पावन ग्रंथ - भगवद्गीता की शिक्षा - 15 Asha Saraswat द्वारा पौराणिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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पावन ग्रंथ - भगवद्गीता की शिक्षा - 15

अध्याय नौ

दादी जी— आस्था और विश्वास की शक्ति की एक कथा इस प्रकार है अनुभव,सुनो—

कहानी (10) लड़का जिसने भगवान को खिलाया

एक कुलीन व्यक्ति भोजन अर्पण करके नित्य ही परिवार के इष्टदेव की पूजा करता था । एक दिन उसे एक दिन के लिए अपने गाँव से बाहर जाना पड़ा ।उसने अपने बेटे रमण से कहा, “देव प्रतिमा को भेंट अर्पित करना । ध्यान रहे, देवता को खिलाया जाये ।”

लड़के ने पूजा घर में भोजन अर्पण किया, किंतु देव प्रतिमा ने कुछ खाया न पिया, न ही कोई बात की। रमण ने बहुत देर तक प्रतीक्षा की, परंतु प्रतिमा फिर भी न हिली। किंतु उसका पूरा विश्वास था कि भगवान अपने सिंहासन से उतर कर आयेंगे, आसन पर बैठेंगे और भोग लगायेंगे ।

उसने पुनः - पुनः देव प्रतिमा की प्रार्थना की । उसने कहा— “हे प्रभु, कृपा करके धरती पर उतरो और भोग लगाओ। काफ़ी देर हो चुकी है । मेरे पिता मुझसे बहुत नाराज़ होंगे, यदि मैंने आपको नहीं खिलाया ।” प्रतिमा ने एक शब्द भी नहीं कहा ।

लड़के ने रोना शुरू कर दिया । उसने ज़ोर से कहा, “हे पिता , मेरे पिता ने तुम्हें खिलाने को कहा था । तुम (धरती पर) आते क्यों नहीं? तुम मेरे हाथ से खाते क्यों नहीं?

लड़का कुछ समय तक बहुत रोता रहा, भगवान नहीं उतरे तो लड़का और ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला कर रोने लगा । अंत में देव -प्रतिमा मनुष्य के रूप में पूजा-स्थल से मुस्कुराते हुए उतरीं, भोजन के सामने बैठीं और भोग लगाया ।

देव प्रतिमा को खिला कर लड़का रमण पूजा कक्ष से बाहर आया, उसके संबंधियों ने कहा— अब रमण, “पूजा संपन्न हुई तुम हम सबके लिए प्रसाद लाओ।”

लड़के ने कहा— “आज भगवान ने सब कुछ खा लिया।
आज भगवान ने आप लोगों के लिए कुछ नहीं छोड़ा ।”

सभी लोगों को विश्वास नहीं हुआ,सभी लोग पूजा-कक्ष में गये । वे सब यह देख कर कि सचमुच ही देव-प्रतिमा ने अर्पित किए हुए भोग को पूरा का पूरा खा लिया था,आश्चर्य चकित अवाक् रह गये ।

दूसरी कहानी तुम्हें मैं एक बुजुर्ग महिला की सुनाती हूँ ।

एक बार एक बुजुर्ग महिला गंगा स्नान को जाते समय अपनी बहु से कहकर गई थी कि तुम लड्डू गोपाल भगवान को नहला कर भोग लगाकर ही अपने बच्चों को भोजन कराना और तुम भी खा लेना ।

बहु ने कहा— ठीक है मॉं जी मैं ऐसा ही करूँगी ।

जब वह बहु अपने बच्चों को नहलाने जा रह थी तो बहु ने कन्हैया (लड्डू गोपाल) को आवाज़ लगा कर बुलाया, सुन ऐ!
कन्हैया जल्दी से नहा लो फिर भोजन कर लेना । बहु ने जब सब बच्चों को नहला दिया, और कन्हैया नहीं आये तो एक बहुत ज़ोर से आवाज़ लगाकर बुलाया ।

कन्हैया नहीं आये तो बहु ने उनके स्थान पर जा कर कहा— क्या तुम्हें मेरी आवाज़ सुनाई नहीं दी , जल्दी से आओ , यह कहकर वह बच्चों को कपड़े पहिनाने लगी । उसके बाद बहु को काम की जल्दी में याद आया कि भोजन भी बनाना है तो वह भोजन बनाने के लिए चली गई ।

भोजन बनाने के उपरांत फिर बहु ने आवाज़ लगाकर बुलाया—कन्हैया जल्दी आओ अब नहला देती हूँ फिर भोजन तैयार हो गया है भोजन कर लेना ।

इस बार भी जब कन्हैया नहीं आये तो बहु को बहुत क्रोध आया और कहने लगी तुम बहुत आलसी हो गये हो चलो नहीं तो एक लगा दूँगी (हाथ ऊपर उठाया ही था)।

बहु का क्रोध देख कर भगवान, बालक रूप में आकर खड़े हो गए । बहु ने अपने बच्चों की ही तरह उन्हें नहलाया और अपने बच्चों के साथ ही भोजन परोस दिया । कन्हैया ने बड़े ही प्रेम से भोजन किया और दोपहर को सभी के साथ आराम किया और बच्चों के साथ खेलने के लिए चले गये।

जब बुजुर्ग महिला आई तो उन्होंने सबसे पहले लड्डू गोपाल को देखा तो वह सिंहासन पर नहीं थे ।वह घबरा गई और बहु से कहा— क्या तुमने मेरे लड्डू गोपाल कहीं फेंक दिए, तो बहु ने बताया,— नहीं मॉं जी वह बच्चों के साथ खेलने के लिए गये हैं उनका घर में पूरे दिन कैसे मन लगेगा। और जहॉं भगवान बालक रूप में खेल रहे थे,वहाँ जाकर दिखाया । बुजुर्ग महिला भगवान के चरणों में गिर कर कहने लगी भगवन् मुझे आपने कभी भी दर्शन नहीं दिए, आज मैं धन्य हो गई । और बहु को बहुत धन्यवाद दिया जिसकी सच्ची सेवा ने भगवान को दर्शन देने को बाध्य कर दिया ।

इन कहानियों से हमें शिक्षा मिलती हैं कि भगवान निश्चय ही भोजन करेंगे, यदि तुम पूरी श्रद्धा से, प्रेम-भक्ति से उन्हें भोजन अर्पित करो। हममें से अधिकांश लोगों में रमण और बुजुर्ग महिला की बहु जैसी आस्था नहीं, श्रद्धा नहीं । उन्हें खिलाना हम नहीं जानते। कहा गया है कि हमारी आस्था भगवान में एक बच्चे जैसी होनी चाहिए, नहीं तो हम भगवान के परमधाम नहीं जा सकेंगे ।

अनुभव— दादी जी,यदि कोई व्यक्ति पापी, चोर या डाकू है , तो क्या वह भी भगवान से प्यार कर सकता है ?

दादी जी— हॉं अनुभव भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है कि यदि पापी से पापी व्यक्ति भी प्रेम भरी भक्ति से मेरी पूजा करने का निश्चय करता है, तो वह व्यक्ति शीघ्र ही संत हो जाता है , क्योंकि उसने सही निर्णय लिया है ।

ऐसे डाकू के विषय में एक कथा इस प्रकार है अनुभव , सुनो—

कहानी (11) एक लुटेरा डाकू संत

हमारे दो लोकप्रिय महाकाव्य (ऐतिहासिक) कथाएँ हैं—

एक रामायण, दूसरा महाभारत ।
श्री मद् भगवद्गीता, महाभारत का एक भाग है । इसकी रचना ईसा -पूर्व 3,100 वर्ष में हुई । मूलतः रामायण की रचना, नासा (N A S A) की नई खोज के अनुसार लाखों वर्ष पहले हुई होगी ।

रामायण के मूल लेखक वाल्मीकि नाम के एक ऋषि थे।
वाल्मीकि के बाद अन्य संत कवियों ने भी रामायण लिखी।
भगवान राम के जीवन पर आधारित इस महाकाव्य को बालकों को पढ़ना चाहिए । एक मिथक (प्राचीन कथा)
के अनुसार नारद मुनि ने महर्षि वाल्मीकि को रामायण की समस्त घटना को इसके घटने से पहले ही लिखने की शक्ति दी थी ।

अपने जीवन के आरंभिक काल में, वाल्मीकि राहगीरों को लूटने वाला डाकू था ।वही उसकी जीविका थी। एक बार महान देवर्षि नारद उस मार्ग से गुजर रहे थे, वाल्मीकि ने उनपर आक्रमण करके उन्हें लूटने का प्रयत्न किया । देवर्षि नारद ने वाल्मीकि से पूछा— वह ऐसा क्यों कर रहा था ।
वाल्मीकि ने उत्तर दिया कि ऐसा करके ही वह अपने परिवार का पोषण करता था ।

देवर्षि नारद मुनि ने वाल्मीकि से कहा— “जब तुम किसी को लूटते हो, तो तुम पाप कमाते हो । क्या तुम्हारे परिवार के सदस्य भी उस पाप का भागी होना चाहते हैं ?”

डाकू ने उत्तर दिया, “क्यों नहीं ? मेरा विश्वास है कि वह अवश्य ही उसमें भागी होना चाहेंगे ।”

देवर्षि ने कहा— “बहुत अच्छा, तुम घर जाओ और प्रत्येक से पूछो कि वे तुम्हारे द्वारा घर लाये जाने वाले धन के साथ पाप के भागी होना चाहेंगे या नहीं?

डाकू ने उनकी बात मान ली । उसने देवर्षि को एक पेड़ से बॉध दिया और अपने घर चला गया । वहाँ उसने परिवार के हर सदस्य से पूछा, “मैं लोगों को लूटकर तुम्हारे लिए धन और बहुत सा भोजन लाता हूँ ।एक संत ने कहा है कि लोगों को लूटना पाप है । क्या तुम सब भी मेरे पाप में भागीदार बनोगे ?

उसके परिवार का कोई भी सदस्य उसके पाप में भागीदार होने को तैयार नहीं था, उन सभी ने कहा—“हमारा पोषण करना तुम्हारा कर्तव्य है । हम तुम्हारे पाप में भागीदार नहीं बन सकते ।”

वाल्मीकि को अपनी गलती का एहसास हुआ । वह नारद जी के पास आया । उसने देवर्षि नारद मुनि से पूछा कि अपने पापों का प्रायश्चित करने के लिए वह क्या कर सकता था । देवर्षि नारद मुनि ने वाल्मीकि को सर्वशक्तिमान और सरलतम “राम” मंत्र जपने के लिए दिया। उसने कहा कि मैं तो मारने का ही काम करता था इसलिए “राम” मंत्र मेरे लिए बोलना कठिन होगा । नारदजी ने बताया कि तुम मरामरामरामरा ही कहते रहो “राम” मंत्र का तुम्हें स्वयं अभ्यास हो जायेगा ।वाल्मीकि को पूजा करना और ध्यान -योग सिखाया । वन डाकू ने अपना पाप का धंधा छोड़ दिया और शीघ्र ही वह गुरु नारद मुनि की कृपा, मंत्र शक्ति और अपने निष्ठा भरे आध्यात्मिक अभ्यास के कारण वह एक महान ऋषि और कवि बन गया ।

अनुभव एक और कथा है, जो तुम्हें सदा याद रखनी चाहिए ।यह कथा गीता के उन श्लोकों को दर्शाती है, जो कहते हैं कि भगवान हम सब का ध्यान रखता है ।

कहानी (12) पदचिह्न

एक रात एक व्यक्ति ने एक सपना देखा । उसने देखा कि वह भगवान के साथ एक सागर तट पर चल रहा था । आकाश के आर-पार उसने अपने जीवन के दृश्य देखे।
हर दृश्य के साथ उसने रेत में दोहरे पद चिन्ह देखे, अपने और भगवान के ।

जब उसके जीवन का अंतिम दृश्य सामने आया, तो उसने वापिस घूमकर रेत में पदचिह्नों को देखा । उसने देखा कि कई बार उसके जीवन के पथ पर केवल एक ही के पद चिन्ह थे । उसने यह भी पाया कि यह उसके जीवन के सबसे दुखद समय में ही हुआ, जब वह निम्नतम अवस्था में था ।

इससे उसे बड़ी वेदना हुई, उसने भगवान से इसके बारे में पूछा ।

“भगवान आपने कहा था कि आपका न कोई प्रिय है न अप्रिय । किंतु आप हमेशा उनके साथ है, जो आपकी उपासना करते हैं । मैं देखता हूँ कि मेरे जीवन के सबसे बुरे समय में मार्ग में एक ही जोड़े के पदचिह्न है । मेरी समझ में नहीं आता कि जब मुझे आपकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी । तब आपने मुझे अकेला क्यों छोड़ दिया ?”

भगवान ने उत्तर दिया, “मेरे प्यारे बच्चे, तुम मेरी अपनी आत्मा हो, तुम मेरे प्रिय हो और मैं तुम्हें कभी अकेला नहीं छोड़ूँगा, भले ही तुम मुझे छोड़ दो । तुम्हारी परीक्षा और वेदना की घड़ी में, जब तुम्हें केवल एक ही जोड़ा पदचिह्न दिखाई देते है, तुम्हें ऐसा इसलिए लगा क्योंकि मैं तुम्हें उठा कर ले जा रहा था । जब तुम मुश्किल में होते हो , तो वह तुम्हारे अपने कर्म के कारण होता है । वह तभी होता है जब तुम्हारी परीक्षा ली जाती हैं,
ताकि तुम और शक्तिशाली हो सको।”

भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है, “मैं उन भक्तों की, जो सदा मेरा स्मरण करते हैं, मुझे प्रेम करते हैं, स्वयं देखभाल करता हूँ ।

अध्याय नौ का सार— द्वैत -दर्शन भगवान को एक तत्व के रूप में देखता है और सृष्टि को भगवान पर निर्भर दूसरा अलग तत्व के रूप में ।

अद्वैत-दर्शन भगवान और उसकी सृष्टि को एक ही देखता है । भगवान हम सब को एक सा ही प्यार करते हैं,किंतु वह अपने भक्तों में व्यक्तिगत रुचि लेते हैं ।क्योंकि ऐसे व्यक्ति उनके अधिक समीप होते हैं । यह उसी प्रकार है जैसे, जो आग के समीप बैठता है,वह अधिक गर्मी पाता है।
ऐसा कोई पाप या पापी नहीं है, जो क्षमा योग्य न हो । सच्चे मन से पश्चाताप की अग्नि सब पापों को जला देती है।


क्रमशः ✍️