छछिया भर छाछ
हर नुक्कड़ पर ठट्ठे थे। गो कि अलाव उसी अनुपात में कम हो चुके थे जिस अनुपात में बैलों से खेती। खेतों में बैलों की घंटियों से टुनटुन की जगह ट्रेक्टर की भटर-भटर है। हफ्तों क्या पखवाड़ों का काम दिन रात में निपटता है। कभी शौकीन किसान जुए से ट्रांजिस्टर बाँध जुताई करते थे अब कम्पनियों ने ट्रेक्टर में ही टेप फिट कर बेचना शुरू कर दिया है। मतलब पहले की चीजों के निशान ही बाकी रह गए हैं। मनोरंजन के नए-नए साधन खेत-खलिहान तक पहुँच आदमी को भले ही अपने में बाँध रहे हों पर चरित-चर्चा और निंदा-रस क मजे पाने के लिए अब भी समह की आवश्यकता है, सो एक दसरे को सँघते सांँघते इकट्ठे होकर यही चर्चा कि रमैनी ब्याह करने गया है। इसी लगन में........।
‘‘बारात कहाँ गई ? कौन-कौन गया ? भाई तो घर में बैठे हैं। न ढोलक बजी, न काजल मेंहदी हुआ और सबसे बड़ी बात तो ये कि खसिया के पल्ले बँधेगी कौन ? झठ-मठ का प्रचार है।‘‘
‘‘झठ निकले तो मेरे मुँह में थूक देना।‘‘
‘‘तुम्हें कैसे पता चला ?‘‘
‘‘मुझे जगदीश ने बझा था।‘‘
‘‘जगदीश को किसने कहा ?‘‘
‘‘उसे उसकी घरवाली ने बताया। मेरी ने भी मुझे बताया। खेरे गई सब औरतों को पता है। उन्हें खुद रमैनी की भौजाई ने दुखड़ा रोया। अब जानते ही हो कि खेरा औरतों की चैपाल है-फरागत होने के साथ वहाँ सुख-दुःख और जानकारियाँ भी बँटती रहती हैं।‘‘
सो खेरे नामक केंद्र से प्रसारित हुई वार्ता गाँव की गली-गली में गँजने लगी। अब गाँव ही नहीं असफेर की चैहद्दी तक जानती है कि रमैनी छँछा है। एक दो दस नहीं, उसके सैकड़ों हमउम्र गवाह हैं कि .........। सबसे बड़ा सबत तो खुद रमैनी है जो उम्र के तीसवें पड़ाव तक इस तरह के तानों फिकरों को हँसी में उड़ाते हुए या चुप्पी साधकर मान्यता देता रहा। मर्दों की तो बात क्या, कुछ जानकारियाँ तक हलफ उठाकर कह सकती हैं कि.......। उन्होंने जैसे भी परीक्षण किया हो पर निष्कर्ष यही कि रमैनी पंडित में मर्दों वाली चीज नहीं है।
रमैनी यानी रामायणी प्रसाद शर्मा। छरहरापन लिए गठी हुई देह। भैंसे-सी ताकत। किसी की बाँह पकड़ ले तो सड़सी-सा कस देता है। नामी पहलवान तक हाथ नहीं छुड़ा पाते। पीठ पर घँसा धर दे तो अच्छे अच्छों के कपड़े खराब हो जाएँ। सैकड़ों बार परख हो चुकी है- भैंस को तेज अथवा दवा पिलाना कसाले का काम है और यह ढिलमुतान गर्दन के ऊपर से एक बाँह डाल भैंस का मुँह ऊपर उठा जबड़े फाड़ देता है कि लो ! जो चाहो सो उँड़ेल दो टेंटुआ में। भैंस की पिछाड़ी भले मचमचाए पर आगे के पैर और गर्दन नहीं हिलने देता। बैल बछड़ों को बधिया करते समय रमैनी की उपस्थिति जरूरी मानी जाती है। उसी रमैनी को अगर संकेत से भी शिखंडी कह दो तो ऐसे सिकुड़कर पिघलने लगता है जैसे जांेक पर नमक भुरक दिया हो।
रमैनी के हमउम्र सैकड़ों जवान थे जो टोल में, गाँव में, रिश्तेदारी में उसके बचपन के साथी रहे। तब बच्चे के पैदा होने के साथ ही कमर से चड्डी बाँध देने का रिवाज नहीं था। आठ दस की उमर तक लड़के प्रायः नंगे रहते थे। इस छट में लड़कियों की उमर कुछ कम रखी गई थी यानी जो लड़कों के लिए न्यनतम थी वह लड़की के लिए अधिकतम। इसके बाद उनकी कमस में लहँगा लटका दिया जाता। अब दृश्य यह बनता कि खेलते झुंड में लड़कियाँ कमर से नीचे ढँकी होतीं और लड़के कमरे से ऊपर। खेलों मे टिक्की, कबड्डी थपर कोड़ी प्रचलित थे जिसमें अन्य किसी सहायक उपकरण की आवश्यकता न होती। लड़कियाँ कछोंटा मारकर कबड्डी खेलती थीं। गाँव के बगल से बहती छोटी-सी नदी में अविवाहित कन्याओं को ही नंगे नहाने की छट थी। गौरी, रोहिणी, कन्या अर्थात् आठ, नौ, दस की वय में लड़की सुहागिन बन जाती। उसके बाद कुछ हिस्से ढँके रहने लाजिमी थे।
लड़कों के लिए ऐसी कोई बंदिश न थी अतः उने पौरूषीय अवयव सर्व साधारण की निगाह में होते। इन्हीं दिनों सभी को ज्ञात हो चुका था कि रमैनी ‘काम‘ का नहीं और इसी कमतरी के कारण उसका नाम भी रामायणी से सिकुड़कर रमैनी रह गया।
रमैनी अपने भाइयों में मँझला है-यानी न ऊपर न नीचे अर्थात् बीच का। कहावत प्रचलित थी कि, ‘‘बड़े का बाप छोटे की माई, मँझले का रामसहाई।‘‘ तो पाँच भाई बहनों में अकेला रमैनी कुँवारा बचा। माँ बाप बत्तीस बीघा सिंचित जमीन और जजमानी छोड़ मरे थे जिसमें रमैनी तिहाई का हकदार हुआ किंतु भविष्य के हिसाब-किताब में रमैनी का हिस्सा भी शेष दो भाइयों की संतान के भाग्य में जोड़ा जाता था।
इस महँगाई के युग में जब से डाक्टरों, इंजीनियरों और अफसरों ने अपनी अनाप-शनाप कमाई को जमीनें खरीदकर कृषि आय के रूप में वैधता देनी शुरू की है तबसे खेतों की कीमतें राकेट होती जा रही हैं। इस तरह कायदे से रमैनी सात आठ लाख का ठहरता है। गाँव वाले हितैषियों ने गाहे-बगाहे यह बात रमैनी के कानों में भरने से कोई चक नहीं की। इधर भाई-भावज मान बैठे कि उसका और कहाँ ठिकाना है सो गांेड़ा में पशुओं के बीच उसकी खटिया का भी खँटा गाड़ दिया किंतु रमैनी के मन को भारी ठेस उस दिन लगी जब बगल में भोजन पाते भाइयों को घी से तर रोटियाँ परोसी गईं और उसे सखी। वह झेल नहीं पाया और थोड़े कोप के साथ पछ बैठा-
‘‘घी खत्म हो गया का भौजी ?‘‘
भावज ने उत्तर में कहा था, ‘‘हाँ खत्म ही समझो, बस दो एक दिन घिसने भर है।‘‘
‘‘तो मेरी रोटियाँ क्यों न घिसीं ?‘‘
बड़ी का घर में मालिकाना था। पति तक उनसे हिसाब न पछते। सवाल उन्हें मालिकी में हस्तक्षेप प्रतीत हुआ, सो अनायास ही कह गई, ‘‘तुम्हें कौन-सा रन चढ़ना है लल्ल ?‘‘
बस। उसी समय रमैनी ने अपनी थरिया सरका दी, ‘‘अब मैं रन चढ़के ही दिखाऊँगा भौजी।‘‘ भविष्य की आशंका से बड़े पंडित की थरिया भी छट गई। गोंड़ा में उसे मनाने दोनों भाई पैताने खड़े रहे । बड़े पंडित जो कभी अपनी पत्नी से ऊँची आवाज में नहीं बोले थे उन्होंने रमैनी की सांत्वना के लिए उन्हें हरामजादी, कुतिया तक से अलंकृत किया किंतु रमैनी की चोट न सिराई। इसके बाद गाँव के चुगलखोरों की बन आई। रमैनी का गोंड़ा हफ्ते-भर तक घर बिगाड़ने वालों का रात्रिकालीन अड्डा बना रहा।
फिर भी किसी की न सलाह थी न अनुमान कि रमैनी ब्याह कर सकता है। अतः जिस किसी को भी, जैसे भी सचना मिली वह भौंचक था। भौंचक रमैनी का भावी श्वसुर भी रह गया था जब मध्यस्थ के माध्यम से रमैनी और उसका आमना-सामना हुआ। मध्यस्थ ने रमैनी का कोई संदर्भ न छुपाया था। एक चोखा ब्राहम्मण अपने से कई सीढ़ी नीचे वाली जाति से रिश्तेदारी को प्रस्तुत हो, यह उसे पच नहीं रहा था। शिखंडी ब्याह क्यों करेगा ? फिर जब उसने रमैनी की कदकाठी देखी तो रमैनी विषयक लोकापवाद पर भी उसे संदेह हुआ। तीसरी और अंतिम बात यह थी कि उसकी पुत्री कम-से-कम इतनी प्रसिद्ध हो चुकी थी कि जात बिरादरी का कोई भाँवरे डालने को तैयार न हो रहा था। वह कैसे भी अपनी पुत्री रामरती के पैर घर से फेरना चाहता था, चाहे वे श्मसान में जाकर ही ठहरें।
पिता की व्यथा रामरती समझती थी। वह स्वयं भी अपने आपको कोसती, विधाता को गालियाँ देती कि उसकी देह में इतनी अगिन क्यों भर दी कि बड़े-बड़े मँछें उमेठने वाले खेत रहे। वह दो बार घर से भाग और प्रेम की कसमें खाने वालों को लात मारकर लौट चुकी थी। अपने अनुभवों से उसने जो जाना व सीखा तो पिता की स्थाई उदासी पोंछने के लिए वह नरक में भी ठिकाना बनाने को तैयार थी। अ
ऐसा नहीं कि गाँव-भर के तानो-तिश्नों, उपहास से रमैनी विचलित न हुआ हो। अपने होने की सार्थकता की तलाश में वह भी घर से भागा। कुछ दिन नौटंकी कम्पनी में रह नचनियाँ बनने का प्रयास किया किंतु वहाँ भी उसकी देह चुगली कर देती। छह महीने बाद वह भी लौटा। उसके न होने पर एक फसल चैपक हो गई थी, इसी कारण नचनियाँ का काला टीका लगा होने पर भी उसका घर लौटना स्वागत भाव से ही देखा गया। घरवाले जब उसका बधियापन स्वीकार कर चुके थे तो उसका नचना होना भी झेल गए। रूप-स्वरूप बनाने बिगाड़ने वाला ईश्वर है। फल बनाये या काँटा, स्वीकार करना ही होता है।
जायदाद के साथ कमोबेश तीस चालीस हजार सालाना का आदमी तो यँ ही है रमैनी। खुद पर होने वाले खर्च से दुगुना अपनी देह लगाकर कमा देता है। बरद की तरह जहाँ जोत दो। बरद को तो जान बझकर बधिया किया जाता है ताकि वह ड्योढ़ी दुगुनी शक्ति से जुते और मरखा भी न हो। इस प्रकार रमैनी घर से गाँव, रिश्तेदारी तक वह अस्तित्व पा चुका था कि उसका वैसा न होना कहीं कुछ कमी होने या खटकने की बात होती। घर से इतर तो वह यँ था जैसे मँछें होने से न जबड़े की शक्ति बढ़ती है न दाँतों की। शरीर के बल, बुद्धि पर भी कोई अंतर नहीं आता। निहायत फालत होने पर भी वे पहचान का हिस्सा हो जाती हैं। मँछ वाले को मुछमंुडा पा कोई भी अचानक गड़बड़ा जाएगा। इसलिए जिन्हें कोई हानि लाभ न था वे भौंचक थे।
भाइयों की चिंता जायज थी। तय था कि उनके घर आने वाली बह कोई सीधी-सच्ची गाय न होकर छँटी हुई होगी। तभी तो उस आदमी के बिछुआ पहनेगी जो पुरूष धर्म निभाने के जोग ही नहीं है। निश्चय ही जायदाद के लोभ से आएगी-मक्खी गुड़ के पास ही भिनभिनाती है। खैर बँटवारा भी सहा जा सकता है। भाइयों में होता ही है किंतु डर आगे का है। खाती-पीती देह कुछ और भी माँगती है इसलिए या तो वह जायदाद की रकम बनाकर उड़ेगी या घर को रंडीखाना बनाएगी। घर भीतर का उत्तेजित निर्णय रहा कि कुचलन पै गला रेत देंगे। किसका गला ?.....कौन रेतेगा, यह खुलासा न होकर सही समय पर उचित निर्णय के लिए छोड़ दिया गया।
रमैनी का घर अंदर ही अंदर हँड़ियाँ की तरह खदबदा रहा था कि रमैनी घरवाली लेकर आ पहुँचा। ऐसा ब्याह चैकोसी में न देखा गया था। भरौता अर्थात् खरीददार लाई गई औरतें भी परिवार ही नहीं, जाति बिरादरी की सहमति से ठोक बजाकर लाई जाती हैं, गोत-नाते निबेरे जाते हैं, खाँप् तक का विचार बाँध सम्बन्धित का खारा-मीठा पानी सोधा जाता है। वहाँ ये ऊँची जाति का खसिया जाने कहाँ से किसको पकड़ लाया ? ब्राहम्मणी तो हो ही नहीं सकती।
लाया भी तो घर छोड़ किसी दरदराज दिल्ली, मुंबई, पना से लाता। झठ ही कहा जा सकता कि अलाँ-फलाँ देस के ब्राहम्मण परिवार की बेटी है। आज किसको इतना टैम है कि पता लेकर खुर खेंटता फिरे। किंतु यह तो खानदान की जान का दुश्मन होकर बारह कोस की दरी पर ही ससुराल बना बैठा। चार दिन में सबको पता चल जाएगा कि पालागन लेते-लेते जिस घर के हाथ दुख जाते हैं उसी घर में आने वाली के हाथ का पानी तक नहीं पिया जा सकता। अगैड़ी बगैड़ी जाति में चल भी जाये पर मान्य धान्य पंडित पुरोहित ही ऐसा करने लगे तो समझो सचमुच घोर कलयुग छा गया। गाँव रमैनी पर ही नहीं, आड़ ओट से परे कुल पर थक रहा था। थकने में ब्राहम्मण का मुहल्ला सबसे आगे था।
पर रमैनी सबको कुत्तक पर रख रात झमकते घरवाली लेकर आ ही गया। झिटपुटे में सिर पर बकसिया धरे छन्-छन् पाजेब बजाती महरिया के आगे-आगे वह गाँव में धँसा और ठेठ बम्हनियात पार कर अपनी पौर के आगे जा खड़ा हुआ। बड़े, छोटे दोनों भाई चैंतरा पर खटिया डाले ऐसे मुरझाये बैठे थे जैसे घर में गमी हो गई हो।
आगे आने वाले दृश्यों की सम्भावना पर कर्री छाती लिए रमैनी ने चैंतरा की कोर पर बकसिया धर परंपरागत ढंग से बड़े भाई के पैर छुए।
‘‘को है ?‘‘ जानते बझते भी पछकर बड़े पंडित ने जैसे स्वयं को अगली कार्यवाही के लिए तैयार किया।
‘‘दद्दा मैं। ......रमैनी।‘‘
‘‘को रमैनी ?‘‘
‘‘काये भैया ! दो दिनों में ही भल गए अपने रमैनी को ?‘‘
‘‘हमारो रमैनी तो मर गयो।‘‘ कह खड़े होते दद्दा ने खटिया के नीचे सरकी पनहीं उठाई और रमैनी की चाँद पर ताबड़तोड़ बरसाने लगे। रमैनी इस कार्यवाही के लिए पहले से तैयार था। बड़े भाई का हक है यह। बड़े पंडित हक वसलते हाँफने लगे किंतु रमैनी ने अपने सविनय अवज्ञा आंदोलन को ंिकंचित भी शिथिल न होने दिया। इस बीच छोटी बड़ी दोनों गृहलक्ष्मियों ने मिलकर पौर के किवाड़ उढ़का साँकल चढ़ा दी तथा अगली आँखन देखी के लिए छज्जे पर पहुँच गईं।
नई लक्ष्मी रामरती अभी तक घँघट काढ़े रास्ते पर खड़ी थी जहाँ से दो कदम आगे उसके भरतार को सटासट जते लगाए जा रहे थे। बड़े भाई ने फलती साँस पर काब पाने के लिए हाथ बंद कर पैर से काम ले बकसिया को ठोकर जमाई। खड़खड़ाती बकसिया गैल पर आ गिरी। सावधानी के बावजद लगी चोट से दद्दा का पैर झनझना गया। चोट सहलाने की उन्हें तीव्र आवश्यकता महसस हुई किंतु इससे क्रोध का धनत्व कम प्रकट होता अतः दबा कर मिसमिसाने लगे।
ठीक इसी समय आसपास व नुक्कड़ों से झाँकते नर-नारियों, बाल-गोपालों ने नई दुल्हन की तरहदार आवाज सुनी, ‘‘खबरदार जेठ जी। अब मेरे मरद को पोर भी लगाया तो बुरा हो जाएगा। .....कहे देती हँ।‘‘
गाँव में किसी निहायत दवेली की यह अपने ढंग की निहायत पहली आवाज थी जिससे पीढ़ियों के मान्य वरिष्ठता अधिकारको इतनी ठेठ भाषा में ललकारा गया। क्षण-भर को चैंतरे से छज्जे तक सन्नाटा खिंच गया।
दद्दा मुँह बा गए तो छोटा मोर्चे पर आया, ‘‘भाइयों के बीच बोलने वाली त कौन होती है ?‘‘
‘‘और त कौन है रे मसरचंद ! अभी तक नहीं समझा कि मैं रामायनी पंडित की घरवाली हँ। और हाँ, भगाकर या खरीदकर नहीं, वे मुझे कायदे से सात भाँवरे डालकर हारे हैं। हमारे पंडित ने दुख-सुख में साथ देने का बचन हरवाया है देवताओं के आगे। घर की बात में त काये टिल्ल टिल्ल करता है ? ‘‘
‘‘अरे साली ! कुतिया ! मुझसे जबान लड़ाती है।.....उधेड़ के रख दँगा। भागते गैन न मिलेगी।‘‘ छोटा क्रोध में फनफनाता झपटा।
अब रमैनी की बारी थी, ‘‘ए लला ! कुफर मत बोल। तोसे बड़ी है ये। भौजी है तेरी....मरजाद में रह ! नही ंतो मेरा भी हाथ उठ जाएगा।‘‘
यह भी नई आवाज थी। सब जानते हैं कि रमैनी तीन-चार को एक संग रगेद सकता है। कुदरती बधिया साँड़ है। न बोले तो सिर न हिलाए, बिगड़ पड़े तो काब न आए।
छोटा सिटपिटाकर फन दबे साँप की तरह एंेठता बोला, ‘‘तेनें नाक तो कटा दी पर ये इस घर में कदम न रख पाएगी-चाहे मेरी जान चली जाए......कहे देता हँ। कुरमनाठ हो जाएगी।‘‘ घँघट के भीतर से नई बह फिर ककी, ‘‘जेठ जी ! समझाय दो इन्हें। गाली न दें। पहली बेर का माफ करे देती हँ। आगे कुबोल निकाला तो सीधे थाने पहुँच जाऊँगी। वैसे आप जी बड़े हैं। आपकी जतियाँ झेल लेंगे पर लहुरे से ऊँच-नीच न सुन पाएँगे।‘‘
आसपास बिखरो में से कुछ नजदीकी झिमट आए। एक ने कान से लगकर सलाह दी, ‘‘मुँह न लगो पंडित जी। खेली-खाई औरत है, हरिजन एक्ट में धोंस दे रही है। इस एक्ट में झठ सच का निबेर नहीं, आदमी सीधा अंदर होता है।’’
हिमायतियों ने पंडित जी की फँक सरका दी। लाज बचाने की दीनता में वह अड़ गए,‘‘ जहर खाके प्राण दे दँगा पर दस कुजात को देहरी न लांघने दँगा।’’
बड़े भाई की दीनता पर रमैनी द्रवित हो उठा। इतना वह भी जानता है कि अपमान से आपा खोकर अनहोनी तो वह कर बैठा। अपने छलछाते आंस पोंछता, भर्राये गले से कहने लगा,‘‘ ठीक है दद्दा ! इतने से तुम्हारी बात बनती है तो हम न घुसेंगे घर में। मेरा बास वैसे भी गौडा रहा, ये भी रह लेगी। हां अपने बैल भैसौं की व्यवस्था कल से कर लेना।’’
‘‘नईं तो हम, नाथ मोहरी काटकर गोंड़ा से बाहर हांक देंगे।’’ टीप जड़कर गली में लुढकी बकसिया सहेजती रामरती ने पति को सम्बोधित किया,‘‘ चलो जी! भगवान का नाम लो। मेहनत करेंगे तो गोंड़ा भी हवेली में बदल जायेगा।’’
बकसिया लटकाकर फिर रमैनी आगे हुआ और घूँघट वाली रामरती पीछे। रामरती की ठसकीली चाल में रमैनी का पौरूष झांकता दिखाई पड़ने लगा था। गोंड़ा बसाहट से इतना ही अलग था कि गांव की रिंगरोड यानी कच्ची गैल बीच में पड़ती थी। दो दिन वहां रखवाली के लिए पंड़ित जी को सोना पड़ा था। पंड़िताइन ने ब मारती रमैनी की दरी और झिलंगी खटिया से परहेज बरतते हुए घर से गद्दा, चद्दरा, तकिया भेजा था जो घरी किया हुआ वहीं धरा था। उनकी तीव्र इच्छा हुई कि उठा लाएं किन्तु स्थिति की नाजुकता समझ मन मसोसकर रह गईं। विवशता में उन्होंने यह सोचकर धीरज धरा कि कपड़ों लत्तों में रमैनी का भी हिस्सा तो है ही। बहती चोली ननद को दान।
रमैनी दंपत्ति के जाते ही उढ़के किवाड़ों की सांकल खुल गई। चर्चा सुनने छोटी बड़ी गृहलक्ष्मियाँ किवाड़ों से आ चिपकीं। दसरे मुहल्लों से भी लोग आ पहुँचे थे। प्रकटतः सभी के वचन कुल की सहानुभति व रमैनी भत्र्सना में पगे थे।
बस्ती में यह प्रसंम रोजमर्रा कामों के साथ महीनों चलना है। सुबह दुहाऊ, चारे पानी, गोबर टहलपात के ढर्रे पर चलते जीवन में ऐसे प्रसंग छौंक बघार की तरह एकरसता को तोड़ते हैं। कल्पना के परेवा सुरसुरी के संग रोज नई उड़ान जोड़ते हैं। यहाँ सरकारों का बदलना तक चार दिन में बासी हो जाता है किंतु फौजदारी, रति-प्रसंग, भागना-भगाना प्रतिदिन नयापन पाते रहते हैं। सरकारें आने जाने में रस कम होता है कि किस जाति ने मैदान मारा, कौन-कौन खेत रहीं। बाकी पटवारी, कलेक्टर, थानेदार, चोर-डकैतों की सरकारें तो वही की वही होती हैं। फिलहाल अलाव से लेकर चल्हे तक रमैनी छाया हुआ था।
गोंड़े में उजाले के लिए न चिमनी थी न दिया बाती। चढ़ते पखवारे की चैथ का चंद्रमा जरूरी चीजों की पहचान उभारने लगा था। झिलंगी खटिया दीवार के सहारे खड़ी कर दी गईं थी, उसी पर रमैनी की दरी झल रही थी। हतरेटिया वाला मिट्टी का घड़ा मुँह पर स्टील की घंटी साधे जसका तस था। बजारू पाये व चैकोर पाट वाली नए बान की खाटऔर बड़े के बिस्तर गोंड़े के बीचों बीच रखे मिले।
रमैनी ने उसी खाट पर रामरती को बिठाकर बकसिया सम्हलाई और पहला काम यह किया कि घड़े को धो-धाकर हैंडपंप से पानी खींच लाया। दोनों प्राणियों ने हाथ-पैर धो थकान छुड़ाई तो दुल्हन के स्वागत की जगह मिले अपमान का अवसाद फोड़कर भूख सिर उठाने लगी। भूख तो मौत के बीच भी अपने करतब से नहीं चूकती। रमैनी ने दूसरी फेरी लगाई और थोड़ी ही देर में अँगौछे में आटा और मिर्च के अचार सहित प्याज की दो गाँठे बाँध लाया। यूँ प्याज उसके चैके की वर्जित वस्तु रही है पर जब जाति में ही सेंध लग गई तो प्याज क्या कर लेगी।
बाँट की भुरकनी वाली थरिया को धो-पोंछ रामरती ने आटा गूँथा और अँगीठी सुलगाकर हाथ की अँगाकरी सेंक ली फिर कुचरी हुई प्याज की गठिया का जो स्वाद रमैनी ने पाया वह भी पहला था। कहा जा सकता है कि दोनों सुख की नींद सोये।
रमैनी के दिन फिर ढर्रे पर ढरकने लगे। पानी मचने से ऊपर उतराई कीचड़ अपने तल में बैठती गई। बँटवारे की पहल न भाइयों ने की, न रामरती ने कोई बखेड़ा किया। बड़े भाई को जजमानी से अवकाश न था, छोटा सदा से अलाल। खेतों की रखवाली, चैपे चउआ रमैनी के अलावा कौन सँभालता। रमैनी से नाता छोड़कर धरम भले चले, धन की हानि हो जाती। ऊपर से रमैनी के अब चार हाथ हो गए थे। रामरती घर सँभालकर हारखेत में भी हाथ बँटाती। रमैनी की गिरस्ती जमने लगी। परिवार वालों ने भी मान लिया कि फोड़े के दर्द से चीरा तक तो ठीक, बाँह नहीं काटी जाती।
ब्याह की धूल दबती जा रही थी कि फिर बवंडर सनसनाया। रमैनी की रमरतिया पेट से है। औरतें टोह में रहने लगीं। छाछ माँगने के बहाने लगातार आकर नाइन की पैनी निगाह ने नाप जोख की-हाँ रमैनी बाप बनने वाला है।
रमैनी परमानंद में फूला-फूला फिरता। लोग ठट्टा करते पर उसे परवाह नहीं। कुटिल हँसी और अपमानजनक सम्बोधन वह होश सँभालने के बाद से भोगता रहा है। बातें रामरती तक भी पहुँचती, वह कसमसा उठती फिर सिर झटक गर्भ सेने व गृह काज में लग जाती। गोंड़ा की मड़ैया अब खपरैल में बदल चुकी थी। कच्ची घिनौची पर पीतल का घड़ा व तम्हेड़ी चमचमाती। चूल्हा ओटा चकाचक रहता। रामरती की चाय में पानी नहीं पड़ता, खालिस दूध की बनती है। रामरती कायदे से तिहाई दूध अपने लिए निकालकर शेष दुहना में ढँाककर रख देती जिसे दोनों बरिया जिठानी गुपचुप उठा ले आतीं। सब ठीक-ठाक हो रहा था पर गाँव की ओर से रोज-ब-रोज उड़ाई जाती धूल की फाँसें रामरती की साँसों में अटक जातीं।
यह तो तय हो गया कि रमैनी बाप बनेगा पर इसका सुआडोरा नहीं लग पा रहा था कि बीज किसका पड़ा। रात-बिरात न कोई गोंड़ा में घुसते निकलते देखा गया, न रामरती मायके गई। खेत खलिहान तक में रामरती को किसी से हँसते बोलते न देखा गया था। वह तो जैसे सती सावित्रियों के कान काटन पर तुली थी। ‘‘फिर कैस ?‘‘ गाहे-बगाहे यहाँ यही मरोड़ उठी जाती।
उस दिन हाथ मे अल्यूमिनियमसमीिंदज की देगजी लटकाए बँधावाली गोंड़ा में पहुँची। रामरती ने रमैनी के मुँह सुन रखा था कि बँधावाली भौजी गाँव की सबसे चतुर सुजान औरत है। रास्ते में आते-जाते रामरती से उनकी भेट प्रायः होती किंतु ‘‘कैसी हो‘‘ ‘‘अच्छी हूँ।‘‘ से बात आगे न बढ़ी थी। रामरती चूल्हे पर पोतनी माटी का पोता फेर रही थी। आहट पाकर वह रसोई की खपरैल से बाहर निकली और हाथ धोकर बैठने को पीढ़ा दिया। जिठानी के नाते पाँय लागी की और देगजी उठा मठा भरने लगी।
‘‘तू तो हमें जल्दी-से-जल्दी टरकाने पर तुली है देवरानी !‘‘ बँधावाली ने चाशनी भरे बोल कहे।
‘‘तुम्हारी चाय की बड़ी तारीफ सुनी है, हमें न पिलाओगी ?‘‘
‘‘घर तुम्हारा है जिज्जी ! चाहे जो बनाओ खाओ !‘‘ रामरती ने आदर भरी छूट दी।
‘‘तो यहाँ भी हमें चूल्हा फूँकना पड़ेगा ?‘‘ लाड़ और गाढ़ा हुआ।
‘‘नहीं, मेरा मतलब था कि हमारे हाथ का.....।‘‘
‘‘अरे देवरानी बनकर आधी बाम्हनी तो होई गईं तुम। अब काये का छूतपात ?‘‘ बँधावाली ने दूरी कम की।
‘‘बैठो ! अबै बनाय देते हैं।‘‘ रामरती चूल्हा सुलगाने खपरैल में घुस गई।
गुड़ की डली कुतरते हुए मुस्कान के साथ बँधावाली ने बताया कि, ‘‘आज वह फुरसत में है। रोटी पानी करनी नहीं.......दिन चल रहे हैं।‘‘
रामरती भी मुस्कुरा दी।
‘‘हाँ बहन सुना है कि महीना चढ़ गए हैं तुम्हारे ?‘‘ बँधावाली ने कमंद फेंकी।
‘‘तुम सबका आसीरबाद है जिज्जी !‘‘
‘‘सो तो राम की मौज है, पानी से पैदा करता है। हमें तो भारी खुसी हुई कि रमैनी लला ठीक है गए। काये से कि ब्याह के आए हम तभी से सुनते रहे कि वे काम के नहीं। किसी-किसी के हाथ में जस होता है, तुम आईं तो वो भी मरद हो गए।‘‘
रामरती उठकर चाय लेने चली गई। चाय की प्रशंसा करती बँधावाली ने फिर बात उकसाई, ‘‘बहन बुरा न मानो तो कछू कहूँ ?‘‘
‘‘तुम कौन-सी हिस्सा बाँट की बात करोगी जिज्जी कि मुझे बुरा लगे।‘‘
‘‘अब कैसे कहें कि गाँव में खुसुर-पुसुर है कि ......।‘‘ बँधावाली ने डोर ढीली की।
‘‘काये की खुसुर-पुसुर ?‘‘ रामरती ने अपना सतर्क होना जाहिर न होने दिया।
‘‘ले ओ ! मैं भी कौन-सी बात ले बैठी ? आग लगे इस मुँह को पर का कारें, काऊ की निंदा चुगली अपन से सहन नईं होती। अरे बात है तो मुँह पै कहो। पीछ पीछे तो लोग बाईसराव को गाली दे लेते हैं। मैंने तो कहने वाली से कह दी। घर में दूध पूत से ही रौनक होती है। कैसे भी हो, माना तो रमैनी लला का ही जावेगा। बीज कहीं का हो, पैदावार का मालिक खेतवाला ही होता है।‘‘
रामरती एड़ी से चोटी तक लपलपा गई किंतु अपने को लगाम लगा उसने बात हँसी में टरकाई, ‘‘ऐसा यहाँ चलन है का जिज्जी ?‘‘
चतुराई से अच्छे-अच्छों को चित्त करने वाली जिज्जी इस ठेठ और भदेस प्रश्न से एकदम तो लड़खड़ा गई पर सँभलकर काथा सिकोड़ती बोली, ‘‘भले घरों में ऐसा नहीं होता। रैयत में भी ये घसड़-पसड़ नहीं चल पाता।‘‘
‘‘खेत बीजवाली कहावत कौन कारन बनी फिर ?‘‘ रामरती का भोलापन शातिर हुआ।
‘‘कहावत तो कहावत है बहू ! जाने कहाँ से निकले और कहाँ तक पहुँचे।‘‘
जीवन के उतार चढ़ाव ने रामरती को भी कच्ची-पक्की पाटी पढ़ा दी है। यौवन की बाढ़ में बहुत दूर तक डूबते-उतराते उसने रमैनी का सहारा स्वीकार किया था पर अब उसे चाहने लगी थी। वह प्यार की चतुर व्याख्या नहीं जानती है पर इतना मान चुकी है कि यह आदमी भरोसेमंद है। इस पर अपना कुछ भी निछावर किया जा सकता है। अपने के लिए दाँव पर चढ़ना रमैनी ने प्रमाणित किया था। रामरती पीछे न रहकर ठीक बगल में खड़ी होना चाहती है।
गोंड़ा में बिछी शतरंज पर दो औरतें अपने कस बल तौलने लगीं। दाँव बँधावाली मारती और रामरती बचने की कोशिश में कुछ हटती बढ़ती। धीरे-धीरे रामरती ने अनुभव किया कि हमला भी बचाव का तरीका हो सकता है। वह पहले दिन जेठ पर आजमा चुकी है। अंतर यही है कि तब पुरूष मुकाबले में था, अब नारी है।
‘‘जिज्जी ! अब यहाँ कौन बैठा है हमारा ? तुम्हारा ही सहारा है। दुनियाँ का मुँह बंद कर सकती हो तुम चाहो तो। सच कह रही हू,ँ तुमसे.....वो पहले कैसे भी रहे हों, अब नहीं हैं।‘‘ रामरती विनय से बँधावाली के सामने झुक गई। बँधावाली जैसी तेज औरत भी न भाँप पाई कि सामने वाली का नबना झुकना, धनुष से तीर छूटने अथवा बिल्ली के छलाँग लगाने से पहले जैसा है।
‘‘तुम्हारा कहना सही भी हो तो मानेगा कौन ? तुम्हारे पेट में जो जान है सो लोग तुम्हारी बात पाप छिपाने का बहाना मानेंगे। दुनियाँ को तो सबूत देना पड़ेगा। देखो बुरा न लगे-खरी बात कड़वी भी होती है।‘‘
‘‘बुरा काये लगेगा। एक तुम्हीं तो निकलीं जिन्ने हमारी आस औलाद की चिंता करी। तुम्हें छोड़ कौन की छाँह पकड़ें ? इतना तो हमें भरोसा है कि तिहारा कहा गाँव में पत्थर की लकीर है।‘‘
अपनी प्रशंसा और साख पर बँधावाली का गर्वित होना स्वाभाविक था, बोली, ‘‘सो तो दुनियाँ जानें कि हम कभू झूठ न बोलें।‘‘
‘‘ताई से भगवान की किरपा हम पै भई। तुमने वे समरथ बता दिये तो कौन की मजाल कि आड़ी लकीर फेरे ?‘‘ चिरौरी करती रामरती ने बँधावाली के पैर पकड़ किये। बँधावाली पैर सिकोड़ने लगी, ‘‘पर बहना हम झूठ बोलें नहीं। मसल मसहूर है कि कानों सुनी झूठी, आँखन देखी सच्ची।‘‘
रामरती ने पैर और भी कस लिए, ‘‘तुम हो पाँच बेटियों की महतारी। जेठ जी दूजिहा और चढ़ी उमर के भले रहे हों, तुमने देने में कसर न छोड़ी। तभी न सब जगह सास-सी इज्जत पाती हो। झूठ बोलूँ तो कोढ़िन होऊँ पर कहे बिना नहीं रहा जाता कि जेठ-जी संग साथ निभायें तो अब भी.........।‘‘ रामरती शर्माई, ‘‘अब वो सब कहना तो मुझे सोभा नहीं देता पर हम अट्ठाईस की हैं तो तुम पैंतीस से ऊपर नहीं लगतीं। अब जेठजी से कौन कहे कि अबै से माला न पकरो, मुदा तुमसे कही जाय सकती है कि भलेंई लरिका लरिकिनीं ब्याह जोग है गये पर हमसे अबै ऊ संुदर हो।‘‘ रामरती ने कान तक कमान खींचकर तीर छोड़ दिया।
बँधावाली के मुखमंडल पर कोई बदली-सी घिरी, ‘‘तू कहना का चाहती है ?‘‘
‘‘का कहूँ तुम भौजाई वे देवर। तुम न हेरोगी तो और को हेरेगा। भौजाई माँ बरोबर होती है। हमारे यहाँ तो देवर के संग पुर्नब्याह भी हो जाता है भौजाई का। मै तुम्हें सबूत दे दूँगी।‘‘
‘‘पर कैसे ?‘‘ बँधावाली को गोरख धंधा समझ न आया।
‘‘नंगा कर देना उन्हें। मैं उनसे कह भी दूँगी और द्वार पै बैठ के चैकीदारी भी करूँगी। चुखरा भी भीतर न घुस पाएगा।‘‘
बँधावाली सन्न रह गई। ‘‘का बकती है तें ? ऐसी वैसी समझ रखा है मुझे ! अपनी-सी समझती है सबको ?‘‘
रामरती की आँखों से आँसू चूने लगे। गोड़ों से लिपटी, हिचकियाँ लेती वह कहे जा रही थी।
‘‘जिज्जी ! मेरे ऊपर दया करो। मरते मर जाऊँगी पर साँस न दूँगी काऊ को। बस अपने देबर का कलंक पोंछ दो। तुम्हारा हक इस घर पै सदा बना रहेगा। बचन से मुकरूँ तो गर्दन रेत देना मेरी।‘‘
बँधावाली को पसीने छूट गए। काँपती-सी वह खड़ी हुई। रामरती ने क्षोभ भरी बँधावाली के ढीले हाथों में छाछ का बासन सँभला दिया।
महेश कटारे
जन्म:1 अक्टूबर 1948 को ग्वालियर जनपद के बिल्हेटी गांव में
शिक्षा-एम ए हिंदी
प्रकाशन
इतिकथा-अथकथा,समर शेष है, छछिया भर छाछ,मेरी प्रिय कथाएँ
कहानी संग्रह
नाटक-अंधेरे युगांत के
उपन्यास-कामिनी काय काँटारे
पुरस्कार- मप्र हिन्दी साहित्य सम्मेलन का वागीश्वरी पुरस्कार,
साहित्य अकादेमी मप्र का सुभद्रा कुमारी चौहान पुरस्कार,
कथा क्रम सम्मान, श्रीलाल शुक्ल सम्मान
सम्प्रति-स्वतन्त्र लेखन
पता-
सिंहनगर रोड,मुरार,ग्वालियर मप्र