आधार - 23 - आत्म-साक्षात्कारसफलता का प्रथम अध्याय है। Krishna Kant Srivastava द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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आधार - 23 - आत्म-साक्षात्कारसफलता का प्रथम अध्याय है।

आत्म-साक्षात्कार
सफलता का प्रथम अध्याय है।

साक्षात्कार शब्द से हम सभी भलीभांति परिचित हैं। सभी ने अपने जीवन में अनेकों साक्षात्कार दिए होंगे। कई साक्षात्कारों के परिणाम स्वरुप आपको जीवन पथ पर सफलता प्राप्त हुई होगी। कभी ऐसी परिस्थिति भी आई होगी जब किसी अपरिचित व्यक्ति ने साक्षात्कार द्वारा आपको अपनी संस्था के लिए उपयुक्त पात्र मानकर कार्य करने हेतु आमंत्रित किया होगा। परंतु क्या कभी आपने आत्म-साक्षात्कार अर्थात अपने स्वयं का साक्षात्कार लिया है? क्या कभी आपने स्वयं को पहचानने का प्रयास किया है? क्या कभी आपने यह जानने का प्रयास किया है कि आप इस समाज के लिए उपयुक्त पात्र है अथवा नहीं? क्या समाज आपको सहर्ष स्वीकार करता है? यदि नहीं किया तो आज हम अपने इस लेख के माध्यम से स्वयं को जानने का प्रयास करेंगे। यहां हम यह भी जानने का प्रयास करेंगे कि हम अपने भीतर रह गई कुछ कमियां को किस प्रकार दूर कर सकते हैं।
साक्षात्कार का शाब्दिक अर्थ दो व्यक्तियों के बीच विचारों के आदान-प्रदान द्वारा एक दूसरे को पहचानने का प्रयत्न होता है। साधारणतया, वाणिज्य और शैक्षिक संस्थान, साक्षात्कार के माध्यम से आपके गुणों की पहचान कर आपको आपके अनुकूल कार्य पर नियुक्त करने का निर्णय लेते हैं। परंतु आत्म-साक्षात्कार इससे पूर्णतया भिन्न है। आत्म-साक्षात्कार के माध्यम से हम स्वयं को पहचानने का प्रयास करते हैं। जो व्यक्ति स्वयं को पहचान लेता है, वह जीवन भर, अपना मूल्यांकन करने में कोई भूल नहीं करता। यहां मैं एक छोटी सी कहानी के माध्यम से इस बात को सिद्ध करने का प्रयास करना चाहता हूं।
एक बार एक जंगल में एक शेरनी बच्चे को जन्म देते ही मर गयी। बच्चे का पालन-पोषण एक भेड़ ने किया। भेड़ के झुंड के साथ पलने-बढने के कारण शेर का बच्चा अपने को भेड़ मानने लगा। वह भेड़ों की तरह ही खाता-पीता, चलता यहाँ तक कि किसी शेर के दहाड़ मारने पर भेड़ों की तरह ही भयभीत हो जाता। जंगल के एक दूसरे शेर को, शेर के इस बच्चे की दशा पर दया आ गयी, उसने शेर के बच्चे को तालाब के जल में उसका चेहरा दिखा कर उसके वास्तविक स्वरुप का ज्ञान कराया। ठीक उस शेर के बच्चे जैसी स्थिति हमारी भी है। वास्तव में अज्ञानतावश, स्वयं का वास्तविक मूल्यांकन ना कर पाने के कारण, हम जीवन में असफलताओं का सामना करते रहते हैं और जीवन को यूं ही बिना किसी पुरुषार्थ के व्यर्थ गँवा देते हैं।
अपने आप को जानना बहुत आवश्यक है। जो स्वयं को नहीं जानता, वह किसी को भी जानने का दावा नहीं कर सकता। लोग झगड़ा करते हैं और कहते हैं- तू मुझे नहीं जानता कि मैं क्या-क्या कर सकता हूँ। इसके जवाब में सामने वाला भी यही कहता है। वास्तव में वे दोनों ही अपने को नहीं जानते। इसलिए ऐसा कहते हैं। अब सवाल यह उठता है कि अपने आप को जाना कैसे जाए? सवाल कठिन है, पर उतना कठिन नहीं, जितना हम सोचते हैं। आपकी ज़िंदगी में कई पल ऐसे आएँ होंगे, जब आपने अपने आप को मुसीबतों से घिरा पाया होगा। इन क्षणों में समाधान तो क्या दूर-दूर तक शांति भी दिखाई नहीं देती होगी। यही क्षण होता है, खुद को पहचानने का। मनुष्य के लिए हर पल परीक्षा की घड़ी होती है। परेशानियाँ मनुष्य के भीतर की शक्तियों को पहचानने के लिए ही आती हैं। मुसीबतों के उन पलों को याद करें, तो आप पाएँगे कि आपने किस तरह उसका सामना किया था। एक-एक पल भारी पड़ रहा था। लेकिन आप उससे उबर गए। आज उन क्षणों को याद करते हुए शायद सिहर जाएँ। पर उस वक्त तो आप एक कुशल योद्धा थे, जिसने अपने पराक्रम से वह युद्ध जीत लिया। स्वयं को जानना, अपनी कमियों को दूर करने और जीवन के लक्ष्य को पाने का, एक अभ्यास है। अतः हमें आत्म-साक्षात्कार द्वारा अपनी शक्ति को पहचान कर जीवन की समस्याओं का सामना करने का अभ्यास प्रारंभ कर देना चाहिए। यह सर्वमान्य सत्य है कि स्वयं को पहचानने वाला व्यक्ति जीवन में कभी असफल नहीं हो सकता।
साधारणतया मनुष्य छोटे-से-छोटे काम को भी सीखने के लिए किसी-न-किसी मार्गदर्शक की खोज में लगा रहता है। उसकी यह स्थिति अपने को ना पहचान पाने के कारण उत्पन्न होती है। आत्म-साक्षात्कार वह विधि है जिस के प्रयोग से गुरु बिना ही महानतम लक्ष्य प्राप्त किए जा सकते हैं। यहां हमारी मनसा गुरु की महिमा को कम करके आंकने की बिल्कुल नहीं है बल्कि हमारा प्रयास है कि जो कार्य हम स्वयं कर सकते हो उसके लिए किसी अन्य के मदद की क्या आवश्यकता।
गुरु की महिमा तो सर्वविदित है, और कहा भी गया है कि:
गुरु पारस को अन्तरो, जानत हैं सब सन्त।
वह लोहा कंचन करे, ये करि लये महन्त।।
अर्थात: गुरु और पारस-पत्थर में क्या भेद है यह सब सन्त जानते हैं। क्योंकि पारस पत्थर तो लोहे को सोना ही बनाता है, परन्तु गुरु शिष्य को अपने समान महान बना लेता है।
परम पिता परमेश्वर ने मनुष्य को पशु योनि से विरक्त करते हुए बुद्धि और विवेक जैसी जो विशेष योग्यताएं प्रदान की है, वह मनुष्य को आत्म-साक्षात्कार कर सकने में मदद करती है। चौरासी लाख योनियों का कष्ट झेलने के बाद प्राप्त हुई इस दुर्लभ देह का उपयोग हमें इस महान लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अवश्य करना चाहिए। यह आत्म-साक्षात्कार ही था, जिसके लिए भगवान बुद्ध ने अपने विशाल राजपाट का त्याग कर दिया था, स्वामी विवेकानंद तमाम सुख सुविधाओं और घर परिवार को ठोकर मारकर श्री रामकृष्ण परमहंस के चरणों में समर्पित हो गए थे और स्वामी रामतीर्थ दर-दर भटके थे। परंतु यहां मैं आपको परंपरागत मुक्ति का मार्ग दिखला कर भौतिक सुख सुविधाओं के त्याग करने को प्रेरित नहीं कर रहा हूं, बल्कि आत्म-साक्षात्कार के द्वारा यहां मैं आप के चारित्रिक गुणों को निखारने और जीवन में अधिक से अधिक उन्नति और ऐश्वर्य प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त करने का प्रयास कर रहा हूं।
हम अपने जीवन का एक लक्ष्य तय करते हैं और उस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कोई ना कोई रास्ता भी निर्धारित करते हैं। परंतु यदि आपको अपने पथ का पूर्वाभास हो, ज्ञान हो, तो यह आपके लक्ष्य प्राप्ति के आत्मविश्वास एवं सोच को और अधिक सुदृढ़ बना देता है। यह आत्मविश्वास आपको तभी प्राप्त हो सकता है जब आप निष्पक्ष हृदय से अपने स्वयं का साक्षात्कार करते हैं, अपनी कमियों और विशेषताओं का निष्पक्ष मूल्यांकन करते हैं। मनुष्य का स्वभाविक गुण है कि वह अपनी कमियों को जानते हुए भी उनकी अनदेखा करता है जिसके कारण उसकी प्रगति में वह विस्तार नहीं हो पाता जो लक्ष्य प्राप्ति के लिए आवश्यक होता है।
प्रत्येक मनुष्य में गुण और दोष प्रचुर मात्रा में मौजूद रहते हैं। आवश्यकता है इन गुणों व अवगुणों को पहचान कर उसके अनुरूप लक्ष्य तय करने की। यदि हमारी क्षमता 50 किलो तक वजन उठाने की है तो हम 2000 किलो के वजन को उठाने का लक्ष्य निर्धारित ना करें। अपनी क्षमताओं की अनदेखी कर लक्ष्य निर्धारण करना न्याय संगत नहीं है। ऐसे कार्यों से लक्ष्य तो पूर्ण होते नहीं इसके उलट मन में कुंठा का जन्म अलग से हो जाता है और कुंठित व्यक्ति जीवन के हर मार्ग पर असफलता प्राप्त करता है। सफलता प्राप्त करने का एक ही मूल मंत्र है कि हम आत्म-साक्षात्कार द्वारा अपनी क्षमताओं को पहचान कर ही अपने लक्ष्य का निर्धारण करें।
श्रेष्ठ वैज्ञानिक, कुशल पायलट, विद्वान अध्यापक अथवा चतुर राजनीतिक जैसी प्रतिभा कोई भी मनुष्य एक दिन में प्राप्त नहीं कर सकता। उसके लिए अनवरत प्रयत्नों की आवश्यकता होती है। जिस प्रकार प्रारंभिक वर्णमाला को सीखे बिना उच्च शिक्षा प्राप्त नहीं की जा सकती, उसी प्रकार आत्म-साक्षात्कार की साधना के निरंतर अभ्यास के बिना सफलता की कामना नहीं की जा सकती। साधारणतया मनुष्य आत्म-साक्षात्कार को अनावश्यक, उपहासास्पद एवं काल्पनिक मानते हैं। ऐसे व्यक्ति आत्मसाक्षात्कार को अपने जीवन में कोई महत्व नहीं देते और परिणाम होता है कि वे जीवन की प्रत्येक परीक्षा में अनुत्तीर्ण होते रहते हैं। अज्ञानतावश ऐसे व्यक्ति अपनी असफलताओं का दोष दूसरे व्यक्तियों और परिस्थितियों पर मढते रहते हैं।
आत्म-साक्षात्कार एक सर्व सुलभ मार्ग है, जिसके द्वारा भौतिक वस्तुओं का त्याग किए बिना स्वयं को समझने की शक्ति उत्पन्न की जा सकती है। इस प्रक्रिया में आत्मशोधन द्वारा स्वयं के भीतर गहराई तक झांककर पल रही बुराइयों और कमजोरियों को निकाल फेंकने का साहस उत्पन्न करना होता है। साथ ही आत्म नियंत्रण का अभ्यास करना होता है ताकि अहंकार खत्म हो जाए और नैतिक-अनैतिक, शुभ-अशुभ व उचित-अनुचित आदि आचरण से संबंधित मानवी वर्तन के विश्लेषण का ज्ञान उत्पन्न हो सके। मनुष्य अपने जीवन में जो भी आचरण करता है, वह अच्छा है या बुरा, उसका कर्म उचित है अथवा अनुचित, इन सब का निर्धारण मनुष्य की आंतरिक शक्ति द्वारा ही संभव हो सकता है जो आत्म-साक्षात्कार के बिना उत्पन्न नहीं हो सकती।
प्रायः अधिकांश लोग हमेशा दूसरों की गलतीयों की निंदा-चर्चा करने, दूसरों की सफलता से ईर्ष्या-द्वेष करने, और अपने अल्प ज्ञान को बढाने का प्रयास करने के बजाय अहंकारग्रस्त हो कर दूसरों पर रौब झाडने में ही रह जाते हैं। अंततः इसी सोच की वजह से वे अपना बहुमूल्य समय और क्षमता दोनों खो बैठते हैं, और उनका जीवन एक संघर्ष मात्र बनकर रह जाता है। दूसरों की निंदा-चर्चा अथवा ईर्ष्या-द्वेष से कुछ हाथ नहीं आने वाला बल्कि हम अपनी मनोवृति को ही विकृत कर लेते हैं, जो हमारी सफलता की राह में एक बड़े रोड़े का कार्य करती है। अतः दूसरों से होड़ मत कीजिये, स्वयं को पहचानने का प्रयत्न कीजिए और अपनी मंजिल खुद बनाइये।
यदि आप आत्म-साक्षात्कार कर अपने भीतर स्वाध्याय, कर्मयोग, समय-प्रबंधन, सहनशीलता, कोमलता, क्षमा, सहृदयता, आत्म-अनुशासन, अहिंसा, शुभ संस्कार, मधुर वाणी, निस्वार्थता, सज्जनता, मैत्री-भावना, परिश्रम-शीलता, कर्तव्य-शीलता, ईमानदारी, आदर्श और निष्पाप-व्यक्तित्व जैसे संस्कारों का निर्माण कर लेते हैं, तो निश्चित मानिए इस समाज में आपकी उपयोगिता को कोई नकार नहीं सकता।
अंत में परम पिता परमेश्वर से प्रार्थना है कि वह मनुष्य को आत्म-साक्षात्कार द्वारा ना केवल स्वयं को जानने बल्कि अपने भीतर निवास कर रहे परमात्मा के अंश, आत्मा, को पहचानने की भी शक्ति प्रदान करें।
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