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भावों का गुलदान

कविताएॅं

1. मेरा अभिनंदन तुम्हें।

स्नेह पुष्प है नमन तुम्हें,

हे मातृभूमि! मेरा अभिनंदन तुम्हें।

माटी कहती कहानी तेरी

कोख से जनमें सपूत कई,

शहीद वीरों को करुॅं भेंट सुमन।

जो अपनी सॉंसें देकर,

वादियों को गले लगाकर,

भूमि को सेज बनाकर,

पावन किए हमारा वतन।

स्नेह पुष्प है तुम्हें नमन,

मॉं के अश्रु से भींगा गगन

पथराई ऑंखें राह निहारती

पत्नी ,बच्चों का जो पूछो मन।

आस न रही बाकी कोई,

कहॉं गए जाने सजन ?

बिटिया का टूट गया है मन

पिता के साथ देखती थी स्वप्न।

बिखरा है उसका मन दर्पण

ये पीड़ा सहे कैसे आजीवन ?

स्नेह पुष्प है तुम्हें नमन,

पर उस मॉं का हिय

कितना है विशाल.

दूसरे पुत्र को फिर से

वतन को सौंप हुई निहाल।

एक नहीं सौ पुत्र भी जो होते

सीमा पर हम उसे भेजते।

राष्ट् प्रेम की वो दीवानी

किसी की बेटी, किसी की रानी।

ऐ मॉं! स्नेह पुष्प है तुम्हें नमन,

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2. वे वीर

कर्मभूमि को धर्म मानकर

जीवन देश के नाम किए।

हिन्दू नहीं, मुस्लिम नहीं

भारतीय होने का अभिमान किए।

ऋतु हो चाहे जो कोई भी

चाहे हो कोई पर्व-त्योहार ।

राष्ट् ध्वज थाम हाथों में

लहू देश के नाम किए।

रिश्तों की चौखट लॉंघ चले

प्रेयसी का दिल तोड़ चले।

घर-ऑंगन का स्नेह मन में

यादों की झोली लिए चले।

मॉं के पकवान की खुशबू को

भू की मिट्टी में खोज लिए।

धूप-छॉंव का आभास कहॉं ?

व्योम के शामियाने तले ।

पुत्र, पति,पिता वे किसी के

स्नेह,प्रेम,प्यार के सदके ।

शीश नमन वतन के लिए

सॉंसें मात्भूमि के नाम किए।

राष्ट् सेवा का संकल्प

ऑंखों में साकार किए ।

वे वीर कैसे थे ? जिन्होंने

उम्र देश के नाम किए ।

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3. ऐ वतन

आभार प्रकट करते हैं हम

ऐ वतन, तेरा सदा।

तेरी मिट्टी की खुशबू

मॉं के ऑंचल में है छुपा

कई लाल शहीद भी हुए

फिर भी माताओं ने सपूत दिए।

निर्भय हो राष्ट् के लिए जिए

और शहीद हो वो अमर हुए।

आभार प्रकट करते हैं हम

ऐ मातृभूमि, हम तेरा हमेशा।

धैर्य ,सत्यता, सहनशीलता

भू भाग से है हमें मिला।

खड़ा हिमालय उत्तर में धैर्यता से

धरा की थामें बाहें सदा।

अटल-अचल रहना समझाता

सहनशीलता वीरों को सिखलाता।

कठिनाई से न होना भयभीत

सत्य की सदा होती है जीत।

आभार प्रकट करते हैं हम

ऐ मातृभूमि, हम तेरा सदा।

हिय विशाल है सागर का

दक्षिण में लहराता तन उसका।

नदियॉं दर्पण-सी बहती कल-कल

समतल भूभाग से वो प्रतिपल।

झरने पर्वत से गिरती चलती

जैसे बालाएॅं ,सखी संग हॅसती।

खेत,वन सुंदर है उपवन

भू के गर्भ में छुपा है कंचन।

प्रशंसा कितनी करु मैं तेरी?

भर आती अब ऑंखें मेरी।

विराट हृदय है मातृभूमि तेरा

सो गए वो यहॉं, जो प्रिय था मेरा।

आभार प्रकट करते हैं हम

ऐ वतन! हरदम हम तेरा ।

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4. मानवता की रक्षा

समाज के दुःषासनों से,

मानवता की रक्षा करनी है।

चलो मिलकर आवाज उठाए,

अब और नहीं पीड़ा सहनी है।

पूरब से उदय होने दे सूर्य को,

न बदल तू अब अपनी दिशा।

लगता प्रलय होने को है फिर,

जो पश्चिम का हमने रुख लिया।

नन्ही कलियों को क्यों मसलता,

कोमल पुष्पों ने क्या दोष किया?

जो तू इंसा है तो फिर क्यो?

इन्सानियत को कैसे दफना दिया?

शिक्षित कर जन-जन में चेतना,

जो बढ़ जाए मानवता की उम्र।

आज के युवा कर तू रक्षा,

भविष्य देश का तुझ पर निर्भर।

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5 धरा की पुकार

मुझे बचाओ मैं !

खतरे में हूँ और आप भी ।

पृथ्वी रह-रहकर गुहार है लगाती

मैं ही तुम्हारी पालन हार

रक्षा का व्रत लो न करो संहार।

अनगिनत सपने मैं भी हूँ बुनती

हरी मखमली चादर हूँ ओढ़े।

जो स्नेह झरने न फूटते हमसे

तुम अवाक्् रह जाते वंश बढ़ता कैसे ?

सहसा स्मरण हो आया मुझे

उन सुनहरे दिनों का जब था।

आँगन हरा-भरा, श्यामल कोमल

चरणों के नीचे सागर लहराता था।

पवन के साथ लहरें गातीं थीं।

बगिया चमन का महकता और

कोयल अमिया पर कूका करती थी।

अब तन-मन हो चला है बंजर

सूखी पलकें, दर्द उर में है दबा।

चीख न सुन पाते तुम मेरी,

शीशे सा मन तार-तार है हुआ

दामन भी न पाक रहने दिया।

जो सोचते तुम मेरे अस्तित्व के

विषय में भूलकर भी कभी

दूषित न होने देते स्वच्छ आँचल यूँ ही ।

तुम्हारी ही बेटी,बहन हूँ मैं और

अब मॉं बन सब सहे जा रही हूँ पीड़ा

भू ,वसुंधरा,वसुधा ,भूमि ,

धरा नाम तुमने ही है दिया

फिर सेवक बन करो तुम सेवा।

रक्षक बन क्यों चीर हरते हो मेरा ?

मरुभूमि फिर न बनने देना तुम

सदा आभारी रहूँगी मैं तुम्हारी।

वसुधा नाम से जानी जाऊँ

घर आँगन सुनहरा बनाकर-

माँ तुम्हारी कहलाऊँ और

जाऊँ तुम पर वारी- वारी

मानवता का वस्त्र धारण जो कर लो ।

शायद तब न चीख सुनाई दे हमारी

मुझे बचाओ ! मुझे बचाओ !

मैं अबला असहाय बेचारी !

-------------- अर्चना सिंह‘जया’

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