उत्तरी मध्यप्रदेश का गौरवशाली स्थल-
‘‘ इतिहास का भूला’-बिसरा पृष्ठ ‘‘भर्रोली ’’
राधारमण वैद्य
अभी हर स्थान अपने इतिहास के लिखे जाने की प्रतीक्षा में है, विशेष रूप से विन्ध्यभूमि का वस्तुनिष्ठ और समग्र इतिहास तो अभी भी लिखा जाना शेष है। यह प्राचीनतम भूमि न जाने क्या-क्या अपने आप में सहेजे हुए चुपचाप पड़ी है। इसकी चोटियाँ, उपत्यकाएँ और तलहटी अगर खँगाली जाये, तो बहुत सा अतीत मुखर हो उठेगा,।केवल सही सूत्रों को पकड़कर उन स्थानों की व्याख्या भर प्रस्तुत कर दी जानी है, इसमें अपने आग्रहों और निरर्थक का व्यामोह काम न करे, यह शर्त है। उदाहरणार्थ भाण्डेर, जिला दतिया को देखते है, जहाँ हर काल के चिन्ह विद्यमान है।
भाण्डेर से लगभग पाँच-छह कि0मी0 पूर्व की ओर भाण्डेर चिरगाँव रोड़ पर बांयी ओर दो पहाड़ियों के बीच स्थित भर्रोली अचानक ध्यान आकर्षित करता है। स्थान अभिधान की व्युत्पत्ति भारावली या बिहारावली के ऊहापोह में फँसा लेती है। गाँव में घुसते ही सबसे पहला एक स्थापत्य ध्यानाकर्षित करता है, वह पाषाण निर्मित एक शिवालय है, जो कभी अपने पूर्ण वैभव में उसकी श्रेष्ठ स्थापत्य कला से युक्त रहा होगा। आज भी जो शेष है, वह अपनी कहानी कहने में पूर्ण समर्थ है। उसके आस-पास मूर्तियाँ और अवशेष अपने वैभव और कलात्मक भव्यता और सौन्दर्य में अद्भुत मूर्ति चोर बहुत कुछ ले जा चुके हैं, इसके बाद भी।
इस मन्दिर का निर्माण अनुमानतः आज से लगभग अठारह सौ वर्ष पूर्व हुआ प्रतीत होता है। सम्पूर्ण शिवालय बुन्देलखण्ड में सहज प्राप्त कणाश्य के शिलाखण्डों से निर्मित है। संभवतः इसका निर्माण भारशिवों के समय में गुप्तकाल से पूर्व हुआ होगा। ये वही भारशिव हैं, जो विदिशा के नागवंशी राजाओं के वंशधर तो थे ही, पर जिन्होंने अपने शौर्य व साहस से आर्यावर्त से कुशाणों का शासन धीरे-धीरे नष्ट कर डाला था, जिनकी तलवार पाटलिपुत्र तक पूर्व में तथा मालवा तक पश्चिम में बजती रही तथा जिनकी प्रज्जवलित की हुई पुनरूत्थान की ज्योति वाकाटकों और गुप्तों के समय तक यथावत प्रकाशित रही, इतिहासकारों ने इनका (भारशिवों का) समय सन्् 140 से 315 ई0 तक निर्धारित किया है। विष्णु और ब्रह्माण्ड पुराण ने ‘‘नागा भोक्ष्यन्ति सप्तवे’’ की उक्ति द्वारा इस वंश में सात राजाओं का होना बताया है तथा ‘‘नव नागाः पद्याक्त्यां का निपुर्था मथुरायां’’ विष्णु पुराण वाली उक्ति से पद्यावती (पवायाँ, ग्वालियर जिला) कान्तिपुर (वर्तमान कंतित, मिरजापुर जिला) तथा तीन राजधानियाँ पुराविदों ने बताई है। कुछ लोग कान्तिपुर को मुरैना जिले का कोंतवार का अनुमान करते है। पर पवायाँ (ग्वालियर जिला) और मथुरा निर्विवाद है। जिसमें पद्यावती (पवायाँ) को केन्द्र बनाकर कुशाणों को भारत भूमि से खदेड़ कर मथुरा से कौशम्बी तक सारे प्रदेश को अपने अधीन कर सके, इस विजय उल्लास और ब्राह्मण धर्म के पुनर्स्थापन मंे इन नाग राजाओं ने दस अश्वमेघ किए, जिसकी स्मृति वाराणासी का ‘दशाश्वमेध घाट’ अपने नाम से सुरक्षित किए है।
नाग शैव मतावलम्बी थे। इन्होंने शैव मठों का निर्माण कराया, जिनके चिन्ह आज भी कई स्थानों पर पाये जाते है। भर-देवल (ए0एस0आर0 खण्ड 21, प्लेट 3 और 4) मन्दिर जो भरहुल (भार भुक्ति, भरों का प्रांत) में माना जाता है, भाकुल देव मंदिर, भूमरा (मझगवा, सतना जिला) उन्हीं में से है। मेरे ख्याल में यह भर्रौली का शिवालय भी उसी काल और उन्हीं के द्वारा बनवाया है। इस चौमुखा मन्दिर का निर्माण बड़ी कुशलता से हुआ है। पत्थर पर पत्थर बड़ी चतुराई से बैठाए गए हैं, गारे और चूने का नामोनिशान नहीं पाया जाता। चारों ओर द्वारों की चौखटों पर, जो पत्थर की बनी है, दोनों ओर सुन्दर मूर्तियाँ उकेरी गई है, गर्भ गृह के स्तंभों पर भी सुन्दर अंकन हुआ है। ऊपर का शिखर भाग नागर शैली का है। हो सकता है, यह बाद में पूरा किया हो। मन्दिर के बाहर एक छत्ती (शिलाखण्ड) पर नागकन्या को उकेरा गया है। जैसा उस काल में अर्द्ध मानव और अर्द्धनाग के रूप में उकेरा जाता रहा (दृटव्य-सरजॉन मार्शल चित्र 16-29, चित्र 9, 27-110़) कहा जाता है कि पास ही एक जलाशय से यह नागमूर्ति जिसके दस फन है, प्राप्त हुई है। पता नहीं कैसे यह सुन्दर मन्दिर, जो अपने में एक अनुपम युग समेटे हुए है पुरातत्व विदों की दृष्टि से अब तक ओझल रहा। ग्वालियर गजैटियर 1968 में भी इस सम्बन्ध मे कोई भी टिप्पणी प्राप्त नहीं हो सकी।
यह नव नाग कुल भारशिव के नाम से अभिहित हुआ। डॉ0 जायसवाल के मतानुसर राजा नवनाग अपने ही नाम वाले राजवंश के प्रति स्थापक थे, जिस राजवंश की उपाधि भारशिव थी, यह उपाधि शिव लिंग को कंधे या सिर पर वहन करने के कारण प्रसिद्ध हुई थी। वायु पुराण में इन वैदिश नागों को वृष अर्थात् शिव का सांड या नन्दी कहा गया है। नाग या साँप और त्रिशूल के चिह्न भी इसी कारण पाये जाते हैं। यहाँ की फोटो ग्राफी उल्लेखनीय है। यहाँ खूबसूरत सी दो पहाड़ियाँ नन्दी की काँधोर सी खड़ी है उनमें से एक के ऊपर दो नन्दी उसी काल के स्थापित है। जिस काल का यह शिव मन्दिर है। अनुमानतः यही से उन पहाड़ियों का सिलसिला आरंभ हो जाता है, जिन पर या जिनकी उपत्काओं में भारशिव रहा करते थे और यह सिलसिला पवायाँ (पद्यावती) तक चला जाता था। संभवतः इसी कारण इस स्थान का नाम भारावली-भरावली-भरौैली-भर्रौली पड़ा होगा।
ग्वालियर जिले में तथा आस-पास (दतिया जिले में) अनेक भरोलियाँ (भर्रोलियाँ) पाई जाती हैं, जो भारशिवों के तत्कालीन यश के प्रतीक स्वरूप मानी जा सकती हैं। दतिया जिले के ‘‘भरकुआ’’ और भरसूला (भरशूला) भी इन्हीं ‘‘भारशिवों’’ की कीर्ति के बोधक हैं, साँक नदी के पश्चिमी किनारे पर (तिघरा बाँध, ग्वालियर) स्थित ‘‘भारेश्वर’’ भी इसी संदर्भ में ध्यान देने योग्य हैं। उपर्युक्त ‘‘भरकुआ’’ भारकुल का अपभ्रंश प्रतीत होता है। मैहर तहसील (जिला सतना) के पिपरा गाँव के समीप भूमरा का मन्दिर भर्रोली के शिव-मन्दिर की भाँति अठारह सौ वर्ष पुराना है।
नागों के इस वैभव की ओर पुरातत्व प्रेमियों का ध्यान जाना चाहिए। दतिया और ग्वालियर जिले में ही, मेरी दृष्टि में, इतनी सामग्री और स्थान हैं, जिनके सहारे बहुत कुछ जाना जा सकता है। ऐसा कहा जाता है कि बहुत पहले जो पुरातत्व या सर्वेक्षण श्री कनिंघम की देख-रेख में हुआ, उसमें तत्कालीन ब्रिटिश राज्यान्तर्गत सभी क्षेत्र तो भली प्रकार खोजे गये, पर देशी राज्यों के अधीनस्थ भू-भाग पूरी तरह नहीं देखे गए। अब यदि केवल शासकीय सहारे बने रहे और इस काम को केवल हम अपनी जानकारी और ज्ञान को बढ़ाने के आकांक्षी रहे, तो वह पंगु रह जाएगा। उसे समर्थ और सशक्त बनाने के लिए सभी जागरूक मनीषियों, विचारकों, जानकारों और अन्वेषकों को बढ़कर हिस्सा लेना चाहिए। विश्वविद्यालयीन स्तर पर भी इस प्रकार के अभियान चलाए जा सकते है। जैसा अभी मुरैना जिले में किया गया था, या बहुत पहले सागर विश्वविद्यालय द्वारा एरण में किया गया, और भी अन्य सम्भव उपायों द्वारा अपने प्राचीन गौरव को प्रकाश में लाने का प्रयत्न करना हम सबका नैतिक दायित्व है।-0-