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चाणक्य की उलटफेर

ऐतिहासिक कहानी

चाणक्य की चतुराई

मगध साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र उस दिन दुलहिन की तरह सजाई गई थी। साम्राज्य के नये राजा चन्द्रगुप्त को राजसिंहासन पर बैठाया जा रहा था। पाटलिपुत्र के आसपास के अनेक राज्यों के लोग इस उत्सव को देखने एक रात पहले से आ जमे थे। राजधानी के चारों ओर कड़ी सरक्षा व्यवस्था थी। राज महल के सामने के विशाल मैदान में ऊंचे मंच पर खड़े युवा चन्द्रगुप्त को राजमुकुट पहनाने के बाद चाणक्य ने बहुत ऊंची आवाज में कहा ‘‘ सभी लोग सुनें, आज से मगध साम्राज्य के नये राजा चन्द्रगुप्त मौर्य होंगे। अब मगध में राज काज के नये नियम लागू होंगे। प्रजा का हरेक नागरिक अपने आपको राजा समझे। हमारे राज्य की प्रजा के हर आदमी को यह अधिकार होगा कि वह जब चाहे राजा के पास आकर अपनी मुसीबत बता सकता है।’’

इस खुले राजदरबार में उपस्थित हुए पाटलिपुत्र नगर के प्रमुख लोगों ने चाणक्य की इस बात पर खूब प्रसन्नता प्रकट की। दरबार कक्ष की खिड़की पर खड़ी चन्द्रगुप्त की माँ मुरा तो पुलकित हो उठी क्योंकि यह घटना किसी चमत्कार से कम न थी कि आज प्रजा के एक सामान्य से परिवार का लड़का राज-सिंहासन पर बैठ रहा था । चाणक्य ने यह सिद्ध कर दिया था कि राजा जन्म से पैदा नहीं होते, अपने कर्म से भी बन सकते हैं, कोई भी आदमी अपनी योग्यता से भी राजा बन सकता है। इतिहास की यह पहली घटना थी जब जन्म और जाति के बजाय योग्यता को महत्व दिया जा रहा था।

यह घटना आज से लगभग दो हजार साल पहले की है, उन दिनों मगध साम्राज्य आर्यावर्त का सबसे बड़ा साम्राज्य था। पूरा भारत एक राज्य न हो कर अनेक छोटी-छोटी रियासतों में बंँटा हुआ था। हर दो-चार कोस पर राज्य की सीमा बदल जाती थी। छोटे राज्यों की छोटी सेना होती थी, छोटे आकार होते थे । जिसकी जब मर्जी होती पड़ौसी राज्य पर हमला कर देता और सुबह से आरंभ हुई लड़ाई का परिणाम शाम तक आ जाता था , जो कमजोर होता वह बंदी बना लिया जाता जो जीतता वह बड़ी शान से जीते हुऐ राज्य के सिंहासन पर बैठ कर हारा हुआ प्रदेश अपने राज्य में मिला लेता था।

मगध साम्राज्य में ऐसा उलटफेर केवल चाणक्य ही कर सकते थे, दूसरा कोई नहीं। क्योंकि मगध साम्राज्य का महा मंत्री एक बहुत चालाक और बहादुर व्यक्ति था जिसका अजीब सा नाम था- राक्षस! लेकिन चाणक्य तो राक्षस से भी तेज थे, उन जैसा तेज मस्तिश्क लाखों आदमियों में से एक को होता होगा। अपनी गुपचुप तैयारियों के दम पर वे मगधराज का तख्ता पलटने में सफल हो गये और साम्राजय के सबसे महत्वपूर्ण पद पर अपने शिश्य को बिठा दिया। यह सब हुआ जरा सी बात पर, जबकि मगध नरेश पद्म नंद ने चाणक्य का अपमान कर दिया।

कहानी इस प्रकार हैं ।

चाणक्य के पिता आचार्य चणक को राजा पद्म नंद के मंत्रियों ने एक षड़यंत्र में फँसा कर कारागार में बन्द करा दिया था और उनकी मृत्यू उसी कारागार में हुई । बचपन से चाणक्य के मन में पद्म नंद के लगातार नफरत बढ़ती गई । अपने पिता के दो मित्रों एक व्यापारी और एक जमींदार के यहां रहते हुए राजा के गुप्तचरों सेे छिप कर पले-बढ़े । अपने संरक्षकों के आश्रय में रहकर उन्होंने बिना प्रयास के बचपन से ही राजनीति और हाटबाजार से जुड़ी बहुत सारी बातें सीख ली थीं।

बड़े होकर जब उन्हे आचार्य की उपाधि प्राप्त हुई तो राजधानी की एक पाठशाला में वे उप आचार्य नियुक्त हो गये । महाराज पद्म नंद के प्रति मन में जमी हुई नफरत को उन्होने किसी पर प्रकट नहीं होने दिया । एक बार की बात है कि राज परिवार की ओर से आयोजित ब्राह्मण-भोज में उन्हे भी न्यौता मिला और वे मजा लेने के लिए भोजन करने चले गए। खाना परोस दिया गया था कि किसी ने राजा नंद को बताया कि आपके दुश्मन चणक का बेटा कौटिल्य आज ब्राह्मणों की पंक्ति में विराजमान है, आप को उसके पांव छूना पड़ेंगे । यह सुना तो नंद का गुस्सा सातवें आसमान पर जा पहुंचा उन्होने तुरंत ही चाणक्य को उठ कर चले जाने का आदेश दे दिया।

चाणक्य ने पूछा ‘ यदि मुझे भोजन कराने की हिम्मत नहीं थी तो आपने मुझे आमंत्रित क्यों किया? ’

राजा पद्म नंद ने उनकी बात काट कर उन्हे डांट दिया‘‘... बस्स चाणक्य , बहुत हो चुका। अब तुम यहां से तुरंत ही बाहर चले जाओ, अन्यथा मैं तुम्हे राजद्रोह के आरोप में कैदखाने में डाल दूंगा।’’

क्रोध में तमतमाते चाणक्य ने देखा कि अब कुछ भी कहना उचित नहीं होगा अगर वे कैद हो गये तो अपने पिता के अपमान का बदला कभी नहीं ले पायेंगे। वे तुरंत ही महल से बाहर निकल गये। गुस्से से उनकी नाक फड़फड़ा रही थी। आंखें लाल हो चुकी थीं। वे इतने रोश में भर गये कि अपने बाल नोचने लगे। मस्तिश्क के पिछले हिस्से में बंधी उनकी मोटी चोटी भी इसी क्रम में उनके हाथ आ गई तो उन्होंने उसकी गांँठ खोल डाली। रास्ते में एक परिचित सभासद मिले तो उन्होने प्रणाम किया और चाणक्य को देख कर वे थोड़े अचरज से भर गये। विनम्रता से बोले -‘‘ चाणक्य जी, आपकी चोटी खुल गई है!’’

‘‘ ये चोटी तुम्हारे राजा के विनाश के लिए खोली गई है। यह तभी बंधेगी जबकि राजा पद्म नंद के पूरे खानदान का विनाश हो जायेगा।’’ आग जैसे जलते स्वर में चाणक्य बोले।

वह मंत्री तो डर के मारे चुप हो गया और वहां से खिसक गया।

चाणक्य अपनी नाक की सीध में चल पड़े । उन्हे न कोई दिशा दिख रही थी न कोई मंजिल। जाने कब उनके पांव की खड़ाऊ गिरीं , उन्हें पता ही न चला। पता तो तब लगा जब कि उनके पांव में कोई नुकीली चीजें चुभीं। उन्होने झुक कर देखा नदी किनारे पाई जाने वाले घास ‘कुश’ के नोकदार तिनके चाणक्य के पांव को लुहूलुहान कर उठे थे।

गुस्से से भरे चाणक्य ने झुककर कुश उखाड़ना शुरू कर दिया।

वे काफी देर तक कुश उखाड़ते रहे, लेकिन कुश की कोई सीमा न थी। पूरी नदी के किनारे कुश का लघुतम जंगल फैला हुआ था। अचानक एक बुजुर्ग पंडित वहां से निकले और चाणक्य को कुश उखाड़ते देखा तो समझाने के अंदाज में बोले, ‘‘ बेटा, कुश ऐसे नहीं मिटेगी, इसे उखाड़कर जब तक इसकी जड़ में मट्ठा नहीं डालोगे यह यूं ही पनपती रहेगी।’’

चाणक्य को लगा कि पंडितजी ने यह बात घास के सिलसिले में नहीं बल्कि नंद के राज्य को लेकर कहीं है। उन्होने बुजुर्ग पंडित को प्रणाम किया और बोले ‘‘ धन्यवाद श्रीमान !’’

चाणक्य को अब कुछ होश आया। वे संभले और अपने एक मित्र के यहां चल दिये।

मि़त्र ने चाणक्य को परेशान देखा तो कारण पूछा। चाणक्य ने सोचा कि मन की बात दूसरों से कह देने से पराई हो जाती है, इसलिए वे असली बात छिपा गये। इधर-उधर की बातें कीं और एक रात मित्र के यहां रूक कर वे अपने उद्देश्य को पाने के लिए एक अजनबी सफर पर चल पड़े। एक रियासत से दूसरी और दूसरी से तीसरी में घूमते हुए वे ऐसे आदमी खोजने लगे, जो खूब तगड़े हों और बहुत वफादार हों। जल्दी ही उनके पास ऐसे लोगों की सूची तैयार हो गई जो उनकी नजर में किसी भी कठिन लड़ाई में जीत सकते थे। उन्होने हर व्यक्ति को यह भी भरोसा दिलाया कि जिस दिन मगध राज्य उनके पास होगा वे अपने साथियों को ऊंचे पदों पर बिठायेंगे।

चाणक्य इस अंदाज मंे अपनी बात बोलते कि सुनने वाला तुरंत भरोसा कर लेता। उन्होंने अपनी योजना खूब सोच कर बनाई । उनका ध्यान इस बात पर था कि कैसे नंद पर मनोवैज्ञानिक दबाब बनाया जायेगा।

चाणक्य ने देखा था कि पद्म नंद अब नाच-गाने और खाने-पीने में मगन रहता है, उसे न तो अपने राज्य की कोई चिन्ता रहती है, न ही वह अपनी सुरक्षा के लिए चिन्तित रहता है। कभी कभी तो वह शिकार के लिए लापरवाही में दूसरे राज्य के घने जंगल में चला जाता था, फिर कई दिनों तक वहीं पड़ा रहता। दरअसल चाणक्य को पता था कि असली मुकाबला नंद से नहीं होना बल्कि उसके महामंत्री राक्षस से होना है।

मगध की प्रजा बहुत सीधी-सादी थी उसे कुछ न चाहिये था बस वे इतना चाहते थे कि उन्हे सुखपूर्वक जीने की आजादी मिले और अपनी मेहनत की पूरी कीमत दी जाये ,ताकि वे अपना व परिवार का पेट भर सकें। लेकिन मगध की प्रजा बहुत से बंधनो से जकड़ी थी। कदम कदम पर बहुत सारी बंदिश लगीं थीं लोगों पर, बिना राजा से पूछे कोई समाज-भोज नही कर सकता था, बिना राजा से पूछे कोई ब्याह नहीं कर सकता था यहां तक कि किसी का बच्चा बिना राजा से पूछे किसी पाठशाला में जाकर पढ़ाई नही कर सकता था। लोग नाराज थे पर कहते नहीं थे।

चाणक्य ने एक गुरूकुल बनाया और उसमें अपने विश्वासपात्र लोगों को या तो शिक्षक के रूप में नियुक्त किया या फिर छात्र के रूप में वहां बुला लिया। इस गुरूकुल में थोड़ा थोड़ा जहर रोज चखने वाली विशकन्याओं को भी तैयार किया जाने लगा जिनके सारे शरीर में खून के साथ विश फैलने लगा था।

चाणक्य को पता लगा कि उत्तरी क्षेत्र में कुछ सैनिकों ने नगर के एक धनिक से उसका धन छीन लिया और वहां के लोग ख्ुाल्लमखुल्ला पद्म नंद के खिलाफ हो गये हैं तो वे तुरंत ही उत्तरी क्षेत्र में जा पहुंचे और उन्होंनेे ऐसे लोगों को भरपूर समर्थन दिया। वहां के लोग अपना नेता चाणक्य को बनाना चाहते थे लेकिन उन्होने कहा िकवे अपना नेता अपने बीच से चुनें। सबको लगा कि चाणक्य बिना स्वार्थ के उनका साथ दे रहे हेैं और वे सब चाणक्य के भक्त हो गये।

चाणक्य ने अपने कुछ चुने हुए लोगों को जंगल के गोरिल्ला जानवर की तरह छिप कर हमला करना सिखाना शुरू किया । उनके लोग इस ताक में रहने लगे कि जब दूर-दूर के गांँवों से लगान वसूल हो कर पाटलिपुत्र के लिए ले जाया जा रहा हो, और राजा के सैनिक लापरवाह हों अचानक हमला कर खजाना लूट लिया जाय।

लगान की लूट बड़ी सहजता से हो जाती और चाणक्य का खजाना भरने लगा था ।

अब चाणक्य को एक ऐसे बच्चे की तलाश थी जो दिखने में सुंदर हो, मासूम हो, बहादुर हो और समझदार भी।

वह प्रायः रास्तों पर निकलते तो आसपास खेलते बच्चों पर अपनी नजर गड़ाते।

ऐसे ही एक दिन वह पाटलिपुत्र की गलियों से गुूजर रहे थे कि देखा बारह-तेरह साल की उम्र के कुछ बच्चे पंक्ति बद्ध खड़े हैं और अपने सामने खड़े एक तेजस्वी से दिखते बच्चे की बातें बड़े ध्यान से सुन रहे थे। वे छिप कर खड़े हो गये और उनकी बातें सुनने लगे। पता लगा कि इस गली के बच्चों का पास की गली के बच्चों से झगड़ा हो गया है और यह नायक जैसा दिखता बच्चा अपने साथियों में जोश भरते हुए कहरहा है कि अचानक ही अपने दुश्मनो ंपर टूट पड़ो , वे घबरा जायेंगे और तुम्हारे सामने हार मान लेंगे।

यही हुआ। ये बच्चे तेज गति से भागे और पास की गली में यहां वहां खेलते बच्चों पर टूट पड़े। जल्दी ही उस गली के बच्चे हार मान बैठे और इस गली के बच्चे विजेता के अंदाज में अपनी गली में लौट आये। चाणक्य को उस बच्चे के सारे अंदाज बहुत भा गये। वे उसके पास पहुंचे ओर बोला ‘‘ वाह बेटा, तुम में तो एक कुशल सेनानायक के सारे गुण हैं। तुम किसके बेटे हो?’’

‘‘ मेरी माँ को नाम मुरा है और वे मेरा नाम चन्द्र कहा करती हैं। हम लोग पास में ही रहते हैं।’’ बालक बेधड़क हो कर बोल उठा । वह अजनबी के सामने हिचका नहीं था।

चाणक्य के आग्रह पर वह बालक अपने घर ले गया।

पता लगा कि मुरा तो एक दासी है जो दिन भर राजमहल में सेवा करती है और उसके पास इतने साधन भी नहीं है कि अपने बेटे को पढ़ा-लिखा सके।

चाणक्य ने ज्यादा कुछ नहीं बताया । सिर्फ इतना कहा कि वह उसके बच्चे की शिक्षा-दीक्षा करना चाहता है, इसलिए कुछ अवधि के लिए उसे अपना बच्चा सोंप दें।

इस बात के लिए मुरा हाल ही तैयार हो गई। अब चाणक्य को निश्चिंतता थी। उन्होने सोचा कि जब एक गरीब घर का बेटा नायक के रूप में लोगों के सामने आयेगा तो हर आदमी उसके समर्थन मे ंखड़ा हो जायगा। बस उन्होंने अपना पूरा ध्यान वहीं लगा दिया।बालक चन्द्र का नाम रखा चन्द्रगुप्त और उसकी मां के नाम पर उपनाम रख मौर्य।

मगध का साम्राज्य बहुत बड़ा था। उसकी सेना बहुत विशाल थी उसके लिए रोज-रोज नये हथियार और आवागमन के साधन उपलब्ध कराना जरूरी था लेकिन एक अकेला महा आमात्य राक्षस ही पूरे राज्य में ऐसा था जो सारे इंतजाम देख रहा था, इसलिए कहीं न कहीं असंतोश पैदा होने लगा था। उधर नागरिक भी अपनी सुविधा-असुविधा को लेकर राजा को दोश देते रहते थे। इन सब बातांे ंका लाभ चाणक्य ने उठाया। वे हर असंतुश्ट व्यक्ति से खुद मुलाकात करते और उसे अपने पक्ष में कर लेते। धीरे धीरे सेना और राजधानी पाटलिपुत्र में भी उनके समर्थकों का एक बहुत बड़ा वर्ग तैयार हो गया। जो व्यक्ति तैयार नही होता चाणक्य की विश कन्यायें उससे दोस्ती करतीं और मौका पाकर हाथ में कहीं भी दांत से काट कर उसके शरीर मे जहर उतार देतीं फिर कया बचता था, दुश्मन बिना खून बहाये मर जाता।

इसी तरह से चार पांच साल बीत गये।लोगों की नजर मंे चाणक्य का नाम आने लगा।

लोग कहते हैं कि अपने भोग-विलास के लिए बदनाम पद्म नंद ने अपनी राजधानी के अच्छे घरों पर बुरी नजरें डालना शुरू कर दिया। वह किसी भी सुंदर स्त्री को उठवाने लगा। नगर के लोग गुस्से से तमतमाने लगे। तभी नगर में कई जगह खुले आम लोग लुटने लगे। कई धनी लोगों के घर डाके पड़ने लगे। महामंत्री आमात्य के सैनिक बहुत सतर्क थे लेकिन अपराधी हाथ नहीं आ रहे थे। इस वजह से लोग नंद के खिलाफ भढ़कने लगे थे। चाणक्य के जासूस इस आग में घी की तरह बहुत सारी झूठी-सच्ची बातें मिला देते थे।

फिर एक दिन चाणक्य ने हमला कर दिया । होली का त्यौहार था, मगध में बसंत का उत्सव चल रहा था और राजा नंद व उसके दरबारी मस्ती में डूबे हुए था, कि चाणक्य ने पाटलिपुत्र नगर के एक मैदान मे अपनी सशस्त्र सेना को इकट्ठा किया और बोले ‘ वह समय आगया है मगध के बहादुर लोगो, जिसकी आप प्रतीक्षा कर रहे थे। इस अतयाचारी राजा का अंत होना जरूरी है। आज मौका है, चलो हम उसका खात्मा कर देते हैं।’

चाणक्य के भाशण ने लोगों मे खूब जोश से भर दिया । सैनिकों को लेकर वे हाथों मे हथियार लहराते राजधानी की सड़कों से गुजरते हुए सीधे महल पहुंचे और वहां तैनात सैनिकों से चाणक्य ने युद्ध छेड़ दिया। महल के सैनिक नशे की मस्ती मंें थे, इस कारण वे ज्यादा देर तक मुकाबला नही कर पाये। उधर पाटलिपुत्र के नागरिकों को किसी से कोई सरोकार न था यानी उन्हे न पद््म नंद के प्रति श्रद्धा थी, न ही चााणक्य से कोइ्र बैर था।

थोड़े से परिश्रम से ही महल पर चाणक्य की सेना ने कब्जा कर लिया और फिर वे लोग महल के अंदर पहुंच गये जहां नशे में बेसुध राजा पद्म नंद नाच-गाने की महफिल सजाये बैठा था। अचानक आये चाणक्य- चन्द्रगुप्त और उनके सैनिकों को देख कर सब सकते में आ गये। लेकिन तब तक देर हो चुकी थी।

चन्द्रगुप्त ने अपने हाथों राजा पद्म की हत्या कर डाली।,

जल्दी ही नंद के सारे आमात्य चन्द्रगुप्त के सैनिकों ने बंदी बना लिये।

नगर में मुनादी करा दी गई कि अत्याचारी राजा नंद से मगध की प्रजा को मुक्ति मिल गई है और अब मगध पर चन्द्रगुप्त मौर्य का कब्जा है।

दूसरे ही दिन चन्द्रगुप्त मोर्य बड़ी शान से राजसिंहासन पर बैठ गया जिसने अपने महा आमात्य के पद पर चाणक्य की नियुक्ति की।

चाणक्य ने आमात्य का पद संभाल कर सबसे ज्यादा ध्यान सेना के रखरखाव और उसकी साज-संभाल को दिया। फिर अपनी पुरानी सूचनाओं और संपर्क के आधार पर प्राप्त जानकारी के साथ आस पास के राज्यो ंपर ध्यान देने लगा ताकि चन्द्रगुप्त के साम्राज्य का विस्तार कर सके।

बहादुर राजा, समझदार महा आमात्य और वीर सैनिकों के बल पर मगध साम्राज्य का विस्तार होता चला गया । आसपास के तमाम छोटे राज्य डर के चन्द्रगुप्त की शरण में आ गये जबकि वे राज्य जो गणराज्य के रूपो में थे उन्होने भी मगध राज्य से संधि कर ली।

अब चाणक्य ने एक ग्रंथ लिखना आरंभ किया जो उसकी कल्पना पर आधारित राज्य की नीति या संविधान की तरह काम में लाई जाना थी।

यह ग्रंथ ‘‘ अर्थशास्त्र’’ के नाम से विख्यात हुआ।

कौटिल्य का यह नीतिग्रंथ न केवल चंन्द्रगुप्त बल्कि आर्यावर्त यानी भारत के तमाम राजाओं के लिए एक अनिवार्य नियमावली की तरह प्रचलित हुआ, समाज में ऐसा लोकप्रिय हुआ कि आम आदमी भी इस से उदाहरण लेकर अपने परिवार की समृद्धि व सुरक्षा के उपाय अपनाने लगे।

आज भी चाणक्य का नाम एक चतुर राजनैतिक के रूप में लिया जाता है। बल्कि जो नेता बहुत अच्छा नीतिज्ञ होता है उसे आधुनिक चाणक्य कह कर सम्मान दिया जाता है।

एक सामान्य से शिक्षक से अपना जीवन आरंभ कर के साम्राज्य के महा आमात्य के पद तक पहुंचने के लिए चाणक्य ने जिस बुद्धिमानी, चतुराई और दुस्साहस का सहारा लिया वह अपने आप में एक किंवदंती है। आज भी लोग चाणक्य की चतुराई को याद करते हैं।

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