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पावन ग्रंथ - भगवद्गीता की शिक्षा - 3


अध्याय दो- ब्रह्मज्ञान

अनुभव— दादी जी,अगर अर्जुन के हृदय में उन सबके लिए, जिन्हें युद्ध में मारना था,इतनी करुणा भरी थी,तो वह कैसे रणक्षेत्र में युद्ध कर सकते थे?

दादी जी— बिलकुल यही तो अर्जुन ने भगवान श्री कृष्ण से पूछा था ।
उन्होंने कहा — मैं युद्ध में अपने बाबा, गुरु और अन्य संबंधियों पर कैसे बाण चला सकता हूँ?
अर्जुन की बात ठीक थी ।वैदिक संस्कृति में गुरु और वृद्धजन आदर के पात्र हैं । किंतु धर्मग्रंथों में यह भी कहा गया है कि कोई भी व्यक्ति,जो ग़लत या ग़ैर क़ानूनी काम तुम्हारे या किसी अन्य के साथ करता है अथवा ऐसे कार्यों का समर्थन करता है,तो वह सम्मान का पात्र नहीं है । उसे दण्ड दिया जाना चाहिए ।
अर्जुन अपने कर्तव्य के प्रति संशयग्रस्त था ।उसने भगवान श्री कृष्ण से मार्गदर्शन की प्रार्थना की ।
भगवान श्री कृष्ण ने तब उसे आत्मा और शरीर के सही ज्ञान की शिक्षा दी ।

अनुभव— दादी जी, आत्मा क्या है, उसका रूप क्या है?

दादी जी—आत्मा वह तत्व है, जिससे हमें अपने होने का भाव होता है । आत्मा शरीर की तरह न पैदा होती है, न कभी मरती है । हमारा शरीर ही पैदा होता है और मरता है , आत्मा नहीं । आत्मा अमर है , सदा रहने वाली है ।आत्मा शरीर को सहायता देती है, आत्मा शरीर का आधार है ।आत्मा के बिना शरीर मर जाता है । आत्मा हमारे शरीर, मस्तिष्क और इंद्रियों को शक्ति देती है, वैसे ही जैसे हवा आग को। आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते, आग नहीं जला सकती, हवा नहीं सुखा सकती, न ही जल गला सकता ।
इसलिए हमें शरीर के मरने पर शोक नहीं करना चाहिए क्योंकि शरीर के भीतर की आत्मा कभी नहीं मरती है ।

अनुभव— दादी जी आत्मा और शरीर में क्या अंतर है?

दादी जी— सभी शरीरों में एक वही आत्मा निवास करती है । समय के साथ हमारा शरीर बदलता है ।हमारा बुढ़ापे का शरीर बचपन के शरीर से अलग होता है किंतु आत्मा नहीं बदलती है । आत्मा बचपन के शरीर को ग्रहण करती है, जवानी के शरीर को और बुढ़ापे के शरीर को ग्रहण करती है, जब तक जीवन है । मृत्यु के बाद दूसरा नया शरीर ग्रहण कर लेती हैं ।
आत्मा सार्वभौमिक और सार्वकालिक है ।हर जगह और हर समय रहती है । व्यक्ति के शरीर में निवास करने वाली आत्मा को जीवात्मा या ‘जीव’ भी कहा जाता है ।यदि हम आत्मा की तुलना वन से करें, तो व्यक्तिगत आत्मा की तुलना वन के पेड़ से की जा सकती है ।

शरीर को आत्मा का वस्त्र कहा गया है । जैसे हम पुराने फटे हुए वस्त्र को त्याग कर नये वस्त्र को धारण करते हैं, वैसे ही आत्मा मृत्यु के बाद पुराने शरीर को छोड़कर नया शरीर ले लेती है । इस प्रकार मृत्यु आत्मा के वस्त्र बदलने जैसा है ।सभी जीव जन्म और मृत्यु के बीच में दिखाई देते है । वे जन्म के पहले और मृत्यु के बाद नहीं दिखाई देते, उस समय वे अपने अदृश्य रूप में रहते हैं । इसलिए हमें शरीर के मरने का शोक नहीं करना चाहिए ।हम लोग शरीर नहीं है ।हम शरीर में रहने वाली आत्मा हैं। यानि शरीर को धारण किए हुए आत्मा । मृत्यु का अर्थ केवल यही है कि हमारी आत्मा एक शरीर से दूसरे शरीर में चली जाती है ।

अनुभव— तब अर्जुन युद्ध क्षेत्र में हुई परिजनों की मृत्यु पर शोक क्यों कर रहे थे?
वह लड़ना क्यों नहीं चाहते थे?

दादी जी— अर्जुन एक महान योद्धा था, अनुभव, पर वह युद्ध से भागकर एक संन्यासी का सहज जीवन बिताना चाहता था । भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को कर्मयोग के सुंदर विज्ञान अथवा शांतिपूर्ण सार्थक जीवन शास्त्र देकर हमें जीवन - संग्राम का सामना करना सिखाया है । गीता के तीसरे अध्याय में हमें इसके बारे में और अधिक बताया गया है ।

अर्जुन को युद्ध के परिणामों की चिंता थी किंतु भगवान श्री कृष्ण हमें परिणामों या फलों की, जैसे— लाभ - हानि, जय- पराजय, सफलता-असफलता की अधिक चिंता किए बिना अपने कर्तव्य करने को कहते है । यदि तुम हर समय अपनी पढ़ाई के परिणामों की चिंता करते रहोगे तो तुम कभी भी अपना मन पढ़ाई में नहीं लगा सकोगे । हमेशा असफलता का भय तुम्हें सताता रहेगा ।

अनुभव— पर दादी जी, यदि अर्जुन विजय या कुछ पाने के लिए नहीं लड़ रहा था, तो वह पूरे मन से युद्ध कैसे कर सकता था?

दादी जी— अवश्य ही अर्जुन को विजय के लिए लड़ना था, पर उसे युद्ध करते समय परिणामों की चिंता करके अपनी इच्छा - शक्ति को कमजोर नहीं करना चाहिए था ।उसे युद्ध के समय हर पल अपना सारा ध्यान, अपनी सारी शक्ति उसी में लगानी चाहिए थी ।वही शक्ति सर्वश्रेष्ठ परिणाम को देने वाली है ।

भगवान श्री कृष्ण हमें बताते हैं कि हमारा अपने कर्मो पर तो वश है, किंतु अपने कर्मों के फलों पर नहीं ।

एक किसान किस प्रकार अपनी भूमि में क्या करता है, यह तो पूरा-पूरा उसके वश में है,पर उसमें उपजी फसल कैसी होगी या नहीं होगी,इस पर उसका कोई वश नहीं है ।किंतु बिना भूमि पर पूरी शक्ति और साधन के साथ काम किये बिना वह किसी भी फसल की आशा नहीं कर सकता ।
हमें वर्तमान में पूरी शक्ति से कर्म करना चाहिए,भविष्य की चिंता भविष्य को ही करने दें ।

अनुभव— क्या आप मुझे सफलता के रहस्यों को और विस्तार से बतायेंगी, जैसे कि अर्जुन को भगवान श्री कृष्ण ने बताया था?

दादी जी— हॉं अनुभव मैं तुम्हें विस्तार से कल बताउँगी, आज बस इतना ही..


क्रमश: ✍️

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