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पावन ग्रंथ - भगवद्गीता की शिक्षा - 6


अध्याय तीन

दादी जी— अध्याय तीन में जिस निःस्वार्थ सेवा के बारे में विचार किया गया है, समझने के लिये एक कहानी सुनाती हूँ ।

कहानी (३) सर अलेक्ज़ेंडर फ़्लैमिंग

एक दिन स्काटलैंड के एक गरीब किसान फ्लैमिंग ने, अपने परिवार को पालने के लिए अपना रोज़ का काम करते समय सहायता के लिये किसी की चीख सुनी। यह चीख पड़ौस के दलदल से आ रही थी । वह किसान अपना काम छोड़कर दलदल की ओर भागा।वहॉं कमर तक दलदल में डूबा एक आतंकित लड़का अपने को मुक्त करने के लिए चीख़ रहा था ।हाथ पैर पीट रहा था ।किसान फ़्लेमिंग ने उस लड़के को भयानक मौत से बचाया ।

अगले दिन उस स्काटलैंडवासी के साधारण घर के सामने एक भव्य घोड़ा गाड़ी रुकी । सुरुचिपूर्ण वस्त्र पहने हुए एक कुलीन व्यक्ति उसमें से उतरा।अपना परिचय उस बच्चे के पिता के रूप में दिया जिसे किसान फ़्लेमिंग ने बचाया था ।

उस कुलीन व्यक्ति ने कहा, “ मैं आपको धन्यवाद देना चाहता हूँ और पुरस्कार के रूप में कुछ देना भी चाहता हूँ ।
आपने मेरे बेटे की जान बचाईं है ।”

किसान फ़्लेमिंग ने कहा—“मैंने जो किया है,उसके लिए मुझे कोई मूल्य नहीं चाहिए , मैं कुछ नहीं ले सकता ।”
स्काटलैंड के किसान फ़्लेमिंग ने उसका दान अस्वीकार करते हुए कहा ।

उसी समय किसान फ़्लेमिंग का अपना बेटा उस झोंपड़े से निकल कर बाहर दरवाज़े पर आया ।

“यह आपका बेटा है?” कुलीन व्यक्ति ने पूछा ।

“हॉं”, किसान फ़्लेमिंग ने गर्व से उत्तर दिया ।

“ तो मैं आपके साथ एक सौदा करूँगा । मुझे इस लड़के को उसी स्तर की शिक्षा दिलाने की अनुमति दें, जो मेरे अपने बेटे को मिलेगी । यदि इस लड़के में अपने पिता जैसा कोई गुण हुआ, तो वह निस्संदेह बड़ा होकर ऐसा आदमी बनेगा, जिस पर हम दोनों गर्व कर सकें।”

और उसने वैसा ही किया । किसान फ़्लेमिंग के बेटे ने सर्वोत्तम स्कूलों में शिक्षा पाई और समय आने पर लंदन के सेंट मैरी हास्पिटल मैडीकल स्कूल से उपाधि पाई और विश्व भर में पैंसलिन के अविष्कर्ता सर अलैक्जैंडर फ़्लेमिंग के नाम से प्रसिद्ध हुए ।

बरसों बाद उस कुलीन पिता का वही बेटा, जिसे दलदल से बचाया गया था, निमोनिया का शिकार हुआ और
इस समय उसकी जान पैन्सलिन ने बचाई ।

उस कुलीन व्यक्ति का नाम था- लार्ड रेण्डोल्फ चर्चिल ।

उसके बेटे का नाम था - सुप्रसिद्ध सर विन्स्टन चर्चिल।

किसी ने कहा है, जो जाता है वही घूमकर आता है । कर्म का यही नियम है ।कारण और कार्य का सिद्धांत ।
किसी दूसरे के सपने को पूरा करने में सहायता करो, परमात्मा की कृपा से तुम्हारा सपना भी पूरा होगा ।

अनुभव— दादी जी मुझे सच्चे कर्मयोगियों के कुछ और उदाहरण दें।

दादी जी— तुम ने रामायण की कहानी तो पढ़ीं है ।
भगवान राम के ससुर जनकपुर के राजा जनक थे।
उन्होंने भगवान को पाया— अपनी प्रजा की सेवा अपने बच्चों की तरह करके, निःस्वार्थ भाव से और अपने कर्म के फल के प्रति कोई मोह न रख कर, उन्होंने अपने कर्तव्य का पालन भगवान की पूजा के रूप में किया ।बिना स्वार्थ भरे उद्देश्य के कर्तव्य-भाव से किया गया कर्म भगवान की पूजा होता है क्योंकि वह विश्व को चलाने में भगवान की मदद करता है ।

अनुभव— क्या हमारे अधिकारियों, नेताओं को इसी तरह काम करना चाहिए?

दादी जी— हॉं एक सच्चा कर्मयोगी अपने व्यक्तिगत उदाहरण से हमें दिखाता है कि किस प्रकार कर्मयोग के मार्ग पर चलकर नि:स्वार्थ जीवन जिया जाये ।

अनुभव—दादी जी, यदि मैं कर्मयोगी बनना चाहूँ, तो मुझे क्या करना होगा?

दादी जी— कर्मयोग के लिए नि:स्वार्थ भाव से, अपने कर्म के फलों के प्रति मोह के बिना शक्ति भर अपने कर्तव्य का पालन ज़रूरी है । कर्मयोगी सफलता और विफलता दोनों में शांत रहता है, उसकी किसी व्यक्ति, स्थान, पदार्थ अथवा काम के प्रति रुचि या अरुचि नहीं होती ।

मानवता की भलाई के लिए नि:स्वार्थ सेवा के रूप में किया गया कर्म किसी प्रकार का अच्छा या बुरा कर्म बंधन पैदा नहीं करता और भगवान की ओर ले जाता है ।

अनुभव— किसी व्यक्तिगत लाभ की इच्छा के बिना काम करना तो बहुत कठिन होगा । दादी जी, हम ऐसा कैसे और किस प्रकार कर सकते हैं ?

दादी जी— जो लोग आध्यात्मिक दृष्टि से अज्ञानी है, वे अपने लिए ही काम करते हैं । अज्ञानी लोग अपने परिश्रम के फल का सुख भोगने के लिए काम करते हैं और उसके प्रति उनका मोह हो जाता है क्योंकि वे समझते हैं कि वे ही कर्ता हैं । उन्हें इस बात का आभास नहीं होता कि सारा कर्म भगवान के द्वारा हमें दी गई शक्ति के द्वारा किया जाता है । पर अपनी बुद्धि से सही या ग़लत कर्म के बीच में चुनाव करके हम अपने कर्मों के भागी हो जाते हैं ।लोग ग़लत काम करते हैं,क्योंकि वह अपनी बुद्धि का उपयोग नहीं करते और यह नहीं सोचते कि उनके कर्मों का दूसरों पर क्या असर होगा ।

ज्ञानी लोग अपनी कोई भी स्वार्थ पूर्ण इच्छा न रखते हुए अपने सारे कर्म तथा कर्म फल भगवान को अर्पण कर देते हैं।अज्ञानी जन केवल अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं की पूर्ति के लिए ही कर्म करते हैं ।

अनुभव— दादी जी क्या मेरे जैसा साधारण व्यक्ति वह कर सकता है जो राजा जनक जैसे महा पुरुषों ने किया ?

दादी जी— थोड़े से प्रयास से कोई भी व्यक्ति कर्म योग के मार्ग का अनुसरण कर सकता है । जो भी काम तुम कर रहे हो, उसे समाज को अपनी भेंट समझो। यदि तुम एक विद्यार्थी हो, तो तुम्हारा कर्तव्य है स्कूल जाना, वहॉं मिले काम को घर पर करना । अपने माता -पिता , अध्यापक और अन्य गुरु जनों का सम्मान करना । अपने भाई-बहिनों मित्रों तथा सहपाठियों की सहायता करना ।विद्यार्थी काल में अच्छी शिक्षा पाकर अच्छे और लाभ दायक नागरिक बनने की तैयारी करो।

अनुभव— दादी जी, शिक्षा समाप्त कर मुझे किस प्रकार का काम करना चाहिए ?

दादी जी— वही काम करो जो तुम्हें पसंद है और जिसे तुम अच्छी तरह कर सकते हो । काम तुम्हारी प्रकृति के अनुकूल होना चाहिए । यदि तुम ऐसा काम चुनते हो जिसमें तुम्हारा मन नहीं लगता है या जिसके लिए तुम्हारे पास स्वाभाविक योग्यता नहीं है, तो तुम्हारी सफलता के अवसर सीमित होंगे । तुम्हें मालूम है कि कौन सा काम तुम अच्छी तरह कर सकते हो । वह होने का प्रयत्न करना जो तुम नहीं हो—- असफलता और दुख का सबसे बड़ा कारण है ।

अनुभव— क्या मुझे अच्छा काम ढूँढने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए, जैसे— इंजीनियरिंग, अध्यापन या सरकारी नौकरी ?

दादी जी— ऐसा कोई काम नहीं जो अच्छा हो या बुरा।
समाज को चलाने के लिए सब प्रकार के लोगों की ज़रूरत है । कुछ काम करने से अच्छी आमदनी होती है । पर ऊँची आय वाले काम प्रायः अधिक कठिन और तनाव भरे होते हैं,यदि उन्हें करने की योग्यता तुम में नहीं है । यदि तुम्हारी योग्यता कम आय वाले काम के लिए है, तो सादा जीवन बिताओ और अनावश्यक चीजों से बचो।सादे जीवन का अर्थ है अत्यधिक भौतिक पदार्थों की इच्छा न करना । जीवन की परम आवश्यकताओंतक अपने को सीमित करो।
अपनी इच्छाओं पर क़ाबू पाओ। भगवान बुद्ध ने कहा है—-स्वार्थ भरी इच्छा सभी पापों और दुख का कारण है ।

अनुभव— क्या स्वार्थ पूर्ण इच्छाओं के कारण ही लोग बुरे काम करते हैं ?

दादी जी— हॉं अनुभव, अपने सुख के लिए स्वार्थ पूर्ण इच्छा ही सब पापों का कारण है । यदि हम अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण नहीं रखते, तो हमारी इच्छायें हम पर था जायेंगीं । हम अपनी ही इच्छाओं के शिकार हो जायेंगे। अपनी ज़रूरतों पर अंकुश रखो, क्योंकि जिस की तुम्हें इच्छा है, वह इच्छा भी तुमको अपने वश में करना चाहती है।

अनुभव— तो दादी जी, क्या सभी इच्छाएँ बुरी हैं ?

दादी जी— नहीं अनुभव, सब इच्छाएँ बुरी नहीं है ।दूसरों की सेवा करने की इच्छा अच्छी है । भोगों के आनंद की इच्छा बुरी है क्योंकि वह पापपूर्ण और ग़ैर क़ानूनी क्रियाओं की ओर ले जाती हैं एवं लोभ पैदा करतीं हैं । यदि तुम जो चाहते हो वह नहीं मिलता, तो तुम्हें क्रोध आता है । जब लोगों को क्रोध आता है तो वे दुष्कर्म करते हैं ।

अनुभव— भोगों के प्रति अपनी इच्छा पर हम कैसे क़ाबू पा सकते है ?

दादी जी— एक रास्ता तो गीता में दिये ज्ञान का चिंतन (विचार) करने का है । इससे पहले कि तुम अपनी इच्छा से उत्पन्न काम करो, उस काम के परिणामों को सोचो। इच्छाएँ मन में पैदा होती हैं और वहीं रहतीं हैं । बुद्धि और तर्क शक्ति के द्वारा तुम मन को वश में कर सकते हो ।

जब तुम युवा होते हो, तुम्हारा मन गंदा हो जाता है वैसे ही जैसे तालाब का पानी कीचड़ भरा हो जाता है । यदि तुम्हारी बुद्धि तुम्हारे मन को क़ाबू में नहीं रखती, तो तुम्हारा मन इंद्रिय सुख-भोगों की ओर भागता है । इसलिए धूम्रपान, शराब, नशीले पदार्थ और अन्य बुरी आदतों जैसे— इंद्रिय-सुख-भोगों से अपने मन को गंदा न होने के लिए अपने जीवन में कोई ऊँचा आदर्श पैदा करो।

बुरी आदतों से छुटकारा पाना कठिन है, इसलिए शुरू से ही उन आदतों से बचो। अच्छी संगति में रहो, अच्छी पुस्तकें पढ़ो, बुरे लोगों की संगति से बचो और अपने कामों के परिणामों के बारे में विचार कर सोचो।

अनुभव— चूँकि हमें अच्छे बुरे का ज्ञान है,दादी जी, तो
हम ग़लत कामों को करने से बच क्यों नहीं सकते ?

दादी जी— यदि हम अपने मन को क़ाबू में नहीं रखते, तो हमारा मन हमारी इच्छा शक्ति को कमजोर करने की कोशिश करेगा और हमें इंद्रिय-सुख-भोगों की ओर ले जायेगा । हमें अपने मन पर निगरानी रखनी पड़ेगी और उसे सही मार्ग पर रखना पड़ेगा ।

अध्याय तीन का सार—- भगवान श्री कृष्ण जीवन में शांति और सुख पाने के लिए गीता में दो प्रमुख मार्गों का वर्णन करते हैं । मार्ग का चुनाव व्यक्ति पर निर्भर करता है ।
अधिकांश लोगों के लिए कर्म योग( नि:स्वार्थ सेवा ) के मार्ग पर चलना सहज है ।

ब्रह्मा जी की पहली शिक्षा है—- एक -दूसरे की सहायता करो। इसी से संसार चल रहा है । अपनी योग्यता के अनुसार हमें अपने कर्तव्य का पालन पूरी तरह से करना चाहिए । अपनी प्रकृति के अनुसार अपना काम चुनना चाहिए,कोई काम छोटा नहीं है । महत्वपूर्ण बात यह नहीं कि तुम क्या करते हो बल्कि यह है कि कैसे करते हो ।

अंत में भगवान श्री कृष्ण हमें बताते हैं कि हमें भोगों की ओर ले जाने वाली अपनी इच्छा पर क़ाबू पाना चाहिए ।सुख-भोग की ओर ले जाने वाली अनियंत्रित इच्छाएँ हमें जीवन में असफलताओं और दुखों की ओर ले जाती हैं ।
काम करने से पहले उसके परिणामों के बारे में सोचना चाहिए ।हर प्रकार से हमें कु संगति से बचना चाहिए ।

क्रमशः ✍️


सभी पाठकों को नमस्कार 🙏
पावन ग्रंथ— भगवद्गीता की शिक्षा का तीसरा अध्याय सरल भाषा में पूरा हो गया है ।आप स्वयं पढ़े और बच्चों के मार्ग दर्शक बन उन्हें पढ़ने को दें।🙏




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