हाँ, मैं भागी हुई स्त्री हूँ - (भाग ग्यारह) Ranjana Jaiswal द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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हाँ, मैं भागी हुई स्त्री हूँ - (भाग ग्यारह)

(भाग ग्यारह)

छोटा बेटा मेरे व्हाट्सऐप और फेसबुक से जुड़ा है पर तीज- त्योहार पर भी मेरा अभिवादन नहीं करता। मैं पचासों मैसेज करती रहूँ कोई जवाब नहीं देता। 
ऊपर से दोनों बेटे कहते हैं कि मैं ही उनसे मतलब नहीं रखती। मदर्स डे पर दोनों अपनी सौतेली माँ के साथ फोटो पोस्ट करते हैं या उसके लिए कुछ विशेष लिखते हैं । 
उस स्त्री का भाग्य देखिए कि उसके अपने दो बेटे तो उस पर जान देते ही हैं, मेरे बेटे भी उसी के पक्ष में खड़े रहते हैं । कानूनी दृष्टि से वह एक नाजायज़ पत्नी है, फिर भी सारा अधिकार उसका है। वह महंगे जेवर -कपड़ों, सिंदूर और सुहाग चिह्नों से सजी अपना पेयर फोटो फेसबुक पर पोस्ट करती है। मुझे उस स्त्री से कोई ईर्ष्या नहीं है। मुझें यही आश्चर्य होता है कि उसने किस तरह उस आदमी के साथ इतना लंबा समय निकाल लिया। भाग्य तो उसका अच्छा है ही। वह तब आई, जब उसका पति सरकारी मास्टर हो चुका था। पक्का और अच्छा घर बन गया था। सौतेले बेटे थे, पर वे स्कूल जाने की उम्र में थे। अपना काम खुद कर लेते थे। फिर ससुराल और मायके के साथ ही पास -पड़ोस, रिश्तेदारों का सपोर्ट था। पति को भी अपने- आप को सर्वोत्तम पति साबित करना था। इसलिए वह राजरानी बनी और मेरा भाग्य देखिए, जब तक पति साथ था, वह बेरोजगार रहा और ससुराल अभावों का घर। मुझे गन्ने के सूखे छिलकों को मिट्टी के चूल्हे में झोंककर खाना बनाना पड़ा। मेरे रहते न बिजली लगी, न पानी का नल। टॉयलेट भी संडास और आंगन में बार- बार खराब हो जाने वाला हैंडपम्प!न बाथरूम, न अपना कमरा । ऊपर से पति का मनमाना अत्याचार--इसे भाग्य नहीं तो और क्या कहते हैं?शादी के दस साल बाद तक अभाव, तनाव, इल्ज़ाम ही तो मिला। बेहतरी के लिए पढ़ना चाहा तो वह भी अपराध हो गया। मुझसे बच्चे पैदा करवाकर पलवा लिया गया और फिर...भागी हुई स्त्री  की उपाधि से नवाज ढिया गया..!
सोचा था कि बच्चे बड़े होकर मुझे समझेंगे, तो वे भी सारी दुनिया को समझने को तैयार हैं, मुझे नहीं । वे अपने पिता की ही तरह मुझे जलाते -कुढाते हैं। कई बार उनसे कहा कि कोई त्योहार तो मेरे साथ रहो, वहां तो इतने लोग हैं। जवाब हाज़िर मिलता है-जैसी करनी वैसी भरनी। वहां न जाने पर समाज क्या कहेगा, परिवार क्या कहेगा?वे हर त्योहार अपनी सौतेली माँ के लिए  साड़ियां, सौतेले भाइयों के लिए कपड़े ले जाते हैं नहीं तो उनका पिता उन्हें कोस-कोसकर मार डाले। वह उन्हें साफ कहता है -तुम लोग नहीं करोगे तो वह सोचेगी कि जिन्हें पाल-पोसकर बड़ा किया, वे नमकहराम निकल गए। ये बातें बड़े बेटे ने ही बताई है। 
बेटे भावनात्मक और आर्थिक रूप से दुहे जा रहे हैं । मैं जानती हूँ कि उनका पिता किस तरह का नौटंकीबाज है। वह बीमारी का नाटक करता होगा, आत्महत्या की धमकी देता होगा और बेटे मजबूर हो जाते होंगे। मैं बेटों को समझ रही हूँ पर वे क्यों मुझे समझना नहीं चाहते?क्यों मेरे दिल से खेलते हैं?शायद मुझसे अलग होने के बाद जो -जो उन्हें सुनना -सहना पड़ा, उसका सारा दोष वे मेरे सिर मढ़ना चाहते हैं । ठीक है सारा दोष मेरा है, पर वह सब जो बीत चुका, उसे वापस लाकर ठीक तो किया नहीं जा सकता। क्या सब कुछ भुलाकर हम एक सामान्य जीवन नहीं जी सकते?कहने को तो बेटे भी यही बात कहते हैं, पर मुझे अपमानित करने का एक भी अवसर नहीं छोड़ते। 
एक दिन बड़े बेटे ने अपने जन्मदिन की पार्टी में बुलाया पर वहाँ किसी भी मेहमान से मेरा परिचय नहीं कराया। उसके ससुराल वाले भी आये थे। 
जब वह रिश्तेदारों के साथ पीने का कार्यक्रम बना रहा था तो मैंने उसे टोका कि यह अच्छी बात नहीं तो उसने सबके सामने ही मगर धीरे से कहा-- मैं सबको आपकी असलियत बताऊँ। 
मैं उसका मुँह देखती रह गयी। 
जब भी वह मेरी बहनों के साथ होता है, मुझे अपमानित करने का बहाना ढूँढता रहता है। एक बार मैं उसके साथ अपनी एक बहन के यहाँ गयी। रास्ते में मोतीचूर के ताजे लड्डू ले लिए। जब बहन को लड्डू दिए तो वह बोल पड़ा-सस्ता मिलता है न! खोए की मिठाई लाती , तो महंगा पड़ता। 
क्या ये बात बहन के सामने बोलना जरूरी था?
एक बार छोटी बहन के घर शादी में शामिल होने के लिए एक दूसरी बहन, उसकी विवाहिता बेटी और हम दोनों साथ जा रहे थे। सबके लिए ट्रेन का टिकट मैंने ही लिया था। बहुत गर्मी थी और ट्रेन थोड़ी लेट भी । हम स्टेशन पर इंतजार कर रहे थे। बेटे ने ठंडे पानी की बोतल ली । पहले मौसी को दिया फिर बहन को और खुद पीने लगा। एक बार भी उसने मुझसे नहीं पूछा। बहन ने इशारा किया तो बोतल मुझे थमा दी। मैं पानी पीने लगी तो बोतल से होंठ जरा- सा सट गए, तो तेज स्वर में चिल्लाया-जूठा कर दिया!और बोतल फेंक दिया। 
इन्हीं होठों से उसे बचपन में चूमती रही थी और इसी से छू जाने पर......। ट्रेन में भी वह मुझे सबसे ऊपरी बर्थ पर जाने के लिए कहने लगा, जबकि वह जानता है कि मेरे घुटनों में थोड़ी प्रॉब्लम है। पांच धंटे के सफ़र में उसने मुझे कई बार जलील किया । स्टेशन से बहन के घर तक जाने के लिए हमने रिक्शा किया । एक रिक्शे पर बहन अपनी बेटी के साथ बैठ गई तो ही मजबूर होकर वह इस तरह मेरे रिक्शे पर बैठा, जैसे मैं कोई छूत की रोगी होऊं और साथ बैठने से उसे कोई छूत लग जाएगी। बहन के घर के बाहर पहुँचने पर रिक्शे वाला निर्धारित रेट से ज्यादा पैसा मांगने लगा, तो मैंने नहीं दिया । इस पर वह अपने पास से उसे दुगुना पैसा देकर चिल्लाया--गरीब का पेट काटती हैं । 
बहन के घर पहुँचकर तो जैसे वह मेरा अपमान करने का लाइसेंस ही पा गया। छोटी बहन के गले लगा और बोला--आप कितनी सुंदर है और एक इन्हें देखिए। यह मेरी तरफ देखकर व्यंग्य से मुस्कुराया। क्या तुक थी इस बात की!
क्या मैं गलत समझ रही थी उसे कि वह मुझे ज़लील करना चाहता है। 
वह सच ही अपने पिता की कॉर्बन कॉपी है। माँ सच कहती थी कि वह कभी मेरा नहीं हो सकता। सांप का संपोला है। जैसे उसका पिता मुझे डंसता रहा, वह भी डंस रहा है। कब तक अपनी ममता का हवाला देकर मैं यह सब सहती रहूंगी?यह तो तब की बात है, जब मैं उस पर आश्रित नहीं हूँ । जब मैं उस पर निर्भर हो जाऊँगी तो मेरा क्या हश्र होगा?वह तो मुझे ताने मार- मारकर असमय ही मार डालेगा। 
एक दिन उसने कह भी दिया कि रिटायरमेंट के बाद तो आप चाहेंगी कि मेरे साथ रहें क्योंकि प्राइवेट नौकरी है पेंशन तो मिलेगा नहीं । बैंक- बैलेंस कुछ दिन में खत्म हो जाएगा। छोटा- सा घर है, किराए पर उठाएंगी भी तो कितना मिलेगा?
मेरे घर आ जाइएगा पर याद रखिएगा मेरी पत्नी के हिसाब से रहना पड़ेगा। वहां आपकी मर्जी नहीं चलेगी। 
इसके पहले जब मैंने उससे कहा था कि छोटा ही सही, जब मेरा अपना घर है तो क्यों तुम किराए के घर में रह रहे हो? तो उसने कहा-आपके घर रहूँगा तो अपना खर्चा देंगी न। 
मैंने कहा--मैं तो अपना पूरा घर ही दे रही हूँ। 
तो कहने लगा--देखा, घर की बात कह दीं न, आपको लगता है आपके इस दरबे जैसे घर को हासिल करने के लिए मैं यहाँ आता हूँ। 
मैं हतप्रभ थी कि मैंने तो ऐसा कुछ कहा ही नहीं। अभी नौकरी में हूँ कमाकर लाऊँगी तो क्या घर में खर्च नहीं करूंगी ?पर उसे लगता है कि उसे मुझे खिलाना पड़ेगा। उसके घर में ससुराल पक्ष का कोई न कोई पड़ा ही रहता है, पिता पक्ष से भी निचोड़ा जाता है, पर यह सब उसे सह्य है पर माँ की रोटी उसे भारी लगती है। 
मेरी आँखों में मोतियाबिंद की शिकायत हो गयी । शाम के बाद रोशनी आँखों में लगती । डॉक्टर ने कहा कि शुरूवात में ही ऑपरेशन करा लेना ज्यादा अच्छा है। मैं छुट्टियों में ही ऐसा कर सकती थी ताकि ऑपरेशन के बाद आराम मिल सके । देखभाल के लिए किसी का साथ में होना भी जरूरी था। कई बार बेटे से कह चुकी थी पर वह हर छुट्टी में पत्नी के साथ घूमने का कार्यक्रम बना लेता, मैं मन मसोसकर रह जाती । उस पर अधिकार जता नहीं सकती थी । अधिकार जताने पर सीधे कह देता कि आपने मेरे लिए किया ही क्या है जो अधिकार जता रही हैं। छोटा बेटा तो काफी दूर है, पर यह तो थोड़ी ही दूर पर रहता है। पर इसे मेरी कोई परवाह नहीं है। इसकी पत्नी भी इतनी ज्यादा फैशनेबुल है कि सेवा करना हेठी समझती है। कई बार स्कूल से सीधे उसके घर गयी हूँ, पर बेटे की गैर मौजूदगी में उसने लंच भी नहीं पूछा। मैं भूखी-प्यासी अपने घर लौट आई। मेहमान की तरह चाय- बिस्कुट सामने रखकर अपने कमरे में जाकर आलमारी वगैरह ठीक करने लगती है। उसे मेरा आना नहीं भाता। उसे घूमने -फिरने और होटलबाजी का इतना शौक है कि बेटे की कमाई का बड़ा हिस्सा उसी में चला जाता है। जाने बेटे की कौन -सी कमजोर नस उसके हाथ में है कि वह उसकी अंगुलियों पर नाचता है। हालांकि वह बहुत मीठा बोलती है, सुंदर भी बहुत है पर मूडी है। उपहार देते रहने से ही खुश होती है। 
अब भला वह क्यों मेरे पास रहकर या मुझे अपने घर रखकर अपनी आज़ादी खोए?जबकि मैं आधुनिक हूँ। मेरी तरफ से कभी कोई प्रतिबंध नहीं हो सकता। उसके साथ न रहने का एक बड़ा कारण ये भी है कि उसके मायके वालों का उसके पास आना -जाना ज्यादा है। उसे लगता है कि शायद मैं  उसके मायके वालों की ज्यादातर उपस्थिति पसन्द न करूं। 
बेटा कहता है -अपने भाइयों से क्यों नहीं कहतीं ऑपरेशन करा देने को?उसे किसीसे बताऊँ कि भाइयों ने कभी मुझसे उतना मतलब नहीं रखा। कभी मेरी कोई मदद नहीं की। माँ भी अब नहीं है। 
ऑपरेशन का सारा खर्च मैं ही करूंगी, फिर भी कोई मेरे पास रहने को तैयार नहीं, न अपने घर ही रखने को तैयार है। बहनों ने भी पल्ला झाड़ लिया। कोई मित्र भी इस तरह का नहीं। हफ्ते-पन्द्रह दिन की बात है पर इतने दिन भी कोई देखभाल करने वाला नहीं मिल रहा। 
संयोग से बेटे की यात्रा टल गई तो उसने कहा -ऑपरेशन के बाद देखभाल कर दूँगा पर मेरे घर आकर रहना होगा। 
ऑपरेशन के पहले तमाम चेकअप होते हैं । मैंने साथ चलने के लिए उसे फोन किया तो बोला-आप ये सब खुद करा लीजिए। 
ऑपरेशन के दिन बहू से पूछा कि आ रहे हो न तुम लोग, तो वह बोली--हम लोग पटना जा रहे हैं। मम्मी(सौतेली सास) बीमार हैं। मैंने कहा-वहां तो इतने सारे लोग हैं, मेरे पास कोई नहीं, तो फोन काट दिया। मुझे लग गया कि ये सब नहीं आएंगे। मैंने किसी तरह पास वाली बहन से मिन्नतें की कि बस एक हफ्ते के लिए आ जाओ। 
वह तमाम अहसान जताती हुई आ गयी। मेरे विद्यार्थी मुझे अस्पताल ले गए और ऑपरेशन होने तक वहीं रहे। जब मैं घर से अस्पताल के लिए निकल रही थी तो बेटे का फोन आया कि कब ऑपरेशन है?मैंने कहा-तुम लोग तो पटना जा रहे हो न, मेरी चिंता न करो तो तपाक से बोला-मुझे आपकी चिंता करने की जरूरत भी नहीं। 
कहकर उसने फोन काट दिया। उसकी बात से मेरा ब्लडप्रेशर इतना बढ़ गया कि डॉक्टर ने उस दिन ऑपरेशन नहीं किया। बार- बार मेरे दिल को उसकी यह बात मथ रही थी कि --'मुझे आपकी चिंता की जरूरत नहीं । '
जिस समय मेरा ऑपरेशन हो रहा था, उस समय बेटे- बहू पटना के बड़े मॉल में घूम रहे थे। यह उनके फेसबुक से पता चला। 
ऑपरेशन के एक हफ्ते बाद ही बहन चली गयी !दिन में दसियों बार उसके घर से वापसी के लिए फोन आते थे और वह बीसों बार यह अहसान जताती थी कि जरूरत पर वही काम आई। 
मुझे घर का सारा काम जल्द ही शुरू करना पड़ा, जिसके कारण आंख ठीक होने में वर्ष भर का समय लग गया। अभी तक ऑपरेट हुई आँख ठीक नहीं है। शायद तनाव, आराम का अभाव, और जल्दी घर का काम शुरू कर देने के कारण ये परेशानी आई । 
न तो किसी भाई-बहन ने, न बेटों ने मेरी खोज-खबर ली। पर एक ईश्वरीय शक्ति हमेशा मेरे साथ रही और आगे भी रहेगी।