समय और समाज सापेक्ष रीतिकाल
राधारमण वैद्य
किसी रचनाकाल के साहित्य-विवेचन में उस काल-खण्ड की दृष्टियों, शैलियों, तत्कालीन-सामाजिक रूचियों, आर्थिक दशा और राजनीतिक घात-प्रतिघात का पता चलता है। सामाजिक और राजनीतिक दशा और दिशा का बोध होता है। रीतिकाल को आचार्य शुक्ल ने विक्रमाब्द 1700 से 1900 तक माना है। इन दो सदियों तक फैले विवेच्य काल से पूर्व संवत 1600 से 1700 तक इसका प्रस्तावना काल और बादमें 1900 से 1975 विक्रमी तक उपसंहार काल कह सकते हैं। इन दिनों मुगल-साम्राज्य का पतन प्रारंभ हो गया था। यथा राजा तथा प्रजा। मुगलों की अधीनता में ही अपना हित मान चुके राजे-रजवाड़े मुगल सेवा में जुटे मनसब प्राप्ति की होड़ में लगे थे, दूसरी ओर रनिवास बढ़ाने, आपस में टकराने और सुखचैन को छटपटाते सुरा-सुन्दरी के भोग मंे तल्लीन थे। इसकेे साथ ही कुछ पराधीनता के दंश से पीड़ित अपनी स्वतंत्रता को बाधित पा, स्वाधीनता-प्राप्ति के लिए संघर्षरत भी थे। कुछ धार्मिक संस्थान, साधु-समाज भी अपनी दृष्टि से मुगल-साम्राज्य से टकरा रहे थे। हर वर्तमान अपनी परम्परा और अतीत से बहुत कुछ पाता है और अपने में से बहुत कुछ भविष्य को सौंपता है। शाहजहां के समय से प्रारंभ और मुगल साम्राज्य की समाप्ति तक का यह काल भी अपनी परम्परा से प्राप्त और अपने समय की टकराहट से उत्पन्न सारी स्थितियों को अपने साहित्य में प्रकट कर रहा था, जिसका विवेचन यहां अभीष्ट है।
कोई भी स्थिति या प्रवृत्ति न तो एकदम प्रकट या उद्भूत होती है और न एकदम मरती या समाप्त होती है। साहित्य में और समाज में अनेक प्रकार की प्रवृत्तियाँ एक साथ चलती रहती हैं। उन्हीं में से कोई एक या दो प्रवृत्तियाँ किसी काल में तीव्र रूप धारण कर लेती है और शेष अन्तः सलिला हो जाती हैं। इस काल खण्ड में साहित्य-रचयिताओं को ’स्वान्त-सुखाय’’ रचना कर्म महत्वपूर्ण भले ही न रह गया हो, पर सीकरी और गुणगान में उन्हे अपनी जीविका दिखने लगी थी, ये कलावन्त पेशेवर हो गए थे। उन्हें क्रांतिदर्शी प्रतिभा और नये क्षितिज के संकेत नहीं दिख रहे थे, इसलिए वे संस्कृत सांहित्य का दुर्बल प्रतिलोपन भाषा में कर उठे थे, इससे पूर्व अनेक धर्मग्रन्थों की व्याख्यायें भी तो की जा चुकी थीं। इस काल के कवियों का भाषा-प्रवाह और कथन संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश की काव्य परम्पराओं का निर्वाह करने के साथ फारसी काव्य धारा के सम्पर्क माध्यम से भी लाभान्वित हो उठा था। परम्परा का निर्वाह और नवीनता का स्वीकरण में ही रीति कालीन काव्य की आंतरिक शक्ति का रहस्य छिपा हुआ है।
मुगलों का शासन विश्व-इतिहास का रंगीन पृष्ठ है, जिसमें ऐसे शासकों की परम्परा मिलती है, जो रसिक कहलाने के अधिकारी हैं। आलीशान इमारतें, मकबरे, किले, मस्जिदें इत्यादि इस युग की भव्यता के आदर्श हैं। सर्वत्र मीनाकारी, पच्चीकारी और प्रदर्शन की प्रधानता ही दिखाई देती है। इस युग की चित्रकला और वास्तुकला की नक्काशी शृंगार-युग की कविता का सूक्ष्मतर विवरणों में जाने की रुचि को स्पष्ट करती है। इस समय की कला के संबंध में कहा जाता है-श्ज्ीमल इपनसज सपाम हपंदज ंदक पिदपेीमक सपाम रमूमसमतेण्श् अब इस काल के काव्य-सृजन पर दृष्टि डालें तो पाते हैं कि छंदों के वैविघ्य में चटकीला चित्रण, शब्दों का गढ़न, सौन्दर्य की कठपुतलियों की बनावट की श्रेष्ठता और चित्ताकर्षण रंगों का लेपन तथा यह कह उठने को विवश करती उनकी कहन युगानुरूप ही कही जायेगी।
आचार्य डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी कहते हैं कि ‘जब-जब कोई जाति नवीन जाति के सम्पर्क में आती है, तब-तब उनमें नई प्रवृत्तियां उत्पन्न होती हैं, नई आचार-परम्परा का प्रचलन होता है, नये काव्य सूत्रों की सद्भावना होती है, नये छंदों में जनचित्त मुखर हो उठता है। नया छंद नए मनोभाव की सूचना देता है।’ (हिन्दी साहित्य का आदिलकाल पंचम व्याख्यान) इस दृष्टि से फारसी भाषा के छंदों ने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से रीतिकालीन छंदों के निर्माण एवं इनके परिष्कार में जो अपना योगदान किया उसके अध्ययन से विज्ञजनों ने जाना कि चार चरणों का सवैया, रूबाई के सन्निकट खड़ा किया जा सकता है। यही नहीं, भाषा कवियों ने ‘पठन्त’ में एक पंक्ति की आवृत्ति करके चार की जगह पांच पंक्तियों के छंद का वजन पैदा करके चतुष्पदी छंदों का सवाया बनाने के साथ फारसी के पांच चरणों के मुखम्यस छंद के समानान्तर बनाने का काम किया। इसी प्रकार मुखद्दस षष्टपदी छप्पय के सन्निकट था। मुथम्यन अष्टपदी की बराबरी के लिए घनाक्षरी छंद अनेक प्रकार से संवारा गया। गीत प्रधान ‘गजल’ और शोक प्रधान मर्सिया आदि गेय फारसी छंदों को ध्रुपद संगीत की संगीत चेतना से घनाक्षरी की आड़ में दबा दिया गया।
इस काल में रीति प्रधान शृंगार और वीर रस की प्रमुखता रही। कवियों ने पूर्ण स्वतंत्रता और निर्भीकता के साथ शृंृंगार वर्णन किया और बड़ी बारीकी और कुशलता के साथ किया। कहीं कोई संकोच नहीं। डॉ0 नगेन्द्र का मत है कि इस युग की शृंृंगारिकता में अप्राकृतिक गोपन अथवा दमन से उत्पन्न ग्रंथियाँ नहीं है, न वासना के उन्नयन अथवा प्रेम को अतीन्द्रिय रूप देने का उचित अनुचित प्रयत्न। जीवन की प्रवृत्तियाँ उच्चतर सामाजिक अभिव्यक्ति से चाहे वंचित रही हों, परन्तु शृंृंगारिक कुंठाओं से मुक्त थीं। इसी कारण इस युग की शृंृंगारिकता में घुमड़न अथवा मानसिक छलना नहीं है।
इस भाषा काव्य को मात्र विलासिता के अर्थ में शृंृंगारी कहने वाले आलोचकों को ’अमरू शतक’ चौर पंचाशिका तथा खजुराहों और कोणार्क जैसे मंदिरों का अनुशीलन अवश्य कर लेना चाहिए। मुगल काल में जो भक्ति साहित्य के नाम पर मंदिरों में बैठकर गुप्त साधनाओं के रूप में लिखा गया था, वह साहित्य ज्यादा ऐन्द्रिक है या इस काल का नायिका भेद ? भारत में चार पुरूषार्थो में ’काम’ एक है और कामसूत्र के रचयिता वात्स्यायन को ऋषि कोटि में गिना गया तथा उस पर किसी ने उंगली तक उठाने का साहस नहीं किया, जबकि उनको अविवाहित कहा जाता है। शंकराचार्य ने शास्त्रार्थ के निमित्त परकाया प्रवेश कर काम-क्रीड़ा की बारीकियों को जाना।
रीति शब्द मूलतः परम्परा की मान्यता के अतिरिक्त उसकी निरन्तरता से जुड़े रहने का भाव में भी अपने में समाये हैं। भिखारीदास कहते हैं कि ‘‘काव्य की रीति-पढ़ी सुकवीन सो’ तथा देव अपने ’शब्द रसायन-11वाँ प्रकाश’’ में कहते हैं- ‘‘अपनी-अपनी रीति के काव्य और कवि-रीति’’। रीति युग में संगीत, नृत्य ओर चित्रकारों की तरह कवियों के घराने भी सुविख्यात थे। पन्ना राज के कठिमणि श्रीकृष्ण ने बुन्देलखण्ड के गांवों में घूम-घूमकर ग्यारह सौ कवियों का वृत्त एकत्र किया था, जिसे डॉ0 महेन्द्र प्रतापसिंह, जो देशबन्धु कालेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक थे, ने स्वयं देखा है। इस संग्रह के अनुसार कवि घरानों के कई पीढ़ियों के नाम गिनाए जा सकते हैं।
इन रीतिकालीन कवियों ने काव्यशास्त्र का सांगोपांग विवेचन अवश्य किया, किन्तु कोई नई बात नहीं कहीं। शुरू-शुरू में केशव की इस मान्यता पर कि सभी रस शृंृंगार में ही अन्तर्भुक्त हो जाते हैं, आलोचकों ने आश्चर्य प्रकट किया था। परन्तु बाद मे इस आश्चर्य में शिथिलता आ गई जब उन्होंने जाना कि अग्निपुराण और भोजराज के ’शृंृंगार-प्रकाश’ आदि ग्रंथों में बड़ी गंभीरता के साथ दिखाया गया है कि किस प्रकार मानसिक वेदनाओं की अप्रतिकूलता के कारण जो रति-हास इत्यादि अनुभूतियां होती हैं, और प्रतिकूलता के कारण जो विषाद, क्रोध आदि भाव उठते हैं, वे सभी वस्तुतः हमारे अहंकार के ही रूपांतर हैं। उसी के रमने को रति कहते हैं। इसलिये जहां कहीं भी यह अहंकार अनुकूल या प्रतिकूल रूप में रत होता है, वह शृंृंगार रस है, जिसका विस्तार प्रशस्ति, वीर, भक्ति, नीति और प्रेम के वर्णन में इस रीतिकाल के कवियों ने भरपूर किया है। उनके नायिका-वर्णन, नख-शिख, अलंकार इत्यादि के लक्षण उदाहरण प्रस्तुत करने में इसी शृंृंगार (रति) का प्रतिपादन था।
इस काल के नायिकाभेद को सामाजिक परिप्रेक्ष्य में देखते हुए उनका ऐतिहासिक, सामाजिक और मनोवैज्ञिानिक जीवन दृष्टियों से अध्ययन और मूल्यांकन अपेक्षित है, जो अब तक कुछ आग्रहशील (प्रिजुडिस्ट) दृष्टि-समर्थ आलोचकों के कारण उपेक्षित रहा है। हालांकि देव और बिहारी की काव्यगत विशेषताओं पर खेमाबंदी के साथ विचार विमर्श हुआ है। नायिका भेद के विवेचन से एक विलुप्त पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन-बोध की जानकारी हो सकेगी और उस काल के सामंतों और सुविधा सम्पन्न वर्ग का जन सामान्य के प्रति किये गये व्यवहार का पता चलेगा।
जैसा मैंने प्रारंभ में निवेदन किया कि समाज का एक वर्ग, जिसमें राजे-रजवाड़े, धार्मिक संस्थान और कुछ साधु समुदाय संघर्षरत थे, जूझ रहे थे उस साम्राज्यवादी शक्ति से, जो उसकी रहनि और स्वाधीनता को बाधित कर रहा था यह टकराहट कुछ कवियों को भी प्रेरणा का स्रोत बनी। उन्होंने इस वर्ग को निरन्तर अपने उद्देश्य प्राप्ति की प्रेरणा देता अपना साहित्य रचा। यद्यपि यह साहित्य रीति की परिपाटियों के अनुकूल ही रहा। इस दृश्टि से उत्साह (स्थायी भाव) परक शृंृंगारकालीन रचनाओं को वीर काव्य के द्वितीय उत्थान की संज्ञा दी जायेगी, क्योंकि आदि कालीन रासों काव्यों को प्रथम उत्थान माना जायेगा। इस समय वीर काव्य की पांच पद्धतियोँ मिलती हैं- (1) शुद्ध वीर काव्य (2) शृंृंगार मिश्रित वीर काव्य (3) भक्ति भावित वीर काव्य (4) अनूदित वीर काव्य और (5) प्रकीर्ण वीर काव्य। सामान्यतः वीर काव्यों के रचयिता राजाश्रित ही रहे हैं, पर अन्य स्थलों पर भी ऐसा काव्य रचा गया। वीररस के छंद जोड़ने वाले हुए तो अनेक, पर भूषण, लाल और सूर्यमल मिश्र ही अग्रणी हैं। दुरासा जी और सूदन आदि भी ख्याति प्राप्त है।
केशव के ‘रतनवावनी’, ‘वीरसिंह देव चरित’ और ‘जहांगीर जसचंद्रिका’, भूषण के ‘शिवराज भूषण’, ‘शिववावनी’ और ‘छत्रसाल दशक’, दुरासाजी की ‘प्रताप चौहत्तरी’ मानकवि का ‘राजविलास’, सूर्यमल की ‘वीर सतसई’, श्रीधर का ‘श्रीधर का जंगनामा’, सूदन का ‘सुजान चरित्र’, जोधराज का ह‘म्मीर रासो’, चन्द्रशेखर का ‘हम्मीर हठ’, पùाकर की ‘हिम्मत बहादुर विरदावली’ आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं।
भूषण को मात्र औरंगजेब की काली करतूतें ही उसके विरोध में लिखने को प्रेरित करती रही थीं। उन्होंने खरी-खोटी मात्र औरंगजेब को ही सुनायी है, उसके बाप-दादों को नहीं देखिये-
1- दौलति दिल्ली को पापकहाए आलमगीर,
बब्बर अकबर के विरद बिसारे तैं।
2- बब्बर अकबर हिमायूँ हद बाँधि गए,
हिन्द और तुरूक की कुरान वेद ढब की।
सूर्यमल्ल ने प्रथम स्वातं़त्र्य समर का उद्घोष करते हुए वीरसतसई में घोषणा की है- ’इला न देणी आपणी।
पंजाब में गुरू गोविन्दसिंह का खालसा-समुदाय, जाटबहुल इलाके में साध कहलाने वाले साधु, बुन्देलखण्ड में और महाराष्ट्र में समर्थ गुरू रामदास के प्रभाव से एक स्वाधीनता की प्राप्ति का वातावरण उद्वेलित था। महाभारत के वीर योद्धा हनुमान और आल्हाखण्ड के नायक सामान्य जन मानस को बल प्रेरणा और स्फूर्तिदायक हो रहे थे। उस काल में शृंृंगार रस ही नहीं, वीर रस की रचनाओं में शिक्षित अशिक्षित दोनों वर्गो की गहरी रूचि रही। महाभारत तो मूलतः युद्ध और राजनीति प्रधान गं्रथ ही है। महाभारत कालीन वीरों का अनुकरण कर सामान्य जन जिस भावना से जूझने को कृत संकल्प था, उसे औरगंजेब के सरकारी इतिहासकार ने ‘मआसिरे आलमगीरी’ नामक ग्रंथ के पृष्ठ 72 पर लिखा है कि सतनामी साधु (साध) महाभारत के वीरों का आदर्श रखकर मुगल सेना के साथ युद्ध कर रहे थे। गुरू गोविन्दसिंह ने (कृष्णावतार) में लिखा है कि इन पौराणिक वीरगाथाओं को भाषा में लिखकर राष्ट्र की वीर पूजा की भावना को सींचते रहना चाहते हैं। उनके ‘चण्डी चरित’ आदि की भक्ति का मूल स्वर वीर रस का ही है। ईश्वर भक्ति वीर रसोन्मुखी हो गई है। कृष्णावतार में यह भाव देखिए-
’धन्य जीव जिनका जग माहि, मुखते हरि चित्त में युद्ध विचारें ’
इसी में गुरू गोविन्दसिंह जी लिखते हैं- ‘‘और वासना नाहिं कुछ, धर्म-युद्ध की चाह’’ इसी भाव की पुष्टि में यह पंक्तियां भी दृष्टव्य हैं-
‘‘देहि शिवा वर मोहिं यहैं, शुभकर्मन ते कबहूँ न ढरौ। जब आयु की अवधि निदान बने, अति ही रण में तब जूझ मरौं।’
महाराज छत्रसाल का कृष्ण के प्रति यह कथन- ‘‘तुम दनुज संघारे, हम यवन प्रहार हैं ’’ भी यही भाव प्रकट कर रहा है।
चण्डी, भवानी और हनुमान इस सब के लिये प्रेरणादायक रहे। गुरू गोविन्दसिंह ने ‘शस्त्र नाम माला पुराण’, की रचना द्वारा जनता को अस्त्र-शस्त्र-व्रती होने का पाठ पढ़ाया। आत्मकथा प्रधान ‘विचित्र नाटक’ में मंगलाचरण में भी खड्ग की स्तुति की गई है। धुवेला ताल संग्रहालय छतरपुर में संग्रहीत छत्रसाल की तलवार पर ’’भवानी’’ खुदा हुआ है। शिवाजी को भी तुलजा भवानी का इष्ट था। युगजन जागृति के लिए सदैव ऐसे सहारे लेता है, जिस से उस काल का अभीष्ट पूरा हो। हनुमान का सहारा तुलसी के युग से बल वर्धन और अखाड़ों में प्रेरक देव के रूप में लिया जाता रहा और दुष्ट संहार के लिए चण्डी या काली की कृपा की चाह रही है। इस प्रकार यह शृंृंगार रस की गहराईयों में डूबता-उतराता युग अपने भीतर एक और तीव्र उथल-पुथल को छिपाये हैं, जिसका समग्र रूप से व्यवस्थित अध्ययन किसी शोधार्थी की बांट जोह रहा है।
आमतौर पर इसके वीररस के प्रतिनिधि कवि के रूप में भूषण का नाम उभारा जाता है। इसमें केाई शक नहीं कि उस काल के चरित्र नायकों में शिवाजी और छत्रसाल की प्रशस्ति में लिखे, ’’शिवा वावनी’’’ और ‘छत्रसाल दर्शन’ का उल्लेख किया गया है, क्योंकि भूषण की भावना व्यापक थी। उनकी दृष्टि में यदि, ‘‘शिवाजी न होते जो सुनति होती सबकी’’ का भयंकर संकट था। इस संकट से उबारने के लिए ही उन्होंने कहा था- ‘‘शिव सरजा न, यह महेश हैं ’’ भूषण अपने नायक को राष्ट्र का प्रतीक मानते हैं। वे उसकी विजय को वैयक्तिक विजय न मानकर राष्ट्र का प्रतीक मानते हैं। ऐसा कहा जाता है कि भूषण ने हिन्दू जाति को जागरण का मंत्र दकेर सुसुप्त देश को राष्ट्रीयता की ओर उन्मुख किया।
भूषण को राष्ट्रीय कवि माना जाये या नहीं, यह विवादग्रस्त प्रश्न रहा है। जो सारे भारत को एक राष्ट्र मानते हैं, उनकी दृष्टि में भूषण संकुचित दृष्टिकोण वाले जातीय कवि हैं। उनकी दृष्टि में भूषण की कविता अराष्ट्रीय, द्वेषपूर्ण और हिन्दू-मुसलमानों में घृणा फैलाने वाली है। ऐसे आलोचक यह भूल जाते हैं कि समय-समय पर राष्ट्रीयता की परिभाषाएं परिवर्तित होती रहती हैं। वीर गाथा काल में एक राज्य विशेष ही राष्ट्र माना जाता था। भूषण के युग में सम्पूर्ण हिन्दू जाति राष्ट्र मानी जाने लगी। आज सम्पूर्ण भारत एक राष्ट्र माना जाता है। लक्षण ऐसे बनने लगे हैं कि भविष्य में सम्पूर्ण विश्व ही एक राष्ट्र माना जाने लगेगा। इसलिए हम भूषण को जब उसी युग में रखकर देखने का प्रयत्न करेंगे तभी उनका महत्व हमारी समझ में आ सकेगा। आधुनिक युग में जिस प्रकार अंग्रेजों के विरुद्ध हिन्दू-मुसलमान एकता की भावना का प्रचार किया गया और ‘हिन्दू-मुस्लिम, सिख ईसाई, सब आपस में भाई-भाई’ का नारा बुलंद हुआ, उसी प्रकार उस समय अंग्रेजों के स्थान पर मुसलमान आसीन थे और हिन्दू उनका विरोध कर रहे थे। इस विरोध का सबसे प्रबल समर्थन भूषण ने ही किया।
इस प्रकार मैंने उस रीतिकाल (सन् 1643 से सन् 1843 ई0) की सामाजिक और राजनीतिक दशा और दिशा की ओर इंगित करते हुए उसकी दृष्टियों, प्रवृत्तियों और रूचियों में हो रहे घात प्रतिघात बताने का सामान्य प्रयत्न मात्र किया है, इससे अतिरिक्त कुछ नहीं।