राधारमण वैद्य-भारतीय संस्कृति और बुन्देलखण्ड - 8 राजनारायण बोहरे द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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राधारमण वैद्य-भारतीय संस्कृति और बुन्देलखण्ड - 8

ऐतिहासिक एवं भौगोलिक परिप्रेक्ष्य में सनकादि सम्प्रदाय

राधारमण वैद्य

मध्यप्रदेश, जिसकी सीमा मनुस्मृति के अनुसार विनशन (सरस्वती) के पूर्व प्रयाग से पश्चिम, हिमालय से दक्षिण और विन्ध्याचल से उत्तर निश्चित की गई है 1 विनय पिट जिसका विस्तृत वर्णन करते हुए कहता है- मध्यदेश सब देशों में अग्रगण्य है, ईख और धान की वहाँ प्रचुरता है तथा गाय-भैंसों से वह भरा-पूरा है, भिक्षुओं के समूह वहाँ बड़ी संख्या में विचरते हैं, जहाँ पुण्या, मंगलकारिणी तथा अत्यन्त पवित्र गंगा नदी बहती है, जो अपने दोनों तटों की भूमि को सिंचित करती है .........जहाँ की भूमि में ऋषि लोगों में तप के कारण इतनी शक्ति थी कि वे भौतिक शरीर द्वारा ही स्वर्ग पहुँचने की कामना करते थे।2 दीर्घकालीन तक जो संस्कृति का विकास केन्द्र रहा, आर्यसभ्यता जहाँ से विन्ध्य पर्वत के पार दक्षिण पहुँची, धर्मशास्त्र जिसे मानव-चरित्र निर्माण के लिए आदर्श भूमि कहते है।, भारतवर्ष का हृदय है। उस मध्यदेश का दक्षिण पश्चिमी भू-भाग अपने अध्ययन की अपेक्षा रखता है। इस भाग में आर्य और अनार्य का बाह्य भेद मिट सा गया है। यहाँ का धरातल न पूरल तरह समतल है और न पूरी तरह पहाड़ी। यहाँ नाग संस्कृति का वैभव बिखरा पड़ा है। साथ ही धार्मिक रूप में यहाँ कभी सनकादि सम्प्रदाय का विस्तार रहा है।

समुद्रगुप्त की विजय प्रशस्ति में उल्लेख है कि उसने आभीर, प्रार्जुन, सनकानीक, काक और खर्परिक आदि जातियों को विजित किया।3 इन जातियों में सनकानीक जाति का क्षेत्र अब तक निश्चित नहीं किया जा सका। ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि ’’चन्द्रगुप्त द्वितीय का सनकानीक सामन्त तथा उसके पिता व पितामह ’महराज’ की उपाधि धारण करते थे।4 सनकानीक और सम्भवतः इस समूह की अन्य जातियाँ भी गण जातियाँ नहीं थीं, जैसा कि प्रायः मान लिया जाता है। इसके साथ यह भी माना जाता है कि उनमें वंशानुगत सरदार शासन करते थे।5

सामान्यतः प्रश्न उठता है कि यह सनाकनीक कौन थे तथा इनका क्षेत्र क्या था? आज भी यह प्रश्न अनुत्तरित है। पर मध्यदेश के दक्षिण पश्चिमी भू-भाग के ग्राम अभिधानों में इनकी ऐतिहासिकता और सांस्कृतिक स्थिति के सूत्र अन्तर्निहित हैं। यमुना की सहायक सिंध और इसी सिंध की सहायक पार (पार्वती) के किनारे स्थित दो ’सनकुआ’ पाये जाते हैं। एक सेंवढ़ा (जिला दतिया म0प्र0) स्थित सिंध के एक प्रपात के नाम का द्योतक रह गया है और दूसरा हरसी बांध (तहसील डबरा जिला ग्वालियर म0प्र0) के निकट आदिवासियों की झोपड़ियों के एक पुरवे के रूप में पाया जाता है। जनश्रुति में पहले के साथ सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार की तपस्या भूमि के रूप में प्रसिद्धि जुड़ी हुई है। यही पौराणिक ऋषि बालक ब्रह्मा के मानस पुत्र और सनकादि समप्रदाय के प्रवर्तक भी माने जाते हैं। साथ ही इन निवृत्ति मार्गियों का शस्त्र धारक सैन्य बल था, जिसे सनकानीक के रूप में जाना जाता है। ’अनीक का अर्थ ही सेना होता है। अतः सनक आदि की सेना ’सनकानीक’ थी, जिसे अब तक इतिहासकार जाति विशेष या गण विशेष मानते रहे हैं।

इस भूखण्ड में ब्राह्मणों की एक उपजाति ’सनाढ्य नामक पायी जाती है, जिनकी उत्पत्ति सप्त सनकादि से मानी जाती है, जिनके नाम सन, सनत्सुजात, सनक, सनन्दन, सनत्कुमार, समाज और सनातन कहे गये हैं।6 महाभारत का यह कथन है कि प्रवृत्ति और निवृत्ति दो मार्गो के आदिकर्ता दो प्रकार के सप्तष्रि थे। मरीचि, अंगिरा, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, ऋतु और वशिष्ठ ये सात ब्रह्मा के मानस पुत्र प्रवत्ति धर्मी सत्पर्षि थे, जिन्होंने क्रियामय प्राजापत्यय मार्ग का अनुसरण किया। इनके प्रवृत्ति मार्ग को भागवतों ने अनिरूद्ध इस प्रतीक संकेत से स्वीकार किया है।7 ब्रह्मा के दूसरे मानस पुत्र सप्तर्षि निवृत्ति मार्ग के अनुयायी हुए। सन, सनत्सुजात, सनक, सनन्दन, सनत्कुमार, सनातन और कपिल--ये सात मोक्षशास्त्र के आचार्य और मोक्षधर्म के प्रवर्तक थे। इन्हें योगविद् और सांख्यविद् कहा गया है। 8 इन्हीं योगविद् और सांख्यविद् निवृत्त मार्गी सनकादि ऋषियों की तपस्या भूमि और उनके वैचारिक सम्प्रदाय की प्रसार-भूमि यही मध्यदेश का दक्षिण् पश्चिमी भू-भाग रहा है।

सनकुंआ शब्द की उत्पत्ति सनकानीक कुलाय से मानी जाती है। इसी के पास एक बीहड़ स्थान ’भरकुंआ’ है, जिसकी व्युत्पत्ति ’भार कुलाय’ अनुमानी गयी है। ।9 इस आधार पर यह निश्चित किया जा सकता है कि इन साधुओं की छावनियां इन स्थानों पर रहती होंगी, यहीं उनका शस्त्र और शास्त्र दोनों का निरन्तर अभ्यास चलता रहता होगा, यही संन्यासी आगे चलकर जब गृहस्थ जीवन में समा गये होंगे, तो सनाढ्य नाम से अभिहित होने लगे होंगे। ’सनाढ्य का अर्थ ’’सन्त=प$आढ्य=धनी’’ किया जाता रहा है।10 आप्टे अपने शबद कोष में सन् का अर्थ प्रेम करना, पूजा करना, प्राप्त करना, दान लेना और दान देना करते हैं। अतः पूजित होकर दान लेने और दान देने के कर्म में ये लोग नित रहे, जिसका उल्लेख बड़े गौरव का अनुभव करते हुए केशवदास अपनी रामचंद्रिका के चौतीसवें प्रकाश में बार-बार करते हैं।

इन सनाढ्यों के विभिन्न आस्पदों पर यदि भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से विचार किया जाता है, तो उनका स्त्रोत इस भूखण्ड के विभिन्न ग्राम अभिधानों में मिलता है। कोंतवार-कोंतू, बड़ौन, बड़ौदिया, सिरोठ, सिरोठिया, सुरबाया, सुरबाइया, सड़, सड़ैया, बरथरा-बिरथरे या बिरथरिया, बसैड़ (भसैड़), बसैड़िया, पटसार-पटसारिया इत्यादि अनेक ग्राम अभिद्यान विभिन्न आस्पदों के स्त्रोत हैं। अब तक सनाढ्य जाति के विभिन्न आस्पदों (अल्लों) का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन शेष है। यदि महाराष्ट्रीय आस्पदों की भांति इन पर भी शोध काय्र किया जा सकेक, तो उसके मूल में स्थान अभिधान ही बहुत बड़ी संख्या में प्राप्त होंगे, जो इसी क्षेत्र से समबन्ध रखते हैं

सनकादि सम्प्रदाय की गुरू परम्परा आद्याचार्य हंस, नारद और सनन्दनादि द्वारा व्यकत की गई है। निम्बार्क मत की ’हरि गुरूस्तवमाला’ में उल्लिखित गुरू परम्परा’’ के अनुसार निम्बार्क मत के आद्याचार्य हंस नारायण हैं, जो राधाकृष्ण की युगल मूर्ति के प्रतीक हैं। उन्होंने इस मत की दीक्षा सनत्कुमार को दी, जो सनन्दनादि रूप से चतुर्व्यहात्मक हैं। सनत्कुमार के शिष्य त्रेता युग में प्रेमाभक्ति के सर्वश्रेष्ठ उपदेशक नारद जी थे।11

छान्दोग्य उपनिषद् में कथा आती है कि नारद अपने समय के सबसे बड़े वेदाचार्य अर्थात् ऋक् यजु साम रूपी त्रयी विद्या और वेदांगों के परम ज्ञाता थे। वे एक बार सनत्कुमार के पास उपदेश के लिये गये। वहाँ नारद वेद वित्त और सनत्कुमार को आत्मवित् कहा गया है। आत्मविद्या की परम्परा में ही सनत्कुमार और सनत्सुजात आदि सप्तर्षि थे, इन्हीं से सांख्यशास्त्र के निवृत्ति मांर्ग की परम्परा में आगे चलकर श्रमण धर्म का विकास हुआ।12 इन्हीं निवृत्ति मार्गी योग वितत् विकसति हुई होगी। उसका नाम सनकानीक हुआ हागा, जिसकी चर्चा इतिहास में बड़े अनिश्चय की स्थिति में की जाती है। आज तक यह निश्चय ही नहीं हो सका कि वे किस क्षेत्र में रहते तथा वहां गणराज्य व्यवस्था थी या कि राजतंत्र था।

सनकादिक सम्प्रदाय की मान्यता है कि सनकादि महर्षियों ने हंसावतार से ब्रह्मज्ञान की निगूढ़ शिक्षा प्राप्त कर उनका सर्वप्रथम उपदेश अपेन शिष्य देवर्षि नारद को दिया था। इसीलिए इस सम्प्रदाय का नाम ’सनकादि सम्प्रदाय’ के नाम से प्रसिद्ध है। इसकी मूल परम्परा के कारण हंस सम्प्रदाय या देवर्षि सम्प्रदाय भी कहते है।। इसके ऐतिहासिक प्रतिनिधि श्री निम्बार्काचार्य हुए हैं, इसलिये इसका लोक प्रसिद्ध नाम ’’निम्बार्क सम्प्रदाय’’ है।(13) विष्णु यामल इसकी पुष्टि करता है।(14) इस सम्प्रदाय का दार्शनिक सिद्धान्त द्वैताद्वैत कहलाता है। इसी को भेदाभेद कहा जाता है, भेदाभेद एक प्राचीन दार्शनिक सिद्धान्त है, जिसकी परम्परा श्री निम्बार्काचार्य से पहले से ही विद्यमान थी निम्बार्काचार्य से पहले से ही विद्यमान थी। भेदाभेद सिद्धान्त के प्राचीन आचार्यो में औडुलोमि आश्मरथ्य भर्त प्रपंच भास्कर और यादव केक नाम मिलते हैं। (15)

अनुशासन पर्व (141/89) ने चार प्रकार के संन्यासी बतलाये हैं--कुटीचक, बहूदक, हंस और परमहंस, जिनमें से प्रत्येक आगे वाला पिछले से श्रेष्ठ कहा गया है। ’’हंस’’ ग्राम में एक रात्रि, नगर में पांच रात्रियों से अधिक भिक्षा मांगने के लिये नहीं ठहरते, गोमूत्र या गोबर पीते-खाते हैं,(16) या एक मास का उपवास करते हैं या सदैव चान्द्रायण व्रत करते रहते हैं। स्मृति मुक्ताफल (वर्णाश्रम पृष्ठ 184) में उद्धृत मत से ’’हंस’’ सन्यासी एक दण्डी होते हैं और केवल भिक्षाटन के लिये ही ग्राम में प्रवेश करते हैं, नहीं तो सदैव खोह (गुफा) में, नदी तट या पेड़ के नीचे रहते हैं।(17) इसी प्रकार परमहंस सदैव पेड़ के नीचे, खाली मकान या श्मशान में निवास करते हैं, वे धर्माधर्म, सत्यासत्य पवित्रापवित्र के द्वन्द्वों या द्वैतों से परे रहते हैं। वे सबको एक समान मानते हैं। सबको आत्मा के समान समझते हैं और सभी वर्णो के यहाँ भिक्षा मांगते हैं।(18) यही जीवन पद्धति सनकादियों की मानी जा सकती है, वैसे इनकी ’’रहनि’’ को जानने के लिये ’सनक-गृह’’ सूत्र से सहायता मिल सकती है, पर यह अप्राप्य गं्रथ माना जाता है।

’’पराशर माधवीय’’ के मत से परमहंसों की एक दण्ड धारणा करना चाहिए। इसके अनुसार परमहंस के दो प्रकार--विद्वत्यरमहंस (जिसने ब्रह्मानुभूति करली हो) तथा विविदिषु (जो आत्मज्ञान प्राप्ति के लिए सतत सचेष्ट रहते हैं) माने गये हैं। (19) ’’पराशमाधवीय ने विद्वत की व्याख्या के लिये वृहदारण्कोपनिषद् पर तथा विविदिषु के लिए जाबालोपनिषद् पर जोर दिया है। सनकादि सम्प्रदाय के अनुयायी एवं प्रवर्तक साधु समाज इसी हंस और परमहंस श्रेणी के रहे हैं। स्वतंत्र विचारक के रूप में वैदिक चरणों से बाहर उसी काल में इनका पल्ल्वन हो रहा था। यह सम्प्रदाय वेदसम्मत था, जैसा कि ’’सौन्दर्यलहरी’’ के टीकाकार पंडित लक्ष्मीधर के मत से प्रकट है। वे मानते हैं कि सनक, सनन्दन, सनतकुमार शुक्र और वशिष्ठ संहिता ही वेद से अविरूद्ध तंत्र है, इन तंत्रों का आचार समयाचार है। स्पष्ट है कि इस मत ने आर्यो की सनातन निवृत्ति मार्गीय भक्ति और भेदाभेद का दार्शनिक रूप सुरक्षित ही नहीं रखा, बल्कि उसे उचित वातावरण व स्थिति प्रदान कर आगे बढ़ाया। साथ ही इसमें तांत्रिक प्रभाव भी समाहित हो गया।

इस दार्शनिक, तात्विक और आचार पक्ष के अतिरिक्त इनका (सनाकादिकों का) शस्त्र धारक रूप भी उजागर रहा। आत्मरक्षार्थ अथवा अपनी परम्परा की रक्षा के लिए अथवा अन्य किसी राजनैतिक कारण वश इन्हें शास्त्र के साथ शस्त्र पर भी अधिकार रखना पड़ा। ’’सनकानीक’’ उसी शस्त्रधारक रूप का ही प्रत्यक्ष प्रतिफल रहा होगा, जिसे अब तक इतिहासकार गण अथवा जाति विशेष समझते रहे हैं, नारद पा´्चरात्र’’ में भी शस्त्रधारक साधुओं का उल्लेख है, जो ’’योगी’’ के साथ श्रेणीबद्ध किये गये हैं।(20) हो सकता हैै कि यह शास्त्रधारक ही सनकादि सम्प्रदायान्तर्गत ’’सनकानीक के नाम से अभिहित हुए हों--ऐसा मुझे प्रतीत होता है, यह परम्परा आगे भी विलुप्त नहीं हुई, साधुओं के शस्त्रधारक अखाड़े अठारहवीं उन्नीसवीं सदी तक सक्रिय राजनीति के भागीदार रहे हैं और उनकी तलवारें राजस्थान से बुन्देलखण्ड यद्ध क्षेत्र में लगातार बजती रही हैं, वैसे इनका मुख्य क्षेत्र भी यही मध्यप्रदेश का दक्षिण-पश्चिम संभाग रहा है। इनका क्रमबद्ध इतिहास लेखन भी स्वयं में एक शोधकार्य है।

डॉ0 वासुदेवशरण अग्रवाल के मतानुसार महाभारत में नवीन संस्करण के युग में अर्थात् ईसा से लगभग दो-तीन शताब्दी पूर्व इन सनकादिकों का प्रभाव इतनी प्रमुखता प्राप्त कर चुका था कि सनत्सुजात पर्व या सनत्सुजातीय संहिता(21) (उद्योग पर्व, अध्याय 42 से 45 तक) जैसे लम्बे अंश भी महाभारत में प्रशिप्त हो गये, जो शुद्ध वेदान्त का प्रतिपादन करते हैं। इस संहिता का महत्व इस बात से भी प्रकट होता है कि इस पर ईसा की सातवी-आठवीं शताब्दि में शंकराचार्य ने भाष्य लिखा। इन्हीं के प्रभाव से महाभारत के अधिकतर दार्शनिक प्रकरणों में सांख्य और योग स्पष्टतः सामने आया।(22) निवृत्ति मार्गी आचार्यो का मत ’’स्वयमागत विज्ञान कहा गया है, अर्थात् इन आचार्यो के मन में ज्ञान का प्रादुर्भाव स्वयं अपनी साधना से हुआ, शब्दमय वेद विद्वा के पारायण और अध्ययन के फलस्वरूप नहीं, सनत्सुजात और कपिल इसी परम्परा के थे, इसके विपरीत नारद चरणों के अन्तर्गत वैदिक परम्परा के आचार्य थे।(23) स्वयमागत विज्ञान का उल्लेख शान्ति पर्व, अध्याय 327 के पैसठवें श्लोक में किया गकया है।

यह स्वतंत्र विचार जिनकी दर्शन के क्षेत्र में सनकादि सम्प्रदाय के प्रवर्तकों के रूप में पहचाना जाता है और स्वच्छन्द शस्त्रधारक इतिहास ें जिनकी चर्चा ’सनकानीक’’ के नाम से होती है, मेरी दृष्टि में सिन्ध और सहायक पार (पार्वती) के कछार वर्तमान ग्वालियर व दतिया जिला (मध्यप्रदेश) के क्षेत्रार्न्तगत अवस्थित थे, इनके वैचारिक रूप को सनकादि सम्प्रदाय के भेदाभेद या ’द्वैताद्वेत’’ के तात्विक रूप में और उनके सैन्यबल को सनकानीक के नाते से पहचाना जाना चाहिए, अभी तक इन्हें अलग-अलग ही समझ गया है, जबकि यह दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू है, दोनों क्षेत्रों में इनकी परम्परा नितान्त प्राचीन है, दर्शन में वादरायण से पूर्व भी इस मत के पोषक आचार्य विद्यमान थे।(24) पर अभी इनके शस्त्रधारक सैन्यबल (सनकानीक). का क्रमबद्ध इतिहास अपने स्पष्ट रूप के लिए शोध की अपेक्षा रखता है।

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1- हिमवदिन्ध्ययोर्मध्ये यत् प्राग्विनशनादपि, प्रत्यगेव प्रयागाच्च मध्यप्रदेशः प्रकीर्तित।। मनुस्मृति--2/21

2- मध्यदेशो देशनामग्रः। इक्षु शालि गोमहषी सम्पन्नो भैक्षुक शत कलिलो दस्युजन विवर्जित आर्यजनाकीर्णो विद्वज्जनः निषेवितः। यत्र नदी गंगा पुण्या मंगल्या शुचि शौचेय सम्मता, उभयतः कूलान्यभिव्यंद्य माना आवहिति।...यत्र ऋषयः तपश्चर्यया स्वशरीरं स्वर्ग कामयमानाः।।...विनयपिटक

3- सर्वाटिविक राजस्य समटक डवाक कामरूप नेपाल कर्तृपुरादि प्रत्यंत नृपतिभिभा्रलवार्युनायन यौधेयमाद्रकाभीर प्रार्जुन सनकानीक काक खरपरिकादि त्रिश्च सर्व कर दानाज्ञाकरण प्रणायागमन परितोषित। .......हरिषेण कृत (प्रयाग के स्तंभ पर) समुद्रगुप्त की प्रशस्ति

4- गंगाप्रसाद मेहता, एम.ए.ःचन्द्रगुप्त विक्रमादित्य (1932) पृष्ठ 32

5- डॉ0 रमेश चन्द्र मजूमदारः वाकाटक-गुप्त युगः अध्याय 7-गुप्त साम्राज्य की स्थापना-पृष्ठ-144

6- सनाढ्य पत्रिका (मथुरा) वर्ष 4, अंक 2-3

7- महाभारतः शान्ति पर्व--अध्याय 327 61-63

8- महाभारतः शान्ति पर्व--अध्याय 327 64-66

9- लेखक का ग्राम अभिधान और पुरातत्व शीर्षक निबन्ध ’मध्यप्रदेश संदेश’’ साप्ताहिक, वर्ष 1969, अंक 40,1 सितम्बर 1973ण्

10- लाला भगवानदोनः केशव-कौमुदी, उत्तरार्द्ध, पृष्ठ 5

11- परमाचार्येः श्री कुमारै रसमद् गुरवै श्री मन्नारदायीपरिष्टों भूमा त्वेव विजिज्ञासितव्यः इत्यत्र भूमा प्राणो न भवति, किन्तु श्री पुरूषोत्तमः कुतः प्राणादुयरि भूम्रः उपदेशात्। ....ब्रह्म सूत्र 1।3।8 की वृत्ति।

12- बलदेव उपाध्यायः भारतीय-दर्शन, निम्बार्क मत, पृष्ठ 485 बनारस (1948)

13- डॉ0 वासुदेव शरण अग्रवालःभारत सावित्री--भाग दो(1964)--5 उद्योग पर्व, पृष्ठ 48

14- डॉ0 प्रभुदाय मीतलः ब्रज के धर्म सम्प्रदायों का इतिहास--पृष्ठ 153

15- नारायण मुखोम्योजान् मंत्रस्तवाष्ट दशाक्षरः आविभूूतः कुमोरेस्तु गृहीत्वा नारदाय वै। उपदिष्टः स्व शिष्याय निम्बार्काय च ते नतु।। विष्णु यामल

16- बलदेव उपाध्यायः भागवत सम्प्रदाय --पृष्ठ 335-338

17- सनाढ्य ब्राह्मणों में आज भी संतानोत्पत्ति या मृत्यु के समय अशौच शुद्धि के अवसर पर प´चगव्य (गाय का गोबर, मूत्र दूध दही और घृत का मिश्रण) पीने का विधान एवं परम्परा है।

18- डॉ0 पा0वा0 काणे धर्मशास्त्र का इतिहास, प्रथम भाग, अनु. अर्जुन चौबे काश्यप हिन्दी समिति, उत्तरप्रदेश प्रथम संस्करण-पृष्ठ 495

19- वही-पृष्ठ 496

20- पराशरमाधवीय (1/2, पृ0 172-176), काणे के धर्मशास्त्र के इतिहास प्र0भाग, पृष्ठ 496 से उद्धत्

21- डॉ0 रतिभानुसिंह नाहरः भक्ति आन्दोलन का अध्ययन।

22- उद्योग पर्व अध्याय 42 से 45 तक का नाम सनत् सुजात पर्व है, जिसे सनत्सुजातीय भी कहते हैंः वासुदेवशरण अग्रवालः भारत सावित्री भाग (1964)

23- विण्टरनित्सः प्राचीन भारतीय साहित्य-प्रथम, भाग द्वितीय खण्ड (अनु. डॉ0 रामचन्द्र पांडेय, रीडर, बौद्ध अध्ययन विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, पृष्ठ 118-119)

24- डॉ0 वासुदेवशरण अग्रवालः भारत सावित्री, भाग दो, पृष्ठ 49

25- बलदेव उपाध्यायः भारतीय दर्शन, तृतीय संस्करण, 1948 पृष्ठ 487 भागवत सम्प्रदाय, पृष्ठ 335-338