पहले कदम का उजाला - 8 सीमा जैन 'भारत' द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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पहले कदम का उजाला - 8

लम्बी बीमारी…

घर आकर एक बार फिर रोली को बहुत तेज बुख़ार आया। पूरी रात उसको सहलाते हुए बीती।

अगले तीन दिनों तक मैं एक ही दुआ कर रही थी कि रोली का ये बुख़ार कोई बड़ा रूप नहीं ले ले। सब कुछ ठीक रहे। डॉक्टर देव को जिसका अंदेशा था वही हुआ… टी. बी.!

मैं रोली को लेकर सीधी अस्पताल भागी। एक लंबा इलाज मेरे हाथ में था। अभी छः महीने बाद में आगे बढ़ाना है या नहीं ये देखा जाएगा।

सरकारी अस्पतालों में टी.बी. का इलाज मुफ़्त में दिया जाता है। बाहर से कुछ नहीं लेना पड़ता है। मेरे पति का एक और फायदा! मैं उस समय किस्मत पर बहुत नाराज़ हुई थी।

जिंदगी को हमारी भावनाओं से कोई मतलब नहीं होता है। वो तो बस चलती रहती है। निर्विकार भाव से!

हाँ, ये जीवन के रास्ते बहुत सारे सबक भी सिखाते जाते हैं। अब ये हमारी दृष्टि है कि हम क्या और कितना समझ पाते हैं।

रोली की तबियत ठीक नहीं थी पर वो ज़िद कर रही थी कि मैं स्कूल जाकर उसकी पढ़ाई की बात करके आऊँ।

रोली की पढ़ाई का बहुत ज़्यादा नुक़सान हो रहा था।

मैंने पति से कहा “आप स्कूल जाकर प्रिंसिपल से बात कर आओ। रोली को रोज के नोट्स घर पर ही मिल जाये तो अच्छा होगा।”

“अब पहले इसकी बीमारी को तो देख ले फिर पढ़ाई भी हो जाएगी। आज ही कलेक्टर बनना है क्या इसको?”

“यह रोली की ही इच्छा है कि उसे नोट्स मिल जाये। अब उसका सारा काम मैं देख तो रही हूँ। आप स्कूल चले जाओ।”

“पता है तू ही सब कर रही है तो फिर ये काम भी ख़ुद ही कर ले!”

“स्कुल बहुत दूर है। टेम्पो से जाने में चार घण्टे लग जाएंगे। अभी रोली को अकेले छोड़ना ठीक नहीं।”

ये शब्द क्या मुँह से क्या निकले? पति और सास ने घर सर पर उठा लिया।

“मतलब तू सब कुछ कर रही है और हम तमाशा देख रहे हैं?”

बाहर के कमरे में कोई आकर खड़ा है। हमारी सारी बातें सुन रहा है। काम वाली बाई ने कब दरवाजा खोला और डॉक्टर देव हमारे घर में खड़े थे। किसी को होश नहीं था।

मैंने अपने आप को सम्हाला, रात में रोली का बुखार बहुत तेज था। और दवाई लेने के बाद उसे उल्टियां आ रही थी। जिसके कारण वो बहुत कमज़ोर हो गई थी। मैंने रात को काकी को ये सब बता दिया था। इसीलिए देव घर आ गये थे।

उन्होंने कहा था “रोली को परेशान न करे! मैं सुबह बुआ जी से मिलने आऊँगा तो रोली को भी देख लूँगा।” बुआ जी का बहाना सिर्फ़ इसलिए ताकि हमें ये अहसान न लगे। किसी की अच्छाई की कोई सीमा नहीं होती तो किसी की…

अब किसे पता था कि रोली के साथ वह हमारे घर की महाभारत भी देख लेगें।

कमरे में रोली को देखते हुए उनके चेहरे से यह बिल्कुल नहीं लग रहा था कि वो एक पूरा दृश्य देख चुके हैं।

मेरे पति और सास जब भी बीमार पड़े, मैंने पूरी निष्ठा से उनकी सेवा की थी। हमेशा यही सोचती थी कि फ़र्ज में खरा होना हमारी अपनी ज़रूरत है। किसी का व्यहवार कैसा भी हो, हमें अपना फर्ज पूरी ईमानदारी से पूरा करना चाहिए।

फर्ज के इस महल की नींव तो कब की डगमगा चुकी थी अब दीवारें भी गिरने लगी थी।

आज ये दोनों रोली और मेरे साथ जो कर रहे हैं। उससे एक बात समझ में आई फ़र्ज की बात हम जैसे बेवकूफ़ ही करते हैं। ये जिस मिट्टी से बने हैं वहाँ इन सबके लिए जगह ही नहीं है।

“कोई भी परेशानी हो तो, बेझिझक आप बात कर सकती हैं।” रोली को देखकर कुछ दवाइयां लिखकर देव चले गए।

आज मैं अपनी बिखरी जिंदगी को देखकर अपने आप से सवाल कर बैठी “मैं इस आदमी के साथ क्यों रह रही हूँ?”

जवाब भी उसी वक़्त आ गया। मैं इतनी सशक्त नहीं हूँ कि पूरा घर ख़र्च उठा सकूँ।