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अवसान की बेला में - भाग १

अवसान की बेला में

लेखक एवं संग्रहक:- राजेष माहेष्वरी

श्रद्धांजली

विचारों के संकलन, संपादन एवं प्रकाषन हेतु उन्हें प्रस्तुत करने में लगे समय समयन्तराल में डाॅ. ओ.पी. मिश्रा, पंडित केषव प्रसाद तिवारी एवं श्री राजेन्द्र तिवारी जी इस असार संसार से विदा हो गये। इस पुस्तक में उनके सहयोग के लिए हम उनके प्रति कृतज्ञ है एवं उन्हें अपनी हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करते है।

लेखक की कलम से

आषाओं से आच्छादित जीवन

मृत्यु षैया पर भी

आषाओं से विरत न हो सका

प्रभु की भक्ति में

मन रम ना सका।

अपनी व्यथा की कथा

सुनाने में ही वक्त बीत गया

मृत्यु का क्षण आ गया

षरीर से आत्मा मुक्त हुई

उसकी सकारात्मकता

सृजन के रूप मंे

स्मृति में अमर हो गई

नकारात्मकता देह के साथ

अग्नि में भस्म हो गई।

उसकी स्मृति में

सबकी आंखों से

गंगा की पवित्रता के समान

दो आंसू बह निकले

जो करूण रूदन में कही खो गए

जीवन का प्रारंभ से अंत है

या अंत से प्रारंभ

हम इसे समझने में ही

अपने आप में खो गए।

जीवन और मृत्यु की निर्भरता प्रभु इच्छा पर है परंतु मृत्यु के उपरांत भी हमारी स्मृति लोगों के मन में बनी रहे यह हमारे कर्मों पर निर्भर है। जन्म और मृत्यु जीवन यात्रा का एक पड़ाव है। इस विषय पर हमारे प्रबुद्ध जनों का क्या चिंतन है जो कि आज के युवा वर्ग के लिये मार्गदर्षक एवं उपयोगी हो सकता है ? यह जानने के लिये हमने समाज के ख्यातिलब्ध बुजुर्गों से संपर्क करके उनके विचारों को लिपिबद्ध किया। हमने इस हेतु एक प्रष्नावली उनके सम्मुख रखी और हमें हार्दिक प्रसन्नता है कि प्रायः सभी ने अपना सहयोग देते हुये अपने विचारो से अवगत कराया जिसके लिए हम उनके आभारी है। उन्हें दी गई प्रष्नावली इस प्रकार है:-

1. आपने जीवन के 80 वसंत पार कर लिये है। अब जीवन संभवतः सीमित है, आपके मन में जीवन के संबंध में विचार, संभावनायें, जीवन जीने की मन में इच्छाओें एवं दृष्टिकोण के संबंध में जानकारी प्रदान करें।

2. आप अपने षेष बचे हुए जीवन के समय का सदुपयोग कैसे करना चाहते है ?

3. आपके जीवन में घटित ऐसी घटनाएँ जो कि आज भी आपको याद हो, संस्मरण के रूप में बताने की कृपा करें।

4. जीवन और मृत्यु के प्रति आपकी क्या सोच है ? आप अपने जीवन दर्षन से समाज को क्या मार्गदर्षन देना चाहते है ?

5. समाज एवं परिवार से आपकी क्या अपेक्षाएँ है ?

6. इसके अतिरिक्त आप कुछ और बताना चाहते है जैसे पुनर्जन्म आदि तो उसका भी स्वागत है।

हमने विभिन्न क्षेत्रों के प्रबुद्धजनों से प्राप्त उनके विचारों कों, उनकी मूल भावना के अनुरूप रखते हुए इस पुस्तक में समाहित किया है। हमने इसके साथ ही कंैसर जैसे घातक रोग से पीडित कुछ रोगियो के विचारों को भी षामिल किया है, जिससे कैंसर पीडितों को आत्मबल मिल सके। मेरी स्वरचित प्रेरणादायक लघुकथाओं का भी संकलन इसमें किया गया है। हमारे पाठक जीवन के इन अनुभवों से मार्गदर्षन लेकर अपने जीवन को सफल ही नही सार्थक भी बनायेंगें ऐसी हमें आषा है। मुझे श्री अभय तिवारी ,योग षिक्षक श्री देवेन्द्र सिंह राठौर एवं श्रीमती वर्षा राठौर का सहयोग प्राप्त हुआ जिसके लिये मैं उनका हृदय से आभारी हूँ।

राजेष माहेष्वरी

106, नयागांव हाऊसिंग सोसायटी

रामपुर, जबलपुर, पिन- 482008 (म.प्र.)

ईमेल:- authorrajeshmaheshwari@gmail.com

मो.नं.:- 9425152345

अनुक्रमणिका

क्रं. रचना का नाम संस्मरणदाता

01 जीवन चक्र डाॅ. कंवर किषन कौल

02 मुष्किलों से कह देा मेरा खुदा बडा है प्रो. वीणा तिवारी

03 एक षाम गुमनाम सी श्री मोहन षषि

04 भक्ति साधन भी साध्य भी श्री बालकिषन दास चांडक

05 आदर्ष जीवन श्री अरूण कुमार निगम

06 हार जीत -------

07 दृढ संकल्प -------

08 गुमशुदा बचपन -------

09 विवेक -------

10 ईष्र्या -------

11 सर्वे भवन्तु सुखिनः डाॅ. फादर वलन अरासू

12 बचपन षुद्ध, यौवन प्रबुद्ध, बुढापा सिद्ध श्रीमती जय श्री बैनर्जी

13 मृत्यु - जीवन का अंतिम और परम सखा आचार्य कृष्णकांत चतुर्वेदी

14 आगे बढ़ो और बढ़ते ही जाओ श्री सतीषचंद्र दत्त

15 स्ंाबल श्रीमती ज्योतसना षर्मा

16 सच्चा प्रायष्चित --------

17 पाष्विकता --------

18 विष्वास --------

19 विद्यादान --------

20 मित्र हो तो ऐसा --------

21 प्रभु कृपा डाॅ. ओ.पी. मिश्रा

22 सेवाधर्म श्री राजेन्द्र पाल अग्रवाल

23 जाने षाम कहाँ पर हो श्री भगवतीधर वाजपेयी

24 प्रगति की आधारषिला - संघर्ष श्री राजेंद्र तिवारी

25 जहाँ चाह वहाँ राह डाॅ. अंजली षुक्ला

26 चेहरे पर चेहरा --------

27 समाधान --------

28 भिखारी की सीख --------

29 जीवन दर्षन --------

30 जीवटता --------

31 एकता श्रीमती विमलादेवी सुखानी

32 मोह मुक्त श्रीमती साकर बाई पालन

33 कर्तव्य श्री ए के खोसला

34 खुष रहें मस्त रहें श्रीमती नमिता राठौर

35 जीवन में इच्छाएँ सीमित हों श्री एस.के. निगम

36 उत्तराधिकारी ---------

37 वेदना -------

38 निर्जीव सजीव -------

39 नाविक -------

40 आत्मसम्मान -------

41 प्रेरणा पथ पंडित केषव प्रसाद तिवारी

42 जियो और जीने दो श्री एस. के गुप्ता

43 स्वस्थ्य रहिये मस्त रहिये श्री वासुदेव राठौर

44 समाधान में सहयोग श्रीमती स्वर्णलता गुप्ता

45 सभ्य समाज का निर्माण श्री ष्याम संुदर जेठा

46 अंतिम दान -------

47 श्रममेव जयते -------

48 लक्ष्मी जी का वास -------

49 नेता जी -------

50 कैंसर - निराषा से बचें डाॅ. ईष्वरमुखी

51 आत्मा अमरधर्मा श्री आर. आर सिंघई

52 कर्मफल डाॅ. ष्याम षुक्ल

53 जीवन का उत्तरार्ध श्री कौषल किषोर अग्रवाल

54 प्रभु दर्षन डाॅ. राजकुमार तिवारी ’सुमित्र’

55 स्ंघर्ष श्री देवेन्द्र सिंह मैनी

56 मानवीयता श्रेष्ठ धर्म श्री राषिद सुहैल सिद्दीकी

57 आत्मविष्वास -------

58 धन की महिमा -------

59 चापलूसी -------

60 आदमी और संत -------

61 प्रायष्चित -------

62 सेवा -------

63 श्रेष्ठ कौन ? -------

64 विनम्रता -------

65 कर्मफल -------

66 गुरूदक्षिणा -------

67 कर्तव्य -------

68 संत जी -------

१. जीवन चक्र

म.प्र. के सुप्रसिद्ध शिशु रोग विषेषज्ञ डा. कंवर किशन कौल (86 वर्ष) मूलतः काश्मीर के निवासी है। वे मेडिकल कालेज जबलपुर में शिशु रोग विभाग के विभागाध्यक्ष रहे है एवं मेडिकल कालेज के डीन के पद से सेवानिवृत्त होने के पश्चात चार वर्ष के लिये सऊदी अरब के दम्माम विश्वविद्यालय में शिशु रोग विभाग में प्रोफेसर के पद पर अपनी सेवाएँ प्रदान कर अब अपने गृहनगर में सेवाएँ दे रहे है डा. कौल ने बताया कि हमें अपने खाली समय का सदुपयोग करना चाहिए यही जीवन का मूल मंत्र है। मैं ऐसे समय का सदुपयोग कम्प्यूटर सीखने के साथ साथ, अंग्रेजी और हिंदी में कविताएँ एवं उर्दू में शेरों शायरी लिखने में करता हूँ। मुझे भारतीय शास्त्रीय संगीत से बहुत लगाव है। मेरी साहित्य में भी बहुत रूची है और मेरे द्वारा लिखित एक पुस्तक ‘व्हेन माय वैली वास ग्रीन’ काफी प्रसिद्ध हुई है।

मेरे एक विद्यार्थी ने एक बार पूछा कि आप कैसे है ? मैंने उससे कहा कि मैं वृद्धावस्था के प्रथम चरण में हूँ, उसने हैरान होकर मुझसे पूछा कि जीवन में वृद्धावस्था के कितने चरण होते है? मैंने मुस्कुराते हुए उससे कहा कि तीन चरण होते है। पहला चरण जीवित और क्रियाशील रहना, दूसरा चरण जीवित रहना परंतु निष्क्रिय रहना और तीसरा व अंतिम चरण जीवन में कुछ भी ना करके जीवित रहने के लिये खेद प्रकट करना। जीवन और मृत्यु के लिए कुछ कहना मेरी क्षमता से बाहर है परंतु इतना कह सकता हूँ कि इस विषय को विस्तारपूर्वक समझने के लिए श्रीमदभगवद्गीता को पढे। हमारे सभी प्रश्नो एवं शंकाओं का उत्तर उसमें समाहित है। हम सभी को यह मालूम है कि मृत्यु एक दिन होना ही है हमे ईश्वर से यही प्रार्थना करना चाहिए कि यह शांतिपूर्ण, दर्द एवं पीडारहित हो।

डा कौल ने एक घटना के विषय के में बताया जिसके दर्द की टीस आज भी उनके मन को विचलित कर देती है। यह बात अगस्त 1956 की है, एक सडक दुर्घटना में मेरा परिवार बुरी तरह से प्रभावित हुआ। इस कार दुर्घटना में मैंने अपनी माँ, बडी बहन और उनकी सास को खो दिया। यह दुर्घटना श्रीनगर के पास ही हुई थी। बारिश के कारण सडक किनारे कीचड हो गया था और कार फिसल कर उलट गई। इससे उसमें आग लग गई। आसपास के गांव वाले बमुष्किल मेरी सबसे बडी बहन और एक रिष्तेदार का बचा पाए जो जलने से जख्मी हो गए थे। जीवन में स्थापित होने और अपना परिवार होने के बाद मेरी माँ का एक दिन मेरे साथ आकर रहने का सपना था और वे अपने पोते के जन्म का इंतजार कर रही थी पर मौत के क्रूर हाथों द्वारा हमसे छीन लिए जाने के पाँच महीने बाद इसका जन्म हुआ। उनकी मौत का डरावना अनुभव मुझे आज भी सताता है खासकर उनके आधे जले शरीर को चिता पर रखकर मुखाग्नि देना जो एक बेटे के रूप में मैंने किया और पीडा को मैं षब्दों में बयान नही कर सकता।

हमें समाज के प्रति सेवाभावी दृष्टिकोण रखना चाहिए। एक दिन मुझे मालूम हुआ कि एक साध्वी महिला गरीब बच्चों के लिए निशुल्क शिक्षा प्रदान करती है एवं गरीबों की यथा संभव मदद अपने सीमित साधनों से करती आ रही है। मुझे उनके द्वारा किये जा रहे अच्छे कार्यों को देखने का सुअवसर प्राप्त हुआ। इससे प्रभावित होकर मैं पिछले चार वर्षों से वहाँ अध्ययनरत विद्यार्थियों को निशुल्क चिकित्सा सुविधाएँ उपलब्ध करा रहा हूँ जिससे मुझे अत्याधिक मानसिक शांति, संतोष एवं खुशी प्राप्त होती है। अंत में उन्होने कहा कि हमें जीवन में यह नही सोचना चाहिए कि हमारे परिवारजन और समाज के लोग हमारे लिए क्या कर रहे है ? बल्कि हमें बिना किसी आशा के उनकी मदद करनी चाहिए। मेरा यही कहना है कि जब तक जीवन है तब तक संघर्षशील रहकर नैतिकता एवं ईमानदारी से अपने कार्य के प्रति समर्पित रहते हुए जीवन जिये।

२. मुश्किलों से कह दो, मेरा खुदा बडा है

प्रोफेसर वीणा तिवारी (75 वर्ष) कैंसर से ग्रस्त होने के बाद भी अपनी सकारात्मक दृष्टि, दृढ़ इच्छाशक्ति और आत्मबल से इस रोग से निजात पा सकी है। वे शिक्षाविद् होने के साथ ही कवियत्री भी है। साहित्य के क्षेत्र में उनका नाम बडे ही सम्मान के साथ लिया जाता है। वे धार्मिक कार्यक्रमों में बडे श्रद्धा भाव से सम्मिलित होकर सामाजिक रूप से सतत् सक्रिय रहती हैं। उनका कथन है कि अगर हम गहराई से विचार करें तो भय रोग का नही मृत्यु का होता हैं। वैसे मृत्यु एक अनिवार्य सत्य है परंतु कारण, समय और प्रकार अज्ञात रहता है। इस सत्य पर हम चाहकर भी विश्वास नही करना चाहते है। कोई भी रोग मृत्यु का कारण हो सकता है पर कैंसर का नाम ही आपके शरीर से जीवन नही छीनता, जीवन शक्ति छीन लेता है। आपके अदम्य साहस को पटकनी दे देता है। आप अपने को बेचारा समझने लगते है और यह मानना ही आपको निराशा के गर्त में ढकेलता है। आप अपनी बची हुई अनगिनत सांसों की तरफ, उनमें छिपे भविष्य के सुख, उपलब्धियों, नये अनुभवों से पीठ कर लेते हैं। हर पल आप चिंता करते है मात्र मृत्यु की।

प्रश्न उठता है कि आपका यह व्यवहार आपके लिए आपके परिवार के लिये और समाज के लिए ठीक है क्या? भागवत में एक प्रसंग आता है- राजा परीक्षित को श्राप मिलता है कि सातवें दिन उनकी मृत्यु तक्षक नाग के काटने से होगी। यह जानकर परीक्षित संतों और विद्वानों के पास अंतिम सत्य को जानने बैठ गये। अभी तक प्राप्त ज्ञान के बाद भी अंतिम सत्य को जानने के प्रयास में जुट गये। इस ज्ञान ने उन्हे इतना साहसी बना दिया कि वे समय आने पर गंगा तट पर बैठ गये। उन्होने तक्षक की राह में फूल बिछा दिये और उसके स्वागत में दूध का कटोरा रख दिया और उसकी प्रतीक्षा करने लगे।

हम राजा नही है। गंगा तट पर प्रतीक्षा में नही बैठ सकते। फिर हम क्या करें ? यह प्रश्न सभी के जीवन का है। हर व्यक्ति के पास सात ही दिन है। हम इस तक्षक के जहर से बचने के लिये समय पर दवा करे। यदि रोग हो ही गया है तो उससे बाहर आने संकल्पित होकर प्रयास करें। प्राण शक्ति व आंतरिक ऊर्जा बढाये। निराशा के भरे पल न जियें। सहानुभूति व दया के पात्र न बनें। इस गर्त से बाहर आयें कि यह अपराध है वह भी इस जन्म का या पूर्व जन्म का। यह मात्र एक रोग है। संतुलित आहार लें। दवा समय पर लें व दिनोंदिन रोग में बदलते अपने रंग रूप को स्वीकार करें। उसे नकारने से आपका दुख बढेगा। जब आप प्रतिदिन खुली हवा में प्रकृति से सुबह मिलकर स्वयं को प्रसन्नता से भर लेंगे तो आपके आसपास, आपसे जुडे लोगो पर भी इसका सकारात्मक प्रभाव पडेगा।

आप योग से जुडे आशावादी साहित्य पढे। ध्यान, जप आपकी आत्मशक्ति को बढायेगा। स्वयं से वादा करें कि न तो मैं डरूंगा और न ही मृत्यु के पहिले भय से मरूंगा। खुश रहूँगा व खुश रखूंगा। सात दिन तो सबके पास है, पर पूर्व के छः दिनों में अपनी अधूरी योजनाओं को पूरा करूंगा। हर पल जीना चाहूँगा। कभी निराशावादी माहौल में न तो स्वयं रहूँगा न ही किसी को अपने कवच को भेदकर निराशा में डुबाने दूँगा। कितने सात दिनों का चक्र बीतेगा, पता नही ? तो इतवार को ही अंतिम क्यो मानूँ। प्रकृति हर मौसम में सुंदर है चाहे वसन्त हो या पतझर। वैसे तो आजकल मुझे एक गीत की एक कडी बहुत अच्छी लग रही है -

‘ये मत कहो खुदा से, मेरी मुश्किलें बडी हैं।

इन मुश्किलों से कह दो, मेरा खुदा बडा है।‘

३. एक शाम गुमनाम सी

श्री मोहन शशि (83 वर्ष) साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में एक आधार स्तंभ एवं नये युग के सूत्रपात के रूप में जाने जाते हैं। वे वरिष्ठों का सम्मान, समव्यस्कों से स्नेह और कनिष्ठों को प्रोत्साहन देने के स्वभाव के कारण सभी वर्गों में सम्माननीय है। उनसे मुलाकात होने पर इस अवस्था में भी उनकी युवा लोगों के समान सक्रियता, उनके कर्मठ जीवन का प्रमाण है। उनके अनुसार जीवन एवं मृत्यु के प्रति धारणा ... क्या कहूँ ? हम तो कठपुतली है, डोर ऊपर वाले के हाथ ! उनके ही इशारों पर नाच रहे हैं, वहाँ डोर टूटी...... यहाँ राम नाम सत्य.......‘मुट्ठी बांधे आए थे और हाथ पसारे जाना है’ तब समय से पूर्व चिंता की चिता सजाने से क्या लाभ ?

जीवन तो जीने का नाम है और इस जीवन की शाम, गुमनाम है। उसे जब, जहाँ, जैसे आना है..... आए .....स्वागत है। जहाँ तक जीवन के संबंध में विचार का प्रश्न है तो अपने राम तो ’बीती ताहि बिसार दे.....’ ’और आगे सोचे-बैरी खाय’ के पक्षधर रहे है। जो सामने है, उसे वर्तमान को जीना ही मैंने श्रेयष्कर माना है। संभावनाएँ.... खट्टे अंगूर रहीं तो अब ’जाहि विधि राखै राम, ताहि विधि रहिए’ पर मनसा वाचा कर्मणा से मोहर ठोककर जीने का आनंद ले रहा हूँ। जीवन-क्रम पहले भी अनुशासन के बंधनों से मुक्त रहा है और अभी भी ’वही रफ्तार बेढंगी......।’ दृष्टिकोण.....

जिंदगी जिंदादिली का नाम है,

मुर्दादिल खाक जिया करते है।

उन्होंने बताया कि अपने बचे हुए जीवन से समय का सदुपयोग कुछ लिख के, कुछ पढ के, कुछ सुन के, कुछ सुना के...... साहित्य और समाज सेवा में लगा के करता रहूँ, जीवन की अंतिम श्वास तक कलम चलती रहे, गीत गाते प्राण जाएं तो मृत्यु को धन्य मानूं।

स्वाभिमान और शान से, लडी ये जीवन जंग,

और चढ़ाव उतार के, भोगे सारे रंग।

आमंत्रण है मृत्यु को, चलते-फिरते आय,

अपने न सपने रहें, मेरे मरण प्रसंग।

संस्मरणों की गागर छलकाई तो स्मृतियों के झरोखों से झांके वे पल जब 1962 में अंतर्राष्ट्रीय युवक शिविर यूगोस्लाबिया के लिए दिल्ली से मुम्बई पहुँचा। गन्तव्य के लिये उडान भरने कई घंटे की देर थी। पैदल ही घूमने निकला। सडक किनारे एक तथाकथित ज्योतिषी जी पर नजर गई। अनायास पहुँच गया उनके पास समय व्यतीत करने हेतू। दक्षिणा रखी और हथेलियाँ खोल उनसे भविष्य बतलाने का आग्रह किया। ज्योतिषी जी ने भविष्य के ढेर सारे सजीले सपने दिखाए और जब विदेश यात्रा का संयोग जानना चाहा तब बडी गौर से रेखाएँ देखते हुए जैसे ही वे बोले अभी नही 10-12 साल बाद तो मैंने पहले तो दक्षिणा में दिए पैसे उठाए फिर उन्हें पासपोर्ट दिखाते हुए कहा - ज्योतिषी जी! 10-12 साल आज ही पूरे गये। मैं हंसता हुआ चल दिया, ज्योतिषी जी ठगे से देखते रह गये। हमारा समाज बौद्धिक, शिक्षित और शान्तिप्रिय अपेक्षित है और अनेकता में एकता के इन्द्रधनुष बिखरें, साम्प्रदायिक सद्भावना के साथ देश में विकास की गंगा बहे, एकता के अमोघ अस्त्र से हर दुश्मन के छक्के छुडाएं, महान भारत राष्ट्र को पुनः विश्व गुरू, पुनः सोने की चिडिया बनायें.... सच! धन्य हो जाएं यदि पूरी हो जाएं ये अपेक्षाएं।

४. भक्ति साधन भी, साध्य भी

श्री बालकिशन दास चांडक उम्र 92 वर्ष माहेश्वरी समाज में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक प्रतिष्ठित व्यक्तित्व है। वे विभिन्न समाजसेवी संस्थाओं के माध्यम से देश व समाज की सेवा में संलग्न है। इतनी उम्र्र होने के बाद भी यथाशक्ति सक्रियता बनाए हुये हैं। उनका कहना है कि वास्तव में मनुष्य जीवन मृत्यु के विधान से कर्मानुसार बंधा हुआ है। हमारे शास्त्र तो हमें यही प्रेरणा देते है कि चौरासी लाख योनियों में भटक कर यह मनुष्य जन्म प्राप्त हुआ है। मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जिसमें विवेक है व विवेक के आधार पर वह अपना जीवन सफल कर सकता है। इस विषय को बहुत कुछ अध्ययन व सत्संग के माध्यम समझा है। यही कहा जाए तो श्रीमद् भगवद्गीता द्वारा इस संबंध में सभी कुछ भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन के माध्यम से हम सभी को समझाया है।

श्री चांडक जी ने विभिन्न संस्थानों में अनेक पदों पर कार्य करने के उपरांत अगस्त 1998 को 69 वर्ष की आयु में स्वेच्छा से अपने को कार्यभार से मुक्त करके सामाजिक, राष्ट्रीय व धार्मिक संस्थाओं से जुडने का निर्णय ले लिया एवं तभी से वनवासी कल्याण आश्रम, सेवाभारती एवं पुष्टीमार्गीय संप्रदाय के विभिन्न आयोजनों एवं उत्सवों में सक्रियता से भाग लेना प्रारंभ कर दिया। श्री विष्णु स्वामी संप्रदाय प्रवर्तित आचार्य चरण श्रीमद वल्लभाचार्य जी ने शुद्धाद्वैत के रूप में हमें जीवन दर्शन दिया है। आपके पूर्व के आचार्यों ने अपने अपने संप्रदाय, ब्रह्म सूत्र, वेद व गीता पर आधारित विचार रखे है। आचार्य चरण ने इन तीन के साथ श्रीमद् भागवत महापुराण को लिया है। इसमें वर्ण, जाति, लिंग भेद को स्थान नही दिया है। प्रत्येक मनुष्य को इस मार्ग में बताये अनुसार सेवा का अधिकार मिला है।

मुझे जीवन में पारिवारिक स्वजनों को साथ लेकर प्रभु सेवा ही सबसे सरल प्रतीत होती है। इसमें साधन भी प्रभु सेवा व फल भी प्रभु सेवा ही है। जीवन कितना शेष है यह तो नही मालूम परंतु अभी जिस हिसाब से प्रभु की चरण वंदना की सेवा मिल रही है, प्रभु से यही प्रार्थना है कि मृत्यु के उपरांत अपनी शरण में रखें। हमारे परिवार के सभी सदस्यगण मेरी पूरी देखभाल करते है और मुझे इस उम्र में क्या चाहिए ? वे समय भी देते है और स्वास्थ्य व अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति भी कर देते है।

जीवन में कुछ घटनायें जिसमें ईश्वर ने स्वयं मदद की संभवतः जीवन अभी तक जीने का यही कारण हो। हाँ एक कार्य जो कि अत्याधिक कठिन लग रहा था, वह प्रभु ने किस प्रकार आनंद पूर्वक संपन्न करा दिया इसकी कल्पना से ही उनकी अपार कृपा का दिग्दर्शन होता है। जून 1967 में कारखाना बंद होने के कारण नौकरी से बाहर हो गया था। उस समय मेरी आयु 38 वर्ष की थी। ज्येष्ठ संतान के रूप में पुत्री थी, इसकी आयु 18 वर्ष की थी। विवाह की चर्चा चल रही थी। मेरे बजट को देखते हुए संबंध में मध्यस्थ व्यक्ति उसे सिर्फ सगाई की राशि कहते थे। उस समय राशन प्रणाली थी, गेहूँ व शक्कर उपलब्ध नही था। संबंध पक्का कर दिया गया व विवाह जुलाई 1967 को सम्पन्न होना निश्चित हुआ। विवाह आनंदपूर्वक कैसे संपन्न हुआ इसकी आज कल्पना भी नही कर सकता। प्रभु ने पग पग पर आने वाली कठिनाईयों को किस प्रकार दूर किया यह वही जाने। मुझे आज भी ऐसा महसूस होता है कि वास्तव में विवाह कार्य स्वयं प्रभु ने पूरा किया है। समाज का जो सहयोग पारिवारिक सदस्यों के रूप में मिला अकथनीय है।

जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु निश्चित है। जीवन और मृत्यु के बीच में मनुष्य जो कार्य करता है, अधिकांशतः पूर्व जन्मों के कर्मानुसार है। प्रभु ने उसे विवेक दिया है और विवेक से वह इस जीवन में जो अच्छे बुरे कार्य करता है वह आगामी जीवन के लिये कर रहा है। हाँ प्रभु ने इतनी बडी कृपा इस कलयुग में की है कि जो उसकी शरण में चला जाता है तथा ईश्वर को केंद्र बिंदु में रखकर कार्य करता है, कर्म को कर्म के लिये विवेकपूर्वक करता है उसमें विचलित नही होता है एवं उन्हें ईश्वरीय कार्य समझकर करता है उसके इस भक्तिपूर्वक किये गये कार्य को ईश्वर स्वीकार करता है, जिसकी विस्तृत मीमांसा गीताजी के योगक्षेम के अंतर्गत की गई है।

आज समाज का दृष्टिकोण बदल गया है। पहले यह समाज पूर्णरूप से सेवा भावी था किंतु आज पद की प्रतिष्ठा बन गई है। यद्यपि पदेन अधिकारी, अपने आपको सेवक अवश्य कहते है किंतु वास्तविकता कुछ और है, इसमें कुछ व्यक्ति अपवाद रूप में आज भी समाज सेवा में लगे हुए है, फलस्वरूप उच्चाधिकारी ऐसे व्यक्तियों को महत्व भी देते है। जहाँ तक समाज के लिये मार्ग दर्शन का प्रश्न है आज मशीनी युग है। साथ ही शैक्षणिक स्तर भी बढा है। अंतर्जातीय विवाह आम बात हो गई है। इससे अब बहुत कम परिवारों में पुराना कल्चर बचा हुआ है। यह अब शनैः शनैः आगे बढता जायेगा व इसे स्वीकार करना होगा। हमारी आयु के लोगों को उसमें एडजस्ट होना ही उनके लिये श्रेयस्कर है।

वे राष्ट्र की वर्तमान आरक्षण नीति से सहमत नही है। उनका कथन है कि इसके कारण अपेक्षित प्रगति नही हो पा रही है और कुछ राष्ट्र जो हमारे बाद स्वतंत्र हुये थे, हमसे कही आगे बढ गए है। आरक्षण के कारण अयोग्य व्यक्ति, योग्य व्यक्ति का अधिकार छीन रहा है। इससे योग्य व्यक्ति कुंठित होता है और अपनी योग्यतानुसार कार्य ना करके आगे नही बढ पाता है। आज हमारी अनेकों प्रतिभाएँ इसी कारण विदेशो में जा रही हैं। राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं के कारण नेता इस समस्या को दूर भी नही करना चाहते चाहे देश को कितना भी नुकसान पहुँचता रहे। देश में बेरोजगारी बढ रही है और सरकार सेवानिवृत्ति की आयुसीमा बढाती जा रही है जो कि पूर्व में 55 वर्ष थी जिसे बढाकर 62 वर्ष कर दिया गया है। वे कहते है कि अनेंकों अपराधों की जड मदिरा है जिसका सेवन करके मनुष्य दानव हो जाता है और अवांछनीय कृत्य करता है। मेरा चिंतन है कि यदि व्यक्ति शराब पीना छोड दे अनेकों स्वमेव समाप्त हो जायेंगे। वे वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना को ही अपना जीवन मानते है।

सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कष्चिद् दुखः भाग भवेत्।

५. आदर्श जीवन

म.प्र. की संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध अधिवक्ता श्री अरूण कुमार निगम (85 वर्ष) का कहना है कि जीवन में आदर्शवादिता एवं कर्तव्यों के प्रति कर्मठता होना आवश्यक है तभी देश और समाज सुदृढ व्यवस्थित व उन्नत हो सकेगा। हमारा जीवन ईश्वर का दिया हुआ वरदान है। मृत्यु एक परम सत्य है। यदि हम उपकार ना भी कर सकें तो भी हमारे द्वारा किसी का अहित और अमंगल नही होना चाहिए। जीवन में मानवता से बडा कोई धर्म नही होता और परहित से बडा कोई कर्म नही होता। उनका कथन है कि हमें शांति, ईमानदारी एवं नैतिकता पर आधारित जीवन जीना चाहिए ताकि आदर्श समाज की स्थापना हो सके।

सन् 1978 के जून माह में, मैं अपनी पत्नी के साथ लायंस क्लब की मीटिंग में टोक्यो (जापान) गया था जिसमें कई देशो के प्रतिनिधि आये हुए थे। मैंने महसूस किया कि वहाँ के निवासियों को अपनी संस्कृति व सभ्यता से बहुत प्रेम है। वे स्वभाव से विनम्र, ईमानदार, मेहनती और देशभक्त होते है। उनमें अपने काम के प्रति जबरदस्त समर्पण, संवेदनशीलता एवं समय की पाबंदी है। मैंने उनकी जीवनशैली को देखकर जिंदगी को जीना सीखा। इस सम्मेलन को जापान के राष्ट्रपति द्वारा भी संबोधित किया गया था। यह मेरे जीवन का अभूतपूर्व और अविस्मरणीय अनुभव था जो हमेशा मेरे जीवन में मेरे काम आया एवं वे अविस्मरणीय पल आज भी मेरे मानस पटल पर अंकित है। मैं आपको एक उदाहरण बता रहा हूँ जो कि हम सभी के लिए प्रेरणादायक है।

अमेरिका की एक कंपनी ने जापान के टोकियो शहर में अपना बहुत बडा कार्यालय प्रारंभ किया। इसमें उच्च पदों पर अमेरिका के अधिकारियों को नियुक्त किया गया। उन वरिष्ठ अधिकारियों की सोच यह थी कि हमें अमेरिका के समान सप्ताह में पाँच दिन कार्य करना चाहिए एवं दो दिन शनिवार एवं रविवार को अवकाश रखना चाहिए। ऐसा करने से कर्मचारियो में उत्साह एवं पाँच दिन पूर्ण क्षमता के साथ अच्छा काम करने की ऊर्जा बनी रहेगी। उन्होंने जब अपनी इस सोच को कार्यरूप में परिणित किया तो वे हैरान रह गये कि वहाँ के कर्मचारियों ने इसका विरोध करते हुए हडताल कर दी। उनका कथन था कि हमें दो दिन की जगह सिर्फ एक दिन रविवार को ही अवकाश दिया जाए अन्यथा हम आलसी और अकर्मण्य हो जायेंगे। यदि शनिवार को भी अवकाश रहा तो हम बाजार में बेवजह फिजूल खर्ची करके अपने धन का दुरूपयोग करने लगेंगें। अमेरिका से आये अधिकारीगण यह सुनकर आश्चर्यचकित रह गये और उन्हें शनिवार का अवकाश समाप्त करना पडा। यह उदाहरण बताता है कि जापान के लोगों में कार्यरत रहने की कितनी प्रबल अभिलाषा है और यही कारण है कि जापान आज विश्व में तरक्की के उच्च शिखर पर है।

हमारी जीवनशैली इस प्रकार की होनी चाहिए कि हमारे कर्म सेवा की भावना से प्रेरित रहे एवं किसी का अहित या अमंगल न हो सके। हमें किसी से भी किसी प्रकार की अपेक्षाएँ नही रखना चाहिए अन्यथा अपूर्णता रहने पर मन में दुख एवं वेदना का अहसास होता है। हमे केवल अपने कर्तव्यों एवं जिम्मेदारियों का यथासंभव निर्वहन करना चाहिए यदि हमें कोई अपेक्षाएँ रखनी ही हो तो वह हमें उस परम पिता परमात्मा से पूर्ण करने की प्रार्थना करना चाहिए क्योंकि वही ब्रम्हांड को संचालित करता है।

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