‘‘ बुन्देलखण्ड की प्राचीन मूर्ति व वास्तु कला ’’
भारत के केन्द्रीय प्रदेश बुन्देलखण्ड की ‘‘कीरत के विरवा’’ की जडं़ अति प्राचीन है। भौगोलिक दृष्टि से इस क्षेत्र का अधिकांश भू-भाग दक्षिण के पठार में है। इसकी पुरातात्विक महत्ता आदिमानव तक को छूती है और इसकी परम्पराएँ सम्पूर्ण देश को प्रभावित करने की क्षमता रखती है। इस भू-भाग को कभी मध्यदेश के नाम से जाना गया है। यह सब जानते हैं कि उत्तरप्रदेश के पाँच और मध्यप्रदेश के बाइस जिलों में इसका फैलाव है। इन जिलों का अधिकांश भू-भाग 21.250 से 26.580 उत्तरी अक्षांश और 76.500 से 81.500 पूर्वी देशान्तर के मध्य स्थित है। इन जिलों की अधिकतम लम्बाई उत्तर से दक्षिण तक 580 किलोमीटर के लगभग और अधिकतम चौड़ाई पूर्व से पश्चिम 450 कि0मी0 के लगभग है। वर्तमान में इसका क्षेत्रफल 128000 वर्ग कि0मी0 के लगभग है।
प्रागैतिहासिक काल से संबंधित सामग्री इस भू-भाग के कई स्थानों से उपलब्ध होती रही है और निरन्तर हो रही है। पाषाण युग, ताम्र युग और लौह युग में हुए परिवर्तन यहाँ प्राप्त हैं- ग्वालियर के समीपवर्ती क्षेत्रों में सौ से अधिक पूर्व पाषाण कालीन स्थल, गुना जिले के कदवाया, चाचौड़ा, महुआ और गोंची नामक स्थानों ललितपुर के समीपवर्ती क्षेत्र, वेतवा नदी की एक तह से, दतिया जिले के क्योलारी ग्राम से पूर्व पाषाण और मध्य पाषाण युग के प्रमाण मिले है। मध्यप्रदेश के छत्तीस जिलों में शैल चित्र पाये जाते हैं, जिस में बाईस जिले विन्ध्याचल की गोद में बसे हैं, सर्वाधिक चित्रित शैलाश्रय समूह इसी क्षेत्र में है। (नई दुनिया, इन्दौर, 20 दिसम्बर 1981, श्री उमेश त्रिवेदी, पृ0 6-7) विश्व का सबसे बड़ा चित्रित शैलाश्रय समूह रायसेन जिले के भीम बैठका स्थान में पाया गया। (उपरोवत, 15 फरवरी 1981, पृ0-5)
इतिहास की दृष्टि से यह भू-भाग मौर्य शुंग (शुंगकालीन भारत श्री सच्चिदानन्द त्रिपाठी पृृ0-2) नाग, कुषाण और गुप्त (वाकाटक गुप्त युग डाँ0 रमेश चन्द्र मजूमदार, डॉ0 अनन्त सदाशिव अल्तेकर, पृ0 458-59) टूडा, मांडलिक, पुलिंद, अमीर, जुहौती, सातवाहन, वर्धन, प्रतिहार, कल्चुरि, चंदेल, राष्ट्रकूट गौड़, सुल्तान, तोमर, खंगार, खिलजी, तुगलक, बुन्देला, मराठा, और मुगल वंशों की राजसत्ता के अंतर्गत विभिन्न काल-खण्डों में रहा। सांची भरहुत के स्तूप गुजर्रा का शिलालेख, उदयगिरि की गुफाएँ, देवगढ़ में विखरा वैभव, महेश्वर के मंदिर छिंदवाड़ा में नीलकंठी के शिलालेख, खजुराहों और ग्वालियर के मंदिर इस क्षेत्र के कला-कौशल, शिल्प और वास्तु तथा धार्मिक आस्थाओं के स्पष्ट और सजग साक्षी हैं।
‘ललित आकलन कला है। कालिदास ने ‘‘ललिते कला विधौ’’ का जो रघुवंश में उल्लेख किया है, वह इसी प्रसंग में है। अभिराम अंकन चाहे वह कालिदास के क्षेत्र में हो, चाहे राम-रेखाओं में, चाहे वास्तु शिल्प में-है वह कला ही।’ (भारतीयकला और संस्कृति की भूमिका- भगवत शरण उपाध्याय, पृ0-4) प्रकृति जो देती है, कलाकार उस दृश्य में पैठ कर, उससे एकाकार होकर, उसे देखता और सिहजता है। वह प्रकृति को अपनी तूलिका, छैनी अथवा कुच्र से सँवार देता है। अपने माध्यम से नंगी प्रकृति में जो अन्तर कलाकार डाल देता है, वही कला है।
यह सही है कि सभ्यता और संस्कृति की तरह कला का भी विकास हुआ है, किन्तु मानव सभ्यता के उदय के पूर्व से ही ‘‘कोरने’’ ‘‘गढ़ने’’ ‘‘सिरजने’’ और निर्मित करने लगा था। प्राङ मौर्यकाल की वस्तुतः वैदिक अन्तराल के बाद की पहली पाषाण मूर्तियाँ यक्षों और यक्षणियों की है। वे विशालकाय है, आदमकद से भी ऊँची , आठ-आठ, सात-सात फुट की शिल्पकारिता की दृष्टि से रूखड़ी और भोड़ी यक्ष यक्षणियों का सम्बन्ध प्राचीन भारतीय जन-विश्वास वृक्षों से किया गया है, वे उर्वरा शक्ति से सम्पन्न मानी जाती है । जल और वृक्ष दोनों से ही उनका सम्बन्ध अथवा उनमें उनका निवास रहा है। यक्ष-यक्षियों की ये मूर्तियाँ सिंधु सभ्यता की समाप्ति और मौर्य-शिल्प के उदय के बीच की है। ये मूर्तियाँ मथुरा के पास पारखम और बडौदा नामक ग्रामों से मिली। ग्वालियर के जिले के पवांयाँ से प्राप्त ऐसी ही मूर्ति ग्वालियर-संग्रहालय में देखी जा सकती है, जो मणिभद्र नामक यक्ष की है, जिसका इस क्षेत्र में पूजन का उल्लेख महाभारत के नलोपाख्यान में हुआ है। प्राङमौर्य काल के इन यक्ष-यक्षणियों की पूजा जैन-बौद्ध, हिन्दू देवताओं से भी पहले होने लगी थी।
मौर्यकाल (322-185 ई0पू0) तक आते-आते भारत का नगर तथा दुर्ग-वास्तु पर्याप्त सराहनीय हो उठा था। मौर्यकला का स्वर्णयुग तो चन्द्रगुप्त के पौत्र अशोक के शासन काल में था। अशोक की निर्माण क्रिया निःसीम थी, जो प्रधानतः चार भागों में देखी जा सकती है-नगरों, गुहागृहों, स्तूपों और स्तंभों में। उसने आजीवक साधुओं के निवास के लिए दरीगृह बनवाये, गुफाओं की छतों और दीवारें बज्रलेप से सँवारी होने के कारण शीशे की भाँति चमक उठी। इसमें प्रयुक्त ओप (पॉलिश) मौर्यकाल का अपना आविष्कार है। इन गुहागृहों का समूचा कला-संसार सर्वथा भारतीय है और प्राचीनतर दारूकार्य (काष्ठ) का पत्थर के माध्यम से मात्र विस्तार है।
‘‘चैत्य’ निर्माण भी इस काल की विशेषता है। चैत्य शब्द संस्कृत की ‘‘ची’’ धातु से बना है, जिसका अर्थ चुनना, राशि करना, एक के ऊपर एक को लादना है। इसी से ‘‘चित्य’’ बना, जिसका अर्थ बेदी था, धीरे-धीरे इसका सम्बन्ध आचार्य, महान व्यक्तियों, के स्मारकों से हो गया। चैत्य वृक्ष न्यग्रोध (वट-पाकड़) आदि उन वृक्षों की संज्ञा बनी, जिनकी पूजा होती थी। (भारतीय कला का इतिहास-भा0श0 उपाध्याय, पृ0 41) चैत्यों का स्तूपों के साथ घनिष्ट सम्बन्ध रहा है। दोनों शब्द पर्याय के रूप में, पवित्र स्थलों के रूप में प्रयुक्त हुए। चैत्य का सम्बन्ध शव समाधि से आरंभ में रहा है। चैत्य, स्तूप, विहार-तीनों, बौद्ध जीवन के प्रधान अंग थे और वास्तु कला के विशिष्ट प्रकार थे। अनेक स्तूप आज भी उस कला श्रेष्ठता के प्रत्यक्ष प्रमाण है।
इस काल की यक्ष-मूर्तियों की स्निग्धता और परिष्कार प्रशंसनीय है। अशोक की प्रस्तर कृतियों की अद्भुत पॉलिश और चमक उन्ही के साथ शुरू भी होती है और उन्हीं के साथ खत्म भी। स्तंभ, उनकी पॉलिश और उनके पशु शीर्ष (मोहिक) इस काल की स्मरणीय उपलब्धि है। खरोष्ठी लिपि, अभिलेखों की परम्परा और ब्राह्मी लिपि ने अपना विस्तार किया। इस काल में अद्भुत कला आदर्श स्थापित किये।
शुंग काल (185-73 ई0पू0) में कला ने राष्ट्रीय रूप लिया और कुछ अभिप्रायों (मोटिफो) को छोड़कर इस कला पर पश्चिम का कोई प्रभाव नहीं देखा जा सकता। कला के क्षेत्र में इस काल में नये क्षितिज खोजे गये-स्तूपों में बहिरंग, उनकी वेदिकाएँ (रेलियों) तोरण द्वार, हीनयानी बौद्ध लक्षणों से संयुक्त प्रतीक, उत्खनन और चित्रार्ध-सभी इस काल में अत्यनत सफलता से सम्पन्न हुए। अनन्त मृण्यमूर्तियाँ अद्भुत क्षमता, सौन्दर्य, और नये सांचों से ढाली गयी। यह सर्वथा स्वदेशी रूपकारिता है। अधिकतर नारी की सजी उभरी मूर्ति, अनेकानेक चुन्नटांे वाला घांघरा पहने, शुंग कालीन परम्परा में सम्पन्न होने वाले केशों का छत्र धारण किये भरहुत (भार युक्ति) का स्तूप और उसकी वेदिका, तोरण आदि सम्भवतः 150 ई0 पू0 के है। उनके कुछ ही बाद सांची की वेदिका, तोरण आदि बने।
शक्-कुषाण कला (प्रथमशती ई0पू0-तीसरी ईसवी) में प्रायः शुद्ध देशी परम्परा में निर्मित कला की अपार सम्पदा प्रसूत हुई। पत्थर और मिट्टी दोनों का असाधारण मात्रा में उपयोग हुआ। कुषाणकालीन कलाकार ने विदेशी प्रभाव का भारतीयकरण करते समय ग्रीक परिधान की चुन्नटों को लहराते लिबास की ऊँची लहरों को नीचे कर दिया, जिससे आगे गुप्त काल के कलाकारों ने संकेत ग्रहण कर उन उर्मियों से अपने परिधान को लांछित मानकर शरीर के अंगांगो में विलुप्त कर दिया। वे उनका अलंकरण मात्र बनकर रह गयी। वृक्ष की डाल पकड़े झुकी शाल भंजिकाएँ, अल्हड़, नग्न यक्षिकाएँ अनन्त रूपों में अभिव्यक्त हुई। कन्दुक उछालती, स्नान करती, अंजन आँजती, पुष्प चयन करती, वीणा बजाती नारी अपनी अगणित विभिन्न मुद्राओं में स्तूपों की रेलिंग (वेदिका, वेष्टनी) स्तंभों और सामने लम्बायमान दण्डों पर द्वार-तोरणों पर उभर आयी। मृण्मूर्तियाँ लोक कला का संसार है। वे अधिकतर हाथ से बनायी जाती रही।
गुप्त काल की कला (300 ई0-600 ई0) ने एक नयी संस्कृति का युग प्रस्तुत किया। एक तो उस युग से पहले ही एक प्रकार की राष्ट्रीय-जागृति द्वारा भारतीय नागों ने कुषाणों की शक्ति नष्ट कर दी थी, दूसरे स्वयं गुप्तों ने देश को एक नयी राजनीति, नयी राष्ट्रीयता प्रदान की।
गुप्तकालीन हिन्दू मंदिरों में सबसे शालीन और महत्व के मन्दिर देवगढ़ और भीतर गाँव के हैं। देवगढ़ (जिला ललितपुर) झांसी के पास गुप्तकाल के बचे हुए मन्दिर रत्नों में से हैं, जिनका विस्मयकारी अलंकरण मन को मोह लेता है। गुप्त वास्तु के मूर्धन्य अभिजात शिल्प का यह उदाहरण है। प्रायः नौ चौके के मंडल के अन्तरतम घेरे में मन्दिर खड़ा था। किसी समय इसका पिरामिडनुमा शिखर लगभग चालीस फुट ऊँचा था। सुन्दर गर्भ गृह पहले चार मण्डलों से घिरा था, जिनमें से होकर गर्भगृृह को रास्ता जाता था। शेष उन दीवारों की रक्षा करते थे, जिन पर अत्यन्त अभिराम और पौराणिक देवताओं अथवा कथाओं के चित्र कटे थे। देवगढ़ का मन्दिर वंशावतार का है और पांचवी सदी का बना है, इसी मंदिर के पीछे के मन्दिरों के दृश्य मूर्तनों से सजे चौखटों का आरंभ होता है। स्तंभों की बनावट चौपहली, आठ पहली और सोलह पहली है और सर्वत्र बड़ी सुरूचि से कटे दृश्यों की भरमार है। चौखटों के अलंकरण दीवारों के उत्कीर्णनों की भांति हृदय ग्राही है। मिथुनों के परिवार यत्र-तत्र लक्षित है और द्वारशिला पर शेषशायी बिष्ण की सजीव काया उकेरी गयी है। दोनों और गंगा और यमुना, जिनका प्रादुर्भाव कुषाणकाल में ही हो चुका था, खड़ी है, यह मन्दिर पत्थर का है।
पुराने नागौद राज्य में भूमरा का शिव मंदिर, भीतर गाँव के मंदिर से मिलता जुलता है। गर्भगृह इसका वर्गाकार है, जो पहले दीवार से घिरा था और दोनों के बीच प्रदक्षिणा मार्ग बना था। जिससे सामने का मंडप जुड़ा था। भूमरा के मन्दिर का सबसे अद्भुत और अभिराम अवशेष उसका वह आयताकार ऊँचा लाल पत्थर का पट्ट है, जिस पर लिलि स्क्राल (लहरिया कमल नाल) मनहर करा है और उसके मोटे दण्ड को पकड़े वमिन अथवा गण अपने गुप्तकालीन केश सज्जा से सजे खड़े हैं, उसके भरे और प्रथुल अंगांग बड़ी कला कुशलता से निर्मित हुए है, जिसकी मांसलता आकृति को सजीव कर देती है, गुप्तकाल में तीनों प्रकार की मूर्तियाँ बनी- पत्थर की, धातु की, मिट्टी की, पत्थर की मूर्तियों में एक वर्ग बुद्ध की मूर्तियों का, दूसरा जैन मूर्तियों का, तीसरा ब्राह्मण धर्म की मूर्तियों का है।
गुप्त काल में पौराणिक देवताओं के मूर्तन खूब हुए। दसों अवतार-मच्छ, कच्छ, वराह, नृसिंह, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध, कलिक आदि के मूर्तन होने लगे थे। दशावतार मंदिर देवगढ़ (जिला ललितपुर) सुप्रसिद्ध है ही। साथ ही याद आता है वह दृश्य जहां विदिशा के पास उदयपुरी गुफा में चार सौ ई0 के आस पास का विशाल वराह अद्भुत शक्ति के साथ दीवार पर उभारा गया है, जिसमे दाहिना पैर कटि पर रखे और बांया पैर शेष नाग पर रखे थूथन से पृथ्वी को उठाये वराह विष्णु खड़े हैं।
सप्तमातृका का कलागत निरूपण कुषाण और गुप्तकाल में पर्याप्त हुआ है। कालिदास द्वारा वर्णित रावण के कैलाश उठाने का दृश्य ( जिसमें उस पर्वत की चूलें हिल जाती है और उमा-नंदी आदि संत्रस्त हो उठते हैं।) कला में अनजाना नहींे है।
मध्यकालीन जगत्प्रसिद्ध खजुराहों के चन्देल नागर मन्दिरों की चर्चा बिना बुन्देलखण्ड का कला वर्णन अधूरा है। जेजाक मुक्ति (बुन्देल-भूमि) के चन्देल राजाओं ने अतिव्यय से अपने उत्कर्ष के समय (950-1050 ई0 के बीच) खजुराहों के मन्दिर बनवाये। पहले इन शालीन और ऐश्वर्य पूर्ण मन्दिरों की संख्या पचासी थी, जिनमें से केवल तीस इस समय में बच पाये हैं। इनमें शैवों, वैष्णवों और जैनों तीनों के मन्दिर है, पर उनके वास्तु में कोई अन्तर नहीं।
खजुराहों के मन्दिर उडीसा के मन्दिरों की भाँति अनेक देवालयों का परिवार लिए, मण्डपों आदि से जुड़े नहीं है। उनका भवन एक है, जिसके गर्भगृह अन्तराल, मण्डप, और अर्धमण्डप अंग है। एक ही मन्दिर के अंगरंग एक ही ऊँचे अधिष्ठान (आधार) पर बने हैं। विमान शिखर गर्भगृृह पर उठता चला गया है और उसकी समूची काया पर सब ओर अंग-शिखर, कलश, मस्तक सहित बनते चले गये हैं। खजुराहो के मन्दिरों को घेरने वाला अन्यत्र (उड़ीसा आदि) के मन्दिरों के विपरीत, कोई परकोटा नहीं है।
शैव मन्दिरों में प्रधान कंडरिया (कंदर्प) महादेव और विश्वनाथ के हैं। वैष्णव मंदिरों में रामचन्द्र अथवा चतुर्भुज और जैन मंदिरों में प्रधान पार्श्वनाथ का है। कंडरिया महादेव और विश्वनाथ मंदिर खजुराहो के सम्पूर्ण वास्तु धन में अनमोल स्थापत्य है। दोनों प्रायः एक से है। अन्तर दोनों में बस इतना है कि कंडरिया महादेव मंदिर विश्वनाथ से अधिक ऊँचा है, नीचे से ऊपर तक एक सौ सोलह फुट का और समृद्धतर भी। यह मन्दिर सप्तांग में सम्पन्न सप्तरथ है। बहिरंग मूर्ति आदमकद से कुछ ही छोटी संख्या में नौ सौ है। अभिराम सजीव, गति प्रधान शिखर की प्रत्येक दिशा में अनेकों अंग-शिखर है और उनमें से प्रत्येक आमलक और कलश से मंडित है, मन्दिर का अंतरंग उसके बहिरंग से सुघराई में तनिक भी कम नहीं है। पूरब की ओर द्वार है, सीढ़ियों के ऊपर जो कटाव के काम से अलंकृत है, मण्डप की छत, स्तंभ आदि सभी अलंकरणों से भरे है। बुन्देल-भूमि और खजुराओं में अनेक मन्दिर है। पर कंडरिया से शालीन सुरूचि से अलंकृत एक भी नहीं । उड़ीसा के मन्दिरों की भांति इनमें विशेषतः बहिरंग पर यौन मूर्तन हुए हैं।
खजुराहो के मंदिरों में वामन और आदिनाथ के मंदिर संभवतः सबसे पहले बने हैं। दोनों की संयोजना, रूपादि समान है। वामन के मंदिर पर अंग-शिखरों का अभाव है, यद्यपि उन पर अलंकरणों की सम्पदा फूट पड़ी है। गर्भगृह की दीवारें सुन्दर मूर्तनों से भरी हैं। सान्धार (प्रदक्षिणा के साथ) प्रासाद रामचन्द्र अथवा चतुर्भुज का मन्दिर भी है, यह पंचरथ एवं पंचाग है। भीतर ही प्रद्क्षिणा-पथ बना हुआ है। जिन मंदिरों में प्रदक्षिणा भूमि भीतर न होकर बाहर होती है, उसे निरन्धार प्रासाद कहते हैं। जगदम्बा और कुंवर मठ ऐसे ही हैं, खजुराहों का घंटाई मंदिर सर्वथा दूसरे प्रकार है। यह बड़ी भग्नावस्था में है। बस कुछ स्तम्भ ही इसकी करूण कथा कहने को शेष रह गये हैं। गर्भगृह और अंतराल नष्ट हो गये हैं। इन मन्दिरों के स्तंभों का कटाव कार्य आकर्षक एवं कलापूर्ण है।
बुन्देलखण्ड के वास्तु का वर्णन चौसठ योगनियों के मंदिरों के उल्लेख बिना पूरा नहीं हो सकता। योगनियां शक्ति के परिवार की अनंत इकाइयाँ हैं और चूँकि इनके मंदिर इस भू-भाग में पर्याप्त संख्या में बने हैं। इससे जाहिर है कि यहाँ शक्ति सम्प्रदाय का प्रचार प्रभूत मात्रा में हुआ था। अधिकतर तो एक विशाल प्रागंण में चारों ओर दौड़ते स्तम्भों से घिरे कक्षों में चौसठ योगनियों की अलग-अलग मूर्तियाँ पधरायीं होती है और प्रागंण के मध्य शक्ति अथवा देवी का प्रधान मंदिर खड़ा होता है, जबलपुर के पास नर्मदा के संगमरमरी धारा-कुण्ड के समीप चौसठ योगनियों का एक सौ सोलह फुट भीतरी लम्बाई वाला प्रागंण है, जिसके बीच के मंदिर में उमा-महेश्वर की मूर्ति स्थापित है। यह निर्माण दसवीं सदी के लगभग का है। खजुराहों के चौसठ योगनियों के मंदिर का प्लाट आयताकार है, इसके बीच के चौकोर आँगन की लम्बाई एक सौ फुट और चौड़ाई साठ फुट है। इसके चारों ओर चौसठ छोटे मन्दिर है, पीछे की ओर दीवार से लगा प्रधान मंदिर है, इसके शिखर आभलक युक्त है। ललितपुर के दूधई (दुधही) में भी इसी प्रकार का मंदिर है।
इस प्रकार इस बुन्देलखण्ड में प्राचीन कला बिखरी पड़ी है और अपने को रक्षित रहने के लिए हम सबका मुँह जोह रही है, इसका क्षरण और नष्ट होना केवल अतीत का विलुप्त होना नहीं है, बल्कि अपने अस्तित्व के लिए घातक है, इसे नष्ट होने, चोरी जाने और देश से ही निष्कासित न होने से बचना है, तभी हम बच सकते हैं। लेखक इस आलेख के लिए सुप्रसिद्ध इतिहासविद् डॉ0 भगवतशरण उपाध्याय के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना नैतिक दायित्व मानता है। इस प्रतिभा सम्पन्न लेखक के प्रति आभार।