अभी तो ये अंगड़ाई है ....
एक दिन शहर की एक रैली में लोग जोर-जोर से नारे लगा रहे थे ‘‘ अभी तो ये अंगड़ाई है.....आगे और लड़ाई है ।’’ सड़क के किनारे एक दुकान पर उतनी ही जोर से गाना बज रहा था ‘‘ अंगड़ाईयाॅं लेती हूॅं जो मैं जोर-जोर से ......।’’मैं सोचने लगा कि किसकी अंगड़ाई पर कंसन्ट्रेट करुॅं ? मेरे बुद्धिवादी होने के भ्रम के कारण मेरा ध्यान रैली की ओर मुड़ गया । हम और आप बचपन से ही राजनैतिक,सामाजिक,मजदूर और कर्मचारी आंदोलनों के समय नारा ‘‘ अभी तो ये ....’’ सुनते आ रहे है । हम तो बचपन से जवान हो कर बुढापे की ओर कूच भी करने लगे और वे है जो तब से ले कर आज तक अंगड़ाईयाॅं ही ले रहे है । हम इतिहास को बनते देखने के लिए दम साधे बैठे है कि बस लड़ाई अब शुरु हुई कि तब शुरु हुई । वे है कि लड़ाई- वड़ाई करते ही नहीं ।
नारा वीर आंदोलनकर्ता हमेशा ही धमकियों से भरे हुए नारों का प्रयोग बमों और मिसाइलों की ही तरह करते है । ये सारे नारे आपने कभी न कभी तो अवश्य ही सुने होगें जैसे - ‘‘ जो हमसे टकराएगा ... मिट्टी में मिल जाएगा ’’, ‘‘हमें नहीं तो तुम्हें नहीं .... चैन नहीं आराम नहीं ’’,‘‘माॅंग हमारी पूरी होे....... चाहे जो मजबूरी हो ’’, ‘‘जो हिटलर की चाल चलेगा..... वो कुत्ते की मौत मरेगा’’ । इनके अलावा वे बीच-बीच में अपनी एकता को भी जिन्दाबाद करते रहते है । ऐसे स्थानों पर नारे लगाने में विशेषज्ञता रखने वालों की पूछ-परख अधिक ही होती है । ये विशेषज्ञ भी अपनी पूरी प्रतिभा,लगन और खास स्टाइल के साथ नारे लगवा कर अपनी विशेषज्ञता का प्रर्दशन करते है। ऐसे ही एक विशेषज्ञ एक खास नारा ‘‘कर्मचारी एकता ....’’ अपने विशेष अंदाज और स्वर में लगाते तो सुनाई देता ‘‘ चाय गरम समोसा ....’’ बाकी लोग जोर से साथ देते ‘‘.... जिन्दाबाद .. जिन्दाबाद ’’ । नारे लगाने वाले भी अलग- अलग प्रकार के होते है । कुछ अतिउत्साहियों को लगता है कि इधर जोर से नारा लगाया और बस मांग पूरी हुई । ऐसे लोग अपनी मांग पूरी करवाने के लिए महिला हो या पुरुष पूरा जोर लगा कर नारे लगाते है। कुछ लोग तो बस दूसरों को दिखाने के लिए ही नारे लगाते है ; दिखावा बंद तो नारे भी बंद । कुछ तो इतनी बार अंगड़ाईयाॅं ले चुके होते है कि उनके लिए लड़ना तो दूर नारा लगाना भी भारी पड़ता है । यह पूरा का पूरा समुदाय दो प्रकार के लोगों का होता है । एक हाथ लहराते या नमस्कार की मुद्रा के नेता या नेता जैसे लोग ; दूसरे उनके पीछे चलते नारे लगाने वाले लोग ।
प्रश्न वहीं का वहीं है कि ये आंदोलन कर्ता केवल अंगड़ाईयाॅं ही क्यों लेते रहते है ?
आप तो जानते ही है कि हम जहाॅं है जो कर रहे है उसमें कुछ न कुछ समस्याऐं जरुर है यदि समस्याऐं न भी हों तो कुछ तो ऐसा है जिसे हम पसंद नहीं करते । हमारी इसी मानसिकता के चलते आंदोलन , धरने और प्रर्दशनों को आधार प्राप्त होता है । ऐसे में कुछ लोग हमारी भावनाओं को बल देकर नेता बन जाते है । कभी-कभी नेता उसी समुदाय का होता है जिसकी समस्या है । अक्सर तो नेता न जाने कैसे, क्यों और कब बाहर से आकर समूह का नेता बन जाता है । इसके उदाहरण के लिए अपने आस-पास नजर दौड़ा कर देखें तो आपको मजदूर संगठन के नेता के रुप में कर्मचारी और कर्मचारी संगठन के नेता के रुप में राजनैतिक व्यक्ति दिखाई दे जाएंगे । ऐसे नेता मांग करने वालों और मांग पूरी करने वालों के बीच हमेशा ही संपर्क में रहते है । वे अक्सर तो इन दोनों के बीच अपने दलाली के धंधे को चलाते हुए ही दिखाई देते है । उन्हें जब भी ऊपर वालों से कुछ घोषणा के संकेत प्राप्त होते है तो उनका दिल नेतागिरी चमकाने की नियत के साथ अंगड़ाईयाॅं लेने का मचलने लगता है । बस वे ढेर सारी मांगों के साथ अंगड़ाईयाॅं लेने लगते है । बस सधे-बधे तरीके से दो-चार मांगे पूरी होने का दिखावा हो जाता है और अंगड़ाई से लड़ाई टल जाती है ।
चुनाव के पहले कुछ सोए और कुछ कब्र में गड़ें संगठन भी अचानक ही अंगड़ाई लेने लगते है । ऐसे समय देने वाले मजबूर और लेने वाले बिना लड़े केवल दिखावे से मिलने की अपेक्षा रखते है । इस आंदोलन या अंगड़ाई के मंचन मात्र से दो पक्षों के रिश्ते मजबूत होते ही है उनका महत्व भी बढ जाता और नेतागिरी भी चमक जाती है । अब तो स्थिति इतनी खराब है कि अपने वेतन ,भत्ते और मजदूरी के लिए भी अंगड़ाई लेने की चेतावनी देनी पड़ सकती है । चूंकि इस तरीके से देने वाले का महत्व भी बढता है इसलिए कुछ समय बाद कोई भी किसी को कुछ भी तभी देगा जब वो अंगड़ाई लेने की धमकी देगा ।
नारे लगाना हमारा राष्ट्रीय गुण होता जा रहा है । हम विश्व में नारे लगाने और बनाने में सबसे आगे है । अभी अनौपचारिक रुप से स्कूल और काॅलेजों में समय-समय पर नारे लगाने का प्रशिक्षण दिया जाता है । हमारे छात्रों को रैलियों की प्रेक्टिस भी बचपन से ही करवाई जाती है । हो सकता है भविष्य में इन्हें पाठ्यक्रम में शामिल ही कर लिया जाए । अब तक राजनैतिक लोग समाज के नारे लगाने और आंदोलन करने जैसे गुणों का उपयोग अपने हित में करते रहे हैं । अब लोग उन्हें धमकियाॅं देने लगे है तो वे संवैधानिक पदों की आड़ में छुपे-छुपे फिरते है ।
अब आप अंगड़ाई वाला गाना और नारा साथ -साथ सुनें तो मेरे समान भ्रमित न हो और बुद्धिवादी बनने की कोशिश न करे । गाने पर कंसन्ट्रेट करे कुछ मनोरंजन तो हो ही जाएगा । बेवकूफ बनने से अच्छा तो मनोरंजन करना हो ही सकता है ।
आलोक मिश्रा