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अंतरा

मंगला

मंगल यानि जीवन में सब शुभ ही शुभ। फिर तो मंगला के जीवन में सब मंगल ही मंगल होना चाहिए पर जीवन की कठिन परिस्थितियों से जूझती मंगला जीवन के एक ऐसे पड़ाव पर खड़ी थी जहा उसे अपने स्त्रीत्व होने पर गर्व की बजाए अफसोस हो रहा था। हो भी क्यों नहीं ? समाज जैसे पुरुषों के ताने बाने से ही बुना गया हो जहां स्त्री की भावनाओं का कोई महत्व ही नहीं ।

यह बात स्कूल के दिनों की है जब मैं चैथी कक्षा में थी, मेरी सहेली मंगला एक दिन गुमसुम अकेली बैठी थी तभी मैंने उसके करीब जाकर टिफिन की डिब्बी बढ़ाते हुए पूछा, ‘‘क्यों आज तुम टिफिन नहीं लाई हो?’’ उसने रुवासे स्वर में कहा, ‘नहीं । भाभी मुझसे नाराज हो गईं और टिफिन नहीं दीं।’ मेरे दिमाग में प्रश्न दौड़ने लगे और मैंने पूछा, ‘ क्यों मा ......’। अभी प्रश्न पूर्ण भी नहीं हुए थे कि मंगला रो पड़ी और कही, ‘ माँ नहीं है।’ बस इतना सुनते ही मेरे पैरों तले जमीन ही खिसक गई। मैं माँ के बगैर जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकती थी। बस, स्कूल में एक मुलाकात और मित्रता का आरंभ हो गया। दोनों प्रतिदिन स्कूल में साथ-साथ ही समय व्यतीत किया करते उसके चेहरे पर मासूमियत तो थी पर माथे पर चिंता की लकीरें स्पष्ट नज़र आतीं थीं। घर पर भाभी की डाट फटकार, पिता के पास धन का अभाव और छोटे दो भाईयों की जिम्मेदारी भी मंगला के हिस्से ही आ गई थी। छुट्टी के दिन भाभी के काम में हाथ बॅटाना, भाईयों के कपड़े धोना आदि जैसे मंगला के समय सारणी में था।

हमारे घर का माहौल मंगला के घर के बिल्कुल ही विपरीत था। हम तीन बहनें ही थीं। हमें षिक्षा प्राप्त करने में किसी भी प्रकार की पाबंदी नहीं थी, माँ का सहयोग बराबर ही मिलता रहा। माँ सदा से ही हमें शिक्षा के महत्त्व को समझाया करती थीं, स्वावलंबी बनने को प्रेरित किया करती थीं। पिताजी भी बदलते समय के साथ अपने विचारों में भी परिवत्र्तन लाते थे। मंगला की शादी बारहवीं पास होकर ही हो गई थी जबकि मेरी एम एस सी, एम एड के बाद हुई थी। षादी के बाद भी मैंने पी एच डी पूरी की। मेरी शादी एक सुशिक्षित परिवार में हुई।

मंगला षादी के पष्चात् बनारस चली गई थी। उसका पति इंटर कालेज का मास्टर हुआ करता था, षादी के पाँच वर्ष में ही दो बेटे हो गए थे। मैंने उसे पत्र लिखकर बधाई भी दी, ‘‘ अब तो बड़े मजे हो रहे होंगे, ईष्वर ने तुम्हें छोटा और सुखी परिवार दिया है।’’ कई वर्ष बीत गए किन्तु पत्र का जवाब नहीं आया। धीरे-धीरे महीने, साल बीतते चले गए मैं भी अपने परिवार की जिम्मेदारियों में व्यस्त होती चली गई। जीवन के उधेड़ बुन में वक्त का पता ही नहीं चला। मेरी बेटी भी बड़ी हो गई, उसने एम बी ए बैंगलोर के कोलेज में दाखिला ले लिया था। मैं जिस स्कूल में पढ़ाती थी उसमें गर्मी की छुट्टियाॅं आरंभ हो चुकी थीं तो मैंने मायके मेरठ जाने का निर्णय लिया। जिस ट्ेन से मैं मेरठ जा रही थी उसी में मंगला भी अपने बड़े बेटे के साथ सफर कर रही थी। एक दूसरे को देखकर हमारे खुशी का ठिकाना ही नहीं रहा, मंगला के आॅंखों से आॅंसू छलक पड़े। मैं समझ बैठी कि खुशी के आॅंसू हैं पर ये मेरी भूल थी। घंटों हम दोनों ने बातें की।

आज मैं कई बातों को समझ पाने में असमर्थ थी। सच ईश्वर किसी की परीक्षा जीवन के अंतिम पड़ाव तक लेता रहता है। ईश्वर पर आस्था की डोर कमजोर पड़ रही थी। मंगला के जीवन पर जैसे शनिचर देवता का प्रभाव हो। पुरुष प्रधान समाज में तो मेरे विचार से पुरुषों का ही दायित्व होना चाहिए कि वह बहन, बेटी, बीवी व माँ की जिम्मेदारी उठाए। वह स्त्री के अस्तित्व का मान रखे। आखिर समाज की प्रथा क्या है? कई घरों में अगर स्त्री बेटी को जन्म देती है तो यातनाए सहती है, सुंदर व्यवहारिक कुशल नहीं है तो शादी में मुश्किलें आतीं हैं। किन्तु मंगला तो शिक्षित, कुशल और दो बेटों की माँ थी फिर क्यों पति के प्यार से वंचित थी?

अब स्टेशन पर उतर कर हम दोनों ऑटो में बैठ कर अपने अपने घर की ओर चल पड़े। मंगला को लेने उसके जेठ आये थे। मंगला के पति तीन भाई, वो तीसरे नम्बर पर थी। मंगला के बड़े बेटे को कुछ दिमागी समस्या थी वो उसे ही दिखाने दिल्ली अक्सर आया करती थी। मैं अपने घर पहुचकर माँ को मंगला के विषय में बताई। माँ ने कहा, ‘बेचारी मंगला और उसका नसीब।’ माँ ने कहा, ‘ समय भी लाचार व बेबस होता है उसे किसी के दुःख या सुख से कोई मतलब नहीं होता। उसे पल-पल गुजरना ही पड़ता है वो ठहरना जैसे जानता ही नहीं।’ माँ की बातें सुनकर मैंने कहा, ‘अच्छा ही है न माँ वरना दुःख के पल थम जाए तो क्या हो?’ ‘ पर बेटा, ये क्या? मंगला के जीवन से दुःख के पल क्यों नहीं गुजर जाते हैं ? हां, ये प्रष्न सोचने वाली जरुर थी।

अगली सुबह हम मेज पर साथ बैठे नाश्ता कर रहे थे पिताजी सब्जी लेने बाजार जा चुके थे। माँ ने खीर मेरी तरफ बढ़ाया, मैं माँ की हाथों के खीर की दिवानी थी। उसी पल मैं कुछ सोचने लगी कि मंगला ने कभी षायद ऐसे स्नेह का आनंद ही नहीं जाना होगा। माँ से ज्ञात हुआ कि मंगला का पति इतिहास का लेक्चरर है। वह कभी भी अपने परिवार को मिर्जापुर ले ही नहीं गया, मंगला हमेषा अपने जेठ, जठानी, उनके बच्चे और सास के साथ गाव पर ही रही। पति समय असमय अपने परिवार से मिलने आ जाया करता था। षायद तनख्वाह की समस्या रही होगी, पर कुछ लोग कहते हैं कि पति का कुछ चक्कर है। दस पंद्रह वर्षों में उसने न कोलेज बदला और न षहर ही। न ही परिवार को साथ में रखने की इच्छा ही कभी व्यक्त की। ईष्वर ही जाने क्या सच्चाई थी? मंगला ने उस परिवार को वंष तो दिया पर वंष देने वाली का कोई कद्र ही नहीं था। उसने अपनी जिंदगी से समझौता ही कर लिया था, दोनों बच्चे ही अब उसकी प्राथमिकता थी। वह उन्हें षिक्षित करने में जुट गई।

आज मैं समझने में असमर्थ हो रही थी कि आखिर समाज में स्त्रिया ही समझौते का पात्र क्यों बनती हैं। मान-मर्यादा का बोझ उसे ही क्यों ढ़ोना पड़ता है? तभी फोन की घंटी बजी, दूसरी ओर महेष थे।महेष, माँ का दामाद पर वह बिल्कुल बेटे की ही तरह है। महेष का मानना है कि मेरे माता पिता को बेटे की कमी न महसूस हो। सच मेरे किसी अच्छे कर्म के फल होंगे जो मैंने महेष जैसा पति पाया। माँ ने पूछा, ‘किससे बातें हो रही हैं?’ मैंने माँ को गले लगाते हुए कहा, ‘तुम्हारे बेटे से। जो बात-बात पर तुम लोगों की खैरियत जानना चाहता है।’ तभी पिताजी ने आवाज लगाई, ‘मेरा बेटा जो ठहरा। लो थैला पकड़ो, तुम्हारे लिए गरम-गरम जलेबियाॅं भी लाया हॅूं ।’ मायके का सुख क्या होता है कोई मुझसे पूछे। मंगला के नसीब में न तो मायके का और न ही ससुराल का सुख था।

मंगला के जेठ का घर सड़क जहा खतम होती थी उसी के चैराहे के पास में था। दो दिन के बाद मैंने अपनी कामवाली से मंगला को खबर भिजवाया कि षाम को पास के पार्क में मिलते हैं । षुक्रवार की षाम पाँच तीस के आस पास हम पार्क में मिले । मूंगफली खाते-खाते हम दोनों ने पुरानी यादें ताज़ा की। मैंने उसके पति की चर्चा की तो वो जैसे उदास हो गई। कहने लगी, ‘बस कुछ और पूछ ले । इस रिष्ते में हम क्यों बंधे हैं ? ये हमें भी नहीं पता। बस मुझे बच्चों की चिंता ही सताती है। उन्हें अपने बच्चों की भी परवाह नहीं रहती । ’

‘उन्हें कोई समझाता क्यों नहीं ? घर में जो उनसे बड़े हैं उन्हें समझाना चाहिए।

‘हमारे रिष्ते में भावुकता का कोई स्थान ही नहीं है। मैं उस परिवार की बहू तो हू पर पत्नी होने का गर्व नहीं महसूस होता है।’

‘मगर तुम उस परिवार से क्यों जुड़ी ? क्योंकि तुम्हारी षादी उस परिवार के लड़के से हुई है न। ’

‘चलो छोड़ो, अब आदत सी हो गई है। ज्यादा सोचती हू तो बीमार हो जाती हॅूं।’

‘जीवनभर सिर्फ दूसरों के करने का ठेका ले रखा है क्या? तुम्हारा कोई अस्तित्व है या नहीं। मंगला, तुम्हारे इसी आदत से मुझे गुस्सा आता है। सभी तुम्हारी अच्छाई का फायदा उठाते हैं।’

‘ओह हो! चल रहने दे अब। मुझे सोमवार को दिल्ली में डाक्टर से मिलना है। प्रार्थना कर की मेरा बेटा जल्दी ही स्वस्थ हो जाए।’ मंगला इतना कहते हुए मुझसे लिपट गई और उसकी आँखे भर आई। रुवासे स्वर में ही घर वापस जाने की अनुमति ले ली। मेरा गला जैसे भर आया, मैं भी उसे रोक नहीं पाई। हां, पैसे की अगर जरुरत हो तो कहना ।

मंगला में उदारता, मृदुभाषी, मेहनती, परोपकारी आदि जैसे सभी गुण मौजूद थे किंतु लोगों को नज़र क्यों नहीं आते थे ? मैं उससे मिलकर बेचैन हो गई थी, उसके दर्द ने ईष्वर की आस्था को भी हिला दिया। आखिर उसके जीवन में सवेरा कब होगा ?

मंगलवार की सुबह थी गौरैये की चहचहाहट के साथ सूर्य की किरणें अपनी बाहें फैला रही थीं, पिताजी हमेषा की तरह ही बाजार सब्जी लेने निकल गए। मैं नाष्ता बनाने रसोई में माँ के साथ चली, माँ दोपहर के खाने की भी तैयारी साथ-साथ करने लगी थीं। जैसे ही पिताजी बाजार से आए हम साथ बैठकर नाष्ता करने लगे।

पिताजी ने पूछा, ‘ हू हू ये पोहा जरुर बिटिया ने बनाया होगा।’

माँ ने कहा, ‘ हा, आपकी लडली ने बनाया है।’

‘मेरे ससुर जी को भी मेरे हाथ के पोहे पसंद आते हैं।’

‘चल सब ईष्वर की कृपा है जो तुझे इतना अच्छा परिवार मिला। बस यॅूं ही सबका ख्याल रखना ।’ पिताजी ने कहा।

सच मैं भी भगवान का शुक्रिया करने लगी। तभी मैंने सोचा मंगला तो कितना पूजा पाठ भी करती है फिर ईष्वर उसकी क्यों नहीं सुनता ? बस मन फिर से मंगला की परिस्थितियों पर विचार करने लगा। तभी मेरी दृष्टि दिवार घड़ी पर पड़ी दोपहर के 12 बजने वाले थे । एक घंटे में मंगला दिल्ली से यहां पहुॅंचने वाली थी। मुझे इंतज़ार था कि डाॅक्टर ने क्या कहा होगा ?

अचानक पिताजी बाहर के दरवाजे़ से घबड़ाते हुए अंदर आए और कहने लगे, ' ईश्वर ने ये अच्छा नहीं किया।’ माँ पिताजी को पानी देने लगी, मैं बाहर की ओर भागी कि आखिर पिताजी ने ऐसा क्या देखा-सुना ? सड़क पर कोलाहल था सभी चैराहे की ओर भागते दिखाई दिए। मैंने तभी एक व्यक्ति से पूछा, ‘ क्या बात है?’ उसने घबड़ाते हुए बताया कि सड़क दुर्घटना हुई है माँ-बेटे दोनों ही नहीं रहे। मैं फिर भी समझ नहीं पाई। कुछ-कुछ आगे बढ़ती गई, मन व्याकुल सा होने लगा। तभी उधर से मेरी कामवाली भागती हुई आई, मुझे रोकते हुए बोली, ‘ दीदी आप मत जाओ उधर नहीं देख पाओगी, मंगला और उसके बेटे का चेहरा पहचाना नहीं जा रहा है। पुलिस भी आई है।’ मैं चीख पड़ी, ‘अम्मा ये क्या कह रही हो ? कुछ गलतफहमी हुई होगी तुम्हें ।’ ‘मंगला के साथ इतना भी बुरा नहीं हो सकता’ कहते-कहते मैं बेसुध हो गई। कुछ घंटे में जब मेरी आँखे खुलीं तो मैं स्वयं को अपने बिस्तर पर पाई, माँ- पिताजी पास में ही बैठे थे। माँ ने सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘ जो ईष्वर की इच्छा। उसके आगे हमसब बेबस हैं।’ मैं फूट-फूट कर रोने लगी, माँ ने बहुत समझाया। मैं समझने की कोशिश कर रही थी पर मेरे सवाल अभी भी वही थे कि क्या मंगला के जीवन में कुछ मंगल था भी कभी ? वो सिर्फ नाम की ही मंगला थी।

--- अर्चना सिंह‘जया’

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