चम्पा वेद का काव्य संग्रह ‘अब सब कुछ‘
पुस्तक समीक्षा-
अब सब कुछ: ताजगी भरी कविताऐं।
राजनारायण बोहरे
चम्पा वेद का नाम कुछ बरस तक अंजाना सा था, कुछ बरस में ही उनकी शानदार कविताओं के साथ हिन्दी कविता में यह नाम यकायक नामचीन हो गया , और चम्पा बेद का नाम कृष्ण बलदेव बेद के परिचय के बिना ही अपना स्वतंत्र परिचय स्थापित कर चुका है। चम्पा बेद के काव्य संग्रह ‘अब सब कुछ‘ में उनकी कुल 54-55 कविताओं के साथ कविता की ताजगी को सहज रूप से देखा जा सकता है।
इन कविताओं से गुजरते हुये बडी सुखद और आश्वस्तिदायक सी अनुभूति होती है। इन दिनों जैसी भाषा, जैसे शिल्प और जिन आधुनिक छंदो में कविता लिखी जा रही हैं, चम्पा बैद की कवितायें उनसे महसूस होती है। लेकिन ताज्जुब यह कि उनकी संवेदना और अभिव्यक्ति को लेकर पाठक कहीं भी कवियत्री के नये होने का आभास नहीं पाता। सभी कवितायें प्रोड़, प्रांजलव, परिष्कृत लगती है।
संग्रह की कवितायें तीन शीर्षको में विभक्त हैं- तो ड़र ही हूॅ नियम सारे, क्या लिखती हूॅ, और क्यों, एवं गोलाई क्यों। वैसे हरेक शीर्षक में एक सी कवितायें हैं, फिर शीर्षक एवं क्रम भिन्नता क्यों? इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिल पाता।
संग्रह की लगभग एक दर्जन कवितायें मां, नानी, दादी और उनकी नसीहतों पर केन्द्रित है। एक तरह से ये कवितायें स्त्रियों की मान्यताओं, विश्वासों जीवन दर्शन और नियति को चित्रित करती है। फालतू की नारेबाजी और स्त्री स्वातंत्र का मशीनी राग इनमें नहीं अलापा गया, यह चम्पाजी की पविपक्व दृष्टि एवं दूरदर्शी रचना प्रणाली सिद्ध करती है।
कविता मां की सीख ‘मैं‘ मां की सीखें गिनाते हुये कई सुपरिचित निर्देश पाठक का मां द्वारा कहें जाते दिखतें हैं, अंत में चम्पा कहती है-
मां की मत की सूची लम्बी थी
जो अब लटकी है
मन में चुटिया सी
एक अन्य कविता ‘नानी के वाक्यः मेरी कविता‘ में भी वे नानी की याद करती कहती है-
नानी के वाक्य याद करती हूॅ
वह कहती थी
परछाई मत देखों
जल्दी-जल्दी संध्या टालों
बत्ती जलाओं
झाड़ू लगाओं
बैठकर र्कोह मंत्र पढो
यह सब कुछ कविता में घुस आता हैं
मैं ड़र जाती हूॅ
जब कविता भी इस परछाई सी लम्बी
होती चली जाती हैं
अपनी कविताओं के क्षेत्र के बारे में बताती हुयी चम्पाजी अपने परिवार घरेलु जानवरों, आकाश और सितारों, भावनाओं एवं स्वभाओं का जिक्र करते हुये कह देती है-
स्त्री को नयें रूप देने
और उसकी छोचूपन के चरखे से घूमने से
निकालने की कड़वी दवाई हैं,
अभी भी बहुत से क्षेत्र
कविताऐं आने में संकोंची हैं,
शायद में ही पुराने
इष्तहारों की दीवार से उतारने में देर कर रही हूॅ
‘अपने पिता से‘ नामक कविता में उनके यह शब्द उल्लेखनीय हैं-
मैं खोज रही हूॅ तुमको
उन शब्दों में
जो मैं लिख नहीं पड़ती
मैं ढूंढ रही हूूॅ तुमको
उन कविताओं में
जो मैं पढ़ नहीं पाती
‘एक स्त्री की आत्मकथा‘ नामक कविता में चम्पा बेद ने एक कविता के अलग-अलग अंतरे का पृथक क्रमांक देकर नया प्रयोग किया हैं और यह कविता कई कविताओं का आनन्द देती है।
प्रकृति सम्बन्धी कई कवितायें इस संग्रह में शामिल हैं, जिनमें प्रकृति के मानवीय करण से लेकर उसकी सहज हरकतों से शिक्षा एवं उनमें उलझे जटिल दर्शन का प्राकट्य कवियत्री ने किया है। ‘हवा और पानी की मुलाकात‘, ‘नदी में आत्मा है‘, ‘रेत‘, ‘रात‘, ‘धुप मालिक हैं‘, ‘गोलाई क्यों‘ आदि ऐसी ही कवितायें है।
हर कवि नहीं न कहीं अपने रचना कर्म को प्रगट कर ही देता है। चंपा अपने लेखकीय और वैहारिक सरोकेारों को अनेक कविताओं में प्रगट करती हैं। ऐसी कविताओं में ‘फिर तुम क्या लिख सकोगी‘, ‘लिखने और प्रेम की उम्र नहीं होती‘, ‘क्या लिखती हूूॅ और क्यों‘, ‘हवा को निचोड़ कागज में भर देती हॅू‘ आदि कविता इसी संदर्भ की कवितायें है। एक निहायत उम्दा कविता में वे लिखती हैं-
तोड़ रही हूॅ, नियम सारे
सींच रही हूॅ पांच सात जड़ें हर रोज
सूर्य की तरह स्थिर
गर्मी सी घूमती कल्पना को
पकड़ने की कोशिश में हूॅ।
उनकी सृजनीयता अलग और विशिष्ट होने का यह मतलब नहीं कि वे दुरूह और अरूप् कविता नहीं लिख पाती। ऐसी कविता का अर्थ और संदेश बस कवि समझ पाता है-या जिन आलोचक व समीक्षकों को मद्दे नजर रखकर ये रचनायें लिखी जाता है कि वे इनका मतलब जानते होंगे, आम पाठक के तो सिर से ही गुजर जायेगी ऐसी कवितायें। ‘अब सब कुछ हो लिया‘ और ‘आकाश और आंगन‘ जैसी अनेक कवितायें इस तरह की रचनायें है।
चम्पा बेद की भाषा उन भाषायी चमत्कारों तथा परम्परागत शब्द संजालों से मुक्त ताजी और अनुठी ऐसी भाषा हैं, जो बोर नहीं करती, ओर न कवि होने के दंभ से भरी घिस-पिट चुके शब्दों के बेतुके प्रयोगों वाली भाषा हैं, न ही उनकी कविता पाठक के सिर पर से गुजरती हुयी है। ज्यादातर ग्राहयें ही भाषा की कवितायें है। उनकी अधिकांश कवितायें सरल और सहजगम्य है। यहां उनकी विशिष्टिता है।
लेकिन चम्पा बैद पर यह आरोप सहज रूप्प से लगाया जा सकता हैं कि वे कवियों में फैशन के तौर पर प्रचलित कुछ काव्य विषयों से अपने को दूर रखने का लोभ संवरण नहीं कर पायी, जैसे- ‘मां‘, ‘पिता‘, ‘नदी‘, ‘लड़की‘, ‘स्त्री‘, ‘पहाड़‘, ‘रात‘, ‘रेत‘, ‘समुद्र‘ आदि। हालांकि चम्पा केद के काव्य संसार में आकर इन सबके बारे में पाठक की दृष्टि प्रचलित मुखविरे और अर्थ से भिन्न रूप में महसूस होती है।
यह संकलन चम्पा वेद को अन्य कवियों से अलग और विशिष्ट बनाता हैं, जो पाठकों को खूब-खूब पसंद आयेगा।