(भाग दस)
मैंने अपने पति के आकर्षक व्यक्तित्व में छिपे कुरूप आदमी को देखा था, इसीलिए मेरा मन उससे विरक्त हो गया था। मैं देह की कुरूपता को बर्दास्त कर सकती थी पर मन की कुरूपता मुझे असह्य थी |मैं उसे देवता समझती थी पर एक दिन अचानक ही उसका मुखौटा उतर गया। मैं विश्वास ही नहीं कर सकी थी कि यह वही आदमी है, जिसे मैं प्यार करती थी |मेरा पति इतना दंभी और घिनौना कैसे हो सकता है ?मैं फूट-फूट कर रोई, कई दिन तक रोती ही रही |वह मेरे रोने का कारण नहीं समझ पाया |उसे पता ही नहीं चला था कि आवरण में छिपे उसके असली रूप को मैं देख चुकी हूँ|फिर वह मुझे मनाने के लिए आवरण पर आवरण चढ़ाता गया |पर मेरा मन उससे उचट गया था | मैं उसके साथ नहीं रहना चाहती थी |उसका स्पर्श मुझे सर्प- दंश की तरह लगता था, पर मुझे सब कुछ सहना पड़ा था |मैं जानती थी कि एक ऐसे समाज में रहती हूँ, जिसमें एक बार बंधने के बाद बंधन से छुटकारा आसान नहीं होता |चारों ओर से इतने दबाव पड़ने लगते हैं कि स्त्री उन दबावों के नीचे दब जाती है | फिर सारी जिंदगी उसे उस अनचाहे के साथ गुजारना पड़ता है, जिससे मन ही मन नफरत करती है |यह अलग बात है कि वह अपने हिसाब से उससे बदला भी लेती रहती है |कुछ स्त्रियाँ तो अवसर मिलते ही अवैध संबंध बना लेती हैं और कुछ प्रेमी के साथ मिलकर पति की हत्या तक का साजिश रच डालती हैं |
पर मैं उस तरह की स्त्री नहीं थी और ना ही पीठ पीछे वार करने में मेरा विश्वास था |रिश्तों में मैं खुलापन चाहती थी |बिना प्यार के साथ रहने की कल्पना मुझे असह्य थी |मैं बोझ की तरह रिश्ते नहीं निभा सकती थी | उसने जब जान लिया कि मैं उसको जान गयी हूँ तो अपने असली रूप में आ गया था और बात-बात पर मुझे नीचा दिखाने लगा था |अपना आवरण तब भी उसने नष्ट नहीं किया था |बाहरी लोगों के लिए उसे सुरक्षित रख लिया था |लोगों के सामने उसे चढ़ा लेता |सभी उसके आवरण को ही सच समझते और उससे प्रभावित हो जाते थे |उसके पास गिरगिट के रंग थे, बहुरूपिये की कला थी, लच्छे की भाषा थी और सबसे बड़ी बात उसके पास पर्याप्त समय था |समाज में लोकप्रिय होने के लिए इससे अधिक क्या चाहिए ?वैसे भी समाज में उसकी तरह ही के लोग ज्यादा हैं |जो ‘खग जाने खग ही भाषा’ के अनुसार एक-दूसरे को समझते हैं और साथ भी देते हैं |अक्सर ऐसे लोगों की टीम बन जाती है, पर मेरे जैसे लोग ज़्यादातर अकेले पड़ जाते हैं |
मैं जैसी अंदर थी, वैसी ही बाहर |मेरा व्यक्तित्व विभाजित नहीं था इसीलिए दोहरे व्यक्तित्व के लोग मुझे पसंद नहीं थे, उनसे प्रेम करना तो दूर की बात थी |पर दिक्कत ये थी कि अन्य लोगों को मैं खारिज कर सकती थी, पर उसको कैसे खारिज करती ?वह मेरा पति था |पूरे विधि-विधान से हमारा विवाह हुआ था । इस विवाह में मेरी अपनी सहमति भी थी |
मैंने सोचा–शायद, वह बदल जाए, पर किसी की प्रकृति कहाँ बदलती है ?वह भी नहीं बदला |कभी-कभी बदला-सा दिखा, पर फिर वही का वही हो गया |मैं हर बार तड़प कर रह गयी |वह खुद चाह लेता तो शायद परिवर्तित हो सकता था पर ऐसे लोग खुद को परफेक्ट मानते हैं । उनका अहंकार बड़ा होता है |
फिर मैंने सोचा कि खुद को ही बदल लूँ ?उसी की तरह दुहरा व्यक्तित्व निर्मित कर लूँ |झूठ, दिखावा, अवसरवादिता और स्वार्थ से भर जाऊं |पर मैं ऐसा नहीं कर पायी ? मैं उसकी तरह नहीं बन पायी | मैं जान गयी कि उसकी तरह बनते ही मेरी आत्मा मर जाएगी, मुझे अपराध-बोध सताने लगेगा |मेरी अपनी प्रकृति है, जिसे मैं नहीं बदल सकती |फिर मैं कैसे सोच रही थी कि उसकी प्रकृति बदल जाएगी |दोनों का व्यक्तित्व नदी के दो द्वीपों की तरह था, जिनका मिलना मुश्किल था |
बेटे भी दोनों द्वीपों को जोड़ने वाली अंतर्धारा नहीं बन सके |
वह बहुत इगोइस्ट था और बहुत पजेसिव भी |अपने- आप को पूरी तरह समाप्त करके ही मैं उसे पा सकती थी| अपने को बचाए रखकर तो उसे खोना ही था |दोनों अलग हो गए |
उसने अपनी जिंदगी की स्लेट से मेरा नाम, मेरा अस्तित्व धो-पोंछकर एक नई जिंदगी शुरू कर दी |शायद बहुत सुखी, बहुत भरी-पूरी जिंदगी !पर मेरी पुरानी स्लेट से इतनी जल्दी इतनी आसानी से कुछ भी साफ न हो सका | उसने साफ होने ही नहीं दिया क्योंकि अलग होने के बाद भी उसने मुझे अकेला नहीं छोड़ा| सारी जिंदगी मुझे, मेरे हर काम और बात को, मेरे सोचने और मेरे हर रवैये को गलत सिद्ध करता रहा |मैं फ्री बर्ड हूँ| स्वतंत्र रहना चाहती हूँ |बहुत डामिनेटिंग हूँ, ये हूँ ...वो हूँ --यह कहकर वह बेटों को मेरे खिलाफ करता रहा |उनके मन में मेरे खिलाफ जहर भरता रहा |
पता नहीं गलत कौन था ? मैं या वह। जो भी हो, जीवन भर गलत होने के अपराध -बोध को मैंने किसी न किसी स्तर पर हर दिन ही झेला | जबकि वह निश्चिंत अपनी नयी दुनिया में मगन रहा |इस पुरूष-प्रधान समाज में बच्चे और स्त्री ही कमजोर हैं पुरूष नहीं|
पति ने बेटों को माध्यम बनाकर मुझसे प्रतिशोध लिया |मैं उसकी जगह होती तो बेटों में तन्मय होकर अपनी सार्थकता तलाश करती | वे मेरे जीवन के आधार होते पर उसने बेटों को हथियार के रूप मे इस्तेमाल किया |
पर मैं क्या करती ?पहले मैं बेटों को साथ रखने में सक्षम नहीं थी | मैं खुद अपने पिता के घर थी और वहां मेरे बेटे बाहरी और अनावश्यक थे, फालतू थे । पर पति का घर तो बेटों का अपना घर था |पति से चाहे मेरा संबंध ठीक न चला, पर बेटों से उसका आत्मीयता का, अपनत्व का, रक्त का सम्बन्ध था |इसलिए मैंने उन्हें लौटा लाने का हठ नहीं किया |इस समाज में बच्चे के लिए माँ के साथ से ज्यादा पिता का नाम व संरक्षण ज्यादा महत्वपूर्ण होता है, इस सत्य को मैं जानती थी |
जिंदगी को चलाने और निर्धारित करने वाली कोई भी स्थिति कभी इकहरी नहीं होती, उसके पीछे एक साथ अनेक और कभी-कभी विरोधी प्रेरणाएँ निरंतर सक्रिय रहती हैं |मेरे और बेटों के चरित्रों की वास्तविकता इन्हीं अंतर्विरोधों की वास्तविकता है |परोक्ष रूप से पति के जीवन की वास्तविकता भी यही है |अब बेटे मुझसे बदला लेने के चक्कर में कितना बड़ा बदला अपने आप से ले रहे हैं, उन्हें खुद नहीं मालूम |
अतीत जैसा भी था ..अच्छा या बुरा ..मेरा अपना निजी था ...इतना निजी कि मैं उसे किसी के साथ बांटना नहीं चाहती |वह एक अध्याय था, जो बंद हो गया था और मैं उसे किसी के सामने खोलना नहीं चाहती | चाहे भी तो नहीं खोल सकती |शायद अब तो अपने सामने भी नहीं | कभी-कभी मैं सोचती हूँ -कितना अजीब है कि सब लोग मुझसे ही चाहते हैं और मैं सबकी चाहत को पूरी करती रहूँ । क्या यही एक रास्ता है मेरे लिए कि मैं अपने लिए कुछ न चाहूँ ?जहां चाहती हूँ, वहीं गलत क्यों हो जाता है ?ऐसा कुछ अनुचित, असंभव भी तो नहीं चाहा मैंने |जिंदा रहने को महसूसने के लिए जो किया सो किया |फिर भी सब मुझे गलत कहते हैं |गलत इसलिए कि यह मैंने किया ...एक स्त्री ने |आखिर मेरी जायज महत्वाकांक्षाएँ और आत्मनिर्भरता पति के लिए चुनौती क्यों बन गईं ?क्यों वह समाज में मेरे बढ़ते कद को नहीं बरदास्त कर सका ?
तीस वर्ष बाद मेरे बेटे लौटकर आए पर उन्हें देखकर लगा जैसे मैं बेटों को नहीं पति के जुड़वे रूप को देख रही हूँ |कितना मिलता है उनका चेहरा, उनकी आदतें, उनकी सोच। मैं सोचने लगी -कैसे इंसान एक छोटे से अणु से अपना चेहरा-मोहरा, आदत-स्वभाव, विचार -संस्कार सब कुछ अपनी संतान में सरका देता है | उसकी तरह वे भी मुझे ही गलत और अपराधी सिद्ध करने पर तुले हुए हैं और शायद सारी जिंदगी मुझे गलत ही सिद्ध करते रहेंगे |क्या यह स्त्री होने की सजा है ?या फिर सच ही मेरे मन में कोई गिल्ट है |मैंने कहीं पढ़ा था –आदमी के भीतर जब कोई अपराध- बोध होता है तो वह तर्क से अपने आप को जस्टिफाई करता रहता है, वरना उसका जीना मुश्किल हो जाए।
पर मुझे किस बात का अपराधबोध है ?आखिर क्यों मैं हमेशा तर्क दे- देकर अपने मन को समझाती रहती हूँ | बेटों का भला पिता के साथ रहने में था, मैंने रहने दिया था |पर अक्सर सोचती -बेटों के भविष्य की दुहाई देकर कहीं मैंने अपने गलत कदम को सही सिद्ध करने की कोशिश तो नहीं की ?मन न इस बात को मानता है, न उस बात को |सही –गलत की बात मैं नहीं जानती थी, जानना भी नहीं चाहती थी |जो सही लगा वही करती गयी थी |
नहीं, मुझे कुछ कनफेस नहीं करना |आदमी शायद कनफेस इसलिए नहीं करता कि दूसरों की नजरों में गुनहगार बनकर अपनी नजरों में बेगुनाह हो जाए |वह अपने गुनाहों को स्वीकार नहीं करता, बड़ी निरीहता के साथ उन्हें दूसरे के कंधे पर डालकर स्वयं उनसे मुक्त हो जाता है |बेटे मेरे अपने अंश थे मेरे जीवन के अभिन्न अंग |उनके जाने का दुख मेरा अपना था और उन्हें वापस न लाकर यदि मैंने कुछ गलत किया तो यह गलती भी मेरी उतनी ही अपनी थी |इस दुख को ना तो मैं किसी के साथ बाँट सकी, ना किसी के कंधे पर डालकर उस दुख से मुक्त हो सकी |
पति ने न जाने क्या चाहा था मुझसे | मैं नही दे पाई तो वह मेरे जीवन से चला गया |अब बेटे भी कुछ चाहते हैं |कभी-कभी मुझे लगता है कि बेटों का रूप धर वही मुझसे कुछ चाहता है |वही कुछ, जो तब मैं उसे नहीं दे पाई थी |नहीं, यह मेरा भरम है |वह मुझसे कुछ नहीं चाहता |वह अपनी भरी-पूरी जिंदगी जी रहा है, नयी पत्नी और उससे उत्पन्न दो अन्य बेटों के साथ |उसने मुझे अपनी जिंदगी से कभी का काट दिया था, उसे कोई कसक नहीं है |उसका अध्याय पूर्णता के साथ समाप्त हो गया था पर मेरा अध्याय ..कहीं भी कुछ समाप्त नहीं हुआ |अपनी अगली कड़ी के साथ ज्यों का त्यों मेरे साथ चिपका रहा |वह कभी समाप्त होगा भी नहीं |बहुत मनन के बाद ज्यों ही मैंने अपनी जिंदगी शुरू करनी चाही तो बेटे आ गए | मैंने देखा कि उन्होंने अपने पिता को ज्यों का त्यों इन्हेरिट किया है |अब बेटे स्वतंत्र व्यक्तित्व वाली आत्मनिर्भर माँ को नहीं सह पा रहे हैं| मैं स्त्री और माँ के आपसी द्वंद्व में उलझ गयी हूँ |बेटे आते हैं फिर लौट जाते हैं, पर बीच-बीच में आते रहते हैं |
बेटों का भी क्या दोष है?वे समान रूप से माता-पिता से जुड़े हैं यानि खंडित निष्ठा उनकी नियति है | हमने भी उन्हें क्या दिया ?शायद एक साधन ही समझते रहे दोनों बेटों को|अपने-अपने अहम, अपनी-अपनी महत्वाकांक्षाओं और अपनी-अपनी कुंठाओ के संदर्भ में ही सोचते रहे |बेटों के संदर्भ में कभी सोचा ही नहीं | तो क्यों बेटे ही हमारे संबंध में सोचे ?आज वे स्वतंत्र जीवन जी रहे हैं |उनका अपना घर-संसार है |नयी दुनिया है |मैं उनकी दुनिया में दखल नहीं देना चाहती। पर वह उनके जीवन में बराबर अपना दखल बनाए हुए है। वह उनका भरपूर शोषण करता है। उसका अपना संसार है पत्नी है बेटे हैं, पर वह मेरे बेटों से पितृ -ऋण चुकाते रहने को विवश करता है। वह उन्हें उनका अतीत भूलने नहीं देना चाहता।
मेरे बेटों पर अब भी वह दवाब डालता है कि वे एक भागी हुई स्त्री के बेटे हैं, जिनकी परवरिश करके उसने उन पर अहसान किया था। बेटे इसी बात से मुझसे नफ़रत करते हैं कि मैंने उनकी जिंदगी को बरबाद किया था। वे मेरे प्रति कोई लगाव महसूस नहीं करते। वे मुझसे कोई रिश्ता नहीं रखना चाहते।
मैंने भी उन्हें स्वतन्त्र कर देने का निर्णय कर लिया है।
बार -बार इस झूठ को सुनकर पक चुकी मैं अब सारे संसार के सामने कहने को तैयार हूँ कि हाँ, मैं भागी हुई स्त्री हूँ ।