हिन्दी की गोद में तमिल-पुत्री ‘‘बरगुण्डी’
राधारमण वैद्य’
कुछ वर्ष पूर्व श्री अमृत पय्यर मुत्तू स्वामी, ( जो इस लेख को लिखने के समय दतिया शासकीय स्नातक महाविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर काम कर रहे हैं,) मंदसौर में थे, वहाँ कुछ लोग दिखाई दिये, जिनकी मात्र गरीबी ने उनका ध्यान आकर्षित नहीं किया, बल्कि उनकी भाषा ही आकर्षण का केन्द्र बनी, यद्यपि श्री स्वामी उसे भली प्रकार और पूरी तरह नहीं समझ पा रहे थे, पर उन्हें सुनकर लगता था कि वे अपनी मातृभूमि तंजावर (तमिलनाडु) मंेे अपने लोगों के बीच हों। उन व्यक्तियों को द्वारा बोले जा रहे शब्दों में कुछ शब्द तमिल के इतने नजदीक थे कि श्री स्वामी उनसे बात करने के लिए स्वतः प्रेरित हुए। पूछने पर ज्ञात हुआ कि वे ‘‘बरगुण्डी’’ नामक जंगल में रहने वाली एक जाति के व्यक्ति हैं, जो झाडू बनाने का काम करते हैं। श्री स्वामी ने अपना कुछ समय उनके बीच बिताकर कुछ विचित्र संदर्भो में प्रयुक्त शब्दों का चयन किया, जिनकी सारिणी नहीं दी गई है।
श्री स्वामी ने उन लोगों से बात करके जिन शब्दों का संग्रह किया, वे हिन्दी के तो क्या आर्यभाषा-कोष के भी नहीं है, वरन् स्पष्टतः द्राविड़-कोष के हैं। अतएव ये लोग या तो उन द्रविड़ों के अवशिष्ट हैं, जो आर्यो के इस क्षेत्र में प्रवेश से पूर्व नर्मदा घाटी या उसके आस-पास रहा करते थे अथवा यह लोग तमिलनाडु के इस भाग में प्रवासी के रूप में आए और यही रह गये यदि दूसरा विकल्प स्वीकार किया जाय, तो तत्काल प्रश्न आता है कि वह कौन सा काल रहा होगा, जब इन लोगों के पूर्वजों ने इस ओर गमन करके इसी क्षेत्र में रह जाने को विवश हो गये होंगे ?
सन् 1981 की जनगणना के अनुसार ग्वालियर जिले में उनकी संख्या ग्यारह सौ और लगभग इतनी ही संख्या मंदसौर जिले में थी। अतएव इनकी संख्या लगभग ढाई हजार है जो मंदसौर, रतलाम, खंडुआ, उज्जैन और ग्वालियर जिलों में बिखरे हैं। इन्हीं बरगुण्डी नामक अनुसूचित जनजाति द्वारा बोली जाने वाली यह बोली है, जो ‘‘बरगुण्डी’’ कही जाती है।
सबसे पहले हम संख्या वाचक शब्दों की ओर आपका ध्यान आकर्षित करते हैंः-
बरगुण्डी तमिल में संख्या- हिन्दी
बोलने में- लिखने में-
आन ओंष्णु आनरु एक
रण्डु रण्डु इरण्डु दो
म्णु म्णू मूनरु तीन
नालु नालु नानगू चार
अ´्जू अ´जु एन्डु पाँच
आररु आररु आररु छैः
एगा एल एष सात
अट्ट एट्ट अट्ट आठ
ऑम्बज आम्बटु आन्पटु नौ
पत पत पत्तु दस
पत्तुआण पदिनुन्नू पदिनुररु ग्यारह
पत्तरण्ड पन्नण्डु पन्न्रिण्डु बारह
पत्तमुणु पदिमूणु पदिमूरह तेरह
पत्तनाल पदिनालु पदिनाडु चौदह
पत्त´ज पदिन´जु पदिनारि पन्द्रह
रण्डनरग पदिनारि पदिनारि सोलह
सत्रह पदिनलु पदिनष सत्रह
सत्रह और सत्रह से आगे कुछ संख्याओं को छोड़कर सभी वही है, जो हिन्दी में है- क्या ‘नरंग’ (एक अट्ठा) के गुणा से इनके पूर्वजों का काम चलता था ? यह दस गुणे के स्थान पर आठ गुणे से काम चला लेते थे ? बाद में श्री स्वामी ने जाना कि लगभग ऐसा ही ढंग प्रयोग में लाया जाता था।
नाते-रिश्तों में प्रयुक्त शब्दाबली जानने पर निम्नलिखित सारिणी हाथ लगीः-
बरगुण्डी तमिल में रिश्ता- हिन्दी
बोलने में- लिखने में-
कोडम् कुषन्दै,कौलइन्दै कष इन्दै बच्चा
आत् मामीयार मामीयार सास
दक्षिण भारत में फुफेरी बहिन से विवाह करना सबसे अच्छा माना जाता है, अगर फुफेरी बहिन पत्नि हो, तो बुआ सास हो जाती है, बोल चाल में तथा लिखित तमिल में ‘‘अत्रै’’ बुआ को कहते हैं-
अप्पा अप्पन अप्पा पिता
मेरा अप्पा परिअप्पन पेरि-अप्पा चाचा
अम्मा अम्मा अम्मा माता (अम्मा)
नल्ला नल्ल नल्ल अच्छा
अल्ला कट्ट केंट्ट बुरा (जो अच्छा नहीं)
पो पो पो चलो
बा बा बा आओ
माहु माहु माहु गाय
आन माडु काल माडु कालैमाडु वृषभ (बैल)
अहुम् डडुम्बु डडुम्बु गोहरा
अडक्प अडुप्पु अडुप्पु कूल्हा
श्र शिरा शिरा ईधन (लकड़ी)
बाट बट्टि तट्टु थाली (मराठी में वाट
कहते हैं)
इडि रोट्टि रोटि रोटी
(तमिल में ‘इडि अप्पनू’ इडली के समान खाने की वस्तु)
आकु आक्कु आक्कु तैयार (पका हुआ)
विल विल् विल्लू धनुष
(हिन्दी का ‘‘मील’’ इसी से बना हुआ प्रतीत होता है, धनुर्धारी के अर्थ में)
ओडम् ओडम् ओडम् नाव
मा´चु मरम् मरम् पेड़
पच्चै पच्चै पच्चै हरा
नोरदे काइन्द काइन्द सूखा
तण्णि तणिण् तण्णीर पानी (नीर)
ओडु ओडु ओडु खपरैल
शट्टि सट्टि सट्टि पटका
वङार तङम् तङम् सोना
(तैलगू में सोने को ‘‘बङारमु’’ कहते हैं)
वल्लिया वेल्लि वेल्लि चाँदी
एरिषि अरिषि अरिषि चावल
(गोंडी भाषा में मौ चावल ‘‘एरिषि’ कहते हैं)
आररु आररु आररु नदी
मण मण्ड मण मिट्टी
कुर दै कुदेर, कुरुदे कुदरै घोड़ा
पौने पूने पूनै बिल्ली
आनै आनै यानै हाथी
ऊडू ऊट्टू वीडू घर
उड़क विलक्कू विलकू दिया
उपर्युक्त सारिणी के ‘‘आनमण्डु’’ जिसके अर्थ साँड़ है, आधुनिक समानार्थी कालै माडु का शब्दार्थ नरगाय है, इससे पता चलता है कि यह बोली विकास की आरम्भिक अवस्था में रही है।
‘‘धूल’’ के लिए तमिल शब्द ‘‘मन’’ है, पर ‘‘बरगुण्डी’’ में रेत की लिए भी ‘‘मन’’ ही प्रयुक्त होता है, जबकि तमिल में ‘मनल’’ शब्द का प्रयोग इस अर्थ में किया जाता है।
शारीरिक अवयवों में प्रयुक्त शब्दों में समानता खोजने के लिए श्री गौरीशंकर ओझा के ‘भारतीय अनुशीलन’ नाम गं्रथ में उद्धरित श्री एल0बी0 रामस्वामी, एम.ए., बी0एल0 एनीकुलम् की सारिणी का सहारा लिया गया है और सुविधा के लिए बरगुण्डी और तमिल को पास ही लिख लिया हैः-
हिन्दी मलयालम कन्नड़ तैलगू तुलू क्वी कुवी गोंडी कुरूख माल्दो ब्राहुई तमिल बरगुण्डी
सिर तला तलै तला तलिया त्ल्यग्यै तिल्यु़यु तला - तलिया -तलै तल
आँख कण्डु कण कण्णु कण्णु कण्णु कण्णु कण्णु अण अण् आम कण कण
कान चेंदि किवि चेदि कवि - - कवि एक्डा एडने अफ रोनि रोई
नाक मुक्कू मूकु मुकू मुकू मुगेलि मूगेलि मस्सर मुई मूस बामुस मुडक्कू मूकै
मुँह बाय बाय बाया बाय - - बाय बाय - बा बाय बाय
दाँत पल्ल पल पल्लु परु पल्लु पुल्लू पल पल पल पल पल पेल
जीभ नाकु नालिगको नालक नलई नाक नाक नाक - - - नाकु नाक
पेट बायर बसेरु - ब´जी - बंदी - - - पेड़ बमरु बरग
हाथ कय्या कै रौया कै कजु कइयु कै कैक्का - - कै कै
अंगुली बिरल बेरल वरलु विरलु व´चु विर´ज - - - - विरल विरा
नाखून नखम् आर गोरु उगुर गोय गोटु - - - - उकेर गोरंग
पैर काल काल काल कारु काल काडा काल एड - - काल काल
उपर्युक्त शब्दों में ‘‘कान’’ के लिए तमिल में दो समनार्थी शब्द है- एक ‘‘शेवी’’ तथा दूसरा ‘‘काडु’’ पहला तमिल का साहित्यिक शब्द है जबकि तैलगू में बोलचाल का, तमिल में इसकी स्थिति ग्रंथों में रह गई है, जिस प्रकार स्वर्णार्थी ‘बंगङार’’ के लिए तैलगू में ‘‘वागरमु’’ है, जो सत्रहवीं शताब्दी की तमिल के ‘‘अरूनागिरीज तथा तिरूप्पुगड़’’ में हमको यह शब्द मिलता है- ‘‘नख’’ बोधक शब्द ‘‘गोरंग’’ का स्रोत सातवीं शताब्दी के क्लासिक ‘‘सिलिप्पाडिकरम्’’ में प्रयुक्त शब्द ‘‘लिकीर’’ में मिलता है, तैलगू में नख बोधक ‘‘गोरू’’ हम आज भी पाते हैं।
अतएव हम इस निश्चय पर पहुँचते है कि ‘‘बरगुण्डी’’ तमिल के अत्यधिक निकट है, और जहाँ कहीं वह दूर दिखाई देती है, वहाँ वह तैलगू के अनुरूप होने लगती है, अब यदि इन लोगों को इस क्षेत्र का आदिवासी माना जाय, जैसा वे कहते हैं, तो वे उन द्रविड़ों के अवशिष्ट हैं, जो आर्यो के आने से पहले इस क्षेत्र के निवासी थे तथा मोहन जो-दड़ों एवं हड़प्पा की सभ्यता के जनक थे।
इन लोगों के पास ‘‘समुद्र’’ के लिए कोई शब्द नहीं है और न इससे सम्बन्ध रखने वाला कोई शब्द, साथ ही न नारियल के लिए, जो तमिल का गौरव है, इसके पास ‘‘ष’’ ( ) ध्वन्यात्मक वर्ण भी इनकी बोली में नहीं है जो तमिल बोली की अपनी विशेषता है। अतः इस सम्भावना में कोई सत्यता प्रतीत नहीं होती कि कभी ये समुदाय तमिलनाडु से तैलगू भाषी भूभाग से होता हुआ आया होगा। (जैसा संकेत कुछ शब्दों को देखकर मिलता है) यदि इस दिशा में व्यवस्थित शोध किया जाय, तो इस बोली के इतिहास को प्रकाश में लाया जा सकता है।
एक बात और ध्यान देने योग्य है कि यद्यपि ये लोग परिगणित माने जाते हैं, पर इनमें दो उपजातियाँ हैं-एक साथपरिया कहलाती है और दूसरी कबाड़िया। क्या ये भीलों की उपजातियाँ नहीं हैं ? यदि ये लोग गाँवों में आने और बसने वालों में अन्तिम हों और उच्चता में दलितों या अस्पर्श्यों के ऊपर इनका स्थान तय किया गया हो, तो क्या इसका अर्थ ये है कि ये दलित या अस्पर्श्य हैं ? इन प्रश्नों की गुत्थी सुलझाना नृ-विज्ञान वेत्ताओं का काम है और भाषाविद्ों का इनकी सहायता करना।
इन शब्दों के संकलनकर्ता श्री स्वामी से इन लोगों की एक वृद्धा ने कहा था कि वह मद्रास (तमिलनाडु) के लोगों को बतावें कि यहाँ मध्यप्रदेश के उत्तरी पश्चिमी भाग में ऐसे लोग हैं जो उनकी बोली बोलते हैं, लेखक अपनी इन पंक्तियों के माध्यम से न केवल तमिलनाडु के लोगों को वरन् समस्त सजग महानुभावों को यह बताने की चेष्टा करता है कि ये बेचारे अल्पसंख्यक माटी खोदना, झाडू बनाना जैसा काम करके अपना पेट पालन करते हैं, जिसे इस क्षेत्र में अन्य दलित या अस्पर्श्य भी नहीं करना चाहते, पर वे हिन्दी भाषी (मालवी बोली के) अंचल में रहते और व्यवहार करते हुए भी अपनी मातृभाषा के तौर पर पूर्वजों से प्राप्त बोली ही बोलते हैं और उसे ‘‘बरगुण्डी’’ कहते हैं। इसकी रक्षा इन विपरीत परिस्थितियों में बिना किसी लिपि या पाठशाला के श्रुति मात्र से कर रहे हैं।
अब तक भाषा शास्त्रियों को द्रबिड़ समुदाय की ग्यारह बोलियों का पता लगा था, जिनमें सबसे बाद में प्राप्त ‘‘ब्राहुई’’ बिलोचिस्तान (वर्तमान में पाकिस्तान) में पाई गयी थी। लेखक के मत से यह ‘‘बरगुण्डी’’ बारहवीं बोली है। यह तमिल-पुत्री हिन्दी की गोद में अपने को सुरक्षित किए हैं और मध्य भारत क्षेत्र में पायी जाती है।
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