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आधार - 4 - सहनशीलता,जीवन का सर्वोत्तम गुण है।

सहनशीलता,
जीवन का सर्वोत्तम गुण है।
विचार कीजिए आप सड़क पर जा रहे हैं और भूलवश आप किसी अन्य राहगीर से टकरा जाते हैं, आप कतार में खड़े हैं और काउंटर पर बैठा व्यक्ति मध्यम गति से कार्य कर रहा है, आप जल्दी में हैं और आपको वाहन उपलब्ध नहीं हो पा रहा है ऐसी बहुत सी ऐसी परिस्थितियां हो सकती हैं जब आप अपना संयम खो कर दूसरे व्यक्ति को बुरा भला कहने लगते00 हैं। आज व्यक्ति का छोटी-छोटी बातों पर नियंत्रण खो देना आम बात हो गई है। ऐसा व्यवहार चरित्र में सहनशीलता की कमी के कारण उत्पन्न होता है। आज के मानव की सबसे बड़ी विडंबना भी यही है कि उसकी सहनशक्ति में निरंतर गिरावट आ रही है। परिणाम स्वरूप समाज में कलह, तोड़फोड़, तलाक व आत्महत्या जैसी विकृतियां तेजी से जन्म ले रही है।
सहनशक्ति के अभाव में मनुष्य में सद्गुणों का नाश हो जाता है। इसमें मनुष्य की भौतिकवादी सोच और कम समय में अधिक लाभ प्राप्त कर लेने की अभिलाषा, आग में घी का काम करती है। जो व्यक्ति सच के कड़वे घूंट पीना जानता है, विपरीत परिस्थितियों को सहना जानता है, वही आज के समाज में सरलता से जी सकता है। आज का व्यक्ति बोलना तो चाहता है परंतु सुनना पसंद नहीं करता। अपनी हजार भूलों को नजरअंदाज कर सकता है, लेकिन दूसरे के द्वारा की गई एक भी भूल को बर्दाश्त नहीं कर सकता। जीवन-यापन के लिए सभी का सहयोग अपेक्षित है। समूह में विपरीत प्रकृति के व्यक्ति होते हैं, अनुकूल और प्रतिकूल घटनाएं घटित होती रहती हैं। ऐसी परिस्थितियों में शांत जीवन जीने के लिए सहनशील होना परम आवश्यक है। सहनशीलता धारण करने से मनुष्य के भीतर एक विशेष ऊर्जा जागृत हो जाती है, जिसे व्यवहार में उतार कर वह ऐसी परिस्थितियों में जीने की शक्ति उत्पन्न कर लेता है। अत: ऐसा कर वह सुखी जीवन की राह पकड़ लेता है।
तत्र दोषं न पश्यामि शठे शाठ्यं समाचरेत् ।
अर्थात्- “जो जैसा करे उसके साथ वैसा ही बर्ताव करो। जो तुमसे हिंसा करता है, तुम भी उसके प्रतिकार में उसकी हिंसा करो। इसमें कोई दोष नहीं।” जैसी सोच आज के जीवन में आदर्श समझी जाने लगी है। इसी का परिणाम है कि मैत्री की अपेक्षा शत्रुत्व की भावना तेजी से समाज में विकसित हो रही है। आज के युग में मनुष्य सहनशीलता को कायरता समझता है। उसे नहीं मालूम कि यह कायरता नहीं बल्कि मजबूती और ताकत है।
सुखी जीवन के लिए सहिष्णुता अर्थात् सहनशीलता बहुत आवश्यक है। सहनशीलता की साधना कोई सरल काम नहीं है। बड़े-बड़े त्यागी और तपस्वी भी इसकी परीक्षा में धराशायी होते पाए गए हैं। महीने भर का उपवास करना तो आसान है परंतु किसी व्यक्ति के मुख से निकली सच बात और विपरीत स्थिति को सह पाना कठिन है। ऐसी त्याग तपस्या किस काम की, जो हमें सहिष्णु न बनाए। सहनशील व्यक्ति ही वास्तव में मानव कहलाने का अधिकारी है। ऐसे मानव की यश गाथाएं दिग-दिगंत तक गूंजती हैं।
सफलता के पैमाने पर सहनशीलता होना आवश्यक है। बिना सहनशीलता के सफल होना लगभग असंभव है। कहते हैं, सहनशीलता सभी गुणों का राजा है। यदि आप सहनशीलता को अपने जीवन में धारण कर लेते हैं, तो सच मानिए उज्जवल व्यक्तित्व के लिए आवश्यक सभी गुण आपने अपने में समाहित कर लिए। सहनशील व्यक्ति अपनी सहनशीलता की शक्ति से कठोर-से-कठोर कार्य को भी सहज बना देते हैं। सहनशीलता का गुण जिस व्यक्ति में होगा, वह गंभीर होगा, और जो गंभीर होता है वह कार्य की गहराई में जाने वाला होगा, वह किसी भी कार्य से कभी घबराएगा नहीं और कार्य की गहराई में जाकर सफलता प्राप्त करेगा। सहनशीलता के गुण वाला व्यक्ति सूरत से सदैव संतुष्ट दिखाई पड़ता है। जो व्यक्ति स्वयं संतुष्ट होता है वह औरों को भी संतुष्ट बना देता है। संतुष्ट होना माने सफलता पाना।
सहनशील व्यक्ति ही महान होता है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का सादगी से भरा जीवन बहुत ही सहनशील था। वह प्राय: अपने प्रत्येक कार्य और व्यवहार में सहनशील बने रहते थे। वे समय के बेहद पाबंद थे और अपने मन, वचन व कर्म से कभी किसी को कष्ट देना पसंद नहीं करते थे। इसीलिए वे अपने जीवन में प्राय: सफल रहे। आज भी आवश्यकता है कि हम सहनशील बनें ताकि हमारे कर्म और व्यवहार से किसी को कोई कष्ट न हो। सहनशीलता का गुण अभ्यास से सीखा जा सकता है। प्रत्येक कार्य करने की योजना इस प्रकार नियोजित की जानी चाहिए कि वह एक सुनिश्चित ढंग से पूर्ण हो और समाज के किसी अन्य व्यक्ति को इससे कष्ट भी ना हो।
जीवन में सहनशीलता का बड़ा महत्व है। अच्छे लोगों की संगति, स्वस्थ चिंतन व शुद्ध विचारों से समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त की जा सकती है, परंतु सहनशीलता का गुण धारण कर लेने से इस में चार चांद लग जाते हैं। सहनशीलता के कारण आप जल्द क्रोध अथवा तनाव में नहीं आते और इसका परिणाम होता है कि आप अपने दोस्तों, रिश्तेदारों और पड़ोसियों के मध्य निर्विवाद रूप से स्वीकार कर लिए जाते हैं।
संत कबीर का उदाहरण लीजिए। वे एक ऐसे संत थे, जो अपने जीवन काल में सदा शांत और सहनशील बने रहे। उनके समय में विरोधियों की कमी नहीं थी, लेकिन अपनी बातों को डंके की चोट पर कहने वाले, पूरी पुरातनपंथी व्यवस्था को निरर्थक करार देने वाले और सगुण उपासना का खंडन कर निर्गुण का प्रचार-प्रसार करने वाले कबीर अपनी सहनशीलता के बूते पर ही अडिग खड़े रहे। इस बात की कल्पना कर आप आश्चर्य चकित हो सकते हैं कि जिसने कभी किसी से लड़ाई-झगड़ा, मार-पीट, गाली-गलौज नहीं की, उसने कैसे शुद्ध व पवित्र मन से साधना करते हुए अपने मत को केवल सहनशीलता के बल पर ही पूरे विश्व में फैलाया। यदि कबीर सहनशील न होते, तो आज उनके भक्तों, संतों एवं कवियों की इतनी बड़ी संख्या ना होती। कबीर दास जी ने कहा है कि-
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय॥
अर्थात्- धीरज रखिए और सहनशील बनिए क्योंकि धीरज रखने से सब कुछ होता है। सभी काम अपने समय पर ही पूर्ण होते हैं। कोई माली वृक्ष को चाहे सौ घड़े पानी से सींचने लगे तब भी फल तो ऋतु आने पर ही लगते हैं। इसलिए निष्ठा पूर्वक प्रयत्नशील रहिए, आवश्यक कर्म करते रहिए, समय आने पर सफलता एक दिन आपके कदम अवश्य चूमेगी।
जीवन में आगे बढ़ने के लिए सहनशील होना अति आवश्यक है। सहनशीलता व्यक्ति को मजबूती प्रदान करती है, जिससे व्यक्ति बड़ी से बड़ी समस्या का भी डटकर मुकाबला कर सकता है। सहनशील व्यक्ति के आगे पहाड़ जैसी समस्याएं भी चींटी समान छोटी हो जाती हैं। सहनशीलता का तात्पर्य किसी को कायर बनाना नहीं है, बल्कि यह एक ऐसा गुण है, जिससे कांटों भरे पथ पर भी इंसान हंसते हुए अपनी मंजिल की ओर बढ़ना सीख जाता है। कभी-कभी देखने को मिलता है कि हम छोटी-छोटी बातों पर भी गुस्सा कर देते हैं, जिससे बात आगे बढ़ जाती है और अनिष्ट भी हो जाता है। लेकिन ऐसी ही छोटी-छोटी बातों को मुस्कुराते हुए सुनने वाला व्यक्ति ही सहनशील कहलाता है। पुराने समय में ऋषि-मुनि नंगे बदन तपस्या में लीन रहते थे, ताकि वे मौसम के कठोर प्रहार को सह सकें। भीषण गरमी में देह को तपाकर वे अपनी सहनशीलता की परीक्षा देते थे। इसी प्रकार हमें भी जीवन की परीक्षा में पास होने के लिए कठिन परिश्रम कर सहनशीलता को धारण करने का प्रयत्न करना चाहिए।
सहनशीलता एक ऐसा सत्य है, जिसका प्राय: सभी लोगों को अपने जीवनकाल में सामना करना पड़ता है। सहनशील होना एक गुण है, जिससे जीवन का वास्तविक विकास होता है। सहनशील व्यक्ति अपने आसपास के वातावरण में शांति और सौहार्द्र कायम रखता है।
बचपन से ही मनुष्य को अच्छे व बुरे का ज्ञान होने लगता है। उनमें गुण और अवगुणों का विकास होने लगता है। यही सही समय होता है जब उन्हें अच्छे सदाचार सिखाए जाएं। उन्हें सहनशील होने की शिक्षा दी जाए क्योंकि सहनशील बालक ही जीवन की परीक्षा में खरे उतरते हैं। आज हमारे जीवन में जो दुख और तनाव हावी हैं उसका प्रमुख कारण हमारी असहनशीलता ही है। हम अपनों की बात को तो कुछ हद तक स्वीकार भी कर लेते हैं परंतु समाज में उपस्थित दूसरे व्यक्तियों के विचारों से एकमत कभी नहीं होते। जिसका परिणाम होता है कि हम सर्वदा तनावग्रस्त रहते हैं। अतः बच्चों को सहनशीलता का गुण स्कूल से ही सिखाया जाना परम आवश्यक है। जिससे बच्चे विपरीत परिस्थितियों में अपना धैर्य नहीं खोएं। शिक्षकों और अभिभावकों का यह प्रथम दायित्व है कि वे बच्चों में इन गुणों का बीजारोपण अवश्य करें।
शास्त्र कहते हैं कि भक्त प्रहलाद में बचपन से ही सहनशीलता का गुण विद्यमान था। उनके पिता द्वारा उनकी अनेकों प्रकार से परीक्षा ली गई। सभी परीक्षाओं में वे अपने धैर्य और सहनशीलता के कारण ही सफल रहे। इस का परिणाम यह हुआ कि कभी न जलने का वरदान प्राप्त करने वाली होलिका अग्नि की भेंट चढ़ गई और भक्त प्रहलाद की जीत हुई। महान क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर भी सहनशीलता का जीता-जागता उदाहरण हैं। क्रिकेट के मैदान पर सचिन तेंदुलकर को आउट करने के लिए विपक्षी टीम के गेंदबाज हर तरह के हथकंडे अपनाते थे। उनका धैर्य तोड़ने का खूब प्रयास करते थे लेकिन उन्होंने धैर्य को खोए बिना अपनी सहनशीलता का परिचय दिया और शतकों का भी शतक अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में पूरा किया। हमें उनके जीवन से प्रेरणा लेनी चाहिए कि सहनशीलता के दम पर सारी दुनिया में कैसे नाम कमाया जा सकता है। इस प्रकार बातों ही बातों में पौराणिक कथाओं और सामयिक घटनाक्रम को शामिल कर बच्चों में सहनशीलता का गुण पैदा किया जा सकता है।
सहनशीलता के प्रभाव से कठिन से कठिन कार्य भी अविलंब संपन्न हो जाते हैं। सहनशीलता की साधना के लिए विचारों में परिवर्तन की भी जरूरत होती है क्योंकि वैचारिक परिवर्तन ही व्यवहारिक परिवर्तन की पृष्ठभूमि का निर्माण करते हैं। जब सहनशीलता मिश्रित सकारात्मक विद्युत चुंबकीय तरंगों को हम वायुमंडल में उत्सर्जित करते हैं, तो सहनशीलता के कवच का हमारे चारों ओर निर्माण हो जाता है जिसको भेद कर आसंवेदनशील नकारात्मक विचार हमारे मस्तिष्क तक नहीं पहुंच पाते हैं। सहन कर लेने की प्रवृति मन में ऐसी अटल शांति का संचरण करती है कि बाहरी प्रतिकूलताएं पराजित हुए बिना नहीं रहती और मानव देव तुल्य बन जाता है। अत: अनेक सद्गुणों की जननी सहनशीलता ही है। इसके प्रयोग से जीवन की दिशा और दशा बदल जाएगी और ऐसे अद्भुत आनंद की प्राप्ति होगी, जिसकी कभी कल्पना भी न की होगी।
मनुष्य गलतियों का पुतला है। थोड़ी-बहुत कमियां प्रत्येक व्यक्ति में होती हैं। कोई भी व्यक्ति परिपूर्ण नहीं होता। लेकिन लोगों को गलती करते देखकर उन पर गुस्सा करने वाला व्यक्ति अधिक दोषी होता है। इससे बचने का एकमात्र उपाय सहनशीलता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि दूसरों को गलती का अहसास न कराएं। आप उन्हें एहसास अवश्य कराएं परंतु यह ध्यान रहे कि गलती बताते समय उन्हें अपमानित या नीचा दिखाने की मानसिकता न हो। एक मात्र सुधार की दृष्टि से ही ऐसा किए जाने की चेष्टा की जानी चाहिए।
जीवन में संस्कार वही दे सकता है, जो स्वयं संस्कारी हो। अत: किसी के दोषों को देखकर उन पर टीका-टिप्पणी करने के पहले अपने बड़े-बड़े दोषों का अन्वेषण करना चाहिए। अपनी वाणी को नियंत्रित करना चाहिए। अपने और अपने घर को संस्कारी बनाने का प्रयास करना चाहिए, क्योंकि बिना आचरण के आत्मानुभव नहीं होता। नम्रता, सरलता, साधुता ही सहनशीलता के प्रधान अंग हैं।
अंत में परम पिता परमेश्वर से यही प्रार्थना है कि वह हमारे भीतर के अहंकार को मिटाकर सहनशीलता का ऐसा कवच पहना दें कि हम बुरी से बुरी आत्मा का भी प्रतिकार ना करें।
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