Radharaman vaidya-sudhakar shukl aur devdutam 20 books and stories free download online pdf in Hindi

राधारमण वैद्य-भारतीय संस्कृति और बुन्देलखण्ड - 20 - अंतिम भाग

सुधाकर शुक्ल और ’’देवदूतम’’

-राधारमण बैद्य

विल्हण और पंडितराज जगन्नाथ के बाद म्लान काव्य के मन को पुनः प्रमुदित करने वाले श्री ’’सुधाकर’’ न केवल प्रदेश की विभूति हैं, वरन सम्पूर्ण संस्कृत जगत को अपनी स्निग्ध और कमनीय क्रांति से धवलित बनाये हैं। कवित्व पर अद्भुत और अखण्ड अधिकार शब्द भण्डार और अर्थो की मौलिक मनोरमता पर अनुपम आधिपत्य उनमें कालिदास की संकेत प्रधान व्यंजकता, भारवि का अर्थ गौरव, मेध का अधिकृत माधुर्य और श्री हर्ष का प्रतिपद प्रयुक्त भानुप्रासिकता तथा दार्शनिक मतों को संकेत करने वाली उक्तियां अनायास परिलक्षित हों उठती हैं।

प्रगल्भ प्रतिभा के धनी संस्कृति संसार के रस सिद्ध महाकवि श्री शुक्ल जी हैं। उन्होंने 20 सर्गो में गांधी सौगन्धिकम् तथा बारह भर्गो में भारती स्वयंवरम् का प्रणयन करके अपना महाकाव्य सिद्ध ही नहीं किया है, बल्कि कोमल कान्त पदावली से युक्त यह देवदूतम भी उनके कवित्व की श्रेष्ठता को उजागर करता है। इसी प्रकार केलिकलश खण्ड काव्य और दुर्गादेवनम् स्त्रोत स्तवन उनकी पद पद पर प्रत्यग्र पर्यावाची शब्दों की सानुप्रासिक प्रयोग योजना और रस परिपाक का सरल सरस समन्वय सामथ्र्य को बतलाते हैं।

प्रस्तुत खण्ड काव्य देवदूतम में शब्द सौन्दर्य नाद-माधुर्य तथा भावानुकूल शब्द चयन अति मतनोहर और प्रभावशाली है। समय की पुकार इसमें देव संदेश है। इसका कथानक समय के और जन मानस के अनुकूल है। इसमें रससिद्ध महाकवि की भांति अर्थान्तन्यास, उपमा, रूपक और श्लेष का सहज-सफल निर्वाह हुआ है। कवि की श्लेषमय गर्वोक्ति बड़ी ही सार्थक और सटीक है, जहां वह अपनी कविता के रसास्वादन की देव नदी आकाश गंगा के पावन प्रवाह की भांति प्रांजल एवं प्रसादगुण युक्त मधुर और हृदय को शीतलता प्रदान करने वाला कहता है। उसका उन्माद प्रवाह भी स्वच्छ और स्वच्छन्द है। अर्थानुकूल शब्द शैय्या से समस्त व्यंग ध्वनियों से उत्तम प्रवाहपूर्ण सुन्दर कांति औदार्य आदि गुणों से मंडित, नव रसों से युक्त परिसीलन करने से अभीष्ट तृप्तिदायक है। अतः पढ़ने योग्य है। आइये, श्रवण कीजिए और आनन्द लीजिए-

स्वच्छन्दः स्वप्रकृति गतिमान् सुध्वनिः सुप्रवाहों।

भाव्यः स्वाभः स्वभिनव रसः सार्थकश्चावगाहे

वाचोऽप्याचाम च मम किमप्येहिधेहित्वमस्याः।

इस पूरे पद्य में श्लेषालंकार है, जिसमें आकाशगंगा का पक्ष और इस काव्य के कर्ता कवि की काव्य भारती का पक्ष अनेकार्थक शब्दों की महिमा से एक साथ ही चलता है। ऐसा नहीं कि यह सब कवि ने कह भर दिया है, सच तो यह है कि उसे अपने काव्य में यथास्थान उजागर भी किया है। गांधी सौगन्धिकम तथा भारती स्वयवरम् में ऐसे स्थल भरे पड़े हैं।

कवि अनाशक्त कर्मयोग को जीवन का अभीष्ट मानता है, इसीलिए कहता है कि स्वर्ग प्राप्ति के बाद भी प्राणी को प्रायः पुर्नजन्म का भय बना रहता है, अतः विद्धान लोग अनाशक्त कर्मयोग के मार्ग का अनुसरण करते हैं, क्योंकि इस लोक में प्राणी के द्वारा किया गया केवल सुकृत या दुष्कृत के रूप में हित या अहित ही शेष बचता है, इसलिए हे शोभन हृदय वाले देव ! सावधानी से केवल दूसरों की भलाई ही करनी चाहिए तथा बुराई से बचना चाहिए।’’ यथा-

सर्गस्यैव प्रभवति भयं स्वर्ग तस्यापि जन्तो-

स्नस्मान्नित्यं निदधति पदं साववोऽध्वन्यमको।

निष्ठत्येकम्विहितभहितभ्वाहित´्पात्र तस्मा--

च्छेंयः कार्य सुहदविहितं वार्यमे वाहितम्बै।।

काश्मीरी बाला कमला अपने संदेश वाहक देवदूत को भेजते समय नागाधिराज हिमालय को कैसे भूल सकती हैं। वह वहां की शैल शिखर मालायें ललित लतिकाओं से लिपटे हुए ऊंचे तेवदाय, द्रुम, च´्चल चीड़ वन और विश्वस्त तथा सर्वत्र छाये हुए सप्तच्छरों के वृक्ष सभी की याद करती है। कवि उसे वाणी देता है। कवि को तटवर्ती चीन या पाकिस्तान के बैर भाव का भी विस्मरण नहीं होता है, तभी तो वह कहता है कि-

’’वहां की हरिण जैसीस बड़ी बड़ी ांखो वाली तथा फूलों के गुच्छों से गूथी हुई दो-दो वेणियों वाली एवं उन वेणियों की रगड़ से कामोद्दीप्त एवं रोमांचित नितम्बों पर विभूषित का´ची दामों की झनकार से मुखरित एवं सुखद नृत्य के चावों से भरी हुई गिरि बालायें भी यदि शत्रु को उखाड़ फेंकने में थोडाा प्रवास करके सहयोग देना चाहें तो उससे भी जैसे बने शत्रु को नष्ट करके ही मानना। ’’ शब्द देखिए-

तत्रत्यैणीनयन कुसुम द्वन्द्व वेणीलिड´्च-

द्रोम-श्रोणी-रणित-रसना-रास-लास्य-तरूण्यः।

इच्छुयुक्चेन्द्रु चिररूचय कर्त मल्पप्रयामं

साहाय्यन्ते कथमपि ततः शश्रवः शतनीयाः।।

कवि सम्पूर्ण काव्य में राष्ट्रीय भावों से प्रभावित हो रहा है। वह स्वभाव से ही कुटिल व्यक्तियों के देशद्रोह से भी परिचित है इसलिए उसकी आंकाक्षा है कि देश द्रोह रूपी विष का कुफल तो ईश्वर करे, शत्रु को भी न भोगना पड़े।’’

अन्यत्सर्व प्रकृति कुटिलाः हःत कुर्वन्तु कामं

देशद्रोहं द्रुम फलं विषन्न्द्धिऽनि स्वदन्तु।।

आज की जड़ भौतिकता में धंसी सागर सभ्यता की विषमता की ओर कवि इंगित करता है और कहता है-

म´्जूषासु प्ररिचय-चय श्चान्न रग्शिर्निखाते-

ष्वत्युच्छीयंदद्वय मनुचितन्तद्विधैर प्रयुत्त्म।

नग्नोमृत्योर्मुखमुयसरन्त्यश्च क्षुदर्ता--

( हे देव ! उन नागरी विलासिनियों से यह भी कह देना कि एक ओर तो आप सब रेशमी वस्त्रों के ढेर के ढेर वक्सों में सड़ रही है जो कि वहुमूल्य भी है तथा खन्तियों में अनाज सड़ा रही है। यह अत्यन्त अनैतिक एवं अनुचित भी है क्योंकि आपके उपयोग और उपभोग से इतना अधिक है कि प्रचुत परिणाम में अनुपयुक्त होने के कारण ही मोड कर नष्ट हो जाता है और फेंक दिया जाता है, वहां दूसरी ओर करोड़ों नरनारियां चिथडे लगाए नंगे घूमते हैं एवं लज्जा ढंकने में भी असमर्थ है तथा दो दो दानों के लिए तरस तरस कर भूख की भट्टी में फुक रहे हैं औरमर रहे है। अतः आप सब गृहणियां इस राजसी ठाठ को त्याग दें।)

कवि को खूब पता है कि सुविधा भोगी इन धनिक लोगों की एक अलग जाति जन्मी है, जो कि निर्धन जनता को झूठी मीठी बातों से मूर्ख बनाने और धोखा देने में परम प्रवीण है, अतः निर्धन लोगों का खून चूसने वाले इन धनिक रूपी खटमलों की लच्छेदार बातों मंे क्या रखा है।

सम्पन्नानाज्जगति जनिता रेबाति भिन्ना

निःस्वेभ्यो या वचन-रचना चातुरी व´्चनाढ्या।।

इसी प्रकार अनेकानेक प्रकार के धनिक वर्ग की इन कपट चातुरी का भण्डाफोड़ कवि ने खूब किया है। कवि उसी गुणी को त्याज्य मानता है, जो अपने राष्ट्र में भव्य भाव से निष्ठा और भक्ति नहीं रखता। कवि किसी भी ऐसे व्यक्ति को कहीं भी क्षम्य नहीं मानता जिनके विचार अच्छा कार्य अपनी जन्मभूमि व राष्ट्र के लिए अहितकर हो।

मन्थाम्भूतः क्वचदपि जनः केनचिन्मर्याकीयो

यस्यपि ग्यात्कृति रपकृतौ चिन्ता वा स्वभूमें।

इस प्रकार देवदूतम का कथ्य वर्तमान तथ्यों की ओर इंगित करता है। वर्तमान समाज के सभी अभियोग और उनसे कान्ता समस्त उपदेश देना कवि को अभीष्ट है। संस्कृत साहित्य में यह सर्वथा नवीन एवं मौलिक उपक्रम है, जो अपनी मौलिकता के साथ अभिनन्दनीय और स्तुत्य है। प्रस्तुत काव्य का पूर्वाध परम मनोरम प्रकृतित वर्णन से परिपूर्ण है और उत्तरार्द्ध इन वर्तमान यथार्थ स्थितियों और समस्याओं और तज्जनित कान्ता समस्त उपदेशों से युक्त है। अन्त में कवि स्पष्ट घोषणा करता है कि ’’जहां के अधिकारी भ्रष्टाचारी हो शासन में अनैतिकता छा गई हो और पूंजीपतियों का एकमात्र ध्येय किसी भी प्रकार से धन का अधिक से अधिक उपार्जन तथा संग्रह करना ही हो जनता के सुख दुख की कोई चिन्ता न हो, इन परिस्थिति में इन्द्रदेव भी अवतार लेकरआ जाये, तो वे भी असफल हो जावेगे, तब बेचारी इन्दिा क्या कर लेवे। वह तो मातृभूमि भारत की उन्नति के लिए अत्यधिक प्रयत्नरत रही।’’

यत्र भ्रष्टोऽधिकृत उदितं शासनेऽनैतिकत्व

यस्मिनपुज्जीपतिरतिरपि स्वार्जने नो जने च।

इन्द्रीभूयाप्यफल इह चेरन्दरा किन्तु कुर्या-

देकाकिन्यप्यथ च यतते यानि शम्भूमिभूत्यै।।

तो क्या न ये अवनता बनिता बताये।

हे हंस वंश-अवतंस ! तुम्हीं बता दो,

कन्दर्प-दर्प दमंनी कमनी कहां है।

’’किरन दूत पं0 शुक्ल की रचनाओं में उत्कृष्ट काव्य है। महाकवि कालिदास के मेघदूत की शैली पर हिन्दी भाषा में यह प्रथम सफल प्रयोग है जागरण के प्रतीक रूप में ’’सूर्य किरण’’ के द्वारा ’’अलका’’ तक अभिनव जागरण का संदेश प्रेषित करने की मधुर कल्पना उनकी अनूठी सूझ है। पं0 शुक्ल ने इस मार्मिक चित्रण में आवेशपूर्ण भाषा की एक नवीन धारा प्रवाहित की है। काव्य के सम्पूर्ण गुण ’’किरन दूत’’ में विद्यमान है। उन्हों जहां जन्म पाया उसी क्योटरा को ’’अलका’’ भी कहते ैं, इसी कारण उनके वर्णन में कल्पना ने वास्तविकता का रूप धारण किया है। मध्यप्रदेश सरकार ने इस ग्रंथ की रचना पर आपको 500/-रूपया पुरस्कृत भी किया है।

किरन दूत से-

अलका रस की नलिका सुकलित कल्पद्रुम की कलिका सी।

जह विचरत चारहुं बेद पुरनि पूरन पुरान परका सी।

जापैं अलिका बलिजात कि अमरावति आरती उतारैं।

जेहिं सन्मुख अगनित कनक पति

मनिवति भगवती छवि छाजैं।

कमनीय द्रुमन संन बलित सुमन सन

कलित ललित लतिफाली।

भलि ! अलिकुल-सकुल कोकिल,

को कुल कुहकत डाली डाली।

मरकत भ्रम भरत करीर कुंज कम

करत भन मनि-सोभा

बोलत अविकल कलविंक सुनत

सुनि घुनत धनत बन छोभा।

पं0 सुधाकर शुक्ल संस्कृत के विद्वान और साहित्य मर्मज्ञ थे। उनकी भारती स्वयंवरम भारती भावनम इन्दुमती (नाटिका) एवं केलिकलशम नामक ग्रंथ उनकी उत्कृृष्ट रचनायें है। संस्कृत साहित्य के इतिहास में 12वीं शताब्दी के पश्चात ऐसे सुन्दर संस्कृत साहित्य का सृजन बहुत कम हुआ है। शब्दों के विन्यास में सौन्दर्य भरने के लिए ’’चारू’’ जैसे शब्दों का श्लैषात्मक प्रयोग श्री हष्र की भांति इन्होंने भी अपनी रचनाओं में किया है। पर भावों का यथार्थ रूप में निरीह पं0 शुक्ल की उर्बर कल्पना शक्ति का द्योतक है। शब्द और अर्थ के स्वाभाविक सामंजस्य के साथ अभिनव पदावली का निर्माण संस्कृत साहित्य के लिए पं0 शुक्ल की अनुपम भेंट है। परिचय के लिए कतिपय छन्द उद्घृत कर देना आवश्यक है।

गांधी सौगन्धिकम् से-

बभौ नभो भू शुशुभे द्विदीवरे

दिशोऽजराणमजिराणिरेजिरे।

ललास लक्ष्मीरतलस्य चैव-

मुच्चाचरे चारू रूपश्चकाशिरे।।

भारती स्वयंवरम से-

सा सागरस्य गरिमा त्वरिमा रमस्य,

भामामयस्य महिला च हिमाचलस्य।

माधुर्य भून्मधुरिमा मधुसूदनस्य,

सोमस्यामाच सुषमा कुसमाकरस्य।।

भारती भावनम से-

पकेकरूहमुखि शंके रके रूष्टासिमे देवि।

अंकेऽचिरमकलंके, पर्यके त्वेषि कल्याणि।।

अनेक आपदा विपदाओं का अनुभव करते हुए भी पं0 शुक्ल की लेखनी को विश्राम करने का अवसर नहीं मिलता। सांसारिक जटिल जीवन की विभिन्न अनुभूतियों से उनकी लेखनी को सदैव नवीन प्रेरणा मिलती रही। परन्तु ’’महा राक्षस’’ ने अभी तक उन पर कृपा नही की इसी से उनकी अधिकांश काव्य रचनायें अप्रकाशित पड़ी है। जिस मनोयोग से वे साहित्य का सृजन करते हैं उससे हिन्दी और संस्कृत साहित्य जगत को भविष्य में उन्नति की आशायें हैं।

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