टापुओं पर पिकनिक - 44 Prabodh Kumar Govil द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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टापुओं पर पिकनिक - 44

ये एक बेहद ख़ूबसूरत जगह थी। ऊंचे नुकीले पहाड़ों के बीच से टेढ़ा- मेढ़ा रास्ता बनाती झील यहां बहुत चौड़ी और खुशनुमा हो जाती थी।
किनारे पर बने हुए इस सफ़ेद शांत महल ने अब एक होटल का रूप ले लिया था। इसी महल में ठहरे थे आर्यन और उसके साथ आए जयंत बर्मन।
आर्यन बर्मन साहब को अंकल कहता ज़रूर था पर वो उसके साथ बराबर वालों का सा मित्रवत व्यवहार रखते थे।
इस समय भी तो दोनों आमने सामने बैठे बेहद जायकेदार नीलागुल शराब पी रहे थे।
बर्मन साहब आर्यन को बता रहे थे कि किस तरह हम उम्दा असरदार कहानियों को पटकथा में पिरो कर सीरियल को जीवंत बनाए रखते हैं।
आज भी उन्होंने रात को आर्यन को ऐसी ही एक कहानी पकड़ा दी थी। वो तो खाने के बाद अपने कमरे में जा सोए थे पर आर्यन खिड़की पर सुनहरा पर्दा फ़ैला कर कहानी पढ़ने बैठ गया था।
ओह, जिस कहानी को तीन एपिसोड बाद पर्दे पर जीना हो उसे पढ़े बिना चैन कहां?
"वो फ़िर नहीं आया", दिलचस्प कथानक!
कहानी कुछ इस तरह थी-
"वही था.वो तेज़- तेज़ चलती हुई उसके पास गई.वह झट पानी में कूद गया.वह तट पर बैठे एक मल्लाह युवक के करीब जाकर उसे झिंझोड़ कर झल्लाई- उसे बचा! उसे ले आ बेटा.मल्लाह युवक अपनी जांघों पर लिपटी लंगोट की पट्टी हटा कर कुछ देख रहा था. काली आबनूसी जांघ और पेट के मुहाने पर अंगुली की च्यूंटी भरके उसने बूढ़ी को देखा. लड़के के पेडू पर उगे घने बालों में शायद कोई चींटी घुस जाने से सुरसुरी हो रही थी.पर बुढ़िया के आर्तनादी आह्वान पर वह झट पलट कर गहरे पानी में कूद गया. लहरों के गुंजलक में उसकी लंगोट की मैली डोरी थपेड़े खाने लगी.बुढ़िया ज़िन्दगी बच जाने जैसी विश्वस्त दिखी.मैली मिचमिची आंखों के नम कोर में पच्चीस बरस पहले की कोई घड़ी फंस कर रह गई.वह आज दो दशक बाद दिखा थाा. ज़िंदा था, यही बहुत था। साधु बन गया तो क्या? और बनता भी क्या घर से भागा हुआ वो शरीर से लाचार गरीब!ट्रेन से गिर जाने पर एक हाथ तो उसका बचपन में ही कट गया था। जब तक मां ज़िंदा थी तब तक तो दुःख की परिभाषा भी किसी से पूछने की ज़रूरत नहीं पड़ी। पर जब मां और बाप न रहे तो वो भी घर के आंगन में धूप- छांव सा रहा। कभी भाई- भाभियों के ताने- उलाहने सुन कर घर से भाग जाता और कभी दुनिया - जहान के थपेड़े खाकर वापस घर लौट आता।धीरे -धीरे उजड़ता ये घर भी तब थोड़े हिचकोले खाकर फ़िर से टिक गया जब बड़ी बहन विधवा होकर बेऔलाद ही इसमें वापस लौट आई।अब मां भी वो, बाप भी वो।आसपास के घरों में झाड़ू- पोंछा और बर्तन कर करा कर कम से कम घर का चूल्हा तो दोनों टाइम सुलगा ही लेती। और जिस घर में रोटी बनने का सतूना हो उसमें भाई- बहनों की किसी तरह निभ ही जाती है।बस बड़ी बहन और ये अपाहिज़ भाई, ये ही दोनों रह गए घर में। बाक़ी सब अपने - अपने ठीहे -ठिकाने जा लगे।कोठरी में झाड़ - बुहार भाई कर लेता। आसपास से थोड़ा बहुत मांग भी लाता। अपंग को लोग कुछ न कुछ डाल ही देते।पर बहन को ये अच्छा न लगता। वो उसे समझाती- छोटू, तू भिखारी थोड़े ही है रे! घर में ही रहा कर। मैं हूं न?पहले कितनी बार घर से भाग - भाग कर जाने कहां- कहां रहा। उसे मांगने में कैसी शरम! पर बहन नहीं चाहती तो अब न जाएगा। जब तक ये है तब तक तो रोटी मिल ही रही है।पर चालीस साल के अनब्याहे लड़के को दिन भर घर में पड़े - पड़े भी क्या सूझे!एक हाथ से बिल्कुल लाचार ठहरा। घर से बाहर हो तो घिसट कर कहीं भी निपट- निपटा ले, नहर- नाले में नहा धो ले। पर घर में कौन करे सब?बहन कहती- बड़ी बहन मां होती है! उतार पजामा, कितना सड़ा रखा है. छी- छी... ये इतने झाड़- झंखाड़ में तुझे गर्मी नहीं लगती! खुजली हो जाएगी.बहन रगड़ - रगड़ कर साबुन मल देती.वो बिल्कुल छोटे बच्चे की तरह नहा कर निकल कर आता। बहन कमीज़ - जांघिया चढ़ा कर तेल चुपड़ती, कंघा करती. हर काम में मदद करती.- तेरे से नहीं बंधता तो बांधता क्यों है! इलास्टिक का लाई तो थी, चढ़ा लिया कर. बहन किसी बच्चे की तरह ही छोटे भाई को उलाहना देती.भाई भी सोचता, ये पचास पार की और कब तक करेगी। बुढ़ापा तो दोनों को ही संभालना है.कभी- कभी बच्चा बन कर उससे ठिठोली करता, कहता- मैं उल्टे हाथ से भी बहुत कुछ कर लेता हूं जीजी, ला तेरी चोली की डोरी खोल कर बताऊं?बहन उसका मन रखने के लिए ही पीठ फेर कर खड़ी हो जाती- अच्छा ले खोल! चोली फाड़ मत देना। मुझे सुबह काम पर जाना है.वो पतंग की डोर की तरह झटके दे- देकर खींचता, बहन को गुदगुदी होती, फ़िर दोनों देर तक हंसते.लोक - लाज एक तरफ़, पहाड़ सी ज़िन्दगी एक तरफ़। दिन तो काटने ही थेे.जिनके घर काम करने जाती थी उनके बेटे की शादी थी. तो इनाम में रुपए पैसे के साथ ये एक नई चादर भी मिली.मौसम बड़ा बेढंगा हो रहा था. बादल भरे खड़े थे. लगता था जैसे मूसलाधार बरसेगा.रोटी - पानी से निवृत्त होकर बहन ने आज नई चादर ही बिछा दी खटिया पर. खुद नीचे ज़मीन पर सोती थी, भाई खाट पर सोता.दो- चार दिन से शादी के घर में देर- देर तक खूब काम करना पड़ रहा था. हाथ- पैर जुड़ा से गए थे.इधर शादी की रसोई से बचे खुचे माल- पकवान भी खूब मिल रहे थे. भाई दिन भर घर में पड़ा- पड़ा खा- खाकर डकारें ले रहा था.रात को बाहर की सांकल चढ़ा कर जीजी ज़मीन पर जैसे गिर ही तो पड़ी. ऐसी पांव फ़ैला कर लेटी मानो पैर थक कर पांच - पांच सेर के हो गए हों.उधर दिन भर का अलसाया भाई भी बदन तोड़ता खाट पर कसमसा रहा था. बोला- ला तेरे पैर दबा दूं जीजी.उसने एक बार उस दिव्यांग की ओर देखा. उसे अपनी ही बात याद आई- बड़ी बहन मां होती है.- ले, दबा.- इधर आजा जीजी, तेरी नई चादर का सुख तू भी तो देख.मुस्कुराती हुई वो खाट पर ही आ लेटी.अधलेटा सा होकर वो एक हाथ से ही चपलता से पांव दबाने लगा.बहन को अतीव सुख मिला, पहले आँख अलसाई फ़िर मुंदने सी लगी.बिजली की सी गति से हाथ चलाता - चलाता वो एक बार घुटने से ऊपर तक बढ़ गया.बहन एक पल को चौंकी, फ़िर अपनी ही बात ने जैसे थपकी देकर उसे निढाल कर दिया- बड़ी बहन मां होती है.उनींदी सी पड़ी बहन को केवल हाथ का स्पर्श अनुभव हो रहा था और कुछ नहीं. देर तक आनंद में सराबोर होती रही.उसे लगभग चालीस साल पुरानी घटना सहसा याद आ गई. तब ये छोटू डेढ़ साल का था. मां ने चाव से घर में एक बिस्तर पर नई चादर बिछाई थी. वह उसी बिस्तर पर लेटी हुई थी और ये छोटू उसके पेट पर बैठा दोनों ओर पैर फ़ैला कर उसके साथ खेल रहा था.काम में लगी मां ने भांप लिया कि छोटू को पेशाब आ रहा है. करते- करते भी बहन उसे गोदी से उतार कर उठने लगी। तब मां चिल्लाई- गोद में पकड़े रह, पकड़े रह... चादर गंदी होगी.और तब तक छोटू ने उसके कपड़े गीले कर दिए.मानो बादल ने गरज कर बीते चालीस साल फ़िर से उसके ऊपर ला फेंके.छोटू मां की तरह ही बुदबुदाया- चादर गंदी होगी, गंदी होगी... और उसने हड़बड़ा कर छोटू को फ़िर से बाहों में भर लिया.दो- तीन क्षण तक न जाने क्या हुआ, किसी को समझ में नहीं आया। गर्जन के साथ बिजली भी चली गई.दोनों अंधेरे में एक दूसरे से डरे, एक दूसरे में छिपे रहेे.तेज गर्जन से दरवाज़ा खड़का तो छोटू कूद कर बाहर की ओर भागा.बहन संभल कर उठी. एक पल, दो पल, आधा घंटा, एक घंटा... इंतजार करती रही, वो फ़िर नहीं आया.मूसलाधार बरसते मेह में न जाने कहां बिला गया. रात निगल गई या हवा ले उड़ी.बरसों बाद किसी से सुना था कि साधु बन कर घूम रहा है, आज गोमती किनारे दिखा था किसी को!बस, बदहवास सी यहां- वहां खोजती वो चली आई.लेकिन थोड़ी देर बाद जब उसने उसी मल्लाह लड़के को कुछ दूरी पर अपनी लंगोट सुखाते पाया तो चिल्ला कर पूछा- क्या हुआ?- बह गयाा. कह कर लड़का अपने गीले बाल झाड़ने लगा.वह रोती- कलपती वापस चली आई.उसे कोठरी का दरवाज़ा खोलते देख पड़ोस की इमरती बुआ ने ऊंची आवाज़ में पूछा- गंगा... मिला?- डूब गया! कहती हुई वह भीतर चली आई.दूसरे दिन सुबह काम पर गई तो उस घर में आए अखबार में एक छोटी खबर छपी थी- "साधु डूबा"!वो अख़बार मांग लाई और उसने खबर की कतरन काट कर आले में सजा ली!"
... पढ़ कर आर्यन की आंखों में चमक आ गई। शानदार! उधर सोने का समय नज़दीक आया, इधर आंखों से नींद गायब!