दिन उसने अपने इन विचारों को किरण के सामने रखा और किरण ने आदरपूर्वक उन्हें बताया कि अभी उसने विवाह के विषय में कोई चिंतन नही किया है। अभी फिलहाल मेरा सारा ध्यान आपकी सेवा और पढाई एवं व्यवसाय की उन्नति के प्रति है। इस के बाद भी राकेष ने कई बार इस बारे में बात करने का प्रयाास किया परंतु हर बार किरण उसे वही जवाब देकर इस विषय को टाल देती थी।

समय ऐेसे ही निर्बाध गति से आगे बढ रहा था परंतु एक दिन अचानक ही हृदयाघात से राकेष की मृत्यु हो जाती है। यह देखकर किरण स्तब्ध और किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाती है और अत्यंत गमगीन माहौल में वह स्वयं अपने पिता का अंतिम संस्कार करने का निर्णय लेती है। कुछ दिनों बाद सारे सामाजिक कर्मकांडों से निवृत्त होकर वह एक दिन राकेष के लाॅकरों को बंद करने के लिए बैंक जाती है और उन लाॅकरों में उसे फाइलों के सिवा कुछ नही मिलता है। वह सारी औपचारिकताएँ पूरी करके उन फाइलों को घर ले आती है। उसी दिन रात्रि में वह उन फाइलों केा देखती है और पढने के बाद स्तब्ध रह जाती है कि वह राकेष की सगी बेटी नह़ी है बल्कि कचरे के ढेर में मिली एक लावारिस बच्ची है जिसे राकेष ने अपनी बेटी के समान पाल पोसकर बडा किया और वह सुखी रह,े इसलिए षादी भी नही की। राकेष के त्याग, समर्पण व स्नेह की यादें लगातार उसके मन में आती रही और सारी रात वह इन्ही विचारों में खोयी रही।

उन स्मृतियों केा चिरकाल तक स्थायी रखने के लिये षहर में एक सर्वसुविधा संपन्न अनाथ आश्रम एवं चिकित्सा केंद्र का उद्घाटन हुआ जिसमें अनाथ बच्चों के लालन पालन, षिक्षा एवं चिकित्सा की समस्त सुविधाएँ उपलब्ध थी और इसका निर्माण किरण ने अपने पिता स्वर्गीय राकेष की स्मृति में कराया था। ऐसे बच्चों की सेवा को ही उसने अपना ध्येय बना लिया, जो उसकी तरह परित्यक्त कर दिये गये थे और जिन्हें किसी राकेष जैसे व्यक्तित्व की आवष्यकता थी। इसी उद्देष्य की पूर्ति के लिए उसने अपने पिता के समान ही आजीवन अविवाहित रहने का दृढ संकल्प ले लिया था।

8. गुमषुदा बचपन

एक धनाढ्य व्यक्ति अपने बच्चों के लिए ढ़ेर सारे खिलौने खरीदकर लाया करता था। कुछ समय बाद बच्चे के बड़े हो जाने के कारण वे सारे खिलौने उनके लिए अनुपयोगी हो गये थे। उस व्यक्ति ने सोचा कि क्यों ना इन्हें गरीब बच्चों में बाँट दिया जाए। जिससे वे भी इनसे खेलकर खुष हो जायेंगें। अपनी इस भावना को कार्यरूप देने के लिए वह पास ही की एक गरीब बस्ती की ओर निकल पडता है। रास्ते में उसे एक गरीब बच्चा मिलता है जिसे वह खिलौना देने की पेषकष करता है। वह बच्चा यह सुनकर बहुत खुष होता है एवं खिलौना ले भी लेता है परंतु अचानक ही कुछ सोचकर उसे मायूस होकर वापिस कर देता है। वह व्यक्ति इसका कारण पूछता है तो वह बच्चा कहता है कि मेरे माता पिता मुझसे भीख माँगने का काम करवाते है अगर वे यह खिलौना देख लेंगे तो समझेंगें की मैंने भीख से प्राप्त पूरे रूपये उन्हें ना देकर उसमें कुछ रूपये से यह खिलौने खरीदे हंै तो मुझे बहुत मार पडेगी। वह बच्चा यह कहकर चुपचाप चला जाता है।

उस व्यक्ति को आगे जाकर एक दूसरा गरीब बच्चा मिलता है। वह उसे भी खिलौने देने की पेषकष करता है परंतु वह बच्चा मना करते हुए कहता है कि मैं तो दिनभर बिडी बनाने का काम करता हूँ, मेरे पास इन खिलौने से खेलने का वक्त ही नही है। यह कहकर वह बच्चा आगे बढ जाता है। कुछ और आगे जाने पर उस व्यक्ति को तीसरा बच्चा मिलता है जो कि सहर्ष ही सभी खिलौने लेकर उसे धन्यवाद देता हुआ चला जाता है। वह व्यक्ति मन में सोचता है चलो देखते है कि यह बच्चा इन खिलौनों के साथ क्या करता है। वह उस बच्चे का पीछा करता है और देखता है कि उसने एक दुकान पर जाकर उन खिलौनों को बेच दिया और उससे प्राप्त राषि से पास ही की एक दवा दुकान से दवा खरीदकर ले जाता है। वह भी चुपचाप उसके पीछे पीछे उसके घर तक पहुँच जाता है। वहाँ उस बच्चे को अपनी बीमार माँ को दवाई पिलाते हुए देखकर द्रवित हो जाता है और उसकी आँखें नम हो जाती है। वह मन ही मन सोचता है कि जिस देष का बचपन ऐसा हो उस देष की जवानी क्या होगी ?

9. विवेक

एक बार एक घाटी में एक षेर एक सांभर का पीछा कर रहा था। वह उसे पकड़ने ही वाला था और हसरत भरी आंखों से निष्चिन्त होकर संतुष्टि दायक भोजन की कल्पना कर रहा था। उसे पूरा विष्वास था कि उसका षिकार अब उससे बचकर नहीं निकल सकता। एक गहरी खाई सामने थी। सांभर बहुत तेजी से भाग रहा था, अपनी जान बचाने के लिये उसने अपनी पूरी ताकत लगाई और कमान से निकले तीर की तरह कूदकर खाई को पार कर गया और एक चट्टान पर खड़े होकर पीछे मुड़कर देखने लगा। वह बहुत थक चुका था। उसके लिये अब आगे चलना संभव नहीं था। उसका पीछा करता हुआ षेर घाटी के इसी ओर रूक गया। उसे वह घाटी पार करना संभव नहीं लग रहा था। षिकार को हाथ से जाता देखकर वह बहुत निराषा और झुंझलाहट में था। तभी उसकी मित्र लोमड़ी उसके पास आई। वह भी षेर के पीछे-पीछे ही आ रही थी।

वह बोली- आप इतने ताकतवर और तेज होते हुए भी क्या एक कमजोर सांभर से हार जाएंगे। आपमें सिर्फ इच्छा षक्ति की कमी है, वरना आप चमत्कार कर सकते हैं। यद्यपि यह खाई गहरी है लेकिन यदि आप सचमुच गंभीर हैं तो मैं यकीन के साथ कह सकती हूँ कि आप इसे आसानी से पार कर जाएंगे। आप मेरी निस्वार्थ मित्रता पर विष्वास कर सकते हैं। अगर मुझे आपकी षक्ति और तीव्रता पर विष्वास नहीं होता तो मैं आपको ऐसी सलाह कभी नहीं देती जिससे आपके जीवन को खतरा हो।

शेर का खुन गर्म होकर उसकी षिराओं में दौड़ने लगा। उसने अपनी पूरी ताकत से छलांग लगा दी। किन्तु वह घाटी को पार नहीं कर सका। वह सिर के बल नीचे गिरा और मर गया। उसकी वह मित्र लोमड़ी यह देख रही थी। वह सावधानी से घाटी में नीचे उतरी और खुले आसमान के नीचे खुली हवा में उसने देखा कि षेर के प्राण निकल चुके हैं। अब उससे डरने या उसकी चिन्ता करने की कोई आवष्यकता नहीं है। उसने कुछ दिनों में ही उसकी हड्डियां तक साफ कर दीं। षेर क्रोध में आ जाने के कारण विवेक षुन्य हो गया और घाटी को पार करने की मूर्खता कर बैठा। विवेक को जाग्रत रहना चाहिए। यह भगवान का वरदान है। विवेकषील व्यक्ति ही जीवन में सकारात्मक सृजन करके समाज के लिये कुछ कर पाता है। विवेकहीन व्यक्ति तो बस पषुओं के समान होता है।

१०. ईर्ष्या

किसी नगर में दो भाई रहते थे। दोनों ही बहुत सम्पन्न थे। उनके पास बहुत धन दौलत थी। समय के साथ उनमें बंटवारा हुआ। नगर में उनकी एक बहुत बड़ी सोने, चांदी और हीरे जवाहरात की दुकान थी। उनका व्यापार खूब फल-फूल रहा था। बड़े भाई ने वह दुकान अपने हिस्से में कर ली। उनकी एक फैक्टरी भी थी। उसमें दुकान से कम फायदा होता था। वह छोटे भाई के हिस्से में आई। बड़ा भाई बहुत लालची था। वह अधिक धन कमाने के चक्कर में ग्राहकों के साथ धोखाधड़ी करने लगा। लोगों को जब इस बात का पता लगा तो उनने उसके यहाँ जाना बन्द कर दिया। इससे धीरे-धीरे उसकी दुकान पर ग्राहकों का आना बन्द होने लगा। उसे घाटा होने लगा। धीरे-धीरे उसकी दुकान बन्द होने के कगार पर पहुँच गई।

दूसरी ओर छोटा भाई ईमानदार था। उसका एक पुत्र था। वह भी बहुत होषियार और परिश्रमी था। उनका परिश्रम रंग लाया और उनका उद्योग लगातार उन्नति करने लगा। उनका लाभ भी लगातार बढ़ने लगा। यह देखकर बड़े भाई को बड़ी ईष्र्या होती थी। वह उनको लगातार हानि पहुँचाने का प्रयास करता रहता था उसने उनके मजदूरों को भड़काने के लिये अनेक षड़यंत्र किये। वह तरह-तरह से उनके उत्पादन की गुणवत्ता को गिराने का भी प्रयास करता रहा लेकिन छोटे भाई और उसके पुत्र की ईमानदारी और मेहनत के कारण वह कभी सफल नहीं हो सका। लेकिन उसकी इन हरकतों से उन्हें अनेक बार अनेक परेषानियों का सामना करना पड़ा। उसकी हरकतो से तंग आकर एक दिन छोटे भाई का पुत्र अपने पिता से बोला- पिता जी आप मुझे इजाजत दीजिए। मैं ताऊ को सबक सिखाना चाहता हूँ। मैं उन्हें ऐसा सबक सिखाउंगा कि फिर वे कभी भी हमें परेषान करने का प्रयास नहीं करेंगे। उसके पिता ने पूछा- तुम क्या करना चाहते हो ?

पुत्र ने अपनी योजना अपने पिता को बतलाई। उसकी योजना सुनकर छोटे भाई को समझ में आ गया कि इससे बड़े भाई को बहुत घाटा होगा और उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा भी गिर जाएगी। वह अपने पुत्र को ऐसे रास्ते पर नहीं जाने देना चाहता था जिस पर चलकर वह किसी का भी अहित करे अतः उसने अपने पुत्र को समझाया- तुम्हारे ताऊ जो कुछ कर रहे हैं उसका असली कारण है उनके मन की ईष्र्या। वे हमारी उन्नति और अपनी अवनति के कारण हमसे ईष्र्या करते हैं। इसलिये वे ऐसा कर रहे हैं। पर तुम तो समझदार हो।

हमें ईष्र्यालू नहीं होना चाहिए और जिसमें यह प्रवृत्ति आ जाए उससे बच कर रहना चाहिए। ईष्र्यालू व्यक्ति सदैव असंतुष्ट रहता है वह कभी भी अपने आप को संतुष्ट नहीं कर पाता है। दूसरों का सुख उसके लिये दुख का विषय होता है। वह ऐसा व्यवहार करता है जैसे वह आपका परम हितैषी है किन्तु आपकी सफलताओं और उपलब्धियों से वह मन ही मन दुखी रहता है। ऐसे लोग बड़े चाटुकार होते हैं। ईष्र्यालू व्यक्ति रहस्यमयी या वासनामयी पापी की तरह सावधानी से अपने आप को छिपाकर रखते हैं। इन्हें इसके लिये असंख्य उपाय आते हैं। वे नये-नये तरीकों से अपने आपको छुपाते हैं। वे दूसरों की श्रेष्ठता से अनभिज्ञ होने का नाटक करते हैं जबकि भीतर ही भीतर वे उनसे बुरी तरह जलते हैं। ऐसे लोग निपुण अभिनेता होते हैं और षड़यंत्र रचने में अपनी पूरी ताकत लगा देते हैं।

वे श्रेष्ठता को किसी भी रुप में रोकने का प्रयास करते हैं। यदि उन्हें धोखे से भी अवसर मिल जाए तो वे श्रेष्ठ व्यक्तियों और उनके कार्यों पर आरोप लगाते हैं। वे आलोचना करते हैं, व्यंग्य करते हैं और जहर उगलते हैं। एक कहावत है कि ज्यादातर लोग समृद्ध मित्र को बिना ईष्र्या के सहन नहीं कर पाते हैं। ईष्र्यालू मस्तिष्क के आसपास ठण्डा जहर रहता है। जो जिन्दगी में दोगुना कष्ट पहुँचाता है। उसके अपने घाव उसे सताते हैं। जिन पर उन्हें मरहम-पट्टी करनी होती है। दूसरों की खुषी उसे श्राप की तरह अनुभव होती है। हमें ऐसे लोगों से हमेषा सावधान रहना चाहिए और यथा संभव उनसे दूर ही रहना चाहिए। तुम्हारे ताऊ इसी ईष्र्या का षिकार हैं। जब तक उनके मन में यह भाव रहेगा उनका स्वभाव नहीं बदलेगा।

तुम अगर उनसे बदला लेने या उन्हें क्षति पहुँचाने का प्रयास करोगे तो तुम्हारा समय और तुम्हारी ऊर्जा का दुरूपयोग होगा। तुम्हारे मन में उनके प्रति षत्रुता का भाव आएगा। आदमी अपने मित्र को हर समय याद नहीं करता किन्तु उसे अपना षत्रु हमेषा याद आता रहता है। मैं नहीं चाहता कि तुम्हारे मन में अपने ताऊ या किसी और के प्रति षत्रुता का भाव हो। मैं यह भी नहीं चाहता कि जो षक्ति तुम उन्नति करने में लगा रहे हो वह कहीं और लगे। ईष्वर पर भरोसा रखो। समय सबसे बड़ा षिक्षक होता है। वह उन्हें निष्चित रुप से सबक सिखलाएगा और एक दिन वे स्वयं अपने किये पर पछताएंगे तथा सही रास्ते पर आ जाएंगे।

११. सर्वे भवन्तु सुखिनः

डा. फादर वलन अरासू सेंट अलायसिस महाविद्यालय में प्राचार्य के रूप में कार्यरत है। उन्होंने मसीही दर्शन के साथ ही भारतीय सनातन दर्शन का भी गहन अध्ययन किया है। उन्होंने जीवन, मृत्यु के बाद की स्थितियों पर एक तुलनात्मक सारगर्भित एवं संक्षिप्त प्रकाश डाला है। मृत्यु से साक्षात्कार का अनुभव मुझे उसी प्रकार है जिस प्रकार आसन्न मृत्यु की संभावना से उबर कर लोग नवीन जीवन प्राप्त कर पाते है। वर्ष 1997 में एक वाहन दुर्घटना के परिणाम स्वरूप मैं गंभीर अवस्था में चेतना शून्य हो गया था, जीवित रहने की आशा की कोई किरण दिखायी नही दे रही थी, लेकिन मेरी जिजिविषा प्रबल थी। मैं जीना चाहता था। केवल एक ही विश्वास था, परमेश्वर का, मैं जानता था कि उसकी इच्छा के बिना मनुष्य चाहकर भी उसकी शरण प्राप्त नही कर सकता। प्रभु के प्रति मेरे अटूट् विश्वास ने मुझे वह सम्बल दिया और मैं मृत्युंजय बन गया। मेरा विश्वास है कि परमेश्वर के प्रति अटूट् विश्वास आपको वह शक्ति प्रदान करता है, जिससे आप कठिन से कठिन स्थिति से बाहर आ पाते है। मृत्यु तो अवश्यम्भावी हैं, कोई अमर होकर नही आता, लेकिन अपने अस्तित्व को उसके हाथों में सौंपकर आप मृत्यु के साक्षत्कार को अपनी दृढ इच्छाशक्ति के बल पर टाल सकते है।

जीवन तथा जीवन की सार्थकता के विषय में भारतीय तथा पाश्चात्य वांगमय विभिन्न विचारों से भरे पडे हैं लेकिन एक मूल विचार से सभी सहमत है कि हानि लाभ, जीवन मरण, यश अपयश परमेश्वर के हाथ में है। संसार में यदि कोई भी घटना घटित होती है तो उसके पीछे कोई न कोई कारण होता है। किसी भी मनुष्य का जन्म एक घटना ही है। यह हमें अवश्य सोचना चाहिये कि परमेश्यर ने यदि हमें जीवन देकर सृष्टि का हिस्सा बनाया है तो इसका कुछ न कुछ कारण अवश्य है। जिस प्रकार दिव्य चेतनायें किसी खास प्रयोजन से जन्म लेकर सृष्टि में आती है और मानव मात्र के कल्याण की परियोजना पर कार्य करती है, उसी प्रकार साधारण मनुष्य भी अपने छोटे छोटे मानवीय प्रयासों से मानव तथा अन्य जीवों के प्रति दया, प्रेम, करूणा, अहिंसा आदि के भाव बाँट सकता है। यही जीवन की सार्थकता है।

संसार में प्रतिक्षण अनेकों जीव मृत्यु को प्राप्त होते है, लेकिन कुछ लोग ऐसे होते है जिनके बिछोह से मन आँसुओं के सागर में डूब जाता है। वस्तुतः ऐसे लोग ही सही जीवन जीते है। मनुष्य को चाहिये कि परमात्मा के उस प्रयोजन को समझने का प्रयास करें कि उसके जन्म तथा जीवन का क्या उद्देश्य हो सकता है ? यदि वह यह विचार करने में अपने को असमर्थ पाता है तो कम से कम उसे यह अवश्य मान लेना चाहिये कि वह मनुष्य है इसलिये उसकी सोच तथा दृश्टिकोण मानवीय ही होना चाहिए। भारतीय आध्यात्मिक चिंतन में मृत्यु के पश्चात भौतिक शरीर पंचतत्व में विलीन हो जाने तथा आत्मा का परमात्मा (परम तत्व) में विलीन हो जाने का सिद्धांत प्रचलित है। यह भी कि मनुष्य के कर्म के आधार पर उसे आगे विभिन्न योनियों में शरीर धारण करना होता है। इसे उसके कर्मों का प्रतिफल कहा जाता है। यह भी विचार प्रचलन में है कि मन, वचन, कर्म से ईष्वर के प्रति समर्पित मनुष्य आवागमन से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त कर लेता है।

मसीही चिंतन पुनर्जन्म पर विश्वास न कर पुनर्जीवन पर विश्वास करता है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि मनुष्य दो प्रकार से षरीर धारण करते है, प्रथम आध्यात्मिक शरीर तथा दूसरा पार्थिव शरीर। आध्यात्मिक षरीर मृत्यु के पश्चात कब्र में विश्राम करते हुए प्रभु ईशु के पुनः अवतरण की प्रतीक्षा करते है। इस स्थिति में मृत शरीर छोड चुकी आत्माएँ शोधक अग्नि के माध्यम से शुद्ध होते रहने का प्रयास करती है ताकि पवित्र होकर स्वर्ग में प्रवेश प्राप्त कर सकें। इस प्रकार अनंत उद्धार (मोक्ष) प्राप्त कर सकें। प्रभु के पुनः मनुष्य रूप में प्रगट होने के पश्चात कब्र में विश्रांत शरीर पुनः आध्यात्मिक देह धारण कर प्रभु ईशु के साथ ही स्वर्गारोहण करते हैं। जो आत्माएँ शोधित अग्नि की शोधन प्रक्रिया के पश्चात भी अपने कर्मों के आधार पर शोधित नही हो पाती वे नरक में स्थान पाती है जिसे शैतान का स्थान कहा जाता है। यह निर्णय न्याय प्रक्रिया के द्वारा प्रभु ईशु के द्वारा किया जाता है। जीवन परमात्मा का दिया हुआ वरदान है। वह कब तक रहेगा, इसे प्रभु के अतिरिक्त कोई नही जानता। जीवन पर हमारा वश नही है, लेकिन जीवन जीने की प्रकृति पर हमारा वश अवश्य है। हमारा विश्वास है कि जितना जीवन प्रभु ने मनुष्य को दिया है, उसका सदुपयोग दीन दुखियों की सेवा, पतितों के उद्धार में किया जाये तो मनुष्यता पर लोगों का विश्वास बढेगा, संपूर्ण सृष्टि आनंद से भर उठेगी।

१२. बचपन शुद्ध, यौवन प्रबुद्ध, बुढ़ापा सिद्ध

श्रीमती जयश्री बैनर्जी (82 वर्ष) ने म.प्र. मंत्रिमंडल में कैबिनेट मंत्री और लोकसभा में जबलपुर संसदीय क्षेत्र के सांसद के रूप में अपनी सेवाएँ दी हैं। वे आज भी पूरी तरह से सजग एवं सक्रिय है तथा महिलाओं के उत्थान के लिये प्रयासरत रहती है। देश की स्थितियों पर वे पैनी निगाह रखती हैं। उनका चिंतन है कि निर्माण से निर्वाण तक मानव कर्म से ही बंधा हुआ है। बीज के अंकुरण से लेकर बीज के निर्माण तक की प्रक्रिया ईश्वरीय विधान है पर वैज्ञानिक इसे बायोलाजिकल चक्र मानते है। इसी से पीढी दर पीढी जीवन का विकास होता है और मानव भी इसी विकास पथ का यात्री है। हमारी संस्कृति, सभ्यता व संस्कार हमें हर कदम पर प्रेरित करते है। जीवन कैसा होना चाहिए ? मैं समझती हूँ कि सही ज्ञान और जानकारी सही समय पर प्राप्त होना व्यक्ति और समाज के लिये बडा संबल होता है। हमारा ध्येय लोगो को शिक्षित करना और देश की सभी समस्याओं के विषय में राष्ट्रवादी दृष्टिकोण होना चाहिए ताकि भावी पीढी उससे लाभ उठा सके। संसार में कोई भी समस्या का हल संगठित शक्ति के बल पर ही निकाला जा सकता है। जिस प्रकार शक्तिहीन राष्ट्र की कोई आकांक्षा सफल नही हो सकती, उसी प्रकार परिवार में भी बिखराव उन्नति को बाधित करता है। हमारे मन में संगठित रहने का भाव होना चाहिए एवं ध्यान रखिये की उन्नति के लिये त्याग के अतिरिक्त कोई दूसरा मार्ग ही नही है। त्याग से ही अमृत्व की प्राप्ति होती है।

मेरे जीवन में बहुत अविस्मरणीय पल आये परंतु आपातकाल का वह समय जितना पीडादायी रहा उतना और कोई भी पल स्मृति को नही झंझोडता है। मुझे आज भी उन दिनों की जब याद आती है तो मन दुख और विषाद से भर जाता है। जबलपुर में मेरे घर के 6 सदस्यों को गिरफ्तार करके महिलाओं, बच्चों एवं पुरूषों को अलग अलग बैरकों में कैद करने के कारण परिवार के सदस्य बिखर गये थे। मेरे छोटे बेटे दीपांकर द्वारा पूछा गया प्रश्न मुझे ही नही जेल में उपस्थित सभी को द्रवित कर गया कि मेरी माँ को मुझसे दूर क्यों कर दिया ? वे पल बहुत दुखद थे, जब छोटा दीपांकर बिना किसी जुर्म के जेल में सिर्फ इसलिये रहा कि उसे माँ चाहिए थी। यह जीवन के कुछ कटु अनुभव है पर जीवन में उतार चढ़ाव तो आते ही है और आना भी चाहिए क्योंकि ऐसे ही समय में मनुष्य के व्यक्तित्व की परीक्षा होती है और वह मजबूती के साथ जीवन को जीने का सलीका सीखता है तभी तो लोगो के लिए वह प्रेरणास्त्रोत बन सकता है।

मैं सोचती हूँ कि एक बच्चे के लिए माँ बाप इतने जरूरी होते हैं तो माँ बाप के लिये बच्चे अपनी जिम्मेदारी क्यों नही समझते ? मैं खुशनसीब हूँ कि मुझे इतना अच्छा परिवार मिला है जो आज इस उम्र के पड़ाव में भी मेरी देखभाल करने के लिये तत्पर रहता है। मैंने देखा है कि बहुत लोग अपने बुजुर्ग माँ बाप को अलग छोड देते है या अपने कैरियर के मोह में दूर जा बसते है और माता पिता घर में अकेले रह जाते है। मैं ऐसे बच्चों को इतना ही कहना चाहूँगी कि अपने माता पिता की सेवा करें, इनकी देखभाल ही ईश्वर की सेवा है। उन्हें ध्यान रखना चाहिए कि कल उनकी भी यही स्थिति होने वाली है तो वृद्धावस्था को श्रापित ना बनायें।

जीवन इतिहास मानवीय मूल्यों का सामूहिक संदर्भों में जोडा गया दस्तावेज है और संवेदनाओं की अनुभूति से ही मानवीय मूल्यों को सार्थकता मिलती है। ऐसा कहा गया है कि अतीत जैसा भी हो परंतु उसकी स्मृतियाँ बडी सुखद होती है। भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति एक जीवन दर्शन है, उदात्त मूल्यों को खजाना है। यही जीवन की संपूर्णता का परिचायक है। हमारी संस्कृति हमें हर कदम पर प्रेरित करती है कि जीवन कैसा होना चाहिए ? हमारा ध्येय, लोगों को शिक्षित करना और देश की सभी समस्याओं के विषय में राष्ट्रवादी दृष्टिकोण रखना होना चाहिए ताकि भावी पीढी इससे लाभ उठा सके।

मेरी धारणा है कि कोई भी जीवन दृष्टि चाहे वह भौतिकतावादी हो यो आध्यात्मवादी मृत्यु के भय से ही पनपती है। भौतिकवादी सोचता है कि मृत्यु अवश्यम्भावी है तो जितना हो सके जीवन का उपयोग और उपभोग कर लेना चाहिए। आध्यात्मवादी सोचता है कि इस शरीर की तरह भोग विलास भी नश्वर है तो क्यों न अनश्वर को खोजा जाए। इस प्रकार आध्यात्मवादी मृत्यु के डर पर विजय प्राप्त करना चाहता है। ईश्वर ने प्रत्येक के कर्मों की लकीर उसी की हथेली में पहले से ही खींच रखी है फिर भी सांसारिक विधान है कि जो जैसा करता है वैसा पाता है इस जन्म में न सही अगले जन्म में फल अवश्य ही मिलता है।

समाज से अपेक्षाओं पर मेरा बस इतना सोचना है। हर व्यक्ति को अपना व्यक्तित्व ऐसा बनाना चाहिए कि लोग केवल आपके सामने ही नही बल्कि आपके पीछे भी आपके कार्य का, उस मार्ग का अनुसरण करें और उस रूप में व्यक्ति को अमरता मिले। जिस स्वाभिमान और सक्रियता का जीवन मैंने जिया है, मेरी अभिलाषा है कि हर व्यक्ति उसी तरह अपना व्यक्तित्व स्वयं निखारें। मेरी महिलाओं के प्रति चिंता ज्यादा है क्योंकि हम भारतीय महिलाओं को बहुत कुछ सहना, करना और तब बढ़ना पड़ता है। मेरा मानना है कि मनुष्य में संस्कार बचपन से ही डालने होते है तभी वह घर परिवार, समाज और राष्ट्र के संबंध को समझ पायेगा। यदि बचपन शुद्ध होगा तो यौवन प्रबुद्ध होगा और बुढ़ापा सिद्ध होगा।

१३. मृत्यु - जीवन का अंतिम और परम सखा

आचार्य कृष्णकांत चतुर्वेदी (81 वर्ष ) हिंदी एवं संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान तथा साहित्य के क्षेत्र में दैदीप्यमान नक्षत्र है। उन्होंने जबलपुर, वाराणसी, वृंदावन आदि शहरों में शिक्षा ग्रहण की है। वे रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जबलपुर में संस्कृत एवं पालि प्राकृत विभाग के आचार्य एवं अध्यक्ष, कालिदास अकादमी, उज्जैन के निदेशक के पद पर रहे है एवं राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित आचार्य है। उन्होंने अनेक पुस्तकों का लेखन एवं संपादन भी किया है जिनमें से प्रमुख है द्वैत वेदान्त तत्व समीक्षा, विवेक मकरन्द, जयतीर्थ स्तुति, अज्ञात का स्वागत, पिबत भागवतम्, राधा भावसूत्र आदि।

उन्होंने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि जीवन एक शाश्वत प्रवाह है। मृत्यु हमें भयभीत करती है और हमारे सारे वैचारिक और भौतिक संसाधनों और सामग्री को सहसा तिरोहित कर देती है। यही कारण है उसके प्रति मन में भय और वितृष्णा का भाव रहता है। जहाँ तक जीवन जीने का प्रश्न है, कौन ऐसा बृद्धिमान व्यक्ति होगा जो जीना नही चाहता और वह यह भी चाहेगा कि जीवन जीना है तो अपनी इच्छाओं के अनुसार जिया जाए, यह संभव नही होता। वृद्धवस्था के उत्तरोत्तर बीतते वर्षो में बढ़ती असमर्थता विराम भी लगाती चलती है। हमारा दृष्टिकोण व्यक्ति और परिस्थिति के साथ जितना सहिष्णु होगा उतना जीवन की संध्या सुखद हो सकेगी।

मेरे जीवन मे अनेक महत्वपूर्ण घटनाएँ घटित हुई है और वे स्मरणीय भी बनी हुई है। उनमें से एक घटना जो मई 1990 में मेरे साथ घटित हुई थी और जो सर्वाधिक प्रभावी रही है, उसका उल्लेख करना चाहुंगा। भारत माता मंदिर हरिद्वार के संस्थापक परम पूज्य निवृत्त शंकराचार्य महामंडलेश्वर श्री स्वामी सत्यमित्रानन्द गिरि जी भारत माता का पाटोत्सव बडे़ उत्साह से मनाते है। 1990 में भी वह आयोजन बहुत वृहद् रूप में संपन्न हुआ। इस आयोजन में मैं प्रायः सपरिवार जाता रहा हूँ परंतु कुछ कारणवश मैं वहाँ उस बार अकेला ही गया था। लंदन से आए भानु भाई मेहता और मेरे ठहरने की व्यवस्था एक की कमरे में की गई थी। 15 मई 1990 की रात्रि के मध्य मेरी नींद खुल गई। मैं पानी पीने उठा तो मुझे निर्धारित स्थान पर पात्र नही मिला, मैं बिना पानी पिये वापिस अपने पलंग के पास आया, बैठने की कोशिश की तो पलंग पर न बैठ कर नीचे गिर गया। गिरने और मेरे चीखने की आवाज से भानुभाई मेहता उठ बैठे, उन्होंने लाइट जलाई पर मुझे कुछ भी दिखाई नही दिया और मेरे कान से रक्त प्रवाह प्रारम्भ हो गया।

भानु भाई ने सहायता के लिए आवाज लगाई, सब दौड़ पडे। इस हलचल से श्री स्वामी जी भी जाग गये, तेजी से वे नीचे उतर आए और उन्होंने मुझे अपनी गोदी में रख लिया। मेरी नाजुक स्थिति देखकर श्री स्वामी जी ने मुझे चंडीगढ़ पी.जी.आई. भेजने का निश्चय किया। इस घटना की सूचना हमारे घर भेजी गई। मेरी पत्नी, छोटे भाई आदि सूचना पाकर चंडीगढ़ रवाना हो गये। चंडीगढ़ में तीन चार दिन बडी ऊहापोह और चिंता में बीते। तब तक पता नही चल पा रहा था कि ब्रेन हेमरेज है या कुछ और। जाँच के बाद पता लगा कि हेमरेज नही ब्रेन ट्यूमर है।

श्री स्वामी जी ने मुझे बम्बई भेजने का निश्चय किया। बम्बई के प्रसिद्ध चिकित्सालय बाम्बे हास्पिटल में मुझे भरती किया गया। जबलपुर में मेरे मित्र, संबंधी, परिचित चिंता ग्रस्त थे और अपने अपने ढंग से मेरे शीघ्र स्वस्थ्य होने की प्रार्थना कर रहे थे। इनमें मैं परमपूज्य नृसिंह पीठाधीश्वर महामंडलेश्वर श्री रामचंद्र दास शास्त्री जी की कृपा को कभी नही भूल सकता। उन्होंने मंदिर में रूद्राभिषेक, महामृत्युंजय मन्त्र का जाप आदि करवाना प्रारम्भ कर दिया। 2 जून 1990 को मेरे मस्तिष्क की शल्यक्रिया संपन्न हुई तब दूरबीन विधि नही थी। मेरे माथे को खोलकर ट्यूमर निकाला गया। उस दिन बाम्बे हास्पिटल में ब्रैन ट्यूमर के पाँच आपरेशन हुए, उनमें से केवल मैं ही जीवित बच सका।

आपरेशन के बाद लौटकर जबलपुर आया तो पूज्यपाद महाराज श्री रामचंद्र दास जी शास्त्री ने नृसिंह मंदिर में चल रहे अनुष्ठान पूर्ण कराए और दीर्घजीवी होने का आशीर्वाद दिया। आज 29 वर्ष हो रहे है। मेरा यह दूसरा जन्म ही हुआ जो संतों, मित्रों, परिजनों की शुभकामना का परिणाम था। आज मैं इन सभी दिव्य और मानस सात्विक शक्तियों को प्रणाम करता हूँ, जिनकी कृपा और स्नेह से यह जीवन निरंतर मंगलमय रूप से चल रहा है।

मुझे लगता है कि आगामी जीवन अज्ञात है और यह किस रूप में कैसा और किस तरह होगा किसी को भी नही मालूम रहता ? हमारी देहनाश के साथ जीवन की वर्तमान यात्रा का विश्राम हो जाता हैं अतः इस अवसर का जितना लाभ उठा सके, जीवन में उठा लेना चाहिए। हमें अपने जीवन के मूल्यों को भलीभाँति समझना चाहिए कि जीवन का प्रत्येक क्षण सार्थक और उद्देश्यपूर्ण बीते। भगवान बुद्ध की करूणा, भगवान महावीर की तितिक्षा और मीरा की भक्ति, हम सब के जीवन का श्रृंगार बन सके तो हमारा जीवन धन्य हो जायेगा। मेरी परिवार से अपेक्षा है कि जिस तरह पूरा जीवन हमने परिवार का ध्यान रखा, प्रेम और यथोचित सम्मान दिया, वैसा ही मुझे भी निरंतर मिलता रहें। हम सभी एक दूसरे का सम्मान करते हुए, सुखी जीवन व्यतीत करे।

मैं अपने जीवन के शेष समय को स्वस्थ्यता, आत्मचिंतन, स्वाध्याय, प्रभु भक्ति तथा समाज एवं संस्कृति के हित के कार्यों में सहयोग देकर व्यतीत करना चाहता हूँ। आज समाज में भारतीय मूल्यों की, मानवीय सौहार्द्र की जितनी दुर्दशा हो रही है उतनी आक्रांताओं से पराधीन रहने पर भी नही हुई। मेरी अपेक्षा है कि हम अपनी जड़ों को पहचाने और उसे सुदृढ़, सार्थक और प्रभावी बनाकर करूणा और मैत्री के अभिन्न अंग बने।

१४. आगे बढ़ो और बढ़ते ही जाओ

सुप्रसिद्ध वरिष्ठ अधिवक्ता श्री सतीशचंद्र दत्त (85 वर्ष) फौजदारी मामलों के विशेषज्ञ है। उन्होंने सन् 1953 में वकालत का पेशा अपनाया था एवं वे अभी भी वकालत कर रहे हैं और इसे वे ईश्वर का आशीर्वाद मानते है। उनका कथन है कि मैं नही मानता कि जीवन सीमित है यह तो ईश्वर की इच्छा पर निर्भर हैं कि हमारा जीवन कब तक रहेगा। यह सच है कि जीवन अमर नही है पर जीवन के हर क्षण का सदुपयोग किया जाए तो अपने परिवार, समाज और अपने देष बहुत भला किया जा सकता हैं। हम जब तक भी रहें अपने जीवन को क्रियाशील बनाकर रखें। मैं समाज और देश का उत्थान किस प्रकार और कैसे कर सकता हूँ ? इस दिशा में हमेशा प्रयासरत रहता हूँ। मैं वकालत के पेशे में आज भी नये आयाम खोजता रहता हूँ और जीवन में उन्हें अपनाने का प्रयास करता हूँ जिससे मुझे असीम प्रसन्नता, आनंद और संतोष प्राप्त होता है। मैं अपने परिजनों के व्यवहार से पूर्ण संतुष्ट हूँ।

मेरे अनुरोध पर उन्होंने जीवन का एक स्मरणीय संस्मरण बताते हुए कहा कि मुझे वकालत के पेशे में 6 साल ही हुये थे और मैं नवोदित वकील के रूप में जाना जाता था। उस समय मेरे पास एक मामला आया जिसमें श्याम टाकीज, जबलपुर जो कि अब मालवीय चौक के रूप में जाना जाता है के पास सत्तू पहलवान नामक व्यक्ति का कत्ल हो गया था। वे अपने मोहल्ले के एक जाने पहचाने व्यक्ति थे। इस मामले में पुलिस ने दो व्यक्तियो पर हत्या का मामला दर्ज किया था और वह उस समय का बड़ा चर्चित मामला था। मेरे मुवक्किल को लोग समझाते थे कि क्या नौसिखीए अधिवक्ता को मुकदमा लडने के लिये लगाया है। उस समय बडे बडे ख्यातिप्राप्त अधिवक्ता उपलब्ध थे, पर मेरे मुवक्किल कही नही गये और मुझसे कहा कि मुकदमा आपको ही लडकर उनका बचाव करना है। मेरे मुवक्किल को काफी चोटें आयी थी और उन्हें पुलिस द्वारा अभियुक्त बनाया गया था। मैंने उनको कहा कि मैं आत्मरक्षा का बचाव लेना चाहता हूँ। वे इसके लिए तैयार हो गये और उन्होने अदालत में अपनी रक्षा एवं बचाव में मृतक को मारने की गवाही दे दी। मेरे मुवक्किल को कइ लोगों ने समझाया कि तुम्हारे वकील ने तो तुमसे घटना कबूल करवा ली है और तुम्हें सजा होना सुनिश्चिित है परंतु उन्हें मेरे उपर पूर्ण विश्वास था। जब फैसला आया तो आत्मरक्षा के बचाव को मानते हुए जज साहब ने उन्हें बरी कर दिया।

उन दिनों मैं साइकिल पर चलता था और एक किराये के मकान में साधारण परिस्थितियों में अपने माता पिता और भाई बहिनो के साथ रहता था। जब मैं शाम को पाँच बजे घर पहुँचा तो गली के दोनो छोंरों पर बहुत भीड लगी थी और मेरे घर के सामने भी हजारों लोग खडे थे। वहाँ पर ढ़ोल नगाडे भी बज रहे थे। पहले तो मुझे कुछ समझ नही आया, जब मैं घर के सामने पहुँचा तो मेरे मुवक्किलों द्वारा मुझे मालाओं से ढक दिया। वह क्षण मेरे लिये बहुत ही रोमांचकारी था क्योंकि मैने पहला बडा मुकदमा जीता था और मेरा स्वागत जिस तरह से किया गया वह क्षण मैं आज तक नही भूल पाया हूँ। वह मुकदमा, फूल मालाएँ तथा ढोल नगाडो की आवाजे मानो आज भी मेरे कान में गूंज रही है। यद्यपि उसके बाद और भी बडे मुकदमों के फैसले मेरे पक्ष में हुये पर जो प्रसन्नता उस मुकदमें में मुझे हुई थी, वैसी महसूस नही होती है।

जीवन क्या है ? हमें इसे प्रसन्नता पूर्वक परिवार और मित्रों के साथ समाज में रहते हुए सकारात्मक उद्देश्य के साथ जीना चाहिए। मृत्यु सत्य है परंतु उससे घबराना या डरना नही चाहिए, जब तक वह नही तब तक शारीरिक व मानसिक रूप से संघर्षरत रहते हुए जीना हमारा कर्तव्य है। जब मनुष्य मृत्यु को प्राप्त करे तो वह क्षण भी उसे सुखमय महसूस हो। मैं समाज की सेवा, सभी मनुष्यों का भला एवं पीडित व्यक्तियों की मदद अपने पेशे के माध्यम से करके उन्हें राहत प्रदान कर अपने समय का सदुपयोग करना चाहता हूँ।

पैरासाइकोलाजी पर खोज हो रही है जिससे पुनर्जन्म एक सत्य प्रतीत होता है। कई व्यक्तियों को देखा है जो बचपन में ही रामकथा, महाभारत के बारे में बहुत अच्छी तरह प्रवचन देते है। वे अपने पूर्व जीवन के बारे में भी बताते है। इन सभी बातों से लगता है कि पुनर्जन्म एक सत्य है। समाज और शासन से हमारी बहुत अपेक्षाएँ है, यदि शासन एक शांतिपूर्ण एवं सुरक्षित वातावरण जनता को नही दे सकता तो हमारा जीवन गर्त की ओर चला जाएगा। समाज का कर्तव्य है कि आर्थिक, मानसिक एवं शारीरिक रूप से कठिन परिस्थितियों में समय व्यतीत कर रहे कमजोर व्यक्तियों की यथासंभव मदद करना चाहिए। यही जीवन का दर्शन है कि आगे बढ़ो और बढ़ते ही जाओ।

१५. संबल

श्रीमती ज्योतसना शर्मा उम्र 58 वर्ष, एक गृहणी है। वे कहती है कि जीवन एवं मृत्यु दोनो शब्द एक दूसरे के पूरक है। जीवन है तो मृत्यु भी अवश्यंभावी है, यही सत्य है और जो सत्य है, उससे भागना या डरना क्या ? किंतु एक सबसे बडी सच्चाई यह भी है कि जीवन एक बहुत सुंदर रचना है ईश्वर की। बहुत सुदृढ़ है, सशक्त हैं। यह एक संघर्ष है। छोटी बडी कठिनाईयाँ, परेशानियाँ तो लगी रहती है परंतु हँसते खिलखिलाते इन्हे पार करना ही तो जीवन है। जीवन में छोटी बडी बीमारियाँ भी आती जाती रहती है। आज कैंसर जैसी बीमारी भी अक्सर अपने आस पास ही सुनने को मिलती रहती है, जिसका नाम ज्यादा खतरनाक है इसे सुनते ही लोगों के होश फाख्ता हो जाते है क्योंकि लोग उसे जानलेवा या लाइलाज मान लेते है, पर वास्तविकता इससे अलग है।

मैं भी सन् 2004 में इससे रूबरू हुई। मई के महिने में मझे पता चला कि मैं ब्रेस्ट कैंसर सी पीडित हूँ, पर सचमुच मुझे न डर लगा, न कोई घबराहट हुई। परिवार वाले और आत्मीयजन अवश्य दुखी और विचलित हो गये। उन्हें देखकर थोडा सा दुख अवश्य होता था पर एक छिपी हुई गुप्त सच्चाई यही है कि मेरे जीवन के सबसे सुंदर दिन वही थे। पूरा इलाज एक तरफ और अपने लोगों की प्यार, चिंता, अपनापन और सहयोग एक तरफ। मुझे पता ही नही चला, मैं लगभग एक वर्ष में ही पूर्ण स्वस्थ्य हो गई। मुझे इस समय जीवन के और अधिक सुंदर पहलू दिखाई दिए।

ऐसे समय में अपना मनोबल बनाए रखना बहुत जरूरी है, आप जीवन का सुंदरतम रूप देख सकेंगे और मानसिक रूप से अधिक सबल हो सकेंगे। आपका जीवन किसी के लिए प्रेरणादायक बन जायेगा। मन में यह विश्वास अवश्य पक्का होना चाहिए कि जीवन मृत्यु किसी की मोहताज नही वह तो ईष्वर का दिया हुआ वरदान है, इसे डरकर नही हँसकर जीना है। इसलिए जहाँ जीवन सुंदर रचना है वहाँ यह भी मानना चाहिए कि मृत्यु भी ईश्वर का पावन निमंत्रण है। वह तो जब और जिस क्षण आना है तभी आएगी उससे पहले डर के कारण मर मर कर जीना तो जीवन को व्यर्थ गँवा देना है। वह तो जीवन नही है। हर पल खुश रहकर खुशियाँ बाँटते हुए जीना ही सच्चा जीवन है। इसलिये किसी भी संकट या बीमारी में घबराए नही उसका हिम्मत के साथ हँसकर सामना करते चले, यही जीवन है।

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