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रोचक व ज्ञानवर्धक - बाल कविताएं

बाल कविता- करनी व्यर्थ न जाई


अच्छी करनी जो करें,

कभी बुरा न उस संग होए।

आओ सुनाऊं एक कहानी,

तन-मन पुलकित होए।

घने जंगल के बीच से,

गुज़र रहा था वह लकड़हारा।

तपती धूप में छांव तलाशता,

सोचता था विश्राम कर लूं दोबारा।

देखा तभी जाल में फंसे कौए को,

बिछे जाल से झट उसे निकाला।

आजादी का बोध कराकर,

झूमता मस्त चला लकड़हारा।

आम के पेड़ के डाल पर जा बैठा,

पोटली से रोटी, फिर उसने निकाला।

तभी कौवे ने झट से लपक कर,

लकड़हारे की रोटी लेकर भागा।

रोटी की लपक झपक के चक्कर में,

धपाक ज़मीन पर गिर पड़ा वो बेचारा।

मोच पैर में थी आई,

कमर पर भी चोट थी खाई।

गुस्से से वह लाल हो गया,

लकड़हारा फिर बहुत झल्लाया।

काक ने माफी मांगी यह कहकर,

"जो मैं रोटी ले कर न भागता,

डाल से लिपटा सांप फिर काटता।"

लकड़हारे को बात जब समझ आई,

धन्यवाद! कहकर रीत निभाई।

आधी-आधी रोटी मिलकर खाई,

दोनों ने अच्छी मित्रता की गांठ लगाई।

इस कहानी से सीख लो भाई,

"अच्छी करनी कहीं व्यर्थ ना जाई।"

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बाल कविता- आरूणि


एक अनोखा शिष्य था ऐसा,

परम आज्ञाकारी व व्यवहारिक,

मोहक, दया रूप था उसका।

गुरुकुल में शिक्षा अध्यापन कर,

सेवा भाव सदा मन में रख,

परोपकार था वो करता।

माता पिता व गुरुजनों की सेवा,

आरुणि का धर्म था सच्चा।

एक संध्या गुरुकुल से विदा ले,

सभी विद्यार्थी गृह की ओर थे चले।

बादल घिर कर आने थे लगे,

खेतों की मेड़ों, पगदंडी पर

घबराकर बालक दौड़ पड़े।

तभी गई नज़र एक खेत की मेड़ पर,

एक हाथ जितनी थी टूटी पड़ी,

ये देख अचंभित हुए सभी।

पर अकेला बालक आरुणि,

जिसने समय की गंभीरता को समझा।

झटपट टूटी मेड़ संग उसने,

अपने कोमल तन को जोड़ा,

लेटकर रोका जल के बहाव को।

उल्टे पांव सरपट सब भागे,

गुरु को सूचित किया सबने।

धान के खेत की उसने की रक्षा,

सुनकर आरुणि की महान दास्तां।

यह देख गुरु हुए फिर गर्वित,

गुरु का ऋण उतार दिया उसने।

मोल मिल गया गुरु को शिक्षा का,

आदर्श आचरण देख आरुणि का।

साहसिक कार्य कर पड़ा था मुर्छित,

आरुणि-गुरुभक्ति से हुए प्रसन्न चित।

आयोदधौम्य गुरु हुए धन्य देखकर,

आंखें भर आईं गले लगा कर।

आरुणि की भक्ति में थी सच्चाई,

गुरु शिष्य की परंपरा निभाई।


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बाल कविता- पक्षी है भाता सबको



डाल डाल पर फिरता हूँ,
सबके मन को भाता हूँ,
मस्त हो कर भजता हूँ।
राम नाम हो या हो गीत
झटपट दोहराने लगता हूँ।
अमरूद,मिर्च का स्वाद
सदा मन को भाता है।
आँखें गोल,पैनी चोंच
रंग हरे से लुभाता हूँ।
घर आँगन की बन शोभा,
मन को जीत लेता हूँ।
मैं और कोई नहीं हूँ
तोता हूँ, मैं तोता हूँ।


रंग बिरंगे पंख
सुंदर सुनहरा तन।
बादल देख मैं,
हो उठता मद मस्त।
झूम उठता है
तन मन,वन - वन।
लुभाता है नृत्य
सभी को जिसका।
राष्ट्रीय पक्षी हम सबका
केका स्वर में बोल
अंबर को वह देखता।
सर्प को झट खा लेता,
पैर देख दुखी वह होता।
पंख, श्याम मुकुट सजता
मोर राष्ट्रीय पक्षी कहलाता।

मैं संंदेशवाहक हूं।
आपके द्वार पर आकर
कांव कांव करता हूं।
कर्कश स्वर में बोला करता
वृक्षों, अंबर में विचरण कर
कोयल के घोंसले में रहता हूं।
रंग काला होने के खातिर
ईंट मार भगाया करते हैं।
अतिथि के आने की सूचना
मैं अपने संग लाता हूं।
कौआ मैं श्राद्ध पक्ष में ही
बस लोगों का प्यार पाता हूं।

हर पक्षी मन को भाता ,
बच्चों के मन को लुभाता है।
भिन्न-भिन्न रंगों रूपों में
प्रकृति की शोभा बढ़ाता है।
पक्षी वृंद आजादी से
दूर गगन में देश विदेश
सीमा से दूर उड़ जाते हैं।
पक्षियों को उड़ान भरते देख
बाल मन भी मचल उठता है
सपनों को पंख देकर
बच्चे खुश हो जाते हैं।




























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