Pawan Granth - 1 books and stories free download online pdf in Hindi

पावन ग्रंथ - भगवद्गीता की शिक्षा - 1

अनुभव को जब भी समय मिलता वह लाइब्रेरी से अपनी मनपसंद पुस्तकें लाकर पढ़ लेता । छुट्टियों में वह घर में रखी हुई पुस्तकें निकाल कर पढ़ता,उसे पढ़ने का बहुत शौक़ था ।

एक दिन उसने दादी जी को पुस्तक पढ़ते हुए देखा, जब दादी जी पुस्तक रख कर चली गईं तो अनुभव उस पुस्तक को अपने कमरे में लाकर पढ़ने लगा । शुरू से उस पुस्तक को वह पढ़ने लगा लेकिन उसकी समझ में नहीं आ रही थी।

अनुभव दादी जी के पास जाकर किताब दिखाते हुए बोला— दादी जी मुझे यह किताब बहुत पसंद है लेकिन मुझे समझने में कठिनाई हो रही है ।

मुझे भगवद्गीता की शिक्षा को समझने में बहुत कठिनाई आ रही है, क्या आप इसमें मेरी सहायता करेंगी?

दादी जी—अवश्य अनुभव मुझे बहुत ख़ुशी होगी ।
तुम्हें जानना चाहिए कि यह पावन ग्रंथ हमें सिखाता है । हम संसार में सुख से कैसे रहें।

यह सनातन धर्म का अति प्राचीन ग्रंथ है,किंतु इसकी शिक्षा को किसी भी धर्म के अनुयायी समझ सकते हैं ।उस पर आचरण कर सकते हैं।

गीता में अट्ठारह अध्याय हैं और कुल सात सौ श्लोक हैं ।
इसकी शिक्षाओं में से प्रतिदिन कुछ का ही अभ्यास करना किसी के लिए भी सहायक हो सकता है ।मैं तुम्हें सरलता से
तुम्हारी कठिनाई को दूर करने का प्रयास करती हूँ और गीता की भूमिका मैं तुम्हें समझाती हूँ —


प्राचीन काल में एक राजा के दो पुत्र थे—
धृतराष्ट्र और पाण्डु ।
धृतराष्ट्र जन्म से ही अंधे थे अत: पाण्डु को राज्य मिला।

पांडु के पॉंच पुत्र थे, वे पाण्डव कहलाते थे ।

धृतराष्ट्र के सौ पुत्र थे उन्हें कौरव कहा जाता था ।

पाण्डवों में युधिष्ठिर सबसे बड़े थे और कौरवों में दुर्योधन ।

राजा पाण्डु की मृत्यु के बाद उनके सबसे बड़े पुत्र युधिष्ठिर राजा बने, दुर्योधन को इससे बहुत ईर्ष्या हुई।
दुर्योधन भी राज्य चाहता था। अत: राज्य को पाण्डवों और कौरवों को दो भागों में विभाजित कर दिया गया ।

किंतु दुर्योधन अपना भाग लेकर संतुष्ट नहीं हुआ, उसे तो सारा राज्य चाहिए था ।

उसने पाण्डवों को मारने और उनका राज्य हथियाने के लिए अनेक दुष्टता भरे षड्यंत्र किये।अंत में उसने किसी तरह पाण्डवों का सारा राज्य हड़प लिया और बिना युद्ध के पाण्डवों को राज्य लौटाने से साफ़ मना कर दिया ।

भगवान श्री कृष्ण एवं अन्य लोगों द्वारा शांति - वार्ता हेतु किये गए सभी प्रयत्न निष्फल हुए, इसलिए महाभारत के युद्ध को टालना असंभव हो गया ।

पाण्डव लड़ना नहीं चाहते थे,किंतु उनके सामने दो ही रास्ते थे।
पहला वह अपने अधिकारों के लिए लड़े, जो उनका कर्तव्य भी था ।
दूसरा लड़ाई से भागकर शांति और अहिंसा के नाम पर हार स्वीकार करें ।
लड़ाई के मैदान में पाँचों पाण्डवों को बहुत दुविधा थी ।
अर्जुन को समझ नहीं आ रहा था कि कौन सा मार्ग चुना जाए ।

अर्जुन को दो मार्गों में से एक को चुनना था। युद्ध करें तो अपने परमपूज्य गुरु की, परम प्रिय मित्रों की , निकट संबंधियों और निर्दोष सैनिकों की हत्या करें जो कि दूसरे पक्ष की ओर से लड़ रहे थे ।
या शांति प्रिय और अहिंसक होकर युद्ध से भाग खड़ा हो।

गीता के संपूर्ण अट्ठारह अध्याय संशयग्रस्त अर्जुन और उनके सर्वश्रेष्ठ मित्र, हितैषी और ममेरे भाई भगवान श्री कृष्ण, जो ईश्वर के अवतार थे, के बीच लगभग पॉंच हज़ार एक सौ वर्ष पूर्व नई दिल्ली के पास कुरुक्षेत्र के युद्ध के मैदान में हुआ संवाद है।
यह संवाद दृष्टिहीन (अंधे) धृतराष्ट्र को उसके सारथी संजय ने सुनाया था ।महाकाव्य महाभारत में यह संवाद अंकित है ।

मनुष्य का हो या अन्य जीवों का— सबका जीवन पवित्र है ।अहिंसा हिंदू (सनातन) धर्म का एक मूल सिद्धांत है—परम धर्म है ।
अनुभव अगर तुम महाभारत के युद्ध की भूमिका को ध्यान में नहीं रखते, तो तुम्हें भगवान श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन को ‘उठो और लड़ो’ की सलाह और अहिंसा के सिद्धांत के बारे में शंका हो सकती है ।

परम प्रभु श्री कृष्ण और उनके भक्त- मित्र अर्जुन के बीच में यह आध्यात्मिक संवाद किसी मंदिर या एकांत वन में या किसी पर्वत शिखा पर नहीं हुआ ,वरन् होता है युद्ध की पहली संध्या पर लड़ाई के मैदान में ।

अनुभव— बहुत ही दिलचस्प कहानी है यह तो दादी जी क्या आप मुझे और बतायेंगी?


अगर तुम वहाँ आओगे अनुभव , जहॉं मैं रोज़ शाम को बैठती हूँ तो मैं रोज़ तुम्हें एक-एक अध्याय करके पूरी बात बताऊँगी ।इस बात का पूरा ध्यान रखना कि तुम्हारी पढ़ाई का काम अधूरा न रहे और तुम्हारे पास सुनने के लिए काफ़ी समय हो।
अगर यह तुम्हें यह मंज़ूर है तो कल से ही शुरू करें।

अनुभव— धन्यवाद दादी जी मैं और सुनने के लिए आपके पास अवश्य आऊँगा ।
अगले दिन अनुभव दादी के पास नियत समय पर आया और दादी जी ने सुनाना शुरू किया ।
🙏 कृष्णं वंदे जगद्गुरुम् 🙏

अध्याय एक

अर्जुन का विषाद और मोह

अनुभव— दादी जी सबसे पहले मैं यह जानना चाहूँगा कि युद्ध क्षेत्र में भगवान श्री कृष्ण और अर्जुन के बीच यह संवाद कैसे हुआ?

दादी जी— यह घटना इस प्रकार घटी ।
महाभारत का युद्ध शुरू होने वाला ही था ।श्री कृष्ण और दूसरे लोगों के युद्ध को टालने के लिए किये गए सभी प्रयत्न निष्फल हुए थे ।जब युद्ध क्षेत्र में सैनिक जमा हो गए थे तो अर्जुन ने भगवान से अपना रथ दोनों सेनाओं के बीच में ले जाने की प्रार्थना की ताकि वह उन लोगों को देख सके,जो युद्ध के लिए तैयार थे । युद्ध क्षेत्र में अपने सभी सम्बन्धियों,मित्रों और सैनिकों को देख कर और उनके मरने के भय से अर्जुन के मन में करुणा जाग उठी ।
अनुभव— दादी जी करुणा का क्या अर्थ है ?

दादी जी— करुणा का अर्थ दया नहीं है, दया का अर्थ होगा दूसरों को अपने से नीचा समझना— बेचारे,निःसहाय प्रणी मानना । अर्जुन को उनकी पीड़ा और अपनी ही तरह उनकी दुर्भाग्य भरी स्तिथि अनुभव कर रहा था ।अर्जुन एक महान योद्धा था जो बहुत से युद्ध लड़ चुका था और इस युद्ध के लिए भी तैयार था।किंतु अचानक जगी करुणा के कारण उसकी युद्ध करने की इच्छा जाती रही ।वह युद्ध के दोषों के बारे में बोलने लगा और दुखी मन से रथ के पीछे के भाग में बैठ गया ।उसे युद्ध का कोई लाभ दिखाई नहीं दिया ।उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे ।

अनुभव— मैं भी दूसरों से नहीं लड़ना चाहूँगा, दादी जी ।
लोग लड़ते क्यों है? युद्ध क्यों होते हैं?

दादी जी— अनुभव युद्ध केवल राष्ट्रों के बीच में ही नहीं होते, झगड़े तो दो व्यक्तियों के बीच में भी होते हैं ।
भाइयों और बहनों के बीच में , पति-पत्नी के बीच में,मित्रों और पड़ौसियों के बीच में,परिवारजनों में,इसका मूल कारण है कि लोग अपने स्वार्थ भरे उद्देश्यों और इच्छाओं का त्याग नहीं कर सकते । अधिकांश युद्ध सत्ता और अधिकार के लिए लड़े जाते है ।
अधिकांश समस्याएँ शांति से सुलझाई जा सकती हैं, यदि
लोग समस्या को दोनों पक्षों से देख सके और कोई समझौता कर सकें।
युद्ध अंतिम विकल्प होना चाहिए ।हमारे धर्म ग्रंथों का कहना है कि दूसरों के प्रति हिंसा नहीं करनी चाहिए ।अनुर्चित हत्या सब स्थितियों में दण्डनीय है ।
भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को अपने अधिकारों के लिए युद्ध करने को प्रेरित करते हैं,अनावश्यक हत्याकरने के लिए नहीं।
घोषित युद्ध में लड़ना अर्जुन के लिए क्षत्रिय होने के कारण कर्तव्य था,पृथ्वी पर शांति,क़ानून और व्यवस्था स्थापित करने के लिए ।

हम सब प्राणियों के भीतर भी युद्ध चलते रहते हैं ।हमारी नकारात्मक और सकारात्मक— बुरी और अच्छी -शक्तियाँ
सदा लड़ती रहतीं है ।
हमारी नकारात्मक शक्तियों के प्रतिनिधि हैं कौरव—
हमारी सकारात्मक शक्तियों के प्रतिनिधि हैं पाण्डव—
गीता में शिक्षा को चित्रित करने के लिए कहानियाँ नहीं है इसलिए मैं तुम्हारी सहायता के लिए दूसरे स्त्रोतों से कुछ कहानियाँ कहूँगी ।

आज मैं यही विश्राम देती हूँ, अनुभव— कल तुम्हें नकारात्मक और सकारात्मक विचारों की आपस में लड़ाई की कथा सुनाऊँगी, जो महाभारत में स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को सुनाई थी ।

क्रमश:✍️

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