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आधार - 2 - कर्मयोग,सफलता का मूल मंत्र है।

मनुष्य अपने जन्म से लेकर मृत्यु तक निरंतर मानसिक और शारीरिक क्रियाएं करता रहता है, जिन्हें हम कर्म की संज्ञा देते हैं। इनमें कुछ क्रियाएं जो स्वतः ही होती है, जिनमें हमारा बस नहीं चलता, अनैच्छिक क्रियाएं कहलाती हैं जैसे हृदय का धड़कना, समय असमय छींक का आना और श्वास लेना आदि। इसके विपरीत कुछ वे दैनिक क्रियाएं होती हैं जिन पर हमारा अधिकार चलता है जैसे हंसना, खाना खाना, रोना, पैदल चलना और बातचीत करना आदि। इन सभी क्रियाओं को जिन्हें हम अपनी इच्छा द्वारा संचालित करते हैं, ऐच्छिक क्रियाएं कहलाती हैं।
ऐच्छिक क्रियाओं को भी दो भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है। पहली वे क्रियाएँ जो सोच-समझकर की जाती हैं और दूसरी वे जो भूल अथवा अज्ञानता वश हो जाती हैं। जीवन में सोच समझ कर और अपनी इच्छाओं से वशीभूत होकर की गई क्रियाओं से ही हमारे कर्मों का निर्माण होता है। सकारात्मक दिशा में किए गए कर्म जीवन में सकारात्मक परिणाम उत्पन्न करते हैं, जबकि नकारात्मक दिशा में किए गए कर्म, नकारात्मक परिणाम उत्पन्न कर देते हैं।
भौतिक विज्ञान के बहुचर्चित वैज्ञानिक न्यूटन द्वारा स्थापित क्रिया-प्रतिक्रिया का नियम मनुष्य के जीवन में भी अक्षरशः लागू होता है। विज्ञान कहता है कि भौतिक जगत में किए गए प्रत्येक कार्य की प्रतिक्रिया होती है, इसी प्रकार जीवन में हमारे द्वारा किए गए प्रत्येक कर्म की भी प्रतिक्रिया अवश्य होती है। जीवन में किए गए सभी सुकर्मों का परिणाम पुण्य के रूप में और दुष्कर्मों का परिणाम पाप के रूप में प्राप्त होता है।
हमारे जीवन में जो कुछ भी दुर्भाग्यपूर्ण घटित होता है वह हमारे द्वारा किए गए दुष्कर्म का परिणाम है, और जो कुछ सौभाग्यपूर्ण घटित होता है वह हमारे द्वारा किए गए सुकर्मों का परिणाम है। इस संसार में कर्म तो मनुष्य द्वारा किए जाते हैं परंतु परिणाम ईश्वरीय शक्ति द्वारा निर्धारित किये जाते हैं। जिसे हम भाग्य भी कह सकते हैं।
भगवान् कृष्ण ने गीता में कहा भी है –
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥
अर्थात कर्तव्य कर्म करने में ही तेरा अधिकार है फलों में कभी नहीं इसलिए तू कर्म, फल पाने की आशा से मत कर और न ही कर्म ना करने की चेष्टा कर। हार-जीत, सफलता-विफलता आदि सभी में समान भाव के साथ जीवन यापन करना ही समत्व है, जो लोग निष्काम भाव से कर्म करते है और सभी परिस्थितियों में सामान्य रहते है भगवान् कृष्ण ऐसे लोगों को महापुरुषों की श्रेणी में रखते हैं।
हमारे जीवन में भविष्य की घटनाएं यूँ ही घटित नहीं होतीं, अपितु वे हमारे द्वारा जीवन के पूर्व काल में किए गए सकारात्मक व नकारात्मक कर्मों के परिणाम स्वरूप उत्पन्न होती हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि हमारा भाग्य हमारे कर्म द्वारा पूर्व निर्धारित होता है। दैनिक जीवन में हम सकारात्मक फलदाई कर्मों के अभ्यास से दुर्भाग्य को परिवर्तित कर अपने भविष्य को सार्थक दिशा दे सकते हैं।
वर्तमान में हमारे साथ जो कुछ भी घटित हो रहा होता है उसके लिए हम किसी और को दोष नहीं दे सकते, उसके जिम्मेदार हम स्वयं होते हैं। अत: प्रयास करें कि हम अपने जीवन पथ पर सकारात्मक दृष्टिकोण ही अपनाएं।
कर्म करते जाना और फल की इच्छा ना करने का भाव ही कर्मयोग कहलाता है, जिसे गीता मे सर्वश्रेष्ठ माना गया है। गीता के अनुसार किसी भी इंसान की सफल ज़िंदगी के लिए कर्मयोग का होना सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है। लेकिन जब हमें सुनने को मिलता है कि कर्म किए जा फल की चिंता मत कर, तो कभी-कभी यह काफी विचित्र प्रतीत होता है क्योंकि हम कोई काम बिना फल की चिंता के कैसे कर सकते है। दरअसल यह श्लोक तो हमें सिर्फ सलाह देता है कि आप बस अपना काम करें। उस काम का क्या परिणाम होगा उस पर ज्यादा ध्यान न दें। इसका अभिप्राय यह है कि आप अपना जो भी काम कर रहे हैं उसे पूरी तन्मयता से करें, उसमें पूरी तरह डूब जाएं और अपनी पूर्ण क्षमता का प्रदर्शन करें।
हम जब किसी से उम्मीद रखते हैं और वह पूरी नहीं होती है, तो निराशा हाथ आती है। यह निराशा ही है जो हमें कर्म मार्ग से डिगा देती है। इसलिए दूसरों से ज्यादा उम्मीद मत रखिए। गीता में भी कहा गया है कि
समत्वं योग उच्यते
अर्थात समत्व योग उत्तम होता है। हिंदू शास्त्रों के अनुसार निष्काम कर्म को सर्वोच्च कर्म की श्रेणी में माना गया है। निष्काम कर्म हमें स्वार्थ और अहंकार की सीमा से स्वतन्त्र कर देता है। हिंदू मान्यता के अनुसार वर्षा, वृक्ष, नदी और संत नि:स्वार्थ भाव के प्रतीक माने जाते हैं। क्योंकि वर्षा सभी को समान रूप से लाभ पहुंचाने के लिए, वृक्ष निष्पक्ष रूप से छाया और फल देने के लिए, नदी समान रूप से सभी की प्यास बुझाने के लिए और संत पुरुष सभी को समान रूप से ज्ञान और शुभाशीष प्रदान करने के लिए अपना जीवन न्योछावर कर देते हैं। इसी प्रकार जब मनुष्य भी बिना फल प्राप्ति की इच्छा के अपना कार्य कुशलता पूर्वक करता है, तब मनुष्य की सारी शक्तियां केन्द्रीभूत हो जाती है। यह एक आध्यात्मिक ऊर्जा उत्पन्न करती है जिसके प्रयोग से मनुष्य अपने कर्म को श्रेष्ठ एवं उपयोगी बना सकता है।
यदि हम दुनिया के विकसित देशों पर अपना ध्यान केंद्रित करें, तो हम पाते हैं कि इन राष्ट्रों ने विज्ञान की सहायता से उन्नति तो अवश्य प्राप्त कर ली परंतु वहां के नागरिक, जीवन के वास्तविक सुख से, अभी भी कोसों दूर हैं। उनके पास धन तो भरपूर है, परंतु नाते रिश्तेदारों की कमी है जिनके साथ वे इस धन का उपभोग कर सकें। वे बड़ी-बड़ी गाड़ियाँ तो खरीद सकते हैं परंतु उन गाड़ियों में सैर कराने के लिए उनके साथ उनके मां-बाप नहीं हैं। भ्रमण को जाने के लिए धन तो भरपूर है परंतु साथ में जाने के लिए बच्चे नहीं हैं। मां-बाप, भाई-बहन, पति-पत्नी, बच्चों और रिश्तेदारों का सानिध्य ही तो मनुष्य को जीवन में आनंद से भर देता है। यदि यह सुख हमारे पास नहीं है, तो हमारा कर्मयोग अपूर्ण माना जाएगा।
सुबह से शाम तक काम करने के बाद, यदि हमारे मन में संतुष्टि, आत्मविश्वास और प्रसन्नता का एहसास न हो, तो यह माना जा सकता है कि हमारा यह संपूर्ण कर्म व्यर्थ है। ऐसा नहीं है कि हम यह सब जानते नहीं हैं, वास्तविकता तो यह है कि हम जानबूझ कर अंजान बने रहते हैं, और जब विपरीत परिस्थितियां उत्पन्न होती है, तब हमें एहसास होता है कि हम गलत राह पर थे। किसी ने ठीक ही कहा है कि
तब पछताए का होत, जब चिड़िया चुग गई खेत।
अर्थात यदि हम समय रहते परिस्थितियों को पहचान कर उसके अनुसार अपने जीवन को परिवर्तित नहीं कर लेते तो बाद में पछतावा ही हाथ लगता है।
हम अक्सर अपने द्वारा किए गए कार्यों को दूसरों के कार्यों की तुलना में कमतर आंकते हैं। वास्तविकता तो यह है कि कोई भी कार्य छोटा नहीं होता, अनेक छोटे कार्य मिलकर ही बड़े कार्य का निर्माण करते हैं। जैसे किसी विशालकाय भवन का निर्माण किसी एक कारीगर अथवा इंजीनियर के द्वारा संभव नहीं है इस निर्माण में अनेकों कारीगर अपने छोटे-छोटे कार्यों का योगदान करते हैं। इसी प्रकार यदि समुद्र के किनारे खड़े होकर लहरों के टकराने की ध्वनि पर अपना ध्यान केंद्रित करें तो हम पाते हैं कि समुद्र किनारे उत्पन्न हो रहा यह भीषण शोर किसी एक लहर द्वारा उत्पन्न नहीं किया गया है बल्कि यह सैकड़ों छोटी-छोटी लहरों के संयुक्त कार्य का परिणाम है।
हमारे जीवन के ऐसे अनेकों उदाहरण सिद्ध करते हैं कि मनुष्य का कर्म के प्रति निस्वार्थ श्रद्धा का निरंतर बने रहना कालांतर में वह कार्य सिद्ध कर देता है जिस कार्य की हमने कल्पना भी नहीं की थी।
कर्मयोग में कार्य की निष्पक्षता व निस्वार्थता के कारण मनुष्य में कर्मों की शक्ति अत्यधिक प्रबल हो जाती है जो मनुष्य के चरित्र पर गहरा प्रभाव छोड़ती है। मनुष्य का शरीर, संसार की सभी शक्तियों का केंद्र हो जाता है और वह मनुष्य के आसपास उपस्थित समस्त सकारात्मक तरंगों को अपनी और आकर्षित कर अवशोषित कर लेता है। ऐसे मनुष्य कर्मयोग की शक्ति से इन तरंगों की प्रकृति को परिवर्तित कर पुर्नउत्सर्जन करते हैं। जिसके प्रभाव से दूसरे मनुष्य में भी सकारात्मक चारित्रिक गुणों के उत्पन्न होने की संभावना प्रबल हो जाती है। मनुष्य के भीतर उपस्थित कर्मयोग की शक्ति के उत्सर्जन बिंदु को आत्मा की संज्ञा दे सकते हैं, जो सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ होती है। आत्मा का शुद्धीकरण ही चरित्र गठन का प्रथम सूत्र है। यही कर्मयोग का मूल मंत्र है।
जो व्यक्ति स्वार्थ रहित होकर अपने कर्म करता है, वह अपने लक्ष्य को बड़ी सरलता से प्राप्त कर सकता है। कर्मयोग के अभ्यास से एक गृहस्थ व्यक्ति भी ईश्वरीय रुप को प्राप्त कर सकता है। ऐसे निष्ठावान व्यक्ति उन धूर्त व्यक्तियों से कहीं अधिक श्रेष्ठ हैं, जो आध्यात्मिकता का आवरण ओढ़कर जनता को ठगते हैं।
अतः ईश्वर से प्रार्थना है कि वह मनुष्य को इतनी शक्ति प्रदान करे कि वह अपने भीतरी और बाहरी कर्मो का संतुलन बना कर अपने आप को रूपांतरित कर सके और अपने भीतर के अहंकार, लोभ, जलन, जैसे विकारों को तिलांजलि देकर श्रेष्ठ बन सके।

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